Book Title: Anekant va Syadvada
Author(s): Chandulal C Shah
Publisher: Jain Marg Aradhak Samiti Belgaon
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . .Aahe mymaramABETERS T - - SEE ॥ श्री शान्तिनाथाय नमः ॥ ---A334 AR SAX अनेकान्त स्याद्वाद [ हिन्दी-संस्करण A women - IIMDRI madame - - लेखक :स्व० श्री चन्दुलाल स० शाह । - - प्रकाशिका - जैन मार्ग अाराधक समिति ___Clo चुनीलाल दुलीचंद गोकाक, जि० बेलगाँव (मैसुर-राज्य) संवत्-२०१६ ] मूल्य ५) रु० [वीर सवत् २४८६ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलने का पता: जैन मार्ग प्राराधक समिति C/o चुनीलाल दुलीचद राठोड गोकाक, जि० बेलगाव (मैसुर राज्य) सस्करण १००० वि० स० २०१६ वीर सवत् २४८६ सन् १९६३ सर्व हक स्वाधीन ® मूल्य • मुद्रक श्री पावन पाठक सस्ता साहित्य प्रेस, कचहरी रोड, अजमेर Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जिनको उपकारक दृष्टि में जीवन ने नया मोड लिया, जिनकी अमीम कृपा से गम्यक् मानद की प्राप्ति हुई यौर जिनकी प्रेरणा से यत्किञ्चित् लिखने का सुअवसर प्राप्त हुआ उन महानुभाव गुरुदेव के कर-कमलो मे वदना पूर्वक मपित। -लेखक Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक का वक्तव्य अनेकान्त-स्याद्वाद जैनधर्म के अहिंसामय आचार और अनेकान्त सिद्धान्त की विश्वश्रेष्ठता के विषय में आज कोई मतभेद नहीं है। परन्तु अनेकान्त के सिद्धान्त को सरल तथा बातचीत की पद्धति से प्रस्तुत करने की आवश्यकता की पूर्ति प्राधुनिक साहित्य मे कही दिखाई नही देती। ___ सूचित करते हुए अत्यन्त हर्प होता है कि अहमदावाद निवासी स्वर्गीय श्री चन्दूलाल सकरचद ने अपने जीवन काल मे जैन धर्म की शुद्ध सेवा करने के उद्देश्य से अपना उपर्युक्त शैली में लिखा हुआ अनेकान्त-स्याद्वाद विषयक एक भव्य गुजराती निवन्ध तैयार कर हमे प्रदान किया । आज हमे वह और उसका हिन्दी, मराठी तथा अग्रेजी अनुवाद करवा कर प्रकाशित करने का सौभाग्य प्राप्त हुया है। यह निवन्ध वडी रोचक शैली में लिखा हुआ है, इसलिए कहानियो की पुस्तक की तरह सतत रसपूर्वक पढा जा सकता है । इममे समाविष्ट आधुनिक हटान्तो-उपमानो की विपुलता, पारिभाषिक शब्दो का यथासभव कम प्रयोग, यावश्यक वैज्ञानिक तुलना आदि की शैली इस प्रकार के गभीर तात्त्विक ग्रन्थो की दुनिया में बिल्कुल नई वस्तु है । इस निबन्ध मे अनेकान्तवाद के घरेलू प्रसग, अनेकान्त का विशद स्वरूप, सात नय, सप्तभगी, नवतत्त्व, जीवन एव जगत की जटिल ममस्याएं हल करने में अनेकान्तवाद की प्रवल उपयोगिता तथा नमस्कार महामत्र अादि विपयो का समावेश किया गया है। प्रतिपादन इतना युक्तिवर्ग तथा मनोविज्ञान के नियमानुसार किया गया है, कि कोई भी तटस्थ जैनेतर भी इसका ध्यानपूर्वक पठन कर लेने पर, हमें विश्वास है कि, अनेकान्त की श्रद्धा लेकर ही उठेगा। प्रस्तुत ग्रन्थ का शास्त्रीय दृष्टि से निरीक्षण करने का कार्य प० श्री भानुविजयजी गणी ने किया है और उसका हिन्दी अनुवाद प्रो वी टी परमार एम ए, बी एम सी , साहित्यरत्न ने किया है । अत हम उनके आभारी है। जैन मार्ग आराधक समिति, गोकाक । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन अधिक लम्बी चौडी बात करने की मेरी इच्छा नहीं । जब कि एक ओर तत्त्वसपत्ति का विपुल भण्डार पड़ा हुआ है तब दूसरी ओर ऐसा भी 'वाछकर ( 'इच्छुक') वर्ग है जिसे यह भी नही मालूम कि यह भण्डार कहां पड़ा हुआ है ? _ 'मुझ से इन लोगो को कुछ लाभ हो' ऐसी सद्भावना मन मे जागृत होते ही एक छोटा-सा चमचा अपने आप गतिशील हुअा और अपनी शक्ति के अनुसार अपने माथ (ज्ञान भण्डार ) लिये इच्छुक वर्ग के सामने उपस्थित होता है। भला एक छोटे-मे चमचे की गुजाइश ही कितनी? इससे कही पेट थोडे ही भर मकता है ? तृप्ति थोडे ही हो सकती है ? फिर ऐसी धृष्टता क्यो? कारण सिर्फ इतना छोटा-सा ही तो है । इस चमचे में लगे हुए अमृतसिन्धु के विन्दु का स्वाद चखकर, कोई इच्छुक उक्त विपुल भडार की खोज मे उद्यमशील हो जाय • वस .. सिर्फ इतना ही। ससार का सब से बडा दुर्भाग्य है कि 'अनेकान्तवाद' को किसी एक सम्प्रदाय की मुहर लग गई है। ___ जैसे सूर्य और चन्द्र को साम्प्रदायिक तत्त्व नही माना जा सकता, जैसे वे सारे विश्व के कल्याणकारक समझे जाते है ठीक उसी तरह 'अनेकातवाद' के नाम से प्रसिद्ध तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति कही भी क्यो न हुई हो, विश्वके लिये मगलमय है । गणितशास्न की खोज किसी ने भी की हो, किमी भी व्यक्ति द्वारा उसे अक्षरदेह प्राप्त हुआ हो, किसी भी भाषा मे लिखा गया हो, फिर भी सामूहिक रूप मे वह एक और विश्वमान्य है। ठीक उसी तरह यह 'अनेकान्तवाद' भी एक विश्वकल्याणकारक तत्त्वज्ञान है । लौकिक एव लोकोत्तर, दोनो क्षेत्रो मे 'अनेकातवाद' और 'स्याद्वाद' ज्ञान का प्रधान महत्त्व है। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्प्रदाय के प्रभाव से मुक्त करके 'यह सिर्फ हमारा ही नही, हमारा, आपका और सभी लोगो का है ।' ऐसी घोपणा द्वारा 'अनेकातवाद' के अद्भुत और विपुल भडार को समग्र मानवता के कल्याणार्थ उन्मुक्त छोड देने का समय अव आ पहुंचा है। जव कि आज के अणुशस्त्र और अन्तरिक्षयान, समस्त मानवता का विनाश करने पर तुले हुए है तब 'स्याद्वाद' का ज्ञान एक ऐसा 'सर्वसरक्षक शस्त्र' है जिसमे जगत की रक्षा करने की अद्भुत शक्ति है । 'स्याद्वाद' के ज्ञान मे वह महाशक्ति छिपी हुई है जो मानव हृदय से शत्रुता की भावना का सहार करके उसके स्थान पर मित्रता की भावना जागृत कर सकती है। 'स्याद्वाद' समग्र मानवजाति का अमूल्य खजाना है, प्रत्येक मनुष्य इस परम सुखदायक सम्पत्ति का अधिकारी है। ____ जो जिसका है उसको मिलना ही चाहिये। जो जिसका है उसे उद्यमपूर्वक और धैर्य से प्राप्त करना चाहिये। ऐसे मनोरथ लेकर यह तुच्छ प्रयास उस सत्कार्य मे निमित्ति बनने की इच्छा मे, भावनापूर्वक इस छोटी सी पुस्तक के रूप मे, इच्छुको के सामने प्रस्तुत है। यह चमचा इस छोटे से काम को करने की प्रेरणा देने वाले, सहायता देने वाले और यह काम कराने वाले सभी आदरणीय स्वजनो, मित्रो, गुरुदेव, एव शासन देव आदि का (किसी के नामाभिधान की विधि किये विना ) आभार मानता है। ___इस पुस्तक मे जो कुछ भी परोसा गया है वह तो महासिन्धु के बिन्दु का भी एक सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमाणु मात्र है । परोसने वाले की कुछ त्रुटियाँ रह गई हो, इसमे मति प्रज्ञान के रजकरण दिखाई दे, यह स्वाभाविक है और इसके लिये क्षमायाचना के सिवा और कौन-सा श्रेष्ठ मार्ग हो सकता है ? 'मिथ्या मे दुष्कृतम् । - चन्दुभाई Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना इस विशाल एवं विराट विश्व का पदार्थविज्ञान इतना गहन प्रवल और चित्रविचित्र है कि केवल कल्पना बुद्धि और तर्क से कोई भी दर्शनवेत्ता (Philosophe 1 ) सत्य का साक्षात्कार कर ही नही सकता, इसलिये तटस्थ तत्त्वचिन्तकों (Thinkers) को “स्वभावोऽतर्क गोचर " निर्विवाद कहना पड़ता है । सत्य का साक्षात्कार करने का सर्वोत्तम उपाय यह है कि चाहे बुद्धि पहुॅचे या न पहुॅचे परन्तु अपनी दृष्टि के अनुसार सृष्टि को समझने का कढाग्रह छोड़कर सृष्टि के अनुसार दृष्टि को दौड़ाने का प्रयत्न करना चाहिए । इस अटल सिद्धान्त की भूमिका पर सृष्टि का अवलोकन करने के पश्चात् दर्शनशास्त्रो का अध्ययन किया जावे तो स्यावाट दर्शन जो अनेकान्तवाद, आर्हत दर्शन या जैन दर्शन के नाम से संसार मैं प्रसिद्ध है, उसको कभी भी संशयवाद, शुष्कवाद अथवा शून्यवाद कहने का स्थान ही नही रहता और जिन २ दार्शनिक विद्वानो ने स्याद्वाद की मौलिक मान्यता “एकस्मिन् वस्तुनि सापेक्षरीत्या विरुद्वनानावर्मस्वीकारो हि स्यादूवाद" के सामने अपने मताग्रह के अभिनिवेश में "नैकस्मिन्नसभवात्" की आवाज उठाने मे अपनी वाक्पटुता का जितने २ प्रमाण में प्रदर्शन किया है उतने प्रमाण में इस आधुनिक विज्ञान (Modern Science) के युग में अपने ही विचारक एव तत्त्वशोधक अनुयायियों