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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
मानने पर अन्य के सुख-दुःखादि का भी हमें वेदन होना चाहिए, अन्य के चोट लगने पर, या अन्य के द्वारा स्वादिष्ट पदार्थों का आस्वादन लेने पर हमें भी उसका अनुभव होना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं होता है। दूसरी बात यह है कि सभी जीव स्वतन्त्र हैं, कोई किसी का अंश या अंशी नहीं है। सबको अपने-अपने कृत कर्मों के अनुसार फल की प्राप्ति होती है। बन्धनों से मुक्त होने के लिए सबको पृथक् रूप से प्रयत्न करने की आवश्यकता होती है। इसलिए जैन दर्शन में जीव को स्वदेह परिमाण स्वीकार किया गया है। जीव को सर्वव्यापक नहीं मानने एवं अनन्त मानने से एकात्मवाद की मान्यता का भी खण्डन हो जाता है। __ जीव अपने कृत कर्मों का स्वयं भोक्ता है। जैनदर्शन का यह सिद्धान्त उसे अपनी प्रवृत्ति में सुधार की प्रेरणा देता है। मन, वचन एवं काया के माध्यम से हम सम्यग्दर्शन पूर्वक जो प्रवृत्ति करते हैं वह ही हमें भोक्तृत्वभाव की शृंखला से छुटकारा दिला सकती है। भोक्ता होना संसारी जीवों का लक्षण है। कर्तृत्व के अनुरूप फल-प्राप्ति स्वीकार करने के कारण जैनदर्शन नियतिवाद का भी निरसन कर देता है। जीव दो प्रकार के हैंसंसारी और सिद्ध। जो कर्म-बन्धनों से आबद्ध हैं तथा संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं, वे संसारी जीव हैं तथा जो अष्टविध कर्मों से मुक्त हो गये हैं, वे सिद्ध जीव हैं। वे पुनःजन्म ग्रहण नहीं करते। इससे अवतारवाद की मान्यता का भी खण्डन हो जाता है।
जैनदर्शन में आत्मा नित्य भी है और अनित्य भी। वह द्रव्यार्थिक नय से नित्य है तथा पर्यायार्थिक नय से अनित्य है। अनेक भवों में जन्म लेकर भी जीव द्रव्यार्थिक नय से वही जीव बना रहता है, जबकि पर्यायार्थिक नय से वह हर भव में शरीरादि के कारण बदल जाता है। इसीलिए भगवतीसूत्र में भगवान महावीर ने जीवों को स्यात् शाश्वत एवं स्यात् अशाश्वत कहा है। अष्टविध कर्मों से मुक्त होने के लिए आत्मा के सही स्वरूप को जानना आवश्यक है और वह ज्ञान सम्यग् दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान के होने पर ही संभव है। इन दोनों के होने पर चारित्र अथवा आचरण में प्रगति हो सकती है। ये तीनों मिलकर मोक्ष के मार्ग कहलाते हैं। जीव के कारण औपशमिक, क्षायिक एवं क्षायोपशमिक भावों की चर्चा होती है।
जैन आगमों में सूत्रकृतांग एक महत्त्वपूर्ण आगम है, जो अहिंसा, समता, अपरिग्रह आदि के आचरण की प्रेरणा करने के साथ जीव के सही स्वरूप का बोध