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सर्वार्थसिद्धि में आत्म-विमर्श
जीव की नित्यानित्यात्मकता
जीव अथवा आत्मा के सम्बन्ध में जैन दर्शन की एक विशेष मान्यता यह है कि वह धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय एवं काल की भाँति जीव को भी नित्यानित्यात्मक स्वीकार करता है। द्रव्य की दृष्टि से जीव नित्य है एवं नरक, तिर्यंचादि पर्यायों की दृष्टि से वह अनित्य है। जीव में जीवपना कभी समाप्त नहीं होता, वह ध्रुव है। इस दृष्टि से जीव नित्य है, किन्तु वह संसारी अवस्था में नरकादि विभिन्न पर्यायों में परिणत होता रहता है, इसलिए वह अनित्य है। यही नहीं, उसमें ज्ञानादि गुणों की पर्यायें भी निरन्तर उत्पन्न एवं व्यय होती रहती हैं, इसलिए पूर्व पर्यायों के नाश एवं उत्तर पर्यायों के उत्पाद की दृष्टि से वह अनित्य है। जीव अथवा आत्मा की ऐसी नित्यानित्यात्मकता अन्य किसी भी भारतीय दर्शन को मान्य नहीं है। सांख्य-योग दर्शन आत्मा को कूटस्थ नित्य मानते हैं। न्याय-वैशेषिक एवं वेदान्त दर्शनों में भी आत्मा को नित्य माना गया है। बौद्ध दर्शन अनात्मवादी है, उसमें चित्त सन्तति का जो सतत प्रवाह है वह ही सत्त्व अथवा पुद्गल है एवं वह अनित्य है । सर्वार्थसिद्धि में पूज्यपाद देवनन्दी कहते हैंअनित्य पर्याय के साथ द्रव्य की दृष्टि से तद्भाव रूप नित्यता बने रहने पर ही वस्तु का प्रत्यभिज्ञान होना सम्भव है। यदि पूर्व वस्तु का सर्वथा नाश हो जाए तो स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदि के रूप में लोक-संव्यवहार नहीं हो सकता। यदि सर्वथा नित्यता मान ली जाए तो संसार से निवृत्ति की प्रक्रिया सम्भव नहीं हो सकेगी। आचार्य हेमचन्द्र आत्मा के एकान्त नित्य एवं अनित्यत्व का खंडन करते हुए कहते हैं"नैकान्तवादे सुखदुःखभोगौ न पुण्यपापे न च बन्धमोक्षौ।' एकान्त नित्य एवं एकान्त अनित्य आत्मा मानने पर कर्मफल के रूप में सुख एवं दुःख का भोग संभव नहीं है। पुण्य एवं पाप तथा बन्ध व मोक्ष की प्रक्रिया भी एकान्तवाद में उत्पन्न नहीं हो सकती। मोक्ष में ऊर्ध्वगमन
जीव अष्टविध कर्मों से रहित होकर जब मोक्ष प्राप्त कर लेता है तो वह कहाँ स्थिर होता है? वेदान्त दर्शन का मन्तव्य है कि जीवात्मा तब ब्रह्म में विलीन हो जाता