के बीच में उन्हें विशेष हास्यपात्र बनना पड़ा है । आधुनिक विज्ञान अनुमान पर नहीं परन्तु अनुभूति की भूमिका (Experimental Ground) पर खडा रह कर उदूघोषणा कर रहा है कि Permanance underlying change Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 the fulerum of all the universal substances अर्थात् विश्व के सनस्त तत्त्वभूत पदार्थों का "उत्पादत्र्ययधोव्ययुक्त सत्" ही मूलाधार है और स्यादवाद दर्शन की इमारत इसी बुनियाद (Foundation) पर ही निर्माण हुई है। जैन आगम शास्त्रो का स्पष्ट कथन है कि तीर्थकर महाप्रभु अपने जन्म जन्म की जीवनयात्रा में अहिसा के आदर्श सिद्वान्तो को अमल में रखते हुए और सर्वोट संयम की साधना करते हुए और तीव्रातितीव्र तप की आराधना करते हाए त्रिभुवनप्रकाशक केवल-जान ज्योति को प्राप्त करते है, तव नैसर्गिक नियमानुसार ( Natural Law) अखिल ब्रह्माण्ड में दिव्य आन्दोलन ( Cosmic Vibration ) होता है और उस आकर्पण से देव देवी, नर नारी और पशु पक्षी सब आदर एवं पूज्य भाव से उनके ( तीर्थकर भगवन्त के ) दिव्य दर्शन और दिव्य बनि का लाभ उठाने के लिये समवसरण ( Cosmic congiegation ) में सम्मिलित होते है, तब श्री तीर्थकर भगवन्त तीर्थ को स्थापना करते है और उस प्रसग पर सब से प्रथम प्रभु के पाद कमलो में आत्म-समर्पण (Unconditional sultender) करने गले प्रज्ञाप्रौढ पुण्यवन्त पुरुप जो उनके प्रधान शिष्य एव गणधर कहलाते है, वे विनयपूर्वक प्रणाम करते हुए प्रश्न करते हैं कि-भते । कि तत्त , कि तत्त १ तत्त्व क्या है, तत्त्व क्या है ? प्रत्युत्तर में अनन्त कृपालु भगवत मधुर वाणी से फरमाते है कि-"उग्पन्नेड वा, विगमेड वा, धुवेइ वा" व "उत्पाद व्यय ध्रौव्य" पदार्थ का स्वभाव ही तत्त्व है। इस त्रिपदी का ही स्याद्वाद दर्शन मे ससार के संचालन का मूलाधार कहो चाहे ब्रह्माण्ड का वीज अथवा द्वादशाङ्गी वाणीगङ्गा का हिमाचल कहो अर्थात् यही सब कुछ है। कहने का तात्पर्य यह है कि समस्त तत्त्वभूत पदार्थ जिनको जैन परिभाषा में द्रव्य (Substances) कहते है वे उत्पाट व्यय और ध्रौव्य लक्षण वाले अनादि Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निधन हैं। द्रव्य द्र धातु से बना हुआ शब्द है यानि द्रव्य हमेशा अपने मूल गुणो से ध्रुव रहता हुआ अनन्त पर्यायों में अवस्यान्तर पाता ही रहता है और उसी कारणवशात् संसार में संयोग वियोग, उत्यान पतन, जन्म मरण, हर्प शोक और हानि लाभ सारी घटनायें बनती रहती हैं । आगम ग्रन्यों में जव २ पदार्थदर्शन एवं वस्तुस्वभाव के ऊपर प्रश्नोत्तर का प्रकरण चलता है तो यही समाधान दिया है कि सारी वस्तु नित्यानित्य सभाव वाली है अर्थात् द्रव्यार्थिक नय (Absolute point of view) से सब ही नित्य है और पर्यायार्थिक नय एवं व्यवहार नय (Relative point of view) से अनित्य है, चाहे चेतन तत्व रुप मानव दानव या पशु पखी हो, चाहे अचेतन (जड़) तत्त्व रूप घट पटादि पदार्थ हो । उदाहरणार्थ जैसे सुवर्ण की मुद्रिका मे से कान के कुण्डल बन गये तो सुवर्ण अपने पीला भारी और कोमल स्वभाव मे वैसा का वैसा है मात्र आकृति (पर्याय) में परिवर्तन होता है । वही हालत भिन्न २ प्राणियों के जन्म मरणादि की है। इसलिये जो उपरोक्त दोनों दृष्टियों का विकास नही साधते है उनके लिये सारे हर्प शोक एवं सुख दुख का झगडा अनिवार्य है और मारे दर्शनों का साध्यविन्दु प्राणियों को इस विडम्बना एव झगड़े में से मुक्त करने का है इसलिये स्थितप्रन, समभावी या समत्वदर्शी बनना ही अगर सारे शास्त्रों का साराश हो तो स्यावाद संशयवाद नहीं परन्तु सत्यवाद एवं सम्यगवाद है। संसार के समस्त पदार्थविनान का स्वभाव ही स्यावाटमय है अर्थान् सृष्टि का संचालन स्याद्वादमय हो रहा है इसलिये स्याद्वाद के अध्ययन, मनन और मूक्ष्म परिशीलन के विना मानव का महोदय पद को प्राप्त होना दुष्कर एव असम्भव है। यह मसार की समस्त समस्याओ के शान्ति समाधान ( For the solution of all the burning problems ) के अपूर्व ज्ञान का खजाना है इसलिये स्यावाद का Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्डन करना सूर्य के सामने धूल उड़ाने जैसा विपय है । स्यादबाद यह नही कहता है कि चाँदी की भ्रान्ति अथवा रज्जू में सांप की भ्रान्ति से भ्रमित हो जाओ । स्याद्वाद तो यह कहता है - वस्तु विज्ञान का (१) स्याद् अस्ति, (२) स्याद् नास्ति, (३) स्याद अस्ति नास्ति ( ४ ) स्याद् अवक्तव्य (५) स्याद् अस्ति अवक्तव्य (६) स्याद् नास्ति अवक्तव्य (७) स्याद् अस्ति नास्ति अवक्तव्य, इस प्रकार से सप्त भंगी द्वारा सूक्ष्मावलोकन करके विकास साधो तब ही सत्य का साक्षात्कार हो सकता है । स्याद् शब्द यही संकेत करता है कि तुम्हारे कथन में कुछ है परन्तु सब कुछ नहीं । अरव सागर (Arabian sea ) में हिन्द महासागर, ( Indian ocean ) का ही पानी है परन्तु हिन्द महासागर नही । इसलिये सव ही पदार्थ का सापेक्ष प्रतिपादन है अर्थात् एकान्त नहीं परन्तु अनेकान्त है । इसी अनेकान्तवाद या सापेक्षवाद (एक पर्यायवाचक शब्द है) और आधुनिक विज्ञान का सम्राट् डा० आइन्स्टन (Einsten ) की (Theory of relativity) सापेक्षवाद की मान्यता भी कितनेक अश में अनेकान्तवाद से अनुसरती है। इससे सिद्ध होता है स्यादवाद विज्ञान का भी महाविज्ञान है, क्योकि स्याद्वादमय स्वभाव से पदार्थ विज्ञान विश्व का सूक्ष्मगणितमय Higher mathematical piocess स्वय सचालन कर रहा है । आधुनिक विज्ञानवेत्ता (Scientists) एक आवाज से स्वीकार करते है कि Universe is self created, self-1uled and self-systematised by its unchangable and potential Laws विश्व अपना सर्जन सचालन और शासन स्वय ही अपने अटल नियमों के अनुसार कर रहा है। सृष्टि का सर्जनहार, संरक्षक और सहारक मात्र मानव कल्पनायें ( Imaginary conceptions) है | स्याद्वाद भी विज्ञान की तरह ऐसी कल्पित मान्यताओ को कभी स्थान नही देता है इसलिये स्यादवाद ही सत्यवाद है । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदार्थविज्ञान का पूर्ण प्रतिपादन करने वाले आज हजारों एक से एक आला दर्जे के ग्रन्थ मौजूद हैं और मूल आगम जैसे भगवती समवायांग प्रज्ञापना या अनुयोगद्वार सूत्रों में इस बाबत मं सम्यग प्रतिपादन किया गया है इसलिये स्याद्वाद को संशयवाद मान में सत्य में सशय पैदा करना एव सत्य का प्रतीकार समझा जाता है। आज तो अंतरराष्ट्रीय ख्याति (International reputation) के अनेक धुरंधर विद्वान डा० गंगानाथ झा, प्रो० आनन्दशकर ध्रुव, फणिभूपण अधिकारी, डा० सतीशचन्द्र विद्याभूषण, महावीरप्रसाद द्विवेदी, डा० परटोल्ड, डा० हर्मन जेकोबी डा० हेल्मय बोन ग्लेजनंप, डा० टेमेटोरी आदि पौर्वात्य और पाश्चात्य अनेक विद्वान् स्याद्वाद की मुक्त कठ से प्रशंसा करते हुए फरमाते है कि स्यादवाद संसार की संघटन शक्ति (Unifying Force) है और सब मतभेद और भिन्न भिन्न दृष्टियों के समन्वय करने वाला (Compromising system of philosophy) दर्शन है, इसका अनेकान्त नाम सार्थक है क्योंकि वह अनेक विचारवैमनस्यो का सुन्दर ढंग से समाधान करता है । इन सब के अभिप्रायों का यथार्थ उल्लेख करने की भावना थी, परन्तु मै यहाँ स्वतन्त्र निबन्ध नहीं लिख रहा है लेकिन एक निबन्ध की प्रस्तावना लिख रहा हॅू इसलिये विशेष लिखना अमर्यादित एव अप्रासंगिक समझा जाता है इसलिये इतना ही सक्षेप में लिखना उपयुक्त समझता हूँ । इस निबन्ध के लेखक को मिलने की उत्कण्ठा होने हुए भी मेरा मिलना नही हुआ और उनका अचानक स्वर्गवास हो जाने से दिल की भावना दिल में ही रही। इतना कहना कोई अत्युक्त नहीं होगा कि उनके लेखो ने मेरे हृदय में उनके प्रति बड़ा सद्भाव पैदा किया था इसलिये प्रसग २ पर उनको याद करता ही रहता हूँ । एक दफे मेरा बेंगलोर जाना हुआ और वहाँ पर बिराजे हुए महाराज से वार्ता - Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाप करते हुए लेखक महोदय की अमाधारण चिन्तनशक्ति की प्रशंसा कर रहा या तव पज्य महाराज श्री ने फरमाया कि सभी उनका