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जैन धर्म-दर्शन: एक अनुशीलन
तत्त्वार्थसूत्र के एतद्विषयक सूत्रों की व्याख्या में भी यह तथ्य पुष्ट हुआ है कि जीव ही अपने कर्मों का कर्ता है, फल भोक्ता है तथा वह ही मुक्त होता है। सांख्यदर्शन में चेतन पुरुष को अकर्ता अथवा निष्क्रिय माना गया है, किन्तु न्याय वैशेषिक, मीमांसा आदि दर्शन आत्मा का कर्ता एवं भोक्ता होना स्वीकार करते हैं । जीवों का परस्परोपग्रह
यद्यपि जीव स्वयं के सुख-दुःख के कर्ता एवं भोक्ता होते हैं तथापि वे एक दूसरे के उपकारी या अपकारी भी हो सकते हैं । तत्त्वार्थसूत्र में 'परस्परोपग्रहो जीवानाम् सूत्र जीव के बाह्य लक्षण के रूप में प्रतिपादित है । जीवों में परस्पर हितकारी कार्य रूप उपकार उपादेय है तथा अहितकारी प्रवृत्ति त्याज्य है। आचार्य पूज्यपाद कर्मव्यतिकर अथवा पारस्परिक क्रिया द्वारा उपकार को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- "परस्परशब्दः कर्मव्यतिहारे वर्तते। कर्मव्यतिहारश्च क्रियाव्यतिहारः। परस्परस्योपग्रह परस्परोपग्रहः, कः पुनरसौ? स्वामी भृत्यः, आचार्यः शिष्यः, इत्येवमादिभावेन वृत्तिः परस्परोग्रहः । स्वामी तावद्वित्तत्यागादिना भृत्यानामुपकारे वर्तते। भृत्याश्च हितप्रतिपादनेनाहितप्रतिषेधेन च। आचार्य उभयलोकफलप्रदोपदेशदर्शनेन तदुपदेशविहितक्रियानुष्ठापनेन च शिष्याणामनुग्रहे वर्तते। शिष्या अपि तदानुकूल्यवृत्या आचार्याणाम्।"" परस्पर शब्द कर्मव्यतिहार अथवा पारस्परिक क्रिया के अर्थ में प्रयुक्त होता है । परस्पर उपग्रह का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि स्वामी धन देकर सेवक का उपकार करता है तथा भृत्य स्वामी के हित का प्रतिपादन कर एवं अहित का निषेध कर उपकार करता है । आचार्य इहलोक एवं परलोक के फल का उपदेश देकर तथा उस उपदेश के अनुसार क्रिया में लगाकर शिष्य का उपकार करता है। शिष्य भी आचार्य के अनुकूल व्यवहार कर उनका उपकार करते हैं । पूज्यपादाचार्य ने इस सूत्र में उपग्रह शब्द के पुनः प्रयोग को सार्थक बताते हुए कहा है कि पूर्वसूत्र ‘सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च में सुख, दुःख, जीवन एवं मरण को जो पुद्गल का उपकार निरूपित किया गया है, वह जीवों का भी परस्पर उपग्रह समझना चाहिये । अर्थात् जीव भी एक दूसरे के सुख, दुःख जीवन एवं मरण में निमित्त बनते हैं।