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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
नीतिशतक में "भाग्यानि पूर्वतपसा खलु संचितानि काले फलन्ति पुरुषस्य यथैव वृक्षाः" वाक्य स्पष्ट करता है कि पूर्वतप से संचित भाग्य समय आने पर उसी प्रकार फल प्रदान करते हैं, जैसे वृक्ष समय आने पर फल प्रदान करते हैं। योगवासिष्ठ में प्रतिपादित है कि दैव से प्रबल पुरुषार्थ होता है। भारतीय दर्शनों में भी कर्म को विभिन्न रूपों में स्वीकृति मिली है। न्यायदर्शन में इसे अदृष्ट, सांख्यदर्शन में धर्माधर्म, मीमांसादर्शन में अपूर्व तथा बौद्धदर्शन में चैतसिक कहा गया है। योगदर्शन में कृष्ण, शुक्ल, शुक्लकृष्ण एवं अशुक्लकृष्ण के भेद से चार प्रकार के कर्म निर्दिष्ट हैं। वैदिक परम्परा में कर्म तीन प्रकार का है- संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण। पूर्वजन्म में कृतकर्म संचित हैं, जिन कर्मों का फल प्रारम्भ हो गया है वे प्रारब्ध कर्म हैं तथा वर्तमान में पुरुषार्थ के रूप में जो कर्म किए जा रहे हैं वे क्रियमाण कर्म हैं।
श्वेताम्बर जैनपरम्परा में प्रज्ञापनासूत्र, व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, कर्मग्रन्थ, पंचसंग्रह, कम्मपयडि आदि ग्रन्थों में तथा दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागम, कसायपाहुड, महाबंध तथा इनकी धवला, जयधवला, महाधवला टीकाओं में कर्मसिद्धान्त का विस्तृत प्रतिपादन हुआ है। पूर्वकृतकर्मवाद जैनदर्शन का प्रमुख सिद्धान्त है तथा जैनदर्शन में इसका विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। जैनदर्शन कर्म को पौद्गलिक अंगीकार करता है। कर्म एवं जीव का अनादिकाल से सम्बन्ध है, किन्तु मोक्षावस्था में जीव कर्म से रहित हो जाता है। शुभाशुभ क्रिया करने पर जीव में विद्यमान कषाय से कर्म-पुद्गल जीव के साथ चिपक जाते हैं, जिसे बन्ध कहते हैं। यह बन्ध प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार प्रकार का होता है। प्रकृतिबन्ध कर्म के ज्ञानावरण आदि स्वभाव को निश्चित करता है। स्थितिबन्ध उस कर्म की फलावधि को द्योतित करता है। अनुभाग या अनुभव बन्ध उस कर्म की फलदानशक्ति की तरतमता का निर्धारण करता है तथा प्रदेशबन्ध कर्मप्रदेशसमूह को इंगित करता है। कर्मों को जैनदर्शन में आठ प्रकार का निरूपित किया गया है, यथा- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय । इनमें ज्ञानावरण कर्म जीव के ज्ञान को आवरित करता है, दर्शनावरण उसके दर्शन गुण को आवरित करता है। वेदनीय कर्म सुख-दुःख का वेदन कराता