लिया हुना म्याटवाद पर एक मुन्दर, निबन्ध प्रकाशित हो रहा है लो तुम ही उनकी प्रस्तावना लिय दो। यापि न्यावाद जमे अतिगहन विषय पर प्रस्तावना लिखने की मुम, में कोई योग्यता न होने हार भी कंवल पूच मुनिवर्य की जाना योगिरोधार्य करता हुआ मने दो गन्द पाठक वृन्द के मामन प्रस्तुत करने का प्रयास किया है मो श्रुटि आदि के लिये लमा याचना आ अनुरोध करना है कि लेखक महोदय ने माध्यय भाव में पर तटस्य दृष्टि से बडे गेचक और तात्यिक शैली न स्यादवाट जम्म मागर को गागर में समावेश करके समझाने का प्रशस्त प्रयत्न किया है उसको उसी मान्यस्य व तटस्य वृत्ति के स्तर पर रेडियो के मीटर की भॉति रह कर इस निबन्ध का अध्ययन, मनन एवं परिशीलन करेंगे तो स्याद्वाद के मत्वामृत का अनुभव हा विना रहेगा नही-"मुन्न पु कि बहुना"। शिवगज ८-१२-६० धर्मानुरागी"ऋपम" Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस ग्रन्थ में प्राये हुए विषय-विषयक ग्रंथ-सूची नवतत्त्व १ नवतत्त्व सुमगला टीका २ कर्मग्रन्थ भाग १ ३ स्थानाग सून ६ स्थाने ४ तत्त्वार्थसूत्र हारिभद्रीय हिन्दी प० सुस० ६ गुजο,, प्रभु० ७ उत्तराध्ययन सूत्र अ० २४,२८ अनेकांतवाद " 17 १ अनेकातजयपताका ( बडोदा ) २ स्याद्वादमजरी श्लो० ५, २४ ३ शास्त्रवार्ता समुच्चय (ग्रा० लाव०) ४ सूत्रकृतागसूत्र २ श्रु० ५ ० ५ कातवादप्रवेश ६ द्रव्यगुणपर्यायस ७ श्रनेकातवादमर्यादा (१० सुख० ) = तत्त्वार्थं त्रिसूत्री षड् द्रव्य १ 'उत्तराध्ययनसूत्र (शात्या ० ) २८ प्र० २ द्रव्यानुयोगतर्करणा १० अध्या० ३ द्रव्यलोकप्रकाश ४ प्रज्ञापनासूत्र १,३ पदे ५ स्थानागसूत्र ४ स्था० ३ उ० ६ अनुयोगद्वारसून ७ भगवतीसूत्र २ श० १० उ० १३ श० ४ उ० 17 पंचकाररणवाद १ सन्मतितर्क गा० १४६ निक्षेप १ विशेषावश्यकभाष्य गा० ६१२ २ आवश्यक सूत्र मलयगिराय ३ श्रनुयोगद्वारसूत्र सटीक ४ प्रतिमाशतक श्लो० २ नय १ नयोपदेश २ रत्नाकरावतारिका ७ परि० ३ विशेपा० भाष्य गा० ७२,६१४ २१८०, २२६४, २२७३, ३३६६, ३५८६ । ४ सम्मतितर्क १ का० गा० ३५ ३ काड ५ आवश्यकसूत्र मलय० १०१, २ख. ६ अनुयोग द्वार सटीक ७ द्रव्यानुयोगतर्करणा ५, ८, अध्याय ८ ग्र० व्य ०द्वा० स्याद्वादमजरीश्लो० ३० ६ द्वादशारनयचक्र (ग्रा० लब्धि ० ) सप्तभगी (स्याद्वाद ) १ रत्नाकरावतारिका ८ परि० २ स्याद्वादविन्दु ३ शास्त्रवार्तासमुच्चय ४ स्याद्वादमजरी Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ मन्मतितर्क गा० १३२(उत्पादादि) १३ कर्मग्रन्थ देवचन्द्रजीकृत १ मे ६ ६ उत्पादादिमिद्धि १४ , हिन्दी १ मे पाँच ज्ञान १५ पचसग्रह १ नन्दिसूत्र मलय० १६ कर्मप्रकृति २ जानबिन्दु सटीक १७ प्रमा० न०लो. रत्नाकरावतारिका ३ कर्मग्रन्थ १ हिन्दी, गुज० परि० ७ (कर्ममिद्धि) कम १८ अावश्यकमूत्र मलयगिरीय द्वि० भा० गरणवरवाद(कर्मसिद्धि) १ कर्मसिद्धि स० २ कर्म फल कैसे देते ? हि० ,, निह्नववाद ३ कर्मविचार गुज० (प०प्रभुदाम) १६ विणेपावश्यकभाष्य, गणवरवाद, र ४ योगवि शिका म० (कर्ममिति (कमसिद्धि), निह्नववाद ५ यशो० द्वात्रिंशवादिगिका १६.२६, श्रावक (गृहस्थ व्रत ) (कर्ममिति) १ उपासकदशागसूत्र ६ म्यानागमूत्र ४ स्थाने (कर्ममिद्धि) २ धर्मबिन्दु ७ उत्तराध्ययन सूत्र गा० अ०२३,३३ ३ वममग्रह ८ ममवायागसूत्र ६७ मम० गुरगस्थान १ भगवतीसूत्र ८ श० १० उ० १ समवायागसून १४ सम० १४ , ८, १६, ८ * ५ ॥ २ पचम कमग्रन्थ मस्कृत, १० प्रज्ञापनासूत्र मलय०२३,२५,२७, हिन्दी० गुज० ३ पचमग्रह २ द्वा० ३४, ४०, १ द्वा० गा० २८ ४ द्वितीयकर्मग्रन्य गा० २ ५ चतुर्थ कर्मग्रन्य गा० ५२,७०,४५ ६ गुणस्थानमारोह म०गुज० हिन्दी ११ ज्ञातावर्मकथामून ६० १२ सन्मतितर्क (हलि०) पत्र १५५,१८४ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची १०१ ११७ १२८ १४८ १-प्रवेश २-प्राथमिक ३-भूमिका ४-परिचय ५-धर्म और तत्त्वज्ञान ६-अनेकान्तवाद ७-स्याद्वाद ८-चार प्राधार ह-पांच कारण १०-नय विचार, प्रमाण और निक्षेप ११-सात नय १२-अपेक्षा १३-सप्तभगी १४-बैरिस्टर चक्रवर्ती १५-पाँच नान १६-कर्म १७-आत्मा का विकासक्रम १८-जीवन झझट १६-खडन मडन २०-नमस्कार महामत्र २१-विदा १६६ २०१ २१२ २४१ २५८ ir २७८ n m m m m ४१६ Page #18 --------------------------------------------------------------------------  Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री जिनेन्द्राय नम ॥ अनेकान्त और स्याद्वाद प्रकरण १ - प्रवेश "श्रापका यह 'अनेकांतवाद' एक वडा भ्रम है भ्रम | एक ही वस्तु मे परस्पर विरोधी गुण धर्मो का होना भला कैसे सभव है ? यह तो शब्दो का निरर्थक प्राडम्वर मात्र है । यह केवल बुद्धिचातुर्य का विलास है । विप और अमृत का एक साथ रहना असंभव है, यह बात तो एक छोटा-सा बालक भी ग्रासानी से समझ सकता है ! फिर भला । विद्वान् श्रीर बुद्धिशाली व्यक्तियो को 'अनेकातवाद' को स्वीकार करने पर किस तरह राजी कर सकते है ܕ अमरीका के न्यूयार्क शहर के एक आलीशान हॉटल मे मुझसे मिलने आये हुए एक विद्वान् मित्र ने जब बातचीत के दौरान मे इस प्रकार की आलोचना की तब मेरे चेहरे पर मानद और दुख की मिश्रित स्मित- रेखाए अकित हो गई । हम दोनो तत्त्वज्ञान के वारे मे चर्चा कर रहे थे । मेरे ये मित्र वडे बुद्धिशाली और जिज्ञासावृत्ति वाले थे । तत्त्वज्ञान के बारे मे चर्चा करते समय जब मेने जैन तत्त्वज्ञान का उल्लेख Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुरू किया तब उन्होने तुरन्त ही उपरोक्त वाते कह कर मेरी जवान ही बन्द कर देने की कोशिश की । "देवो और दानवो ने मिलकर जब समुद्र मथन किया तब उससे विष और अमृत दोनो निकले थे, यह बात तो आप जानते ही होगे मेने पूछा । ען, "हाँ" उन्होने जवाब दिया । "तो फिर आप इस बात को स्वीकार करते है कि समुद्र मे विष और अमृत दोनो एक साथ थे ?" मैने पूछा । यह प्रश्न सुनकर मेरे मित्र कुछ सोच-विचार मे पड गये । वे सोच-विचार कर ही रहे थे कि मैने एक दूसरा प्रश्न पूछा । "विद्वान् वर्ग मे आपको आपको ज्ञानी और पडित सही है ?" "अवश्य सही है । वर्षो के अध्ययन के बाद विद्वत्ता प्राप्त हो सकी है । यदि लोग मुझे विद्वान् मानते है तो इसमे कुछ भी अवास्तविक नहीं है।" उन्होने उत्तर दिया । स्थान दिया गया है । लोग समझते है, क्या यह वात "अच्छा, यदि कोई आकर आपसे ऐसा कहे कि आप विद्वान् नही बल्कि निरे मूर्ख है, तो आप क्या कहेंगे ?" मेने न पूछा । " Absuid | वाहियात जवाव दिया । " उन्होने तुरन्त ही Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ उनका जवाव सुन कर मे पुन मुसकुराया । बाद मे मैने धीरे से पूछा " यदि मे यह साबित कर दूँ कि यह बात झूठ नही बल्कि सत्य है तो ?" " “You ale welcome. " यह साबित कर देने के लिये मैं आपको ग्रामन्त्रित करता हू ।" "अच्छा तो सुनिये । ग्राप ठहरे संस्कृत के प्रध्यापक । आपका संस्कृत का अध्ययन इतना गहरा है कि किसी से भी आप टक्कर ले सकते हैं लेकिन आपको लेटिन भाषा का ज्ञान विल्कुल नही । आप किसी ऐसे प्रदेश मे जाए जहा की बोल चाल को भाषा लेटिन हो वहाँ खटिया के नीचे पानी होते हुए भी आपको प्यास के मारे तडपना होगा । इस दृष्टि से यदि देखा जाय तो जहाँ तक लेटिन भाषा का सम्बन्ध है. आपको विल्कुल अनपढ और मूर्ख समझा जाय या नही ? ठीक इसी तरह फ्रांसीसी, रूसी, जर्मन आदि भाषाओ के विषय में भी यह बात सही है या नही ?" मेरी यह बात सुनकर वे सज्जन सोच-विचार मे पड गये, कुछ देर तक सोच-विचार करने के बाद उन्होने जवाव दिया "यदि इस दृष्टि से देखा जाय तो आपकी बात सही है ।" "हा, तो फिर स्यादवाद को अव आप मिथ्यावाद या प्रपचवाद नही कह सकते है । एक ओर वात सुनिये | आप तो वह के वही है लेकिन एक दृष्टि से देखा जाये तो ग्राप विद्वान् है और दूसरी दृष्टि से लाप Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनपढ और मूर्ख भी है अर्थात् आप विद्वान् है भी और नही भी है, ये दोनो परस्पर विरोधी वाते सही है, इस बात को अव आप स्वीकार करेगे या नहीं ?" यह सुनकर मेरे विद्वान् मित्र को अपनी गलती का ज्ञान हो गया है ऐसा जान पडा। अक्सर मिलने का तथा पत्र-व्यवहार द्वारा सम्बन्ध निभाये रखने का वचन देकर उन्होने विदा ली । जाते-जाते उन्होने इस बात का भी मुझे विश्वास दिलाया कि वे इस विषय का गहरा अध्ययन करेगे और इस पर अधिक सोच-विचार भी करेगे । ठीक एक ऐसा ही दूसरा अनुभव मुझे न्यूयार्क शहर मे हुआ । इस बार एक तेजस्वी विद्यार्थी से मेरी भेंट हुई । वातचीत के दौरान मे उसने कहा "आज के वीसवी सदी के नाम से पहचाने जाने वाले इस युग मे बुद्धिवाद और विज्ञान जिस वस्तु को स्वीकार नही करते उसे फिर किसी भी व्यक्ति की ओर से स्वीकृति प्राप्त होना असम्भव है। आज के युग मे प्रयोगशाला मे जिसका प्रमाण प्राप्त न हुअा हो या जो बुद्धिगम्य न हो ऐसी कोई भी बात स्वीकार करने के लिये शायद ही कोई तैयार होगा। ___ यह विद्यार्थी भारतीय, गुजरात प्रदेश का रहने वाला तथा जैनधर्म का मानने वाला था। विलायत मे अपना अध्ययन पूरा करके विज्ञान के विषय मे उच्च अध्ययन करने की इच्छा से अब अमरीका आया हुआ था। उसने मुझे बुद्धिवाद सम्वन्धी विस्तृत जानकारी देनी शुरू की। