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कारण-कार्य सिद्धान्त एवं पंचकारण-समवाय
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किया गया है- "स्वाभावाज्जायते सर्व स्वभावाच्च ते तथाऽभवन्, अहंकारः स्वभावाच्च तथा सर्वमिदं जगत्। स्वभाव से ही सबकी उत्पत्ति होती है, स्वभाव से ही वस्तुएँ वैसी हुई हैं। स्वभाव से ही यह अंहकार तथा यह सारा जगत् प्रकट हुआ है। माण्डूक्यकारिका में प्रतिपादित है कि अमर वस्तु कभी मरणशील नहीं होती
और न मरणशील वस्तु कभी अमर। क्योंकि कोई भी वस्तु अपने स्वभाव के विपरीत नहीं हो सकती है। भगवद्गीता में भी स्वभाववाद का प्रतिपादन है। क्योंकि वहाँ स्वभाव से उत्पन्न गुणों के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के कर्मों का विभाग किया गया है। गीता में यह भी कहा गया है
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तुप्रवर्तते ।। - भगवद्गीता, 5.14 अर्थात् लोक के कर्तृत्व, कर्म और कर्मफलसंयोग की प्रभु ने रचना नहीं की है, अपितु स्वभाव इन सबमें प्रवृत्त हुआ है। रामायण और महाभारत में भी स्वभाववाद का उल्लेख हुआ है। 'स्वभावं भूतचिन्तकाः" वाक्य के द्वारा पंचभूतों को स्वीकार करने वाले स्वभाववाद को अपनी विचारधारा में स्थान देते हैं। पाँच भूतों में अप, आकाश, वायु, ज्योति (अग्नि) और पृथ्वी का समावेश होता है। ये स्वभाव से ही साथ रहते हैं और स्वभाव से ही वियुक्त होते हैं । बुद्धचरित में स्पष्ट रूप से स्वभाववाद का उल्लेख हुआ है। बृहत्संहिता, पंचतंत्र, हितोपदेश आदि साहित्यिक कृतियों में भी स्वभाव की चर्चा है। पं. नारायण ने स्वभाव को दुरतिक्रम बताया है। सांख्यकारिका की माठरवृत्ति में स्वभाव की कारणता का स्पष्ट उल्लेख हुआ है। न्यायसूत्र एवं न्यायभाष्य में स्वभाववाद का उपस्थापन एवं निरसन किया गया है।" वाक्यपदीय में स्वाभाविकी प्रतिभा का उल्लेख है।" बौद्ध ग्रन्थ तत्त्वसंग्रह में शान्तरक्षित ने स्वभाववाद का उल्लेख स्पष्ट रूप से किया है। स्वभाववादियों के अनुसार पदार्थों की उत्पत्ति समस्त स्व-पर कारणों से निरपेक्ष होती है। कमल के पराग, मयूर के चन्दोवा आदि का निर्माण किसी के द्वारा नहीं किया गया, स्वभाव से ही उनकी उपलब्धि होती है। न्यायकुसुमांजलि में उदयनाचार्य ने आकस्मिकवाद के अन्तर्गत स्वभाववाद की चर्चा की है। चार्वाक दर्शन में जगत् की विचित्रता को स्वभाव से ही उत्पन्न माना गया है। चार्वाक दर्शन स्वभाववाद का प्रतिनिधि दर्शन है।