________________
जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
विचित्रता और मुर्गे के विभिन्न वर्गों का होना स्वभाव से ही सिद्ध है। इसमें पुण्य, पाप आदि कारणों की अपेक्षा नहीं है। अतः आत्मा को शरीर रूप स्वीकार करने में बाधा नहीं है। खण्डन- तज्जीव-तच्छरीरवाद भी एक प्रकार से चार्वाकों का ही मत है। क्योंकि यह आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार न करके नास्तिकता को स्थापित करता है। समाज में नैतिकता की स्थापना के लिए आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार करना आवश्यक है, क्योंकि वही अपने कृत कर्मों के अनुसार अन्य भव में भी फल की प्राप्ति कराता है। तज्जीव-तच्छरीरवाद मत अत्यन्त स्थूल अनुभव के आधार पर कहा गया प्रतीत होता है। वास्तव में चैतन्यधारी आत्मा शरीर से भिन्न है, ऐसा भेद-विज्ञानियों एवं केवलज्ञानियों ने अनुभव किया है। शरीर में चेतनाशीलता आत्मा के कारण है, आत्म-तत्त्व के निकल जाने पर शरीर निढाल हो जाता है। अतः यह कहना कि शरीर परिणत पंचभूतों से चैतन्य उत्पन्न होता है, उचित नहीं है। जैन दर्शन में तो आत्मा का विस्तृत विवेचन हुआ है, जिसके अनुसार गुणस्थानों में आरोहण आत्मा का होता है, शरीर का नहीं। औपशमिक आदि भाव भी आत्मा में पाए जाते हैं, शरीर में नहीं। ज्ञान, दर्शन, गुण की उपलब्धि आत्मा में होती है, शरीर में उपलब्ध इन्द्रियाँ तो मात्र साधन बनती हैं। विभिन्न इन्द्रियों से होने वाले ज्ञानों के आधार पर ही आत्मा को यह अनुभव होता है कि मैंने देखा, मैंने सुना, मैंने चखा, मैंने स्पर्श किया एवं मैंने सूंघा। ये सभी ज्ञान यद्यपि अलग-अलग इन्द्रियों के माध्यम से होते हैं, तथापि इनका संकलनात्मक ज्ञान एक ही आत्मा को होता है। ___ आत्मा को शरीर से अभिन्न मानने वाले वादियों का निराकरण करते हुए कहा गया है कि पंचभूतों से भिन्न आत्मा का अस्तित्व नहीं मानने पर चतुर्गतिक संसार में जीव द्वारा जन्म-मरण किस प्रकार किया जाएगा और फिर जगत् की विचित्रता भी कैसे घटित हो सकेगी? ऐसे अज्ञानी लोग अज्ञान रूपी अन्धकार से पुनः अधिक अन्धकार (ज्ञानावरण आदि) की ओर गमन करते हैं। पंचभूतों से निर्मित शरीर से भिन्न आत्मा का अभाव मानने पर पुण्य, पाप का भी अभाव होगा और पुण्य-पाप के अभाव से परलोक गमन का अभाव हो जायेगा। इस प्रकार आत्मा के अभाव का