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ "कुछ उदाहरण और तर्क के साथ समझाइये ।" उसे प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से मैने कहा । यह सुनकर उसने अपनी वात को आगे बढाते हुए कहा "देखिये, जैन लोगो का कहना है कि पृथ्वी नारगी की भाति गोल नही लेकिन थाली की भांति गोल है । साथ साथ यह भी कहते हैं कि पृथ्वी घूमती नही बल्कि स्थिर है । लेकिन आज विज्ञान ने यह साबित कर दिखाया है कि पृथ्वी भाति गोल है और घूमती भी है । हा, तो अब आपका इस विषय मे क्या कहना है नारगी की वताइये कि ?" इस प्रश्न का जबाव मुह से देने के बजाय मैने अपनी जेब से एक डॉलर निकालकर उसके हाथ मे रखते हुए पूछा " तुम्हारे हाथ मे जो यह डॉलर है वह किसकी तरह गोल है, यह बताओगे ?" "इसे थाली के ग्राकार का चपटा, गोल कहा जा सकता है ।" उसने जवाव दिया । वाद मे मैने उस सिक्के को वापस ले लिया । टेवल पर वाये हाथ की पहली ग्रगुली से उस डॉलर को दवाकर मैने खडा कर दिया । फिर दाये हाथ की पहली अंगुली के छोर के पीछे की ग्रोर के नाखून की सहायता से एक जोर का धक्का देते हुए मैने तुरन्त ही वांये हाथ की अंगुली हटाली । टेबल पर वह डॉलर गोल-गोल घूमने लगा । लट्टू की तरह वह सिक्का तेज गति से घूमने लगा । उस घूमते हुए डॉलर की ओर इशारा करते हुए मैने पूछा: Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "हाँ, तो अब बताओ कि यह डॉलर किसकी तरह गोल दिखाई देता है ? नारगी की भाँति गोल दिखाई देता है ?" "यह तो आभास है ।" उसने जबाव दिया । "तो फिर, पृथ्वी नारगी की भाति गोल है या थाली की भाति गोल है इस वात का निर्णय करते समय आधुनिक विज्ञान को भी 'ग्राभास' नही हुआ, इसका क्या प्रमाण है २ यह सुनकर वह विद्यार्थी सोच मे पड गया । कुछ देर उसे विचार करने देकर मैने दूसरा प्रश्न पूछा । " तुमने रेल गाडी मे यात्रा तो अनेक वार की होगी । गाडी जव गति मे हो उस समय यदि खिडकी से बाहर की थोर देखे तो जमीन, पेड-सभी कुछ मानो दौडते हुए नजर आते है । तुम्हे भी यह अनुभव हुग्रा ही होगा ? सच पूछा जाय तो ये सब चीजें अपनी-अपनी जगह पर स्थिर होते हुए भी मानो वे गतिशील हो ऐसा प्रतीत होता है, यह वात ठीक है ?" "हाँ ऐसा दिखाई देता है सही । " "ठीक इसी तरह मान लीजिये कि किसी छोटे से स्टेशन पर दो गाडियाँ खडी हुई है । इनमे से एक गाडी समय होते ही आगे चलना शुरू करदे और अभी तक स्टेशन पर ही खडी हुई गाडी मे बेठ कर जब हम दूसरी गाडी की ओर नजर दौड़ाते है तव हमे ऐसा अनुभव होता है, मानो जिस गाडी मे हम बैठे हुए हैं वही आगे वढ रही हो । लेकिन जब Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम दूसरी ओर नजर करते हैं तब हमे सभी चीजे अपनीअपनी जगह पर स्थिर खडी हुई दिखाई पड़ती है। उस समय हमे विश्वास होता है कि जिस गाडी मे हम वैठे हुए है वह चलती नही लेकिन पास मे जो गाडी खडी थी वह आगे बढ़ गई है। ठीक ऐसा ही अनुभव तुम्हे भी हुया होगा ?" "लेकिन यह सब तो आभास मात्र ही है, वास्तव नहीं" उसने जवाब दिया। ___ "बाद मे कही हमे इस बात का ज्ञान होता है कि यह आभास मात्र है । क्या तुम यह विश्वास के साथ कह सकते हो कि विज्ञान द्वारा हमे जो कुछ वताया गया है, सब तथ्य है, और उसमे आभास बिलकुल नही ?" मैने पूछा। यह भला हम कैसे कह सकते है ? अतीत मे जो कुछ भो खोज कार्य हुए है और उस समय जो हमे सत्य प्रतीत होता था वही कालान्तर मे आज झूठा और निष्फल सावित हो चुका है। इसके अतिरिक्त जिन्हे असभव और कोरी कल्पना मान समझा जाता था ऐसी बहुत-सी बाते आज सभव सिद्ध हो चुकी है । आज भी ये सशोधन एव अन्वेषण-कार्य जारी हैं। लेकिन जो गलत था उसे बुद्धि पूर्वक तथा प्रयोगात्मक प्रमाण द्वारा गलत सावित किया गया है । आज जो कुछ भी नये सगोधन या आविष्कार हुए है वे सभी बुद्धि एव प्रयोग के ही फलस्वरूप है" उसने प्रत्युत्तर मे कहा। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "क्या यह बुद्धि सम्पूर्ण एव अपरिमित है ?" मेने उससे प्रश्न पूछा । “भला मे ऐसा कैसे कह सकता हूँ ?: "तो फिर पूर्ण बुद्धि द्वारा स्वीकृत बात को मान्य रखना तथा इस पूर्ण बुद्धि मे जिम बात को समझने की भी शक्ति न हो उस बात का इन्कार करना, इसे ही तुम बुद्धिवाद समझते हो तो फिर मुझे कहना होगा कि जिसे तुम बुद्धिवाद समझते हो वह सिर्फ ग्रहवाद और उससे उत्पन्न हुआ 'नकारवाद' ही है । " यह सुनकर वह विद्यार्थी कुछ उलझन में पड गया । उसे उलझन में पड़ा हुआ देख कर स्पष्टीकरण करने के उद्देश से मैने फिर से कहा "कृपया मेरी बातो से यह न समझ लेना कि बुद्धि मे मेरा विश्वास ही नही तथा विज्ञान के क्षेत्र मे ग्राज जो एक महान क्रान्ति ग्रा रही है उसे मे निरर्थक समझता हू | मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि विज्ञान ने आज दिन तक इतनी प्रगति तो नही की जिससे वह जैन आगमो मे सर्वज भगवतो के जो विधान संग्रहीत पडे हुए है उनको चुनौती दे सके, इसके विपरीत विज्ञान ने जो ग्राविष्कार किये है, उनके मूल तो उन सर्वज्ञ भगवतो के कथन मे ही समाये हुए है । मेरे कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना ही है कि ग्राज मनुष्य के पास जो बुद्धि है उसका उपयोग यदि बुद्धि का अधिक विकास करने के उद्देग से किया जाय तो कालान्तर में एक न एक Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिन वह विकसित होते हुए पूर्णता के निकट अवश्य आ पहुँचेगी। लेकिन वहाँ तक पहुँच पाने के लिये बुद्धि द्वारा जो ग्राह्य नही, उसके सामने रोप प्रकट करने के बजाय उसका इन्कार करने के बजाय, यदि श्रद्धा का आश्रय ले तो वह मार्ग उचित समझा जायगा। "अव आपकी बात मेरी समझ मे कुछ आ रही है।" उसने कहा। "जो कुछ भी हमारी समझ में आता है, हम अपनो नजरो के सामने जो कुछ भी देख रहे है उसको स्वीकार कर लेने मे भी खतरा है। क्योकि उस समझ या दृश्य की फिर एक बार सत्य के वजाय किसी आभास पर रचना हुई हो यह भी बात असम्भव नही अर्थात् जो कुछ भी हमारी समझ मे आता हो उसका प्रमाण दू ढने के लिये सर्वज्ञ भगवन्तो के कथन का सहारा लेना और जो हमारी समझ में नहीं आता उसके लिये 'यह मेरी समझ मे नही आता' इस बात को स्वीकार कर लेना यह अधिक सुरक्षित मार्ग है । ऐसा करने के वजाय चूकि यह बुद्धिग्राह्य नही इसलिये वह गलत है, विज्ञान ने उस पर अपनी मुहर नहीं लगायी इसलिये वह निरर्थक है-इस तरह कहना उचित नहीं समझा जाता।" मैंने कहा। "आपने तो आध्यात्मिक क्षेत्र से सम्बन्धित वाते बतायी, जवकि आज का विज्ञान भौतिक विषय पर ही प्रयोग कर रहा है। ये दोनो बाते आप एक मे मिला दे (Mixed up) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० यह तो ठीक नहीं" इस विद्यार्थी मित्र ने एक और तक किया । गुरुजनो ने भी " श्राज बहुत कम लोग इस वात को स्वीकार करेंगे कि आध्यात्मिक और प्राधिभौतिक विषय एक दूसरे से भिन्न नही हैं। दृष्टि भेद के कारण ये दोनो बाते भिन्न-सी विज्ञान का दावा है कि मानव