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मूल पुस्तक का विवेचन गुजराती में बंबई निवासो श्री मोतीचन्द भाई गिरधर भाई ने पचास वर्ष पूर्व किया था, उसीके श्राधार पर हिन्दी में यह विवेचन श्री फतेहचन्दजी महात्मा ने किया है । 'महात्मा' प्राचीन माहण का अपभ्रंश है । माहण जाति जैनधर्मावलम्बी है और उत्तर तथा दक्षिण भारत में अनेक स्थानों मे फैली हुई है । उत्तर भारत के माण महात्मा कहलाते हैं, दक्षिण भारत के जैन उपाध्याय । इस जाति का मुख्य कार्यं पठन-पाठन, पूजा-प्रतिष्ठा आदि है । मुझे इस बात की बड़ी प्रसन्नता है कि श्री फतेहचन्दजी ने अपनी जाति की परम्परा को जारी रखते हुए इस लोक हितकारी पुस्तक को बड़े परिश्रम से हिन्दी के पाठकों के लिए सुलभ किया है । उसके विवेचन में व्यक्त किये गये मत से कहीं २ असहमति की गुंजायश हो सकती है, कहीं-कहीं मूल लेखक के विचार अखर सकते हैं, विशेषकर स्त्री, संतान धन आदि के ममत्व - विसर्जन वाले अध्यायों में; लेकिन इसमें संदेह नहीं कि पुस्तक बड़ी ही लाभदायक है । सारी पुस्तक में विचार- रत्न जगह-जगह पर बिखरे पड़े हैं, कुछ की बानगी देखिए ।
" जिसका न कोई मित्र है, न कोई शत्रु ही है, जिसका न कोई अपना है, न पराया ही है, जिसका मन कषायरहित होकर इंद्रियों के विषयों में रमण नहीं करता है, वही परम योगी है ।" ( पृष्ठ २८ )
" इस संसार में वही पुरुष सुज्ञ हैं, जो सुन्दर परिणामवाली तथा चिर स्थायी वस्तु, विचार कर ग्रहण करते हैं, "
( पृष्ठ ४७)