________________
कारण-कार्य सिद्धान्त एवं पंचकारण-समवाय
107
उपस्थिति से स्वभाववादियों को कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि वे अन्य कारणों को स्वभाव के अन्तर्गत सम्मिलित करते हैं। स्वभाववाद के खण्डन में भी जैनदार्शनिक सबल तर्क प्रस्तुत करते हैं। कतिपय तर्क द्रष्टव्य हैं___ 1. मल्लवादी क्षमाश्रमण स्वभाववादियों से प्रश्न करते हैं कि स्वभाव व्यापक है या प्रत्येक वस्तु में परिसमाप्त होता है ? यदि व्यापक है तो एकरूप होने के कारण पररूप का अभाव होने से स्व या पर विशेषण निरर्थक है। यदि यह प्रत्येक वस्तु में परिसमाप्त होता है तो लोक में प्रचलित घट के घटत्व, पट के पटत्व स्वभाव आदि से भिन्न यह स्वभाव नहीं हो सकेगा।
2. हरिभद्रसूरि ने धर्मसंग्रहणि में अनेक प्रश्न खडे किए हैं। स्वभाव भावरूप है या अभावरूप? यदि भाव रूप है तो एकरूप है या अनेकरूप? यदि अनेकरूप है तो वह मूर्त है या अमूर्त? यदि मूर्त है तो वह जैनदर्शन में मान्य कर्म से अविशिष्ट यानी पुद्गल रूप होगा। यदि अमूर्त है तो वह अनुग्रह एवं उपघात न करने से सुख-दुःख का हेतु नहीं हो सकता। स्वभाव यदि एक रूप है तो वह नित्य है या अनित्य? यदि नित्य है तो वह भावों/पदार्थों की उत्पत्ति में हेतु नहीं हो सकता, क्योंकि उत्पत्ति में हेतु होने से उसमें परिवर्तन आ जाता है। यदि वह अनित्य है तो एक रूप होकर अनित्य नहीं हो सकता, क्योंकि अनित्य विविध रूपों वाला होता है अथवा अनेक होता है। ___ इस प्रकार विभिन्न तकों से जैनदार्शनिक मल्लवादी क्षमाश्रमण, जिनभद्रगणि (6-7वीं शती), हरिभद्रसूरि, शीलांकाचार्य, अभयदेवसूरि, यशोविजय (17वीं शती) आदि ने स्वभाववाद का निरसन किया है। जैनदार्शनिकों ने स्वभाववाद के दो स्वरूपों का निरूपण किया है- 1.स्वभावहेतुवाद एवं 2. निर्हेतुक स्वभाववाद। प्रथम स्वरूप के अनुसार कार्य की उत्पत्ति एवं जगत् की विचित्रता में एकमात्र स्वभाव ही हेतु है। द्वितीय स्वरूप के अनुसार सभी पदार्थ एवं कार्य बिना किसी कारण के उत्पन्न होते हैं, यही उनका स्वभाव है, किन्तु स्वभाववाद का यह दूसरा रूप यदृच्छावाद, कादाचित्कत्व अथवा आकस्मिकवाद के रूप में भी जाना जाता है। __यद्यपि जैनदार्शनिकों ने स्वभाववाद का निरसन किया है तथापि नयवाद से जैनदर्शन में भी स्वभाव की कारणता स्वीकृत है। उदाहरण के लिए- षड्द्रव्य अपने