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सूत्रकृतांग में परमतानुसारी आत्म-स्वरूप की मीमांसा
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दुहओतणविणस्सति, नोयउपज्जए असं।
सव्वे विसव्वहाभावा, नियतीभावमागता।।" (ये पांच महाभूत और आत्मा दोनों प्रकार (निर्हेतुक एवं सहेतुक) से नष्ट नहीं होते हैं। असत् पदार्थ उत्पन्न नहीं होता है। ये सभी पदार्थ सर्वथा नियतिभाव अर्थात् नित्यत्व को प्राप्त होते हैं।)
इन छह पदार्थों का न निर्हेतुक विनाश होता है और न सहेतुका बौद्ध परम्परा क्षणिकवादी है। उसमें प्रत्येक वस्तु का निर्हेतुक अर्थात् बिना कारण के विनाश स्वीकार किया जाता है। जो भी वस्तु उत्पन्न होती है वह नई वस्तु को जन्म देकर स्वतः नष्ट हो जाती है। उसके नाश में कोई अन्य हेतु नहीं होता है इसलिए इसे निर्हेतुक विनाश कहा जाता है। दूसरा विनाश सहेतुक होता है जैसे लकड़ी, डण्डे, हथौड़े या किसी अस्त्र-शस्त्र से जो विनाश किया जाता है, उसे सहेतुक विनाश कहते हैं। इस प्रकार का विनाश वस्तुवादी न्याय-वैशेषिक दर्शन स्वीकार करते हैं। आत्मषष्ठवादी के मत में इन दोनों प्रकार का विनाश नहीं होता। इनका मानना है कि जो सत् है उसका विनाश नहीं होता और जो असत् है उसे उत्पन्न नहीं किया जा सकता।
बौद्धों की मान्यता है कि जो वस्तु उत्पन्न होती है वह नष्ट हो जाती है। उसकी उत्पत्ति ही उसके विनाश का हेतु होती है। अन्य कोई उसका हेतु नहीं होता है। खण्डन:- जैन दर्शन के अनुसार सभी पदार्थ नित्यानित्यात्मक हैं। द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से उन्हें नित्य और पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से अनित्य प्रतिपादित किया गया है। मात्र नित्यपदार्थों को स्वीकार करने पर जगत् का व्यवहार नहीं चल सकता। आत्मा को नित्य मानने पर उसमें कर्तृत्व घटित नहीं हो सकता। जब आत्मा में कर्तृत्व ही नहीं होगा तो कर्मबन्धन का अभाव हो जायेगा तथा कर्मफल की प्राप्ति भी नहीं हो सकेगी। कोई सुखी है तो वह सुखी ही बना रहेगा और कोई दुःखी है तो वह दुःखी ही बना रहेगा। प्राणियों का जन्म-मरण भी सम्भव नहीं होगा। नरकादि चार प्रकार की गतियों की अवधारणा व्यर्थ हो जायेगी तथा मोक्ष भी सम्भव नहीं हो सकेगा। जैनदर्शन द्वारा मान्य कथंचित् नित्यता और कथंचित् अनित्यता में जन्म-मरण, पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष आदि सभी पर्यायें घटित हो