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कारण- कार्य सिद्धान्त एवं पंचकारण - समवाय
बिना कारण के कोई कार्य उत्पन्न नहीं होता । कार्य की उत्पत्ति में प्रायः उपादान एवं निमित्त ये दो कारण प्रमुख होते हैं । जिस कारण में कार्य उत्पन्न होता है, उसे उपादान कारण कहा जाता है, यथा दही का उपादान कारण दूध होता है, क्योंकि दूध से ही दही बनता है। उपादान से भिन्न सभी कारणों को निमित्त कारण कहा जाता है। दूध में दिया जाने वाला जामण, उचित तापमान का होना, जामण देने वाला व्यक्ति, बर्तन आदि निमित्त कारण हैं। न्याय-वैशेषिक दर्शनों में समवायी, असमवायी एवं निमित्त कारणों का प्रतिपादन हुआ है, किन्तु उनमें से समवायी एवं असमवायी कारणों को उपादान की श्रेणि में रखा जा सकता है।
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जैनदर्शन में उपादान एवं निमित्त कारणों के अतिरिक्त भिन्न प्रकार से भी कारणों की चर्चा सम्प्राप्त होती है। तदनुसार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव एवं भव की कारणता; धर्मास्तिकाय आदि षड्द्रव्यों की कारणता; कर्ता, कर्म आदि षट्कारकों की कारणता भी अंगीकार की गई है । सिद्धसेनसूरि ने काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृतकर्म एवं पुरुष / पुरुषार्थ के रूप में पंच कारण समूह की भी चर्चा की है । कालादि इन पाँच कारणों के समुदाय को अब (19वीं शती से) 'पंच समवाय' के नाम से जाना जाता है। जैनदर्शन के अनेकान्तवादी एवं नयवादी दृष्टिकोण का ही परिणाम है कि इसमें पंच समुदाय की कारणता को स्थान मिला। इससे जैनदर्शन की व्यापक दृष्टि का बोध होता है। इसमें कारण- कार्य व्यवस्था पर गहन, सूक्ष्म एवं व्यावहारिक चिन्तन हुआ है। जैनदर्शन ने जीव एवं अजीव दोनों को लक्ष्य में रखकर कारणवाद का विचार किया है। प्रस्तुत आलेख में जैनदर्शन की कारण कार्य विषयक मान्यताओं एवं कालादि पंचकारण समवाय की संक्षेप में चर्चा की गई है।
जैनदर्शन में कारण-कार्य-विमर्श
जैनदर्शन में मान्य षड्द्रव्यों में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय एवं काल में तो स्वाभाविक परिणमन रूप कार्य स्वतः होता रहता है। काल को उसमें निमित्त माना जा सकता है, किन्तु जीव एवं पुद्गल में कार्य का विशिष्ट स्वरूप देखा जाता है । इनमें कार्य उत्पन्न होते समय अन्य द्रव्यों की भी निमित्तकारणता दृष्टिगोचर होती है । धर्मास्तिकाय गति में, अधर्मास्तिकाय स्थिति