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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
स्वभाव के अनुसार ही कार्य करते हैं। परिणाम के त्रिविध प्रकारों में विस्रसा परिणमन में वस्तु का स्वभाव ही कारण बनता है। जीव का अनादि पारिणामिक भाव भव्यत्व, अभव्यत्व, जीवत्व आदि के रूप में स्वभाव से ही कार्य करता है। इसी प्रकार दर्शनावरण आदि अन्य कर्मों का भी अपना-अपना स्वभाव है, जिसके अनुसार वे कार्य करते हैं। जैन दर्शन में इसे कर्म का प्रकृतिबन्ध कहा जाता है। यही कारण है कि जैनदार्शनिक पंचकारण समवाय में स्वभाव को भी स्थान देते हैं। नियतिवाद एवं जैनदर्शन में उसकी कथंचित् कारणता
नियतिवाद के अनुसार नियति ही सब कार्यों का कारण है । नियतिवाद मुख्यतः मंखलिपुत्र गोशालक की मान्यता के रूप में जाना जाता है । किन्तु यह भारतीय मनीषियों की विचारधारा में ओतप्रोत रहा है। आगम, त्रिपिटक, उपनिषद्, पुराण, संस्कृत महाकाव्यों एवं नाटकों में भी नियति के महत्त्व को स्पष्ट करने वाले उल्लेख प्राप्त होते हैं । सूत्रकृतांग टीका (1.1.2.3), शास्त्रवार्तासमुच्चय (2.62 की टीका ), उपदेशमहाग्रन्थ (पृ. 140), लोकतत्त्वनिर्णय ( श्लोक 27 ) आदि दार्शनिक ग्रन्थों में नियतिवाद का प्रतिपादक निम्नांकित श्लोक प्राप्त होता है -
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प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा । भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः ॥
अर्थात् जो पदार्थ नियति के बल के आश्रय से प्राप्तव्य होता है वह शुभ या अशुभ पदार्थ मनुष्यों (जीवमात्र) को अवश्य प्राप्त होता है। प्राणियों के द्वारा महान् प्रयत्न करने पर भी अभाव्य कभी नहीं होता है तथा भावी का नाश नहीं होता है।
नियति को साहित्य में भवितव्यता भी कहा गया है। वेद में नियतिवाद का प्रतिपादक कोई मन्त्र या सूक्त नहीं है, किन्तु वेद विवेचक पं. मधुसूदन ओझा ने अपरवाद के अन्तर्गत नियतिवाद का भी समावेश किया है। श्वेताश्वतरोपनिषद्, महोपनिषद् एवं भावोपनिषद् में नियामक तत्त्व के रूप में नियतिवाद का प्रतिपादन हुआ है। हरिवंशपुराण में "दुर्वारा हि भवितव्यता", "दुर्लघ्यं हि भवितव्यता" आदि उक्तियों से नियतिवाद की पुष्टि हुई है। रामायण में कहा गया है
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