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सूत्रकृतांग में परमतानुसारी आत्म-स्वरूप की मीमांसा
प्रतिपादन करने वाले मतवादी महारम्भ में डूब जाते हैं और महारम्भ में निमग्न होकर वे नरक का रास्ता पकड़ लेते हैं।
राजप्रश्नीय सूत्र में केशीकुमार श्रमण ने राजा प्रदेशी द्वारा 'जीवो तं सरीरंतं चेव' (तज्जीव-तच्छरीरवाद) के पक्ष में प्रदत्त तों का सोदाहरण खण्डन किया है। उन्होंने बताया है कि किन कारणों से नरक गया हुआ जीव हमें सावधान करने नहीं आ सकता, तथा स्वर्ग में गया हुआ जीव भी किन कारणों से आकर हमें नहीं चेताता। लोहकुम्भी आदि से निकलने में जीव को किसी छिद्र की आवश्यकता नहीं होती। जीव अप्रतिहत गति वाला होता है।
पूज्य घासीलालजी कृत टीका एवं युवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी द्वारा सम्पादित सूत्रकृतांग में आत्मा को शरीर से अभिन्न मानने को अनुचित ठहराते हुए कतिपय तर्क दिए गए हैं, यथा1. शरीर को ही आत्मा मानने पर बुद्धिमानों की शास्त्रादि में प्रवृत्ति नहीं होगी। ___ मोक्ष के लिए ली जाने वाली दीक्षा, चारित्र आदि की प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी, किन्तु तीर्थकर, गणधर आदि की मोक्ष के लिए प्रवृत्ति होने से उसे निष्फल
नहीं कहा जा सकता। 2. यदि शरीर से भिन्न आत्मा न हो तो बाल्यावस्था में अनुभूत पदार्थ का स्मरण
नहीं होना चाहिए। 3. किसी भी व्यक्ति को दान, सेवा, परोपकार, लोक-कल्याण आदि शुभकर्मों का
फल प्राप्त नहीं होगा। 4. हिंसा, झूठ, चोरी आदि पापकर्म करने वाले लोग निःशंक होकर पापकर्म
करेंगे, क्योंकि शरीर के साथ चैतन्य का विनाश हो जाने से फल भोगने वाला
कोई नहीं रहेगा। आत्मा के अकर्तृत्व सम्बन्धी मत एवं उसका खण्डन ।
आत्मा को अकर्ता-स्वीकार करने वाला यह सिद्धान्त अकारकवाद अथवा अकर्तृत्ववाद के नाम से कहा गया है। कपिल द्वारा प्रणीत सांख्यदर्शन में आत्मा किं वा पुरुष को चेतन मानकर भी अकर्ता कहा गया है। षड्दर्शनसमुच्चय टीका में सांख्यदर्शन के सम्बन्ध में उल्लेख आता है