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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
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सामान्यविशेषात्मक वस्तु में ही स्मृति एवं प्रत्यभिज्ञान का प्रामाण्य शक्य है । इनके प्रामाण्य को संव्यवहार से स्वीकार किए बिना अनुमान का भी प्रामाण्य सम्भव नहीं । इसलिए वस्तु को अनेकान्तात्मक मानना आवश्यक है । वेदान्ती एवं बौद्ध दोनों ही अनुमान को संव्यवहार से प्रमाण मानते हैं, उनके यहाँ इसका इसीलिए पारमार्थिक प्रामाण्य स्वीकृत नहीं है ।
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दशम तर्क- व्यवहार की निष्पत्ति अनेकान्तवाद से ही सम्भव है । सिद्धसेन दिवाकर ने अनेकान्तवाद एवं नयवाद की स्थापना में पुरुषार्थ किया। उनका कथन है कि अनेकान्त को स्वीकार किए बिना लोकव्यवहार नहीं चल सकता ।
जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वडइ । तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमो अणेगंतवायस्स ।। "
भुवन के एकमात्र गुरु उस अनेकान्त को नमस्कार है जिसके बिना लोक का व्यवहार भी नहीं चल सकता। विमलदास ने सप्तभंगीतरंगिणी में कहा है कि अनेकान्तवाद ही युक्ति तथा अनुभव रूप कसौटी पर खरा ठहरता है, अतः वही निर्विवाद रूप से स्थिर है तथा अनन्तधर्मात्मक वस्तु स्वयं प्रमाण से प्रतिपन्न हैअनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनः स्वयं प्रमाणप्रतिपन्नत्वेनाभ्युपगमात् ।।
उपसंहार
जैन दार्शनिकों ने अनेकान्तवाद के स्थापन एवं एकान्तवाद के निरसन में जो तर्क दिए हैं, वे अनुभव एवं व्यवहार को केन्द्र में रखकर दिए हैं । उनकी दृष्टि में जगत् यथार्थ है एवं उसकी यथार्थता में अनेकान्तात्मकता ही मुख्य कारण है । जैनों की यह तत्त्वमीमांसीय अनेकान्तदृष्टि ही ज्ञानमीमांसा एवं आचारमीमांसा के क्षेत्र में
आत हुई है। आज अनेकान्तदृष्टि को सम्यक् सोच का पर्याय समझा जा रहा हैं, जिससे कलह, तनाव आदि को दूर कर वैयक्तिक, पारिवारिक एवं सामाजिक समरसता का संचार किया जा सकता है । इस लेख में अनेकान्तवाद के कतिपय तार्किक आधारों का निरूपण किया गया है । अन्वेषण करने पर अन्य आधार भी सामने आ सकते हैं । इन आधारों को समझने पर तथा द्रव्य पर्याय दृष्टियों को समझने पर वस्तु में रहने वाली ध्रुवता एवं उत्पादव्ययता को ठीक से समझा जा