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सूत्रकृतांग में परमतानुसारी आत्म-स्वरूप की मीमांसा
आत्मा के स्वरूप एवं अस्तित्व को लेकर भारतीय चिन्तनधारा में विभिन्न मत प्रचलित रहे हैं, उनमें से कई मतों की चर्चा प्राचीन जैनागम सूत्रकृतांग सूत्र में उपलब्ध है। इसमें पंच महाभूतों से चेतना की उत्पत्ति मानने वाले चार्वाकों, एक ही आत्मा को स्वीकार करने वाले वैदिकों, तज्जीव-तच्छरीरवादी लोकायतिकों, आत्मा को अकर्ता मानने वाले सांख्यदार्शनिकों, आत्मषष्ठवादियों, अनात्मवादी एवं चातुर्धातुकवादी बौद्धों तथा सुख-दुःख को नियति से स्वीकार करने वाले नियतिवादियों की चर्चा की गई है। इन विभिन्न मतवादों में से कुछ का खण्डन सूत्रकृतांग में हुआ है तो कुछ का खण्डन सूत्रकृतांग नियुक्ति, सूत्रकृतांग चूर्णि एवं शीलाकाचार्य कृत टीका में उपलब्ध है। प्रस्तुत आलेख में आत्मा-सम्बन्धी विभिन्न परमतों के पूर्वपक्ष का उपस्थापन करने के साथ सूत्रकृतांग एवं उसके व्याख्या- साहित्य के आधार पर खण्डन प्रस्तुत किया गया है । जैनदर्शन में स्वीकृत आत्म-स्वरूप को उपसंहार के रूप में विवेचित किया गया है। जैनदर्शन को स्वमत तथा उससे भिन्न मतों को यहाँ परमत कहा गया है।
जैन दर्शन में आत्मा ज्ञान एवं दर्शन गुणों से युक्त चेतन तत्त्व है। विश्व में अनन्त आत्माएँ हैं तथा सब अस्तित्व की दृष्टि से स्वतन्त्र हैं। शरीर, इन्द्रिय, मन एवं बुद्धि में चेतना का अनुभव आत्मा के संयोग से होता है। आत्मा को ही जीव भी कहा गया है। संसारी एवं सिद्ध के भेद से आत्मा के दो प्रकार हैं। सिद्ध आत्मा का संसार में पुनर्जन्म नहीं होता, क्योंकि वह संसार में जन्म-मरण के हेतु अष्टविध कर्मों से रहित होता है। संसारी आत्मा को कर्म-बन्धनों से बंधा हुआ स्वीकार किया गया है, साथ ही यह भी माना गया है कि वह सम्यग्ज्ञान तथा क्रिया के बल पर अथवा ज्ञ-परिज्ञा एवं प्रत्याख्यान-परिज्ञा के आलम्बन से पराधीनता के बन्धनों को तोड़कर सदा के लिए उनसे मुक्त हो सकता है।
ध्यातव्य है कि काम-भोगों में आसक्त जो श्रमण एवं ब्राह्मण बन्धनमुक्ति के सम्यक् उपायों को नहीं जानते, वे अनेक ऐसे मन्तव्यों का प्रतिपादन करते हैं जो मानव जाति को सन्मार्ग से भटकाते हैं। प्राचीनकाल से आत्मा के स्वरूप तथा बन्धन और मुक्ति को लेकर विभिन्न विचारकों में मतभेद रहा है। कुछ मतों का