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कारण-कार्य सिद्धान्त एवं पंचकारण-समवाय
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पदार्थों में ही संभव है और अर्थक्रिया सर्वथा नित्य तथा सर्वथा अनित्य पदार्थों में न क्रम से हो सकती है और न युगपत्। नित्यानित्यात्मक पदार्थों में ही अर्थक्रिया का घटन हो सकता है इसलिए उनमें ही कार्य-कारण भाव संभव है। (7) जैन दार्शनिक कार्य-कारण में भेदाभेदता स्वीकार करते हैं। जिस प्रकार घट-कार्य मृत्तिका कारण से भिन्न भी होता है और अभिन्न भी, उसी प्रकार प्रत्येक कार्य अपने कारण से भिन्न भी होता है और अभिन्न भी। सांख्यदर्शन कारण एवं कार्य में एकान्त अभेद मानता है तथा वैशेषिक दर्शन इनमें एकान्त भेद स्वीकार करता है। इन दोनों की मान्यताओं का जैनदार्शनिकों ने निरसन किया है। जैनदार्शनिकों का मन्तव्य है कि कार्य अपने कारण से अभिधान, संख्या, लक्षण आदि से भिन्न भी होता है तथा सत्त्व, ज्ञेयत्व आदि अपेक्षा से वह अभिन्न भी होता है। (8) जैन दर्शन में कारण-कार्य को सदसदात्मक स्वीकार किया गया है। इसमें कारण भी सदसदात्मक होता है तथा कार्य भी सदसदात्मक होता है। कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व असत् होता है तथा उत्पत्ति के पश्चात् सत् होता है, जबकि कारण कार्य की उत्पत्ति के पूर्व सत् होता है तथा उत्पत्ति के पश्चात् वह असत् हो जाता है। इस दृष्टि से कार्य एवं कारण दोनों सदसदात्मक होते हैं। (9) उपादान एवं निमित्त भेदों का प्रतिपादन भी जैनदर्शन में हुआ है। जिस कारण में कार्य उत्पन्न होता अथवा जो कार्य का प्रमुख कारण होता है उसे उपादान कहते हैं सहकारी कारण को निमित्त कारण कहा जाता है। वेदान्तदर्शन में उपादान एवं निमित्त शब्दों से ही कार्य- कारण-व्यवस्था का प्रतिपादन किया गया है। ये शब्द जैनदर्शन में विद्यानन्द की अष्टसहनी, बृहद्रव्यसंग्रहटीका, स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा आदि ग्रन्थों में प्रयुक्त हुए हैं। फूलचन्द सिद्धान्तशास्त्री ने 'जैनतत्त्वमीमांसा' ग्रन्थ में उपादान-निमित्त की विस्तृत चर्चा की है। (10) कार्य उत्पन्न हो जाने के अनन्तर अपनी अर्थक्रिया में वह कारण-सापेक्ष नहीं रहता है, इसका प्रतिपादन प्रभाचन्द्र (980-1065 ई.) ने प्रमेयकमल-मार्तण्ड में किया है।