जाति की उसका अस्तित्व है । विश्व के प्रध्यात्मिक मानव जाति की भलाई और कत्याण की भावना का चित्र अपने सामने रखकर ही ये बाते कही है। जो कुछ भी भिन्नता नजर ग्राती है वह तो सिर्फ सुख और कल्याण विपयक कल्पना मे --- समझ मे है | मूल मे तो सुख श्रौर कल्याण दोनो मे अभिन्नता है ।" मैने जवाव दिया । प्रतीत होती है । भलाई के लिये "यदि हम सिर्फ भौतिक प्रश्नो के बारे मे ही सोच-विचार करे तो क्या उसका तरीका आध्यात्मिक विचार धारा से भिन्न न होगा ?” उसने अपना सन्देह प्रकट करते हुए कहा । "नही, दोनो एक ही है। फिर भी जहाँ तक भौतिक विपय का सम्वन्ध है, मनुष्य ने अभी तो इस विपय मे कुछ अधिक ज्ञान प्राप्त ही नही किया । जब प्रोफेसर ग्राइन्स्टाइन ने अपना सापेक्षवाद का सिद्धात (Theory of Relativity) प्रयोगशाला मे सिद्ध करके विश्व को बतलाया तब सारा विश्व आश्चर्य मुग्ध हो गया था। लेकिन उनका वह सापेक्षवाद, जैन तत्त्वज्ञान में ठूस-ठूस कर हजारो-लाखो वर्षो से भरा Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ पडा है और प्रोफेसर आइन्स्टाइन की खोज उसके आगे तो सिन्धु के सामने बिन्दु की भाँति नजर आती है, बात की ग्रोर किसी का ध्यान श्राकृष्ट क्यो नही होता मैंने पूछा । इस ? : ? 4 "क्या यह सापेक्षवाद जैन तत्त्वज्ञान मे भी है उसने पूछा । " जैन तत्त्वज्ञान की नीव हो सापेक्षवाद पर खडी की गई है" मैने जवाब दिया । "तो फिर आपके तत्त्वज्ञान का अध्ययन मुझे करना ही होगा" उसने कहा । "हमारा नही, अपना कहो। तुम जन्म से ही जैन हो, क्या इस बात को तुम भूल गये ?" कुछ शरमाते हुए (Thanks ) 'धन्यवाद' वस इतना ही कहकर उसने विदा ली । X X X इस लेखक की ग्रमरीका की यात्रा के बीच ऊपर बताई गई घटना के सह एक तीसरी घटना भी याद रखने योग्य है । इस बार एक अमरीकन मित्र के साथ कुछ चर्चा हुई । वे सज्जन यहूदी थे । धर्म और तत्वज्ञान के विपय मे उन्हे गहरी दिलचस्पी थी । कुछ चर्चा करने के बाद उन्होने मुझसे कहा. "जैन धर्म और जैन तत्त्वज्ञान सम्बन्धित ये सभी बाते आप इस ढग Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ से कह रहे है मानो श्रापका तत्त्वज्ञान, Complete, absolute & all comprehensive - पूर्ण, स्वतन्त्र, सर्वग्राह्य और सर्वव्यापक हो । " बेशक, मेरा यही खयाल है |" मेने जवाब दिया | "अच्छा, तो फिर ग्राप मुझे यह बतायेगे कि आपके देश की - भारत की कुल श्रावादी कितनी है ?" उन्होने पूछा । "चालीस करोड ।" मैने जवाव दिया । " इसमे से आपके जैन धर्म में मानने वालो की सख्या कितनी है ?" उन्होने दूसरा प्रश्न पूछा । "वारह से लेकर पन्द्रह लाख के आस-पास ।' मैने जवाब दिया । मेरा जवाब सुनते ही वे भाई साहब खिलखिलाकर हंसने लगे । वाद मे धीमी ग्रावाज मे मुझसे तीसरा प्रश्न इस ढग से पूछा मानो कोई महान् विजय प्राप्त करके उनका मन सन्तुष्ट हुआ हो । "जिस धर्म और तत्त्वज्ञान के बारे मे आप ऐसी प्रभुत और बडी-बडी बाते कह रहे है, जिसे ग्राप विश्व के तत्त्वज्ञान का सबसे ऊँचा शिखर मानते है, उस धर्म मे मानने वाले और उसका अनुसरण करने वालो की संख्या भला इतनी कम क्यो है ? जवाब देने के बजाय मैने ही उनसे प्रश्न पूछा, "इस न्यूयार्क शहर की आबादी कितनी है ?" Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अस्सी नब्बे लाख होगी ?" उन्होने जवाव दिया । "अच्छा, इस नब्बे लाख की प्राबादी मे Millionaimes लखपति कितने होगे ?" मैने दूसरा प्रश्न पूछा। यह प्रश्न सुनकर वे भाई-साहब उलझन मे फंस गये। फिर भी उन्होंने मेरे प्रश्न का जवाब तो दिया ही, "A few hundreds-कुछ सौ होगे।" "ऐसा क्यो ?" मैने तीसरा प्रश्न पूछा । मेरे इस तीसरे प्रश्न का जवाव वे भाई-साहव न दे सके। कुछ देर तक चुप रहने के बाद उन्होने फिर से कहा। "भला इस बात का आपके धर्म विषयक बात से क्या सम्बन्ध है ?" ___ "धर्म और धर्म का पालन करने वालो की संख्या, इन दोनो वातो के बीच जो सम्बन्ध रहता है, इतना ही सम्बन्ध इन दोनो वातो के बीच मे है । जो कार्य बहुत कठिन होता है, उसे करने की शक्ति थोडे से लोगो मे ही होती है। धर्म के विषय मे भी कुछ ऐसा ही हुआ है। जो काम आसान हो उसे पूरा करने के लिये अधिक लोग तैयार होगे । ठीक उसी तरह जिस धर्म का पालन करना आसान हो उस धर्म के अनुयायियो को संख्या आसानी से बढ सकती है, लेकिन जिस धर्म का पालन करना कठिन हो उस धर्म के लिये नये अनुयायियो का मिलना मुश्किल है । इसके विपरीत, अनुयायियो की संख्या बढने के वजाय, दिन प्रतिदिन कम होती रहती है। लेकिन Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ मै आपको किवास दिला सकता है कि जैन धर्म और जैन तत्त्वज्ञान इतने तो कठिन या उलझे हुए नही है जितना कि समझा जाता है, यदि मनुष्य मे उन ग्रापत्तियों का -- जो शुरूशुरू मे मार्ग मे त्राती हैं - वीरज और क्षमता के साथ सामना करने की हिम्मत हो तो वे आपत्तिया ग्राप-ही-चाप दूर हो जाती हैं। शुरू-शुरू मे यदि जंगल और पहाडो को पार किया जाय तो फिर चारो ओर महकता हुआ नन्दनवन ही हमे फैला हुआ नजर आएगा" मैने जवाव दिया । " फिर तो आपके धर्म और तत्त्वज्ञान के बारे में मुझे विशेष जानकारी प्राप्त करनी ही होगी।" उन्होने गम्भीरता पूर्वक कहा । "सिर्फ विशेप ही नही बल्कि सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त करने की कोशिश कीजियेगा ।" मैने जवाव दिया । "क्या आप मुझे एक सूची दे सकते है जिसमे अग्रेजी मे लिखित उन पुस्तको का नाम दिया गया हो जिन्हे पढ़कर मै आपके धर्म और तत्त्वज्ञान के वारे मे आवश्यक जानकारी प्राप्त कर सकू" उन्होने अपनी इच्छा प्रकट करते हुए कहा । यहा पर मुझे शिकस्त मिली। मैंने अपना सिर झुका लिया । कहने को तो कह दिया, "कुछ सोच-विचार और पूर्ण जाच करने के वाद में ऐमी पुस्तको की एक सूची ग्रापके नाम भिजवा दूंगा ।" इस सूची की खोज में कहाँ करू ? में अपने उन अमरीकन मित्र का ग्राभार आज भी मानता हूँ जिनके कारण इस विषय मे अपने अज्ञान का मुझे भान हुआ । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाहर विश्व मे जैन धर्म और जेन तत्त्वज्ञान के बारे मे जो अज्ञान फैला हुआ है उसे देखकर मेरे मन मे वडी ग्लानि पैदा हुई और उस ग्लानि को मन मे ही समाये भारत वापस लौट आया। इस घटना को हए अाज कई वर्ष बोत गये है। स्वदेश लौटने के बाद जब मैने यह देखा कि हमारे भारतवर्ष मे भी जैन तत्त्वज्ञान के बारे में अज्ञान फैला हुआ है तब मेरे पाश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा। इसमे भी अधिक आश्चर्य की बात तो यह है कि स्वय जैन समुदाय मे इस तत्त्वज्ञान की जानकारी वहुत कम है। जव मैने यह कहा कि जैन धर्म ईश्वर को कर्ता के रूप में मानने के लिये तैयार नहीं तव मैंने कुछ ऐसे जैन भाइयो को देखा जिन्होने मेरी इस वात पर हँसी उडायी और मुझे नास्तिक कहा । यह देखकर मेरे दिल को गहरी चोट पहुंची। मुझे अपनी ही अल्पता से परिचित होने का जव अवसर मिला तव मैने सबसे अधिक दुख, आश्चर्य और आघात का अनुभव किया। बहुतसी जगहो पर मैं जैन धर्म और जैन तत्त्वज्ञान के बारे मे लम्बी चौडी बाते किया करता था। 'अन्धो मे काना राजा' या 'निरस्तपादपे देशे एरण्डोऽपि द्रुमायते' वाली कहावत के अनुसार, जैन तत्त्वज्ञान की बाते जगह जगह कह कर मैने लोगो को चकित कर दिया था। मुझे यह विश्वास हो गया Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था कि मेरे पास इस विषय से सम्बन्धित वहुत सारी जानकारी है। लेकिन यहा आने के बाद जब कुछ जैन मुनिराजो, पन्यास जी महाराजो तथा आचार्य भगवन्तो से मेरी मुलाकात हुई, उन लोगो से कुछ तत्त्व चर्चा हुई और उनकी ओर से मुझे जो थोडी-यो जानकारी प्राप्त हुई उसे देखने और समझ लेने के बाद मुझे विश्वास हो गया कि जेन तत्त्वज्ञान सम्बन्धी मेरा अपना ज्ञान, सिन्धु के बिन्दु के भो एक अणु के समान था। विन्दु के उस अणु से मोहित होकर मै मदारी की डुगडुगी की तरह जगत के बहुत से लोगो को मोहित करने के उद्देश से निकल पडा था, इस बात का ज्ञान होते ही मेरे मोठ मानो सिल गये, सस्कृत मे लिखे हुए एक प्राचीन कथन का मुझे सस्मरण हो पाया। उस कथन का तात्पर्य अहो लघु ज्ञानी मूर्ख मन मे गर्व धरता, सब कुछ जानता हूँ, खुद को यो समझता, किन्तु परिचय मिला जब सत जन का, खुली आँखे तब तो निज को मूर्ख गिनता। [ भर्तृहरि नीति शतक] लेकिन यह ज्ञान होने के फल स्वरूप मुझे तो लाभ हो हुआ । खोज करने पर एक 'गुरुदेव' 'सुगुरु' से मेरी भेट हुई। उन्होने मेरा जो मार्ग-दर्शन किया, उसके अनुसार मै कार्य करता रहा । उन्होने मुझे जो पुस्तके दी वे तथा जिन पुस्तको की उन्होने सिफारिश की, वे सभी मैने पढी। