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भूमिका
बंधुवर फतहचन्दजी ने जब इस पुस्तक की भूमिका लिखने का बार-बार आग्रह किया तो मैं बड़ी द्विविधा में पड़ गया, कारण कि एक तो मैं अपने को इस काम के लिए अधिकारी नहीं मानता, दूसरे, मुझे इस प्रकार के ग्रन्थ के लिए किसी भी 'प्रशस्ति' अथवा 'प्रमाण-पत्र' का औचित्य नहीं जान पड़ता, फिर भी मैं उनके अनुरोध को नहीं टाल सका। आज के भौतिकता-परायण युग में ऐसे ग्रन्थों का प्रकाशन करना, जिनके पीछे आर्थिक लाभ की संकीर्ण दृष्टि न होकर लोकहित की उदात्त भावना हो, यज्ञ करने के समान है और भारतीय संस्कृति की अपेक्षा है कि हमें यज्ञों में अपना योगदान देना ही चाहिए ।
प्राचीन काल से हमारा देश धर्मपरायण देश माना जाता रहा है । एक समय था, जब कि उसकी संस्कृति और प्राध्यात्मिकता ने अन्य देशों को भी प्रभावित किया था और यह तब की बात है जबकि यातायात की सुविधाएं नहीं थीं और एक देश का दूसरे के साथ सम्पर्क स्थापित करना बहुत ही कठिन था, लेकिन इस भूमि की विशेषता थी कि उन बाधाओं को पार कर उसका संदेश बाहर पहुंचा और अनेक देशों के निवासियों की विचार-धारा पर अपना असर डाला।