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दो शब्द (ग्रन्थ एवं 'माहण जाति' विषयक)
संसार सब प्रकार के रसों और अनेक प्रकार के सुखों से भरपूर होने पर भी हमारे प्राचीन महात्माओं ने इन स्वादु रसों को कुरस और इन मधुर सुखों को क्षणिक कहा है ।
संसार को बादल नगरी जैसा और सुखों को इन्द्रधनुष जैसा अप्तरंगी कहा है । उन्होंने पृथ्वी को एक पुल की उपमा दी है और मनुष्य को मुसाफिर कहा है। क्षणिक सुख में लुब्ध होने का अर्थ है मुसाफिर का पुल पर मकान बनाने का विचार करना । उनके कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य को जैसे बने वैसे सावधानी से जरा भी थके बिना, या डरे बिना, पुल को पार करके अपने मंजले मकसूद पर पहुंचना चाहिए।
पूल अनेक प्रकार के हों, मसाफिर भी अनेक प्रकार के हों, इसी प्रकार से अनेक धर्म, मजहब, संप्रदाय और फिरके मोजूद हों, परन्तु इनके द्वारा भिन्न रुचि वाला मनुष्य संसार सरिता को पार कर जाय । चतुर मनुष्य कभी कच्चा पुल पसंद न करे, अविश्वस्त पुल पर विश्वास न करे यह तो सर्व मान्य है । जिसने संसार रूप दुस्तर सरिता को पार करने के लिए सुन्दर और विश्वस्त पुल पसंद किया है उसे धन्यवाद है।