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-विमर्श
सर्वार्थसिद्धि में आत्म
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प्राप्त कर लेता है तो उसे एक भाव परिवर्तन कहते हैं । '
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पूज्यपाद कहते हैं जो इन पंचविध परिवर्तन रूप संसार से निवृत्त हो गए हैं, वे जीव मुक्त हैं।" मुक्त का यह स्वरूप सर्वार्थसिद्धिकार ने अद्भुत रीति से विस्तार से दिया है, अन्यथा वे संक्षेप करना चाहते तो कह सकते थे कि अष्टविध कर्मों से रहित जीव मुक्त कहलाते हैं, किन्तु उनका प्रयोजन संसार की परिवर्तनशीलता एवं उसमें अनन्तकाल से हो रहे परिभम्रण का बोध कराना था, ताकि हम सावधान होकर इस परिभ्रमण के मार्ग से ऊपर उठकर मुक्ति के मार्ग को चुनने का मन बना सकें।
जीव की अमूर्तता एवं कथंचिद् मूर्तता
प्रायः जैनदर्शन में जीव को अमूर्त ही माना जाता है, क्योंकि वह रूप, रस, गंध एवं स्पर्श से रहित होता है । किन्तु सर्वार्थसिद्धि में प्रश्न उठाया गया कि अमूर्त मानने पर आत्मा के कर्मबंध नहीं हो सकता । प्रश्न के उत्तर में आचार्य पूज्यपाद ने कहा कि यह शंका करना उचित नहीं है । जैन दर्शन में अनेकांतदृष्टि है । एकान्त रूप से हम आत्मा को अमूर्त नहीं मानते । कर्मबंध की पर्याय की अपेक्षा से कर्मयुक्त होने के कारण आत्मा कथंचित् मूर्त है और शुद्ध ( कर्मरहित) स्वरूप की अपेक्षा से वह अमूर्त है ।" पूज्यपाद द्वारा प्रदत्त यह समाधान उनकी अनेकांतदृष्टि एवं सूझबूझ का परिचायक है । कोई कहे कि कर्मबंध के आवेश से युक्त आत्मा एवं कर्म में ऐक्य हो जाएगा तो पूज्यपाद कहते हैं कि लक्षणतः अथवा स्वरूपतः आत्मा एवं कर्म पृथक् हैं। आत्मा उपयोग अथवा चेतनालक्षण वाला है और कर्म अजीव पुद्गल है। 10
आचारांगसूत्र में शुद्ध चेतना का निरूपण करते हुए कहा गया है कि आत्मा न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न गोल है, न त्रिकोण है। वह न काली है, न नीली है, न लाल है, न पीली है, न श्वेत है। वह वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श से रहित है। ( आचारांग 1.5.6, सूत्र 176 ) इसी प्रकार समयसार में भी उसे रस, रूप, गन्ध एवं शब्द से रहित, इन्द्रिय से अगोचर, बाह्य लिंग से अग्राहय, आकार रहित तथा चेतना गुण से युक्त निरूपित किया गया है । ( समयसार, गाथा 49) आत्मा के इस अमूर्त स्वरूप