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कारण-कार्य सिद्धान्त एवं पंचकारण-समवाय
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पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ।। -ऋग्वेद 10.4.90.2 अर्थात् जो कुछ विद्यमान है, जो कुछ उत्पन्न हुआ है और जो उत्पन्न होने वाला है तथा जो अमृतत्व का ईश है और अन्न से आविर्भाव को प्राप्त होता है वह पुरुष ही है। इस पुरुषवाद का वर्णन ऐतरेयोपनिषद्, तैत्तिरीयोपनिषद्, श्वेताश्वतरोपनिषद्, प्रश्नोपनिषद् आदि उपनिषदों में भी प्राप्त होता है। वहाँ कहीं पुरुष एवं कहीं ब्रह्म शब्द का प्रयोग किया गया है । छान्दोग्योनिषद् में 'सर्वखल्विदं ब्रह्म" वाक्य में उसे ब्रह्म कहा है । तैत्तिरीयोपनिषद् की भृगुवल्ली, अनुवाक् 1 में कहा है- "यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति। यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति। तद्विजिज्ञासस्व। तद् ब्रह्मेति।" जिससे ये प्राणी उत्पन्न होकर जिसके साथ जीते हैं तथा जिसमें मिल जाते हैं, उसे जानो, वह ब्रह्म है।"
इस प्रकार यह पुरुषवाद ही ब्रह्मवाद के रूप में वर्णित है। इस पुरुषवाद का ही ईश्वरवाद के रूप में भी विकास हुआ है। पुराण, महाभारत, रामायण एवं मनुस्मृति ग्रन्थ इसके साक्षी हैं। यह विशेष बात है कि उस जगत्स्रष्टा पुरुषवाद का वर्णन पूर्वपक्ष के रूप में जैन ग्रन्थों में भी हुआ है। मल्लवादी क्षमाश्रमण (5वीं शती) के द्वादशारनयचक्र में उस पुरुष को सर्वात्मक एवं सर्वज्ञ प्रतिपादित करने के साथ उसकी चार अवस्थाएं बताई गई हैं, यथा- जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और तूर्य। इन चार अवस्थाओं का वर्णन माण्डूक्योपनिषद् में भी प्राप्त होता है। वहाँ जगत के साथ पुरुष का ऐक्य स्वीकार किया गया है। जिनभद्रगणि (6-7वीं शती) ने विशेषावश्यकभाष्य' में एवं अभयदेवसूरि (10-11 वीं शती) ने सन्मतितर्कटीका में पुरुष के स्वरूप को उपस्थापित किया है। अभयदेवसूरि ने पुरुषवाद के अनुसार समस्त लोक की स्थिति, सर्ग और प्रलय का हेतु उस पुरुष को बताया है।
मल्लवादी क्षमाश्रमण, जिनभद्रगणि एवं अभयदेवसूरि ने अपनी कृतियों में पुरुषवाद का आमूल उत्पाटन किया है। मल्लवादी के अनुसार पुरुष की अद्वैतता, सर्वगतता एवं सर्वज्ञता सम्भव नहीं है। उन्होंने पुरुष की जाग्रत् आदि चार अवस्थाओं का भी निरसन किया है। अभयदेवसूरि ने विभिन्न तर्क देते हुए कहा