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सूत्रकृतांग में परमतानुसारी आत्म-स्वरूप की मीमांसा
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उसमें रूप, रस, स्पर्श आदि गुण हैं। उसे हम इन्द्रियों से नहीं जान सकते। उसका अनुभव स्वयं कर सकते हैं। उदाहरण के लिए 'मैं जानता हूँ' यह एक हमारा अनुभव है। जानने का कार्य भले ही इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि के माध्यम से होता हो, किन्तु फिर भी हमें यह अनुभव होता है कि ज्ञाता व्यक्ति इन्द्रिय आदि से भिन्न है। इसीलिए वह यह जानता है कि मैं ही सुनता हूँ, देखता हूँ, सूंघता हूँ, चखता हूँ, छूता हूँ, सोचता हूँ, तर्क करता हूँ आदि। तात्पर्य यह है कि इन्द्रिय, मन एवं बुद्धि से होने वाले ज्ञान का कर्ता इनसे भिन्न है। इसीलिए वह अनेक ज्ञानों का ज्ञाता स्वयं को मानता है। स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान आदि का ज्ञाता भी वही होता है। इस प्रकार आत्मा की सिद्धि अनुमान प्रमाण से भी होती है। आगम में तो आत्मा के अस्तित्व एवं अमूर्तता के अनेक कथन प्राप्त होते हैं। आत्मा को अमूर्त स्वीकार करने के कारण लोकायतिक मत में मान्य पंचभूतवाद एवं तज्जीव-तच्छरीरवाद का खण्डन हो जाता है। क्योंकि वे जीव को मूर्त मानकर अपना मत रखते हैं। अमूर्त तत्त्व को जानने के लिए उनके पास प्रत्यक्ष के अतिरिक्त अनुमान आदि कोई प्रमाण नहीं हैं। ___ आत्मा का तीसरा लक्षण इसका कर्ता होना है। सांख्य दार्शनिक आत्मा को अकर्ता एवं भोक्ता मानते हैं। किन्तु प्रश्न होता है कि जो अकर्ता है वह भोक्ता कैसे हो सकता है?वस्तुतः जो जैसा कर्म करता है वह उसी के अनुरूप फल भोगता है। सांख्यदर्शन में फलभोग की यह प्रक्रिया बाधित हो जाती है, क्योंकि वहाँ अकर्ता को ही भोक्ता मान लिया गया है। एक बात यह भी है कि जो अकर्ता है वह भोग की क्रिया भी कैसे कर सकता है?क्योंकि भोग की क्रिया का भी तो वह कर्ता कहलाएगा। सांख्यदर्शन में जड़ प्रकृति को की माना है जो किसी भी प्रकार युक्तिसंगत नहीं है। सांख्य एवं जैनदर्शन में यह तो समानता है कि ये दोनों दर्शन आत्मा को अनेक मानते हैं, किन्तु आत्मा के कर्तृत्व एवं अकर्तृत्व को लेकर मतभेद है। ___ उपनिषद् एवं वेदान्त की धारणा है कि आत्मा सर्वव्यापक है तथा एक ही आत्मा के अंश रूप में अन्य जीव रहते हैं। यह धारणा भी उचित नहीं है। आत्मा सर्वव्यापक नहीं हो सकता, क्योंकि हमें सुख-दुःख आदि का वेदन शरीर पर्यन्त ही होता है। शरीर के बाहर होने वाली घटनाओं का अनुभव मन एवं संस्कारों के माध्यम से तो हो सकता है, किन्तु उसके लिए आत्मा को व्यापक मानने की आवश्यकता नहीं है। आत्मा को व्यापक