________________
(३८)
का अभ्यास आवश्यक है, इस विषय पर आठवें अध्याय में प्रकाश डाला गया है । मनुष्य का मन बड़ा चंचल होता है, बिना उस पर नियंत्रण किये साधना - मार्ग पर एक पग भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता । नवें अध्याय में बताया गया है कि मन को किस प्रकार वश में किया जा सकता है । दसवें अध्याय में दिखाया गया है कि सांसारिक वस्तुओं के पीछे पड़ना और अपने अहं, महत्वाकांक्षा आदि की तुष्टि के लिए भटकना सारहीन है, उनकी ओर से चित्त को हटा कर वास्तविक साधना में लगाना इष्टकर हैं । बाद के तीन अध्यायों में धर्म-शुद्धि, गुरु-शुद्धि तथा यति- शिक्षा की चर्चा है । चौदहवें अध्याय में मन वचन और काय की दुष्प्रवृत्ति का निरोध कर उन्हें सुमार्ग पर प्रवृत्त करने का उपदेश है । जीवन को उत्तरोत्तर निखारने के लिए धार्मिक आचरण, तपस्या, स्वाध्याय, आत्म-निरीक्षण तथा शुद्ध वृत्ति अत्यावश्यक है, उनका विवेचन पंद्रहवें अध्याय में किया गया है । अंतिम अध्याय में अविद्या-त्याग, समता-धारण, सुख-दुःख की मूल - ममता का परित्याग आदि-आदि बातें बताई गई हैं, अन्त में परिशिष्ट में वैराग्य के कुछ दोहे, भगवान् की वाणी तथा कतिपय जीवनोपयोगी पद दिये गये हैं ।
प्रत्येक अध्याय में पहले संस्कृत का मूल श्लोक दिया गया है, फिर उसका अर्थ, अनंतर उसका विवेचन, इस प्रकार मूल पुस्तक के विचारों को अधिक से अधिक सरल एवं बोधगम्य बनाने का प्रयत्न किया गया है ।