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सर्वार्थसिद्धि में आत्म-विमर्श
ज्ञानोपयोग होता है तब उस समय में उसके दर्शनोपयोग का क्या होता है? यहाँ कहना होगा कि उपयोग तो एक समय में एक ही होगा, किन्तु जब 'ज्ञान' गुण का उपयोग होगा तब 'दर्शन' गुण के रूप में तो विद्यमान रहेगा, किन्तु उसका व्यापार नहीं होगा। इसी प्रकार जब 'दर्शन' गुण का उपयोग होगा तब 'ज्ञान' गुण के रूप में विद्यमान रहेगा, उसका व्यापार नहीं होगा। इसे एक उदाहरण से समझ सकते हैं। जब किसी के विनय गुण की प्रवृत्ति होती है तब उसमें ईमानदारी, सत्यवादिता आदि गुण भी रहते हैं, किन्तु उनकी प्रवृत्ति नहीं होती। इसी प्रकार ज्ञान की प्रवृत्ति होने पर दर्शनगुण समाप्त नहीं होता, किन्तु उपयोग में नहीं रहता है। इसलिए उपयोग को क्रमभावी कहा गया है। __वस्तु को जानने के लिए जीव के द्वारा जो ज्ञानादि का व्यापार (प्रवर्तन) किया जाता है वह उपयोग है ।' उपयोग क्रमभावी होता है तथा गुण सहभावी होते हैं। अतः छद्मस्थ में जब चार ज्ञान एवं तीन दर्शन पाए जाते हैं तब एक समय में उपयोग इनमें से एक का ही होता है अर्थात् एक का ही व्यापार होता है, शेष गुण के रूप में विद्यमान रहते हैं । कसायपाहुड के अनुसार ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग का उत्कृष्ट काल क्षुद्रभाव प्रमाण है । अर्थात् इतने समय में ज्ञान एवं दर्शन का उपयोग परिवर्तित होता रहता है। संसारी एवं मुक्तजीव का स्वरूप
जीवों के संसारी और मुक्त- ये जो दो भेद किए गए हैं। उनमें संसारी जीवों के संसरण का सर्वार्थसिद्धि में विस्तार से निरूपण हुआ है। पूज्यपाद लिखते हैं“संसरणं संसारः परिवर्तनमित्यर्थः। स एषामस्ति ते संसारिणः। तत्परिवर्तनं पञ्चविधम्-द्रव्यपरिवर्तनं क्षेत्रपरिवर्तनं कालपरिवर्तनं भवपरिवर्तनं भावपरिवर्तनं चेति।"2 संसरण अथवा संसार का अर्थ परिवर्तन है। यह परिवर्तन पाँच प्रकार का होता है -द्रव्यपरिवर्तन, क्षेत्रपरिवर्तन, कालपरिवर्तन, भवपरिवर्तन एवं भावपरिवर्तन। जैन दर्शन में परिवर्तन अथवा परावर्तन का यह एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है, जो किसी अन्य भारतीय दर्शन में इतनी सूक्ष्मता से विवेचित नहीं है।
द्रव्य परिवर्तन दो प्रकार का होता है- नोकर्मद्रव्य परिवर्तन एवं कर्मद्रव्य