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सूत्रकृतांग में परमतानुसारी आत्म-स्वरूप की मीमांसा
यहां पर यह ध्यातव्य है कि बौद्ध दर्शन चैतन्य को स्वीकार तो करता है, किन्तु वैशेषिक आदि दर्शनों की भांति उसे नित्य नहीं मानता। यही कारण है कि बौद्ध दर्शन में निर्वाण की अवस्था में चेतना या आत्मा का प्रवाह रुक जाता है तथा वह कहीं अन्यत्र गमन नहीं करता। जिस प्रकार दीपक का निर्वाण होने पर उसकी लौ वहीं समाप्त हो जाती है, उसी प्रकार निर्वाण की अवस्था में चेतना का प्रवाह वहीं समाप्त हो जाता है। ___ एक बार निर्वाण होने के पश्चात् वह सदा के लिए हो जाता है। निर्वाण को बौद्ध परम्परा में परम सुख स्वरूप स्वीकार किया गया है- 'निब्बाणं परमंसखं।" निर्वाण के बौद्ध दर्शन में दो प्रकार निरूपित हैं- सोपधिशेष निर्वाण और निरुपधिशेष निर्वाण। जब शरीर रहते हुए निर्वाण की प्राप्ति होती है तो उसे सोपधिशेष निर्वाण कहा गया है तथा शरीर के छूटने पर जो निर्वाण प्राप्त होता है उसे निरुपधिशेष निर्वाण कहा गया है। जैन दर्शन में अरिहन्त की जो अवस्था है उसे सोपधि शेष निर्वाण के समान तथा सिद्ध की अवस्था को निरुपधिशेष निर्वाण की अवस्था के समकक्ष माना जा सकता है। वेदान्त दर्शन में इसे जीवन्मुक्त और विदेहमुक्त अवस्था के रूप में प्रतिपादित किया गया है। किन्तु जैन दर्शन में सिद्ध जीवों में अनन्तज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख आदि आठ गुण स्वीकार किए गए हैं, जिनका बौद्ध दर्शन में मान्य परिपूर्ण निर्वाण की अवस्था में चेतना का प्रवाह रुक जाने से अभाव हो जाता है। __ बौद्धों को क्षणयोगी अर्थात् क्षणिकवादी कहा गया है। इनके अनुसार जो भी सत् है वह क्षणिक है। आकाश एवं निर्वाण को छोड़कर बौद्ध दर्शन में सभी वस्तुएँ क्षणिक अंगीकार की गई हैं। प्रत्येक वस्तु अपने समान वस्तुओं को जन्म देकर स्वयं समाप्त हो जाती हैं। खण्डन:- प्रायः बौद्धों को अनात्मवादी कहा जाता है, क्योंकि वे नित्य आत्मा का अस्तित्व नहीं मानते। किन्तु आत्मा की कथंचित् नित्यता स्वीकार न की जाए तो कर्ता एवं भोक्ता की व्यवस्था गड़बड़ा जाएगी। तब कर्तृत्व किसी अन्य का होगा तथा फलभोग कोई अन्य करेगा। एकान्त क्षणिकवाद में सुख-दुःख, पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष आदि की व्यवस्था घटित नहीं हो सकती। यदि पंचस्कन्धों से भिन्न