________________
137
अनेकान्तवाद का स्वरूप और उसके तार्किक आधार
एकान्त अनित्यवाद में सुख-दुःख के भोग, पुण्य-पाप और बन्ध मोक्ष की भी व्यवस्था नहीं बनती- नैकान्तवादे सुख-दुःख भोगौ, न पुण्यपायेन च बन्धमोक्षौ "
न्याय-वैशेषिक मत में 'अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपं नित्यम्' परिभाषा के अनुसार अप्रच्युत, अनुत्पन्न, स्थिर और एकरूप वस्तु को नित्य माना गया है । नित्य आत्मा में सुख-दुःख की उत्पत्ति नहीं हो सकती । नित्य आत्मा सुख का भोग या दुःख का उपभोग करने लगे तो अपने नित्य और एक स्वभाव को छोड़ने के कारण, आत्मा में स्वभावभेद होने से आत्मा को अनित्य मानना होगा । सुख पुण्य से एवं दुःख पाप से होते हैं, नित्य आत्मा में या तो पुण्य ही होगा या पाप ही । पुण्य-पाप से होने वाली अर्थक्रिया कूटस्थ नित्य आत्मा में नहीं हो सकती । बन्ध और मोक्ष की व्यवस्था भी एकान्त नित्यवाद में नहीं बन सकती । एकान्त नित्य मानने पर उसके साथ कर्मों का बन्ध नहीं हो सकता । यदि उसमें अनादि बन्ध माना जाता है तो मोक्ष नहीं हो सकता, अन्यथा नित्यता भंग हो जाएगी ।
एकान्त अनित्यवाद में भी इसी प्रकार सुख - दुःख के भोग, पुण्य-पाप और बन्ध - मोक्ष की व्यवस्था नहीं बनती। आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा में कहा हैपुण्यपापक्रिया न स्यात्, प्रेत्यभावः फलं कुतः । बन्धमोक्षौ च तेषां न येषां त्वं नासि नायकः ।। क्षणिकैकान्तपक्षेऽपि प्रेत्यभावाद्यसम्भवः । प्रत्यभिज्ञाद्यभावान्न कार्यारम्भः कुतः फलम् ।।
36
आचार्य समन्तभद्र ने क्षणिकैकान्त एवं नित्यैकान्त पक्षों में परलोक-गमन
भी असम्भव बताया है, क्योंकि नित्यैकान्त में पुण्य एवं पाप क्रिया ही सम्भव नहीं होती है परलोक में फल की प्राप्ति कहाँ से होगी ? उसमें बन्ध-मोक्ष भी सम्भव नहीं है । क्षणिकैकान्त पक्ष में भी प्रेत्यभाव आदि असम्भव है, उसमें प्रत्यभिज्ञा आदि का अभाव होने से कार्य का प्रारम्भ ही नहीं हो सकता है तो फल प्राप्ति कैसे होगी? नवम तर्क - अनेकान्तवाद से ही स्मृति आदि का व्यवहार सम्भव है । एकान्तवाद में स्मृति एवं प्रत्यभिज्ञान का प्रामाण्य नहीं बनता और इनके अभाव में व्याप्ति का ग्रहण न होने से अनुमान प्रमाण की भी प्रवृत्ति नहीं हो सकती । नित्यानित्यात्मक या