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ करीव पाँच साल के अध्ययन और परिश्रम के बाद, आज जब मैने यह लिखना शुरु किया तब भी मुझे अपनी अल्पज्ञता का भान, जैसा पहले था वैसा ही तीव्र है । पूज्य महाराजश्री की - प्रपने गुरुदेव की - प्रेरणा मुझे न मिली होती तो ग्राज यह लिखना प्रारंभ करने की मेरी हिम्मत होती या नही यह भी एक प्रश्न है । जो पुस्तके मैने पढी, उनमे कोई संस्कृत या प्राकृत भाषा मे लिखी हुई पुस्तके नही थी । जैन तत्त्वज्ञान का विपुल भडार इन दो भाषाओ मे संग्रहीत पडा है । उनकी सहायता से अग्रेजी, हिन्दी और गुजराती भाषाओ मे लिखी हुई बहुत सी पुस्तके मैं देख गया । संस्कृत और प्राकृत भाषायो पर अधिकार प्राप्त करने के लिये कोशिश करने की और इतना धीरज रखने की सुविधा तो थी ही नही । फिर भी मै पूज्य गुरुदेव का मार्गदर्शन प्राप्त करता रहा । जो कुछ भी समझ मे न आता था उसे समझने के लिये मै प्रत्यक्ष या पत्र द्वारा उनका मार्गदर्शन प्राप्त करता रहा । उन्होने अत्यन्त प्रेम, करुणा और उत्साह के साथ मुझे अपनाया और मेरा मार्गदर्शन करते रहे । अर्वाचीन भाषाओ मे जो कुछ भी लिखा गया है उसे देखकर पूज्य गुरुदेव को कम असतोष नही था । जब मै इन्दौर मे था तब उन्होने मेरे नाम एक पुस्तक भेजी थी ताकि मे उसका अध्ययन कर सकूं । इस सिलसिले में उन्होने मेरे नाम 1 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो एक पत्र लिखा था उसका कुछ हिस्सा मै यहाँ पर उद्धृत कर रहा हूँ नामक पुस्तिका की तीसरी आवृत्ति में भेज रहा हूँ । केवल एक बार पढने पर हमे इस बात का पता लगेगा कि हमारे यहाँ स्याद्वाद पर जो साहित्य प्रकाशित होता है वह कितना अस्पष्ट अोर पढने वाले को उलझन मे डालने वाला है। फिर भी इस समस्त साहित्य मे 'स्याद्वाद' के सत्य विखरे पडे है जिनकी खोज करने के बाद एक ऐसे साहित्य का निर्माण होना चाहिये जो हमे ठोस मत्य की प्रतीति करवाये तथा पढने वालो के दिमाग मे स्वावाद के सिद्धान्तो की उपयोगिता का एक स्पष्ट चित्र अकित कर दे, इस बात की आवश्यकता भी तव आपको महसूस होगी।" जब मै अमरीका और यूरोप की यात्रा कर रहा था तब मुझे इस प्रकार के साहित्य के निर्माण की आवश्यकता महसूस हुई थी और मेरे मन मे ये भाव जागृत हुए ही थे कि यथाशक्ति इस बारे मे कुछ कार्य कर । पूज्य गुरुदेव ने मेरी इस भावना को प्रोत्साहित किया और उस विषय मे कुछ कहने की मुझे प्रेरणा भी दी। तत्पश्चात् सयोगवशात् अधिक समय तक मै गुरुदेव के सम्पर्क मे न रह सका। लेकिन उन्होने जो बीज वोया था वह तो मेरे मन मे ही निहित था और उसका विकास भी जारी था। मै इस विषय का अध्ययन तथा पठन यथामति वढाता ही रहा था। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फलत. कई वर्षों के वाद, कलम का सहारा लेकर आज मुझे कुछ लिखने का सुअवसर प्राप्त हुआ है। मन-ही-मन श्री जिनेश्वर भगवान् को और पूज्य गुरु महाराज को वंदन करके मैं अपना वह प्रयत्न प्रारंभ करता हूँ परिणाम ? ___पाठकवर्ग तथा भविष्य ही इसका निर्णय करेगे । मेरी आप लोगो से इतनी ही प्रार्थना है कि आगे के प्रकरणो मे जो कुछ भी लिखा गया है उसका धैर्य, लगन और समभाव से अध्ययन करे। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राथमिक जैन तत्त्वज्ञान के बारे मे कुछ बाते प्रारम्भ करने से पहले थोडी सी प्राथमिक वातो पर हम सोच-विचार कर ले । आज विश्व मे चारो घोर हमे जो कुछ भी नजर ग्राता है तथा उससे जो जानकारी प्राप्त होती है उसमे न जाने कितना वडा मतभेद हमे प्रतीत होता है ? क्या ये सभी मतभेद असत्य है ? भ्रम है ? एक व्यक्ति को जो कुछ भी दिखाई पडता है अथवा उसकी समझ मे जो कुछ श्राता है वही दूसरे व्यक्ति को न तो दिखाई पड़ता है और न तो उसकी समझ मे ही याता है । इसके द्वारा क्या हम यह समझ ले कि देखने वाले और न देखने वाले, समझने वाले और न समझने वाले सभी भूठे है । यदि इन लोगो के साथ वातचीत करने का हम अवसर प्राप्त कर ले तो हमे पता चलेगा कि हर व्यक्ति अपने आपको सत्यवादी तथा अन्य को झूठा मानता है । आज के युग मे राजनीति को ही प्रधान स्थान दिया गया है । हर विचारशील नेता यही स्वप्न देखा करते है कि सारे विश्व मे पूर्ण लोकशामन यथार्थ रूप में स्थापित हो, किन्तु इस एक ही 'वाद' के वारे मे उन लोगो की जो विचारधारा है उसमे कितना महान अन्तर है । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'Greatest good of the greatest number of People' 'अधिक से अधिक लोगो का अधिक से अधिक कल्याण' ऐसी लोकगासन की,एक कल्पना है । 'Government of the People, for the People, by the People' अर्थात् 'जनता का शासन, जनता के लिये और जनता द्वारा' ऐसी भी एक कल्पना की गई है। यहाँ पर 'जनता' के स्थान पर 'प्रजा' शब्द का भी प्रयोग किया जाता है । जब हम इस विषय की गहराई मे जाकर उस पर सोच-विचार करेगे तव कही हमे इस बात का पता चलेगा कि उसमे 'Greatest Good-अधिक से अधिक कल्याण किसे कहना, इस वात पर भी अनेक मतभेद है। इसके अतिरिक्त 'जनता' अथवा 'प्रजा' शब्द के भी सकुचित, विस्तृत अथवा उनके बीच के अनेक अर्थ निकाले गये है। लोकशासन के स्वरूपो के बारे मे भी भिन्न-भिन्न अभिप्राय प्रचलित है । पूजीवादी लोकगासन साम्राज्यवादी लोकशासन, समाजवादी लोकगासन, केन्द्रीय लोकशासन, प्रान्तीय लोकशासन, राष्ट्रीय लोकशासन अमरीकी ढग का, ब्रिटिश छाप, फ्रास का अनोखा, इन्डोनेशिया का मर्यादित, भारत का समाजवादी समाज रचना वाला ( Socialistic Pattern of Society ) लोकगासन, इरान का जवरदस्ती लादा हुआ ( Imposed ) लोकशासन आदि कितने ही भिन्न-भिन्न प्रकार के लोकशासनो का विश्व मे आज अस्तित्व है । गाधीजी का स्वदेशी और अहिंसक लोकशासन (रामराज्य) और ठीक इसके विपरीत सिद्धातवाला रूस और चीन का Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साम्यवादी शासन भी आज लोकगासन के नाम से पुकारा जाता है । __इन सभी मे हमे जो मतभेद दिखलाई पडते है वे स्वय ही एक वडा लोकशासन है । बहुत साल पहले प० जवाहरलाल नेहरू ने एक वार लन्दन मे आयोजित कॉमनवेल्थ के प्रधानमन्त्रियो की परिपद मे भापरण देते हुए कहा था - "यदि विश्व की सारी जनता लोकशासन के नाना प्रकार के स्वरूपो मे से किसी एक को चुनने मे सहमत हो जाय, सवका अभिप्राय यदि एक-सा हो जाय, तो फिर विश्व मे 'लोकशासन' नाम की किसी चीज का अस्तित्व ही न __ इस वात को समझना अत्यन्त आवश्यक है। इसकी गहराई मे मानवजाति के मूलभूत स्वभाव का वास्तविक मूत्याकन छिपा हुआ है। आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान के बारे मे भी कुछ ऐसी ही बात है । उसमे भी हमे भिन्न-भिन्न विचारधाराओ के दर्शन होते हैं, जब तक विश्व का अस्तित्व है तब तक मतभेदो का मिटना असम्भव है। अनादिकाल से ये मतभेद चलते ही आ रहे हैं और अनन्तकाल तक ये मतमतातर रहेगे इसमे कोई सन्देह नही । विश्व का अस्तित्व 'असामजस्य' के कारण ही गतिशील रहा है। यदि 'सामजस्य' की स्थापना हो जाय तो उसकी गति रुक जाएगी। इन्ही मतभेदो के कारण तो हमे जीने का आनन्द प्राप्त होता है । अनादिकाल से इन्ही मतभेदो को मिटाने के लिये हमारे महापुरुषो द्वारा जो प्रबल Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ पुरुषार्थ होता आ रहा है वह एक सबसे बड़े गौरव की बात है। फिर भी हम देख रहे है कि ये मतभेद कम होने के बदले बढते