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सूत्रकृतांग में परमतानुसारी आत्म-स्वरूप की मीमांसा
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चलने पर अपना मित्र तथा कुमार्ग पर आरूढ होने पर अपना शत्रु हो जाता है। यदि आत्मा को पंचभूतों से स्वतन्त्र द्रव्य नहीं माना जाएगा तो कर्म-बंध एवं उसका फल भोग किसके द्वारा होगा, यह प्रश्न अनुत्तरित रह जाएगा। (2)एकात्मवाद का सिद्धान्त एवं उसका खण्डन
जैनदर्शन के अनुसार लोक में अनन्त जीव हैं तथा वे सभी अपने-अपने कृत कर्मों के अनुसार फल प्राप्त करते हैं। शुभ कर्मों का फल शुभ तथा अशुभ कर्मों का फल अशुभ प्राप्त होता है। किन्तु कुछ परमतावलम्बी एक ही आत्मा का अस्तित्व स्वीकार कर सभी जीवों को उसी के नानारूप मानते हैं। सूत्रकृतांग में उनके मत का उल्लेख करते हुए कहा गया है
जहा य पुढवीथूभे, एगे नाणा हि दीसइ।
एवंभो!कसिणेलोए, विण्णूनाणा हिदीसइ।।" जिस प्रकार एक ही पृथ्वी पिण्ड घर, भवन आदि नाना रूपों में दिखाई देता है, उसी प्रकार समस्त लोक में व्याप्त विज्ञ पुरुष (ब्रह्म) नाना जीव रूपों में दिखाई देता है। वैदिक ग्रन्थ ब्रह्मबिन्दूपनिषद् एवं कठोपनिषद् में इसका प्रतिपादन करते हुए कहा गया है
एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः।
एकधा बहुधाचैवदृश्यतेजलचन्द्रवत्।।" वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो, रूपंरूपंप्रतिरूपो बभूव।
एकस्तथासर्वभूतान्तरात्मारूपंरूपंप्रतिरूपोबहिश्च॥" जिस प्रकार एक ही चन्द्रमा जल से भरे हुए विभिन्न घड़ों में अनेक दिखाई देता है, उसी प्रकार सभी भूतों में रहा हुआ एक ही भूतात्मा उपाधिभेद से नाना दिखाई देता है। जिस प्रकार एक ही वायु सारे लोक में व्याप्त है, किन्तु उपाधिभेद से अलग-अलग रूप वाला हो गया है, उसी प्रकार एक ही आत्मा उपाधिभेद से विभिन्न रूप वाला हो जाता है।
वेदान्तदर्शन में भी एक ब्रह्म को सत् मानकर समस्त जीवों को उसी का अंश स्वीकार किया गया है तथा उसे समस्त चराचर जगत् का कारण माना गया है।