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कर्म - साहित्य में तीर्थङ्कर प्रकृति
जैन परम्परा में तीर्थंकर' अत्यन्त आदर प्राप्त विशिष्ट पारिभाषिक पद है। ज्ञानावरणादि चार घातिकर्मों का क्षय कर जो महापुरुष केवल ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ/संघ की स्थापना करते हैं, उन्हें तीर्थकर कहा जाता है। सामान्य केवल ज्ञानियों एवं तीर्थंकरों में ज्ञान की दृष्टि से समानता है, किन्तु तीर्थ-प्रवर्तन अष्ट महाप्रातिहार्य आदि की दृष्टि से पर्याप्त भिन्नता है। तीर्थकर के सम्बन्ध में आगम-साहित्य, पुराण साहित्य एवं चरित-साहित्य के साथ कर्म-साहित्य में भी चर्चा प्राप्त होती है। जैन परम्परा में 'तीर्थंकर' नामक एक कर्म प्रकृति स्वीकार की गई है, जो केवलज्ञान होते ही तीर्थंकर के उदय में आती है। प्रस्तुत आलेख में तीर्थंकर की महिमा का सामान्य परिचय प्रदान करने के अनन्तर कर्म-सिद्धान्त के आधार पर तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध, उदय, उदीरणा एवं सत्ता से सम्बद्ध विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। कर्म-साहित्य में संप्राप्त निरूपण से तीर्थकर की अवधारणा पर विशेष प्रकाश प्राप्त होता है।
तीर्थड्कर का वैशिष्ट्य
जिस जीव के नामकर्म की तीर्थकर नामक प्रकृति का उदय रहता है, उसे तीर्थकर कहा जाता है। तीर्थंकर का यह लक्षण कर्म-सिद्धान्त के अनुसार है। तीर्थकर के गुणवर्णन में शक्रस्तव जैसे अनेक स्तुति-पाठ एवं स्तोत्र उपलब्ध हैं। आगम, पुराण, महाकाव्य, इतिहास, स्तोत्र-साहित्य आदि में तीर्थंकर के स्वरूप एवं महत्त्व का प्रतिपादन हुआ है। तीर्थंकर केवलज्ञानी होते हैं, किन्तु सामान्य केवली एवं तीर्थकर में महद् अन्तर होता है। तीर्थंकर अष्ट महाप्रातिहार्यों से युक्त होते हैं, किन्तु केवली उनसे युक्त नहीं होते । तीर्थकर नामकर्म के विपाकोदय के पूर्व ही गर्भस्थ बालक की माता द्वारा 14 स्वप्न देखना, 64 इन्द्रों द्वारा पूजा-भक्ति करना आदि अनेक कारणों से तीर्थंकर की महिमा विशेष है। तीर्थंकर 1008 लक्षणों एवं 34 अतिशयों से सम्पन्न होते हैं।' उनकी वाणी में 35 विशिष्ट गुण माने गए हैं, जबकि सामान्य केवली में इनका होना आवश्यक नहीं है। तीर्थकर लोकहित की भावना से समस्त जीवों की रक्षा-दया के लिए प्रवचन फरमाते हैं। तीर्थंकर की