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सर्वार्थसिद्धि में आत्म-विमर्श
उमास्वाति* (द्वितीय-तृतीय शती ई.) द्वारा रचित 'तत्त्वार्थसूत्र' जैनदर्शन का संस्कृत भाषा में रचित प्रथम सूत्र ग्रन्थ है जो श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं को मान्य है । इस सूत्र पर पूज्यपाद देवनन्दी द्वारा ‘सर्वार्थसिद्धि' टीका की रचना की गई है। सिद्धसेनगणि (तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति), हरिभद्रसूरि (तत्त्वार्थटीका), भट्ट अकलंक (तत्त्वार्थवार्तिक) आचार्य विद्यानन्द (तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक) आदि के द्वारा भी तत्त्वार्थसूत्र पर व्याख्या ग्रन्थ लिखे गए । यहाँ पूज्यपाद देवनन्दी की टीका के आधार पर जैनदर्शन में प्रतिपादित 'आत्मा' किं वा 'जीव' के सम्बन्ध में विचार किया गया है। इस विवेचन से विदित होता है कि चेतनालक्षण से युक्त जीव में ज्ञान एवं दर्शन ये दो गुण जीव के स्वरूप बनकर रहते हैं। इनका जीव से स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है । ये दोनों गुण बोध रूप व्यापार की अपेक्षा उपयोग भी कहे गए हैं। इस आधार पर जीव का लक्षण ‘उपयोग' भी स्वीकृत है। उपयोग के भी दो प्रकार प्रतिपादित हैं- ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोग। दर्शनोपयोग निर्विकल्पक बोध है तथा ज्ञानोपयोग सविकल्पक बोध । प्रस्तुत आलेख में जीव के भेदों, अमूर्तता-मूर्तता, मुक्त जीव, जीवों के बहुत्व, देह-परिमाणत्व, नित्यानित्यात्मकता, परस्पर-उपग्रहत्व आदि के सम्बन्ध में भारतीय परम्परा के दर्शनों के साथ तुलना करते हुए प्रकाश डाला गया है।
जैनदर्शन में 'जीव' एवं 'आत्मा' शब्द का प्रयोग एकार्थक है। दोनों में कोई भेद नहीं है । तत्त्वार्थसूत्र में तत्त्वगणना एवं द्रव्यगणना के प्रकरण में क्रमशः प्रथम एवं पंचम अध्याय में 'जीव' शब्द का ही प्रयोग किया गया है।' सर्वार्थसिद्धि में 'आत्मा' शब्द का प्रयोग मिलता है। उदाहरण के लिए वहाँ ‘अक्ष' का अर्थ आत्मा एवं इन्द्र का अर्थ आत्मा किया गया है । प्रायः 'जीव' शब्द ही अधिक प्रयुक्त है। जीव तत्त्व भी है एवं द्रव्य भी है। जब जीव का निरूपण षड्द्रव्यात्मक लोक के रूप में किया जाता है तब वह 'द्रव्य' कहलाता है तथा जब बन्धन एवं मुक्ति की प्रक्रिया को समझने की दृष्टि से किया जाता है तो वह तत्त्व कहलाता है। तत्त्व एवं द्रव्य स्वरूपतः पृथक् होकर भी एक ही अधिकरण में रह सकते हैं अर्थात् उनका सामानाधिकरण्य सम्भव है । तत्त्वार्थसूत्र पर टीका ‘सर्वार्थसिद्धि' के रचयिता * दिगम्बर जैन परम्परा में 'उमास्वामी' एवं श्वेताम्बर परम्परा में 'उमास्वाति' नाम प्रचलित है।