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सूत्रकृतांग में परमतानुसारी आत्म-स्वरूप की मीमांसा
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निकाल कर दिखाया जा सकता है उस प्रकार कोई पुरुष शरीर से जीव को पृथक् करके नहीं दिखा सकता। इस प्रकार के आठ तर्क तज्जीव-तच्छरीरवादियों के द्वारा प्रस्तुत किए गए हैं, जिनसे यही सिद्ध किया गया है कि आत्मा को शरीर से पृथक् दिखाना सम्भव नहीं है। इसलिए शरीर को ही जीव मानना उचित है।
राजप्रश्नीयसूत्र में भी राजा प्रदेशी के द्वारा केशीश्रमण के समक्ष ऐसी शंकाएँ उठायी गई हैं जो तज्जीव-तच्छरीरवाद की पुष्टि करती हैं। राजा प्रदेशी ने अपने अधार्मिक दादा एवं धार्मिक दादी के दृष्टान्त देकर कहा है कि यदि शरीर से जीव भिन्न होता तो दादा नरक से लौटकर मुझे सावधान करते कि मैं पापक्रिया न करूँ तथा दादी स्वर्ग से आकर सजग करती कि मैं अपना आचरण सुधारूँ। उन्होंने आकर मुझे कुछ नहीं कहा। इससे मुझे लगता है कि जो शरीर है वही जीव है। जीव एवं शरीर भिन्न नहीं हैं। राजप्रश्नीय सूत्र में लोहकुम्भी में चोर को बन्द करने आदि के भी उदाहरण दिए गए हैं, जो तज्जीव-तच्छरीरवाद को प्रतिपादित करते हैं। 26
सूत्रकृतांग में कहा गया है कि जो कर्म समारम्भों में लगे रहते हैं वे सक्रिया और असत्क्रिया में, सुकृत और दुष्कृत में, पुण्य और पाप में, साधु और असाधु में, सिद्धि और असिद्धि में, नरक और स्वर्ग में भेद नहीं मानते। सूत्रकृतांग में यह भी संकेत किया गया है कि तज्जीव-तच्छरीरवादी भी कदाचित् अपने मतानुसार प्रव्रज्या अंगीकार करते हैं और अपने ही धर्म को सत्य समझते हैं। वे उपदेश देकर दूसरे लोगों को भी अपने मत से जोड़ते हैं, किन्तु सत्-असत् आदि क्रियाओं में भेद का प्रतिपादन नहीं होने के कारण वे हिंसा, परिग्रह आदि का सेवन और अनुमोदन करने लगते हैं। काम भोगों में आसक्त होकर न अन्यों को बन्धन मुक्त कर पाते हैं और न स्वयं मुक्त हो पाते हैं।
आचार्य शीलांक ने तज्जीव-तच्छरीरवाद को प्रस्तुत करते हुए यह भी शंका उठाई है कि पुण्य-पाप के अभाव में जगत् के जीवों की विचित्रता किस प्रकार होगी? इसके उत्तर में वे तज्जीव-तच्छरीरवादियों की ओर से स्वभाववाद को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं- "कण्टकस्य च तीक्ष्णत्वं, मयूरस्य विचित्रता।वर्णाश्च ताम्रचूडानां, स्वभावेन भवन्ति हिं। 27 अर्थात् कांटों की तीक्ष्णता, मयूर की