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- जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
अमूर्तश्चेतनो भोगी नित्यः सर्वगतोऽक्रियः । अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्म आत्मा कापिलदर्शने । । "
कापिल अर्थात् सांख्य दर्शन में आत्मा को अमूर्त, चेतन, भोक्ता, नित्य, व्यापक, निष्क्रिय, अकर्ता, निर्गुण (सत्त्व, रज एवं तमो गुण से रहित ) और सूक्ष्म स्वीकार किया गया है। सूत्रकृतांग में इस मत का उल्लेख निम्नांकित गाथा में किया गया है
कुव्वं च कारवं चेव, सव्वं कुव्वं ण विज्जति । एवं अकारओ अप्पा, एवं ते उपगब्भिया । । 2
( आत्मा स्वयं कोई क्रिया नहीं करता, न दूसरों से करवाता है तथा वह सभी प्रकार की क्रियाओं से रहित है । इस प्रकार आत्मा अकारक है। यह परमतावलम्बी (सांख्य दर्शन) का धृष्टतापूर्वक किया गया कथन है | )
सांख्यदर्शन के अनुसार प्रकृति एवं पुरुष दो प्रमुख तत्त्व हैं। जिनमें से प्रकृति में सांख्य दार्शनिक कर्तृत्व स्वीकार करते हैं तथा पुरुष को भोक्ता मानकर भी कर्ता नहीं मानते हैं। इस अकारकवाद सिद्धान्त में अन्तर्विरोध है, क्योंकि आत्मा या पुरुष चेतन है अतः वह निष्क्रिय तथा अकर्ता नहीं हो सकता। दूसरी बात यह है कि जो कर्ता नहीं होता वह फल का भोक्ता कैसे हो सकता है? सांख्य दर्शन में पुरुष को अकर्ता मानकर भी भोक्ता स्वीकार किया गया है। यह उसकी मान्यता का पारस्परिक विरोध है।
खण्डनः- इस अकारकवाद के निराकरण में नियुक्तिकार भद्रबाहु का तर्क है कि जब आत्मा को अकर्ता स्वीकार किया गया है तो उसके अकृत का वेदन कौन करता है।” आचार्य शीलांक ने व्याख्या करते हुए कहा है कि आत्मा के निष्क्रिय होने से उसमें वेदन क्रिया भी घटित नहीं हो सकती। यदि अकृत का भी अनुभव हो सकता है तो फिर अकृत के आगमन और कृत के नाश की आपत्ति आती है । दूसरी बात यह है कि पुरुष के व्यापक एवं नित्य होने के कारण उसमें पांच प्रकार की गति नहीं हो सकती। पांच प्रकार की गतियाँ हैं- नरक, तिर्यक्, मनुष्य, देव और मोक्ष। अकर्ता पुरुष इनमें से किसी भी गति में नहीं जा सकता है। फिर पुरुष के अकर्ता होने के कारण उसे काषाय वस्त्र धारण करने की क्या आवश्यकता है?