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कारण-कार्य सिद्धान्त एवं पंचकारण-समवाय
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है- "न च नियतिमन्तरेण स्वभावः कालो वा कश्चिद् हेतुः यतः कण्टकादयोऽपि नियत्यैव तीक्ष्णादितया नियताः समुपजायन्ते न कुण्ठादितया।' अर्थात् नियति से भिन्न कोई स्वभाव अथवा काल हेतु नहीं है, क्योंकि कण्टकादि भी नियति से ही तीक्ष्णादि होते हैं, कुण्ठादि नहीं होते। दिगम्बर ग्रन्थ स्वयम्भूस्तोत्र, अष्टशती, गोम्मटसार एवं स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में भी नियति का स्वरूप विवेचित हुआ है। गोम्मटसार में कहा है
जत्तु जदा जेण जहा जस्स य णियमेण होदि तत्तु तदा।
तेण तहा तस्स हवे इति वादो णियदिवादो हु ।। -गोम्मटसार, कर्मकाण्ड अर्थात् जो जब, जिसके द्वारा, जिस प्रकार, जिसके नियम से होना होता है वह तब, उसके द्वारा, उसी प्रकार उसके होता हो तो यह नियतिवाद है। नियतिवाद में घटना की पूर्ण व्यवस्थिति सुनिश्चित है। भट्ट अकलंक ने अष्टशती में भवितव्यता से सम्बद्ध श्लोक उद्धृत किया है, जिसका आशय है कि जैसी भवितव्यता होती है व्यक्ति की वैसी बुद्धि हो जाती है, वैसा ही प्रयत्न होता है तथा सहायक भी वैसे ही मिल जाते हैं। __जैनदार्शनिक जहाँ नियतिवाद को पूर्व पक्ष के रूप में प्रस्तुत करने में निपुण हैं, वहाँ वे उसकी एकान्त कारणता का निरसन करने में भी दक्ष हैं। जैनदार्शनिकों के कतिपय तर्क द्रष्टव्य हैं1. सूत्रकृतांगसूत्र में नियतिवाद के निरसन में कहा गया है कि कोई सुख-दुःख
पूर्वकृतकर्म जन्य होने से नियत होते हैं तथा कोई सुख-दुःख पुरुष के उद्योग, काल आदि से उत्पन्न होने से अनियत होते हैं। इसलिए एकान्त नियति को
कारण मानना समुचित नहीं। 2. नियतिवाद को स्वीकार करने पर शुभ क्रिया के पुरुषार्थ की आवश्यकता नहीं
रहती, इसलिए नियतिवादी विप्रतिपन्न हैं। 3. नियति को अंगीकार करने पर हित की प्राप्ति एवं अहित के परिहार के लिए
उपदेश निरर्थक हो जाता है। 4. नियति की एकरूपता होने पर कार्यों की अनेकरूपता सम्भव नहीं हो सकती। 5. अभयदेवसूरि कहते हैं कि नियति को नित्य मानने पर उसमें कारकत्व का