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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
से पूज्यपाद परिचित थे, तथापि कर्मबन्धन को समझाने की नय दृष्टि से उन्होंने उसे मूर्त स्वीकार किया है। पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय जीव ___ पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक एवं वनस्पतिकायिक जीवों की सत्ता स्वीकार करना तथा इन्हें स्पर्शनेन्द्रियधारक स्थावर जीवों की श्रेणी में रखना जैन दर्शन का वैशिष्ट्य है जो इसे अन्य भारतीय दर्शनों से पृथक् करता है। न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसा-वेदांत आदि दर्शनों में पृथ्वी, अप, तेजस एवं वायु को पाँच भूतों के अन्तर्गत सम्मिलित किया गया है। पंचम भूत आकाश है। जैन दर्शन में आकाश को तो अजीव ही माना गया है, किन्तु पृथ्वी, अप्, अग्नि एवं वायु को सजीव एवं निर्जीव दोनों प्रकार का स्वीकार किया गया है। पूज्यपाद ने इसे स्पष्ट करते हुए पृथ्वी आदि के चार-चार प्रकार स्वीकार किए हैं। उदाहरण के लिए पृथिवी के पृथिवी, पृथिवीकाय, पृथिवीकायिक एवं पृथिवीजीव ये चार प्रकार हैं।" इनमें जो अचेतन एवं वैनसिक परिणमन से बनी काठिन्य गुण वाली है, वह पृथिवी है । काय का अर्थ शरीर है । पृथिवीकायिक जीव के द्वारा जो शरीर छोड़ दिया जाता है वह मृत शरीर पृथिवीकाय कहलाता है । जिस जीव की पृथ्वी ही काया है उसे पृथिवीकायिक जीव कहते हैं तथा कार्मणकाय योग में स्थित वह जीव जिसने अभी तक पृथिवी को कार्य रूप से ग्रहण नहीं किया है तब तक वह पृथिवी जीव कहलाता है। इसी प्रकार अप, तेजस, वायु एवं वनस्पति के भी चार-चार भेद समझने चाहिए । वनस्पतिकायिक को जीव मानने का जैन सिद्धान्त वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु आदि के द्वारा भी पुष्ट किया गया है । अन्य भारतीय दर्शन वनस्पति को प्रायः जीव नहीं मानते हैं। जीवों में प्राणों का वर्गीकरण
जैनदर्शन में जीव का विवेचन वैज्ञानिक दृष्टि से हुआ है । किस जीव में कितनी इन्द्रियाँ होंगी, कितनी पर्याप्तियाँ होंगी, कितने प्राण होंगे, कौनसा शरीर कब होगा आदि विभिन्न बिंदु वैज्ञानिक रीति से तय होते हैं। एकेन्द्रिय पृथिवीकायिक आदि जीवों में स्पर्शनेन्द्रिय बलप्राण, कायबलप्राण, उच्छ्वास- निःश्वास एवं