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ऐसे साहित्य का प्रसार अत्यन्त आवश्यक है, जो जीवन का सही दृष्टिकोण प्रस्तुत कर सके और जो लोगों को बता सके कि हम किस मार्ग पर चल कर अपने जीवन को धन्य और कृतार्थ बना सकते हैं, उस परमानन्द को प्राप्त कर सकते हैं, जिसके सम्मुख संसार के सारे आनन्द फीके हो उठते हैं। .
इस दृष्टि से प्रस्तुत पुस्तक एक अभिनंदनीय प्रकाशन है। उसकी रचना विक्रम संवत १४७५ से १५०० के बीच हुई थी। उसके रचयिता मुनिवरं सुन्दरसूरिजी उच्च कोटि के अध्यात्म-योगी और विद्वान् पुरुष थे। उनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर देश के महान् पण्डितों ने उन्हें 'काली सरस्वती' का विरुद प्रदान किया था। वह सहस्रावधानो थे। इस पुस्तक की रचना उन्होंने श्लोकों में की है और उसके सोलह अध्यायों में विभिन्न विषयों का सविस्तर प्रतिपादन किया है। सबसे पहले अध्याय में उन्होंने 'समता' पर प्रकाश डाला है, क्योंकि वह 'समस्त गुणों का बीज है, जिसका फल मोक्ष है" वस्तुतः चित्त को सम रखना आध्यात्मिक जीवन की प्रारम्भिक भूमिका है । अतः विद्वान् लेखक ने शुरू के ७३ पृष्ठों में उसीकी व्यापक रूप से चर्चा की है । बाद के चार अध्यायों में उन्होंने क्रमशः स्त्री, संतान, धन तथा देह के ममत्व की बाधाओं तथा उनके निवारण को दृष्टि प्रदान की है। मानव का सबसे बड़ा शत्रु प्रमाद है। उसके तथा विभिन्न कषायों के त्याग का विचार छटे और सातवें अध्यायों में किया गया है । मनः शुद्धि को स्थायी रूप देने के लिए शास्त्रों