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कारण-कार्य सिद्धान्त एवं पंचकारण-समवाय
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नियतिः कारणंलोके, नियतिः कर्मसाधनम् । नियतिः सर्वभूतानां, नियोगेष्विह कारणम् ।।
- रामायण,किष्किन्धा काण्ड, सर्ग 25 श्लोक 4 लोक में नियति सबका कारण है, नियति समस्त कार्यों का साधन है, समस्त प्राणियों को विभिन्न कार्यों में संलग्न करने में नियति ही कारण है। महाभारत में भी नियति की प्रस्तुति निम्नांकित शब्दों में हुई है
यथा यथाऽस्य प्राप्तव्यं, प्राप्नोत्येव तथा तथा । भवितव्यं यथा यच्च, भवत्येव तथा तथा ॥
__-महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय 226, श्लोक 10 अर्थात् पुरुष को जो वस्तु जिस प्रकार मिलने योग्य होती है, वह उसे उसी प्रकार प्राप्त कर लेता है। जो जिस प्रकार भवितव्य होता है वह वैसे घटित होता ही है। अभिज्ञानशाकुन्तलम् में भी भवितव्य शब्द से युक्त दो सूक्तियाँ प्रसिद्ध हैं- 1. भवितव्यानांद्वाराणि भवन्ति सर्वत्र 2. भवितव्यताखलु बलवती। हितोपदेश में भी कहा गया है- 'यदभावि न तद्भावि, भावि चेन्न तदन्यथा।' जो होनहार नहीं है वह नहीं होगा तथा जो होनहार है वह अवश्य होगा। भर्तृहरि के नीतिशतक में भी इस प्रकार के विचार पुष्ट हुए हैं। काव्यप्रकाश जैसे साहित्यशास्त्र के ग्रन्थ में भी नियतिकृत नियम का उल्लेख हुआ है। योगवासिष्ठ में अक्षय नियम को नियति कहा है। वे कहते हैं कि नियति को स्वीकार करते हुए भी व्यक्ति को पुरुषार्थ का त्याग नहीं करना चाहिए, क्योंकि पुरुषार्थ रूप से ही नियति नियामक होती है। शैवदर्शन के ग्रन्थ परमार्थसार में “मुझे यह करना चाहिए और यह नहीं करना चाहिए" इस प्रकार के नियमन का हेतु नियति कहा गया है।" ___ नियतिवाद का सम्प्रदाय आजीवक नामक सम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है। जैन आगमों एवं बौद्ध त्रिपिटकों में नियतिवाद की चर्चा प्राप्त होती है। बौद्ध त्रिपिटक में दीघनिकाय के प्रथम भाग में मंखलि गोशालक के मत को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है- “प्राणियों के दुःख का कोई प्रत्यय या हेतु नहीं है। बिना हेतु और प्रत्यय के प्राणी दुःखी होते हैं। प्राणियों की विशुद्धि का भी कोई हेतु या प्रत्यय नहीं है। बिना हेतु या प्रत्यय के ही प्राणी विशुद्धि को प्राप्त होते हैं। न आत्मा