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सर्वार्थसिद्धि में आत्म-विमर्श
आयुष्य बल प्राण ये चार प्राण स्वीकार किये गए हैं । द्वीन्द्रिय जीव में रसनेन्द्रिय बलप्राण एवं वचन बलप्राण को मिलाकर छह प्राण प्राप्त होते हैं। त्रीन्द्रिय जीव में घ्राणेन्द्रिय बलप्राण सहित सात, चतुरिन्द्रिय जीव में चक्षुरिन्द्रिय बलप्राण सहित आठ, असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव में श्रोत्रेन्द्रिय बलप्राण सहित नौ एवं संज्ञी पंचेन्द्रिय में मनोबल प्राण सहित दश प्राण होते है । द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों को त्रस तथा पृथिवीकायिक आदि एकेन्द्रिय जीवों को स्थावर कहा गया है। इन्द्रिय विचार ___ इन्द्रिय पाँच हैं - श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय एवं स्पर्शनेन्द्रिय। न्याय-वैशेषिक आदि दर्शनों में वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ स्वीकार की गई हैं । इस सम्बन्ध में आचार्य पूज्यपाद का कथन है कि जो उपयोग के साधन हैं उन्हें ही इन्द्रिय के रूप में ग्रहण किया जाता है, क्रिया-साधन को नहीं । फिर उनकी कोई निश्चित संख्या नहीं है, क्योंकि नामकर्म से निष्पन्न सभी अङ्गोपाङ्ग क्रिया के साधन होते हैं । इन्द्रिय के भी तत्त्वार्थसूत्र में द्रव्येन्द्रिय एवं भावेन्द्रिय ये दो भेद किए गए हैं। उनमें द्रव्येन्द्रिय के निर्वृत्ति एवं उपकरण के रूप में तथा भावेन्द्रिय के लब्धि एवं उपयोग के रूप में दो-दो भेद प्रतिपादित हैं। इनमें निर्वृत्ति, उपकरण एवं लब्धि तो उपयोग में साधन होने से इन्द्रिय हैं, किन्तु उपयोग को इन्द्रिय क्यों कहा गया? इसके उत्तर में पूज्यपाद का कथन है -"कारणधर्मस्य कार्यदर्शनात्। यथा-घटाकारपरिणतं विज्ञानं घट इति । स्वार्थस्य तत्र मुख्यत्वाच्च।इन्द्रस्य लिङ्गमिन्द्रियमिति यः स्वार्थः स उपयोगे मुख्यः उपयोगलक्षणो जीव इतिवचनात्। अर्थात् कारण का धर्म कार्य में दिखाई देने से उपयोग को भी इन्द्रिय कहा जा सकता है, जिस प्रकार कि घट के आकार में परिणत ज्ञान को भी घट कहा जाता है। दूसरा समाधान यह है कि इन्द्र अर्थात् आत्मा का लिङ्ग इन्द्रिय कहलाता है। इस दृष्टि से उपयोग आत्मा का लिङ्ग है तथा स्व अर्थ को मुख्य रूप से प्रस्तुत करता है इसलिए उपयोग भी इन्द्रिय है। जीवों का बहुत्व
जैनदर्शन में अनन्त जीवों की सत्ता मानी गई है। सबके अपने-अपने कर्म हैं