ही जा रहे है। फिर भी इससे निराश होने की कोई आवश्यकता नही, जिस तरह से ये मतभेद एव मतमतातर अनादि अनन्त है ठीक उसी तरह साथ ही साथ 'मत्य क्या है ?" इस विषय मे मनुष्य की जिज्ञासा भी अनादि अनन्त है। मनुष्य के हृदय मे आदि काल से यह जिज्ञासावृत्ति सुरक्षित रही है और अनन्तकाल तक वह जीवित रहेगी। जब तक मनुष्य के मनमे से 'सत्य की खोज' की यह वृत्ति लुप्त न होगी तब तक तो उसके विकास मे कोई वाधा न पहुंचेगी। इस जगतीतल पर आज जितने भी तत्त्वज्ञान विद्यमान है उन सभी की उत्पत्ति मनुष्य की इस जिज्ञासावृत्ति के विकास मे से ही हुई है। सदैव नई चीज देखने की तथा जानने की मनुष्य की जिज्ञासावृत्ति को धन्यवाद देते हुए तथा उसे वन्दन करते हुए जब हम आगे बढेगे तो सर्वप्रथम हमारे मस्तिष्क मे यही एक विचार पाएगा कि इस जिज्ञासावृत्ति से विश्व को जो कुछ भी लाभ प्राप्त हुआ है उसमे ठोस सत्य क्या है ? ____ यह प्रश्न सचमुच वडा जटिल है। जिज्ञासा को सन्तुष्ट करने के लिये किसने मेहनत की ? कितनी मेहनत की? किस तरह की ? उसके पीछे कितना समय गवाया ? इन सभी वातो पर हमे सोच-विचार करना होगा। इन बातों पर Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार करते-करते, मनुष्य की बुद्धि-शक्ति की मर्यादा का, अपूर्णता का एव उसके अहभाव का खयाल आये विना नहीं रह सकता। वैज्ञानिक खोज करते समय मनुष्य को एक हल-निराकरण (Solution) मिलते ही वह ग्युगी मे फूल उठता है और अपनी उस खोज की प्रसिद्धि के लिये वह अपने साथियो तथा अनुयायियो की मदद से बडे जोरशोर से नगाडे पीटना शुरू कर देता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में भी, अनादिकाल से ठीक ऐसा ही होता आ रहा है । कोई-कोई साधक, यात्म-साधना के लिये मत्र, जाप, योग या ध्यान आदि मे से किमी एक मार्ग को अपना लेता है। यदि किसी को प्रकाश का एक वृत्त दिखाई देता है कि तुरन्त ही वह "आत्मसाक्षात्कार हो गया" यह समझकर पद्मासन का त्याग कर देता है। किसी की मानसिक शक्ति, योगवल से बढ जाने के कारण कुछ चमत्कार दिखाना प्रारभ कर दे तो 'अव सशोधन का अन्त आ गया है' यह समझकर वह नाचने लगता है। _ 'Heroworship' 'वीरपूजा' मानव-स्वभाव की सहज विशेषता है। यदि कोई व्यक्ति कुछ नया कर दिखाये, कुछ चमत्कारपूर्ण कार्य करके दिखाये या कुछ सिद्धियो का प्रदर्शन करे तो शीघ्र ही अनुयायियो का एक वडा समूह उसके चारो ओर एकत्रित हो जाता है। मनुष्य स्वभाव की एक दूसरी विशेषता 'अतिशयोक्ति' करने की है। देखी हुई Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या जानो हुई वात को वढा चढाकर वा स्वरूप देने की और सुनी हुई बात को, जैसे अपनी प्रांवो में देखी हो इस तरह विस्तृत स्वरूप देकर-कहने की मानव की आदत अनादिकाल मे चली आ रही है। इस वृन के पीछे अपना महत्त्व स्थापित करने की बहभाव जन्य इच्छा छिपी रहती है। ___जो मनुष्य मिर्फ 'भौतिक सुख की ही लालसा में मग्न रहता है वह ऐसे किसी न किमी अवधूत के पीछे अवश्य लगा रहता है। निद्ध माने जाने वाले के आगे-पीछे बडी सल्या मे मानव-समूह एकत्रित हो जाता है। यह समूह उम सिद्ध पुरुप की भक्ति, जो सिर्फ खुशामद का ही एक रूप होता है, करना शुरू कर देता है। अपनी गामद करते हुए मानव-समूह को देखकर अपन आपको सिद्ध मानने वाला 'अव अपना विकाम पूर्ण हो गया है और अब कुछ भी करना वाकी नहीं रहा' यो समझने लगता है। असीम बुद्धिगालो वर्ग, महान् योगी और वैज्ञानिको की जब ऐसी दशा हो तव भला माधारण जनसमुदाय का तो कहना ही क्या ? हमारे देश मे, अध्यात्मिक तथ्य के विषय मे आज दो विभाग प्रतीत होते है। एक वर्ग 'जन्मजात श्रद्धा' को ही परंपरा से मानकर, पहले से जैसा चला आ रहा है उसे अपनाता है। दूसरा वर्ग 'बुद्धिप्रधान और आधुनिक शिक्षा प्राप्त किये हुए लोगो का है। विश्लेषण करने पर मालूमहोगा कि इन दोनो वर्गों के बीच कोई बडा भेद नही । _ 'जन्मजात श्रद्धावाले' वर्ग मे जिस तरह अनेक मतमतातर है ठीक उसी तरह इस सुरक्षित एव बुद्धिशाली माने जाने Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ वाले वर्ग मे भी उतने ही हठी और कट्टर मतमतातर है । स्वामी रामकृष्ण परमहस, श्रीरमणमहर्षि, श्री अरविद घोप, नित्यानन्द स्वामी, स्वामी रामदास और ऐसे दूसरे अनेक महापुरुषो के शिक्षित अनुयायियो से अलग-अलग भेट करने पर पता चलेगा कि भिन्न-भिन्न सिद्धान्तो को मानने वाले ये लोग " सत्य उनकी अपनी जेब मे है, और कही नही" ऐसी बात बडी कट्टरता से और दृढता से मानते हुए प्रतीत होगे, लोग इस तरह मानते है इतना काफी नही 'अन्य लोगो को भी उनकी मान्यता को स्वीकार करना चाहिये और स्वीकार लेने के बाद कही उनका उद्धार होगा अन्यथा नरक की खाई मे ही उन्हें गिरना होगा' ऐसी बात ये सभी लोग कहा करते है । 'आगरे के किले मे से दिखते हुए ताजमहल के बारे मे किसी फारसी कवि ने लिखा है " इस धरती पर यदि वह यही है, यही है, यही है आज चारो ओर इस काव्य की सी बात प्रतीत होती है । आध्यात्मिक विषय मे दिलचस्पी रखने वाले किसी भी सज्जन से आप मिले, अधिकतर लोग जिस मत के अनुयायी होगे उसीकी प्रशसा करना शुरू कर देगे । कही स्वर्ग हो तो अगर फिरदौस वर रुए जमीनस्त, इमीनस्तो इमीनस्तो इमीनस्त वास्तव में यह शेर काश्मीर के विषय मे कहा गया है । 1 - प्रकाशक Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ स्वर्गीय श्री किशोरलाल मगरुवाला जब गाधीजी के श्राश्रम मे रहने गये उस समय वे स्वयं स्वामीनारायण पथ के पक्के अनुयायी थे और उनकी यह हार्दिक इच्छा थी कि गाधीजी को भी स्वामी नारायण--पथ मे मिलाकर उन्हे राहजानन्द स्वामी के ग्रनुयायी बना ले । यह वात उन्होने स्वय लिखी है । इन समभावी एव बुद्धिशाली किशोरलाल भाई की श्री केदारनाथजी से जब भेंट हुई तब उन्हे कुछ और ही तरह का अनुभव हुआ | श्री केदारनाथजी के सम्पर्क मे थाने के बाद उन्हें 'सत्य' की प्राप्ति हुई है इस प्राशय का एक तार उन्होने श्रावू पर्वत से अपने ग्राप्त जनो के नाम भेजा था इसके विपरीत श्री केदारनाथजी ने स्वयं कहा है कि उनको ( किशोरलाल को ) तथा वैसे ही दूसरे सज्जनो सन्तो तथा योगियो को जो अनुभव हुए है, वे अपूर्ण है । " जब हमारे चारो मोर ऐसी ही परिस्थिति नजर ग्राती हो तब स्वाभाविक तौर पर ऐसा प्रश्न मन मे उपस्थित हुए विना नहीं रह सकता कि "हमे क्या मानना चाहिये इस मानने के बारे में एक सर्वसाधारण अभिप्राय ऐसा है कि हम जो कुछ भी समझ ले अथवा स्वीकार कर ल वह सव सतर्क, सुतर्कयुक्त, उदाहरण श्रीर दलील से सुसगत होना चाहिये । किसी भी बात को तर्क ( Logic ) का समर्थन प्राप्त न हो तो उसे गलत समझकर छोड़ देना चाहिए । इस प्रकार की मान्यता मे एक अत्यन्त महत्त्व की बात तो हम भूल ही जाते है और वह यह है कि जिसे हम तर्क के नाम से पहचानते है वह 'शुद्ध' एव 'सम्पूर्ण' है क्या Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अाधुनिक विश्वविद्यालयो मे जो तर्कगास्त्र-Logicपढाया जाता है उसमे "भूठ तर्क'--Fallacy of Logreकी भी एक बात ग्राती है । तर्कशास्त्र, एक वडा जटिल विषय है। तर्कशास्त्र लिखने वाला, पटाने वाला, पटने वाला इन तोनो वर्गो मे, पूर्णरूपेण सुगठित विवेक बुद्धि का अभाव हो, मानस यदि पूर्व ग्रह से युक्त हो-मुक्त न हो और यदि ये तीनो क्रियाए (लिखने की, पढाने की, पढने की) अहभाव की छाया से प्रभावित हो तो उसका क्या नतीजा होगा? ___गणितशास्त्र का ही एक तर्क हम ले ले। कोई पाच आदमी पन्द्रह फीट गहरी नदी पार करना चाहते थे। गणितशास्त्री ने तो हिसाब लगाकर उन्हे बता दिया कि हर एक के हिस्से मे तीन फीट अर्थात् कमर तक पानी अाएगा। ___अब यदि इस गिनती को स्वीकार कर कही ये लोग नदी पार करने को चलने लगे तो उसका क्या नतीजा हो सकता है ? पाचो व्यक्ति डूब जाएगे। गणितशास्त्री की राय के मुताबिक यह तर्क वित्कुल सही था किन्तु व्यवहार में वह प्राणघातक सिद्ध होता है अर्थात् यह तर्क मिथ्या है। यदि इसका अनुसरण किया जाय तो उसमे विवेकशून्यता ही होगी। मिथ्या इसलिये कि गणित का हिसाव लगाने वाले व्यक्ति ने अादमो और नदी को ध्यान मे रखे विना तथा दोनो के नाप को एक साथ ध्यान मे रखे विना ही विचार किया। उन पाचो आदमियो ने अपनी विवेकबुद्धि का उपयोग किये विना ही उसका अनुसरण किया। