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कारण- कार्य सिद्धान्त एवं पंचकारण - समवाय
अज्ञान, षड्लेश्याएँ, असंयम, संसारित्व और असिद्धत्व स्वरूप कार्यों की उत्पत्ति होती है। औपशमिक भाव से सम्यक्त्वलब्धि और चारित्रलब्धि तथा क्रोध - शमन, मान- शमन आदि कार्य निष्पन्न होते हैं। क्षायोपशमिक भाव से मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, सम्यक्-दर्शन तथा दान-लाभ-भोग-उपभोग और वीर्यलब्धि प्राप्त होती है। जीव का जीवत्व, अजीव का अजीवत्व, भव्यजीव का भव्यत्व और अभव्य जीव का अभव्यत्व पारिणामिक भाव से निष्पन्न होते हैं। अजीव में अजीवत्व पारिणामिक भाव होता है, किन्तु अजीव पुद्गल के वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श की पर्यायों को भी उनका भाव कहा गया है । इन भावों की तरतमता के अनुसार परिणमनरूप कार्य सिद्ध होता है ।
भव की कारणता का तात्पर्य है - अमुक योनि में जन्म की कारणता से किसी कार्य का होना । उदाहरणार्थ- देवगति और नरकगति में जन्म से ही वैक्रिय शरीर पाया जाता है । अवधिज्ञान या विभंगज्ञान देवों और नारकों में जन्म से होता है । ' तिर्यंच गति में पक्षियों का उड़ना, सांप का रेंगना, मछली का तैरना, मेंढक का जलथल में रहना आदि कार्य भव की कारणता सिद्ध करते हैं ।
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(2) षड्द्रव्यों की कारणता जैनदर्शन की अपनी विशेषता है । जीव के शरीर, मन, वाक्, श्वास, निःश्वास आदि कार्य पुद्गल द्रव्य के द्वारा सम्पन्न होते हैं ।' जीवपुद्गल के गति, स्थिति, अवगाहन और वर्तना रूप कार्य क्रमशः धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं । जीवों के गमन - आगमन, भाषा, उन्मेष, मन-वचन-काय - योग की प्रवृत्ति भी धर्मास्तिकाय के निमित्त से होती है । " जीवों के स्थिरीकरण, निषीदन, मन की एकाग्रता आदि स्थिर भावों में अधर्मास्तिकाय निमित्त बनता है । ' आकाश एवं काल की कारणता का विचार ऊपर बिन्दु न. 1 में किया जा चुका है ।
पुद्गल से जीवों के औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण शरीरों का निर्माण होता है। जीव द्रव्य भी अन्य जीवों के लिए उपकारी होता है“परस्परोपग्रहो जीवानाम् " ( तत्त्वार्थसूत्र, 5.21 ) वाक्य से इसकी पुष्टि होती है । कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा जीव और पुद्गल में निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध स्वीकार किया