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सर्वार्थसिद्धि में आत्म-विमर्श
वेदना, विज्ञान, संज्ञा एवं संस्कार के अतिरिक्त आत्मा की सत्ता नहीं मानता। हाँ, उसे पुद्गल कहकर भी सर्वथा परिणमनशील मानता है। जैन दर्शन ने आत्मा को व्यापक मानने का खंडन किया है, क्योंकि चेतना का अनुभव अथवा सुख-दुःख का वेदन सबको अपने शरीर परिमाण में ही होता है, शरीर के बाहर नहीं। यदि शरीर के बाहर भी अपनी आत्मा का अस्तित्व माना जाएगा तो दूसरे के सुखःदुख का अनुभव भी अपनी आत्मा को होने लगेगा एवं कर्म-फल की पृथक्-पृथक् व्यवस्था भी नहीं बन सकेगी। इसलिए जैनदर्शन में चेतना को देहपरिमाण स्वीकार कर व्यावहारिक यथार्थ प्रस्तुत किया गया है। तत्त्वार्थसूत्र में इस तथ्य को 'प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत्" सूत्र में निबद्ध किया गया है। जिस प्रकार दीपक को छोटे कक्ष में रखने पर उसका प्रकाश उस कक्ष में तथा बड़े कक्ष में रखने पर उतने स्थान में फैल जाता है अर्थात् - उसमें संकोच एवं विस्तार का वैशिष्ट्य होता है, इसी प्रकार आत्मप्रदेश भी संकोच एवं विस्तार की विशेषता वाले होते हैं। जितने आकार की देह होती है, आत्मप्रदेश उसी आकार में फैल जाते हैं । सर्वार्थसिद्धि में पूज्यपादाचार्य ने कहा है कि यद्यपि आत्मा अमूर्त स्वभावी है तथापि अनादिकाल से कार्मण शरीर से संयुक्त रहने के कारण कथंचित् मूर्त है, इसलिए वह संकोच एवं विस्तार स्वभाव वाला है। आत्मा का कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व
जैन धर्म में आत्मा को अपने सुखःदुःख का कर्ता एवं विकर्ता माना गया है'अप्पा कत्ता विकत्ता यदुहाण वसुहाणय।" अष्टविध कर्मों का बंधनकर्ता भी वही तथा उनका फलभोग भी वही आत्मा करता है। आत्मा का कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व जैन दर्शन में एकमत से स्वीकार किया गया है। तभी कर्मसिद्धान्त के नियम भी घटित हो पाते हैं। विकर्ता शब्द का एक अर्थ कर्म न करने वाला भी हो सकता है । अर्थात् सुख-दुःख का कर्ता एवं अकर्ता होने में आत्मा स्वतन्त्र है। तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि जीव कषाययुक्त होकर कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है तथा यही बन्ध का स्वरूप ग्रहण करता है ।* मोक्ष-प्राप्ति में बन्ध हेतुओं का अभाव आवश्यक होता है । बन्ध का फल भी जीव को भोगना पड़ता है। सर्वार्थसिद्धि में