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अनेकान्तवाद का स्वरूप और उसके तार्किक आधार
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द्रव्यपर्यायात्मक एवं नित्यानित्यात्मक आत्मा में ये दोष नहीं आते हैं । वहाँ पर द्रव्य की दृष्टि से एकत्व भी बना रहता है तथा पर्याय की दृष्टि से फलभोग आदि भी प्राप्त होते रहते हैं। तृतीयतर्क- स्वरूपतः वस्तु अनेकान्तात्मक है, क्योंकि वह हमें वैसी ही अनुभव में आती है। भट्ट अकलंक ने सिद्धिविनिश्चय में यह तर्क देते हुए कहा है
न पश्यामः क्वचित् किञ्चित् सामान्यं वा स्वलक्षणम्।
जात्यन्तरं तु पश्यामः ततोऽनेकान्तहेतवः।। कहीं भी मात्र सामान्य एवं मात्र विशेष वस्तु दिखाई नहीं देती है, सर्वत्र जात्यन्तर सामान्यविशेषात्मक वस्तु दृष्टिगोचर होती है, इसलिए वस्तु अनेकान्तात्मक है। ___ हमें भेदाभेदात्मक रूप में ही किसी अर्थ का ज्ञान होता है, द्रव्यपर्यायात्मक अर्थ का ही बुद्धि में प्रतिभास होता है-द्रव्यपर्यायात्मनोऽर्थस्यबुद्धौ प्रतिभासनात्।।" चतुर्थ तर्क- अनेकान्तात्मक वस्तु में ही प्रमाणप्रमेय व्यवहार सिद्ध होता है, क्योंकि उसमें किसी प्रकार का दोष नहीं आता। अनेकान्तजयपताका में ऐसा हरिभद्रसूरि स्पष्टतः कथन करते हैं "अतोऽनेकान्तात्मक एव वस्तुतत्त्वे प्रमाणप्रमेयव्यवहारसिद्धिरुक्तवत् सकलदोषविरहादिति। हरिभद्रसूरि ने सभी एकान्तवादों का निरसन करने के पश्चात् यह कथन किया है।
हेमचन्द्रसूरि भी 'प्रमाणमीमांसा' में कहते हैं- द्रव्यपर्यायात्मकः प्रमाणविषयः प्रमाणविषयत्वान्यथानुपपत्तेः। न हि प्रत्यक्षतः स्वलक्षणं पर्यायमात्रं सन्मात्रमिवोपलभामहे। नाप्यनुमानादेः सामान्यं द्रव्यमानं विशेषमात्रमिव प्रतिपद्येमहि सामान्य-विशेषात्मनो द्रव्यपर्यायात्मकस्य जात्यन्तरस्योपलब्धः प्रवर्तमानस्य च तत्प्राप्तः अन्यथाऽर्थक्रियानुपपत्तेः।" प्रमाण का विषय द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु होती है, क्योंकि उससे भिन्न प्रमाण का विषय सम्भव नहीं, क्योंकि प्रत्यक्षतः स्वलक्षण या पर्यायमात्र वस्तु उपलब्ध नहीं होती है, अनुमानादि प्रमाणों से विशेष की भांति सामान्य या द्रव्यमात्र वस्तु का बोध नहीं होता है, क्योंकि वस्तु सामान्यविशेषात्मक, द्रव्यपर्यायात्मक अथवा जात्यन्तर स्वरूप में ही उपलब्ध