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कारण-कार्य सिद्धान्त एवं पंचकारण-समवाय
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अहोरात्र, पक्ष आदि को जैनदर्शन में अद्धासमय अथवा व्यवहार काल कहा गया है, जो मनुष्यों द्वारा अढाईद्वीप (जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड एवं अर्द्धपुष्करद्वीप) में ही व्यवहृत होता है। व्यवहार काल को संख्यात, असंख्यात और अनन्त के भेद से भी समझा जाता है।
जैनदार्शनिकों ने काल की कारणता को उदासीन निमित्त के रूप में स्वीकार किया है तथा कालवाद की मान्यताओं का पूर्वपक्ष में उपस्थापन कर निरसन किया है। कालवाद के उपस्थापन एवं विधिवत् निरसन में मल्लवादी क्षमाश्रमण (5वीं शती), हरिभद्रसूरि (700-770 ई.), शीलांकाचार्य (9वीं-10वीं शती), अभयदेवसूरि (10वीं शती) का विशेष योगदान रहा है। इन दार्शनिकों की कृतियों में पूर्वपक्ष के रूप में काल को परम तत्त्व, परमात्मा, ईश्वर आदि के रूप में तो प्रतिपादित नहीं किया गया है, किन्तु समस्त कारणों के उपलब्ध होने पर भी काल के बिना कार्य नहीं होने के अनेक उदाहरण दिए गए हैं। जैनदार्शनिक कालवाद का निरसन करते हुए विभिन्न तर्क देते हैं । दो, तीन तर्क उदाहरणार्थ यहाँ प्रस्तुत हैं1. हरिभद्रसूरि कहते हैं कि एकमात्र काल को कारण मानना उचित नहीं है,
क्योंकि काल के समान होने पर भी कार्य समान नहीं देखा जाता। 2. शीलांकाचार्य कहते हैं कि क्या काल एक स्वभावी, नित्य और व्यापक है? ऐसा
स्वीकार करने में कोई प्रमाण नहीं है, दूसरी बात यह है कि काल को एक स्वभावी, नित्य एवं व्यापक मानने पर उसमें पूर्वापर व्यवहार सम्भव नहीं है। यदि वह समयादि रूप से परिणमन करके कारण बनता है तो भी मात्र उसे ही कारण नहीं माना जा सकता,क्योंकि एक ही समय में कोई मूंग पकता है तथा
कोई नहीं।" 3. अभयदेवसूरि का तर्क है कि प्रत्येक कार्य के लिए पृथक्-पृथक् काल की
कारणता स्वीकार करना उपयुक्त नहीं है, क्योंकि इसमें अनित्यता आदि दोष आते हैं। काल की क्रम से एवं युगपद् दोनों प्रकार से ही कारणता स्वीकार नहीं की जा सकती। क्रम से कारण होने पर उसमें अनित्यत्व दोष आता है तथा युगपद् कार्योत्पत्ति मानने पर सभी कार्य एक साथ उत्पन्न हो जाने एवं फिर द्वितीय क्षण में काल के अकिंचित्कर होने की अवस्था बनती है।