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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
है, न्याय-वैशेषिक दर्शन मानते हैं कि तब आत्मा ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष एवं प्रयत्न से रहित हो जाता है अर्थात वह अज्ञानादि से रहित होने के कारण जडवत हो जाता है। मीमांसा दर्शन में मुक्ति की नहीं स्वर्ग की परिकल्पना है, अतः आत्मा स्वर्ग में गमन कर जाता है। बौद्ध दर्शन के अनुसार निर्वाण होने पर विज्ञान अथवा चित्त संतति का प्रवाह सदा के लिए रुक जाता है। जैन दर्शन के अनुसार न तो मुक्त आत्मा का किसी अन्य में विलय होता है, न कभी वह अवतार के रूप में पुनः जन्म ग्रहण करता है और न ही उसकी सत्ता समाप्त होती है, अपितु वह ज्योंही सर्वकर्म मलों से रहित होता है तो लोक के ऊर्श्वभाग में जाकर अवस्थित हो जाता है। वह लोक से अलोक में नहीं जाता, क्योंकि गति में सहायक उदासीन निमित्त लोक में ही रहता है, अलोक में नहीं। लोकाग्र में अवस्थित उस सिद्ध जीव में भी अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, सिद्धत्व, अव्याबाध सुख आदि विशेषताएँ रहती हैं। उपसंहार
इस प्रकार सर्वार्थसिद्धि में जीव अथवा आत्मा के विविध पक्षों का सुन्दर निरूपण हुआ है। तात्त्विक स्पष्टता के साथ ललित एवं सुग्राह्य भाषा का प्रयोग पूज्यपादाचार्य की विलक्षण विशेषता है। यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम चार अध्याय जीवतत्त्व से ही सम्बद्ध हैं, किन्तु पंचम एवं अन्य अध्याय भी किसी न किसी रूप में जीव से जुड़े हुए हैं। आत्मा विषयक जैन दर्शन की प्रमुख मान्यताएँ सर्वार्थसिद्धि टीका में चर्चित हुई हैं । औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक एवं पारिणामिक भावों के रूप में भी जीव की विशेषता वर्णित हुई है तथा तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के सातवें एवं आठवें सूत्र पर विभिन्न मार्गणाओं के माध्यम से जीव की विविध विशेषताओं पर जो प्रकाश डाला गया है वह पूज्यपादाचार्य के गहन आर्षज्ञान का द्योतक है। षट्खण्डागम एवं कसायपाहुड भी उसके आधार रहे हैं।