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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
मुख्य विशेषता है कि वे साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका रूप चतुर्विध संघ के प्रणेता होते हैं। भगवतीसूत्र में अरिहन्त को तीर्थंकर कहा गया है ।' तीर्थंकर के पंच कल्याणक मान्य हैं, सामान्य केवली के नहीं। तीर्थंकर प्रकृति का इतना प्रभाव होता है कि इसके उदय से पूर्व ही तीर्थंकर इन्द्रों के पूजनीय बन जाते हैं।
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय एवं मोहनीय इन चार घाती कर्मों का क्षय करने की दृष्टि से तीर्थंकर एवं सामान्य केवली में कोई भेद नहीं होता, किन्तु दोनों के अतिशय में बड़ा भेद है और इसका कारण तीर्थंकर नाम प्रकृति है। दिगम्बर ग्रन्थ धवला टीका में कहा गया है- 'जस्स कम्मस्स उदएण जीवस्स तिलोगपूजा होदितं तित्थयरं णाम ।' अर्थात् जिस कर्म के उदय से जीव की त्रिलोक में पूजा होती है, वह तीर्थंकर नाम कर्म है। सर्वार्थसिद्धि में इसे आर्हन्त्य का कारण बताया गया है ।' तीर्थ का एक अर्थ द्वादशांग गणिपिटक भी किया जाता है, क्योंकि उसके आलम्बन से संसार - समुद्र को तैरा जा सकता है। विशेषावश्यकभाष्य में उल्लेख है कि तीर्थंकर भी तीर्थ को नमस्कार करते हैं- नमस्तीर्थाय । ' इससे तीर्थ का महत्त्व उद्घाटित होता है। तीर्थ के महत्त्व से तीर्थंकर का महत्त्व स्वतः बढ़ता है। तीर्थ के अन्तर्गत श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका रूप चतुर्वर्णों की गणना होती है। '
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तीर्थंकर की गणना 54 महापुरुषों में होती हैं। 54 महापुरुष हैं - 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव और 9 वासुदेव । इनमें 9 प्रतिवासुदेवों की संख्या मिलाने पर 63 शलाकापुरुष कहे गए हैं। " इनमें तीर्थंकर को छोड़कर अन्य किसी महापुरुष की ऐसी कर्म-प्रकृति का उल्लेख नहीं मिलता जिसके कारण उन्हें चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव या प्रतिवासुदेव कहा जा सके। मात्र तीर्थंकर ही ऐसे महापुरुष या - पुरुष हैं, जिनको तीर्थंकर नाम कर्म - प्रकृति का गौरव प्राप्त है।
शलाका
इस तीर्थंकर नाम कर्म के आधार पर चिन्तन किया जाये, तो आगम एवं कर्मविषयक-साहित्य में तीर्थंकरों के सम्बन्ध में अनेक नये तथ्य उद्घाटित होते हैं। जब यह निश्चित है कि तीर्थंकर नामक एक कर्मप्रकृति का उदय होने पर ही कोई केवली तीर्थंकर बनता है, तो वह कर्म - प्रकृति किस प्रकार बँधती है ? कौन से जीव