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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
तथा उन कर्मों के अनुसार ये नाना गतियों एवं योनियों में गमन करते हैं। सांख्यदर्शन में भी अनेक पुरुष माने गए हैं। सांख्यकारिका में तर्क दिया गया है कि सब प्राणियों का जन्म एवं मरण अलग-अलग होता है, सबकी इन्द्रियाँ एवं अन्तःकरण भिन्न होते हैं। सबकी प्रवृत्ति एक साथ होती दिखाई नहीं देती तथा सबमें सत्त्व, रज एवं तम का भेद होता है, इसलिए चेतन पुरुष एक नहीं, अनेक हैं । 24 वेदांत दर्शन में यद्यपि ब्रह्म एक ही है, किंतु अज्ञान की व्यष्टि से आच्छन्न अनेक जीव स्वीकार किए गए हैं। 25 बौद्धदर्शन में उस जीव को पुद्गल शब्द से कहा गया है तथा कर्मसिद्धान्त एवं पुनर्जन्म को मानने के कारण उसमें भी अनेक पुद्गल स्वीकृत हैं जो अपने-अपने कृत कर्मों के अनुसार स्वर्ग एवं नरक का सुख - दुःख भोगते हैं।" न्याय-वैशेषिक दर्शनों में आत्मत्व जाति मानी गई है जो अनेक आत्माओं में रहती है, इसलिए आत्माएँ अनेक हैं। 27 आत्मा या जीव को अनेक माने बिना कर्मफल की व्यवस्था नहीं बन सकती, इसलिए लगभग सभी भारतीय दर्शनों ने इस व्यवस्था की संगति बिठायी है । तत्त्वार्थसूत्र का 'जीवाश्च' सूत्र (5.3) यह प्रतिपादित करता है कि जीव अनेक हैं । सर्वार्थसिद्धिकार ने इस सूत्र की व्याख्या में कहा है कि ‘जीवाः’ शब्द में बहुवचन का निर्देश जीवों के भेदों को बतलाता है । 2 तत्त्वार्थसूत्र (5.15 ) में 'असंख्येयभागादिषु जीवानाम्' से भी जीव के बहुत्व की सिद्धि होती है। इसकी टीका में पूज्यपाद देवनन्दी लिखते हैं- नानाजीवानां तु सर्वलोक एव । नानाजीव तो समस्त लोक को अवगाहन करके रहते हैं । यहाँ नानाजीव शब्द से जीवों का बहुत्व स्पष्ट है। यहाँ पर वह कथन भी प्रासंगिक होगा कि जैनदर्शन में जीव संख्या की दृष्टि से संख्यात, असंख्यात नहीं अपितु अनन्त स्वीकार किए गए हैं । देहपरिमाणत्व
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जीव के परिमाण को लेकर जैन दर्शन का विशिष्ट एवं व्यावहारिक प्रतिपादन है, जिसके अनुसार संसारी जीव का देहपरिमाणत्व स्वीकार किया गया है। अन्य कोई भी भारतीय दर्शन ऐसा नहीं मानता। न्याय, वैशेषिक, वेदांत, मीमांसा, सांख्य आदि दर्शन आत्मा को विभु अथवा व्यापक मानते हैं, जबकि बौद्धदर्शन रूप,