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ एक दूसरी छोटी-सी और साधारण बात को ले ले । किसी एक मकान मे दीवारे सफेद रंग की है। उसमे हरे रंग के बिजली के लट्ट लगाये गये हैं । ग्रव जब बिजली का प्रकाश दीवारो पर पडता है तव हमे दीवारे सफेद के बदले हरे रंग की प्रतीत होती है । रात और दिन के समय यदि दो भिन्न-भिन्न व्यक्तियो द्वारा इन्ही दीवारो को देखने के पश्चात् उनकी राय पूछी जाय तो दीवारो के रंग के बारे मे उनमे मतभेद अवश्य उपस्थित होगा । एक का यह कहना होगा कि दीवारे सफेद रंग की हैं जब कि दूसरा कहेगा कि वे सफेद नही बल्कि हरे रंग की हैं । इन दोनो की बात सही भी है और गलत भी । इस वात का फैसला तो तब हो सकता है जब कि यह भेद जानने वाले किसी तीसरी व्यक्ति की राय पछी जाय जो इसी मकान मे रहता हो । इन दोनो की बाते आपस मे विरोधी होते हुए भी दिन और रात की अपेक्षा से सही है । इस वात का ज्ञान तो तब होगा जब कि ये दोनो व्यक्ति दिन और रात दोनो समय इन्ही दीवारो को फिर से देखें । तब तक यदि ये दोनो व्यक्ति अपनी-अपनी मान्यता पर ग्रडे रहे तो उसमे श्राञ्चर्य की कौन-सी बात है ? आँखो से जो दिखाई देता है उसकी बात ले । एक पहाड़ की चोटी पर चार व्यक्ति खडे है । एक व्यक्ति की आँख मे मोतिया है और उसने ऐनक नहीं लगायी है । दूसरे की आँखे मे भी मोतिया है लेकिन उसने ऐनक लगायी है । तीसरे की आँख सव प्रकार के रोगो से मुक्त है । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० चौथे को ग्राँखे ठोक है और इसके अतिरिक्त उसके पास दूरवीन भी है। अब जब ये चारो व्यक्ति क्षितिज की योर नजर करेंगे तब क्या इन लोगो की दृष्टि-मर्यादा में समानता होगी ? सभी व्यक्तियो को क्या एक सा दिखाई देगा ? यदि उस समय इन लोगो को आँखो देखे हाल का वर्णन करने को कहा जाय तो चारो के पास से अलग-अलग बात सुनने को मिलेगी । इस तर्क Logic की भी वही दगा है। उसका उपयोग करने वाले तथा कराने वाले विभिन्न व्यक्तियो की समझ, बुद्धि, ज्ञान अनुभव तथा शक्ति का प्रभाव एक या दूसरी तरह उन पर पडे विना नही रह सकता | उसमे 'अशुद्धि' ये विना नही रह सकती । तो फिर 'शुद्ध' तर्क किसे कहा जाय ? यहाँ पर हम दुनियादारी और मनुष्य को बुद्धि को ही ध्यान में रख कर तर्क के बारे में चर्चा कर रहे हैं | तत्त्वज्ञान के तर्क के वारे मे विचार करने तक हम नही पहुँचे । वहाँ पहुँचने के लिए हमे धीरज रखना होगा । अभी तो हम अपनी इस प्राथमिक बात को हो आगे वढाएँ । इसके लिये जिस भूमिका की ग्रावश्यकता है उस और हम झुकें । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका किसी भी वस्तु को बुद्धिपूर्वक समझने के लिए तर्क का आश्रय लेना आवश्यक है, इस बात को हम अच्छी तरह समझ गये और साथ ही इस बात को भी स्वीकार करते है कि तर्क करते समय वहुधा अनेक स्थानो पर गलतियाँ हो जाने का भी अदेशा रहता है । अब हम आगे वढे । किसी अदालत के दृश्य की कल्पना कीजिए । न्यायाधीग, फरियादी, अभियुक्त, फरियादी पक्ष का वकील, वचाव पक्ष का वकील, ज्युरी के सदस्य और ऐसे प्रेक्षकगण जिन्हे इस मामले में दिलचस्पी हो, इस तरह सात प्रकार के लोग यहाँ पर इकट्ठे होते है । मुकदमे की कार्यवाही शुरू होने के बाद दोनो पक्ष के गवाहो की जाँच की जाती है । दोनो ओर से वहस होती है। न्यायाधीश ज्युरी का मार्गदर्शन करते है, फिर ज्युरी अपना अभिप्राय प्रकट करती है। तत्पश्चात् न्यायाधीश के लिए फैमला करने का कार्य वाकी रह जाता है। न्यायाधीश अपना फैसला किस प्रकार सुनाते है । न्याय के आसन पर विराजमान जज साहब के पास कानूनी ज्ञान, अनुभव, आसन को पवित्रता (Dignity) ये सब बातें होती है । मुकदमे की कार्यवाही प्रारभ होते समय जज साहब 'तटस्थवृत्ति' के पवित्र सिंहासन पर बैठे हुए होते है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ अदालत के सामने पेश किये गये प्रमाण, तथा उस सिलसिले में की गई वहस को ध्यान मे लेकर जज साहब, कानून की मर्यादा मे रह कर, स्वयं विलकुल तटस्थता धारण कर, किसी प्रकार के पूर्वग्रह के विना रिश्वत से दूर रह कर, अपनी राय मे जैसा उचित जंचे वैसा ही फैसला सुनाते है। हम यह मान कर ही चलते है कि जज साहव पूर्णतया तटस्थ, तथा न्याय विषयक अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक है। ऐसा होते हुए भी जितने फैसले सुनाये जाते है, क्या वे सव न्याययुक्त होते है ? ऊंची अदालतो मे जव अपील की जाती है, तव, प्राय हम देखते है कि, कई फैसले बदलने पडते है । इस तरह परिवर्तित निर्णय भी पूर्णतया न्याययुक्त हो, ऐसा हमेगा नही होता। वहुधा ऐसी भी शिकायते सुनी जाती है कि न्याय पाने की उम्मीद से अदालत मे जाने वाले कुछ लोगो को न्याय ही नही मिलता । क्या हमने बहुत-से ऐसे भी किस्से नही सुने जहाँ निर्दोष व्यक्ति को दण्ड मिला हो और गुनहगार को रिहा कर दिया गया हो? किसी न किसी झगडे का निपटारा करने के उद्देश्य से ही अदालत की शरण ली जाती है। ये झगड़े भी भिन्नभिन्न प्रकार के होते है और इनके कारण भिन्न-भिन्न होते है। लेकिन विश्लेषण करने पर हमे ज्ञात होगा कि इन झगडो के मुख्य कारण इस प्रकार है Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ "अज्ञान, गलतफहमी पूर्वग्रह, अभाव, ममत्व, अधस्वार्थ, विवेकहीनता, वासनाओ की गुलामी और ग्रसहिष्णुता यदि कारण ही झगडो के मूल मे रहते है । लेकिन सबसे बडा दुर्भाग्य तो यह है कि कोई भी व्यक्ति अपने आपको इनमे से थोडे से, सभी अथवा किसी एक कारण के लिए भी जिम्मेदार मानने को तैयार नही होता । मानना तो दूर रहा, लेकिन इस वारे मे विचार करने की भावना या इच्छा भी उसके हृदय मे कदाचित् ही प्रकट होती है । अपने बारे मे दूसरे लोगो के मनमे गलतफहमी है, ऐसा कहने वाले लोग तो अनेक है लेकिन इस प्रकार की बात करने वाले व्यक्ति के खुद के मन मे दूसरो के लिये ऐसी ही गलतफहमी है, इस बात को स्वीकार करने के लिये अथवा विचार करने के लिये भला कितने लोग तत्पर होगे ? मित्र-मित्र मे, व्यापारी सम्बन्धो के सिलसिले में, पतिपत्नी, भाई-भाई, सास-बहू, देवरानी-जेठानी, पिता-पुत्र, देवरभौजाई, ननद-भौजाई ग्रोर ग्रडोसी - पडौसी के सम्वन्धो मे वैमनस्य, क्लेग, टटे-फिसाद ढूंढने के लिए कही हमे दूर जाने की आवश्यकता नही है । सच्ची बात का ग्रज्ञान, गलत खयाल अर्थात् अज्ञान, पहले से ही वने बनाये अभिप्राय अर्थात् पूर्वग्रह, 'अन्य सभी लोगो मे मै श्रेष्ठ और निराला है' ऐसा ग्रहभाव, तुच्छ स्वार्थ, विचार करने के लिये जिस शुद्ध और शास्त्रीय तर्क के ज्ञान की ग्रावश्यकता है उसका अभाव तथा उसके फलस्वरूप पैदा होने वाली विवेकशून्यता, अपनी इन्द्रियो की वासनाओ को Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ वश में करने की असमर्थता, अपनी ही बातो पर डे रहने की आदत तथा उसके फलस्वरूप कुछ भी न छोडने की असहिष्णुता इन सभी बातो मे श्राज का मानव समाज डूबा हुग्रा, खोया हुआ सा प्रतीत होता है। देश-देश के बीच न जाने कितने प्रकार के झगडे होते ही रहते है । पहले जर, जमीन और जोरू को ही झगडे का मूल कारण मानते थे। लेकिन ग्रव रंग द्वेष (Colour Prejudice ) और वैचारिक या सैद्धान्तिक सङ्घर्ष (Ideological Conflicts ) के कारण भी झगड़ो में अभिवृद्धि हुई है । इन कारणो मे से किसी एक के उत्पन्न होने पर वह भयंकर झगडे का रूप धारण कर लेता है । इस तरह इन बातो पर विचार करने से हमे ज्ञात होगा कि ऊपर जितने भी कारण बताये गये है उनमे से कोई न कोई कारण स्वतंत्र रूप से या दूसरे कारणो से मिल कर इन सभी झगडो के पीछे अवश्य लगा हुआ है । चूकि हम यहाँ पर राजनैतिक विषय की चर्चा करना नही चाहते अतः उसकी गहराई में जाना उचित नही होगा। सत्ता का मोह, अन्धस्वार्थ मे समाविष्ट हो जाता है । ग्रासुरी शक्ति, विनाश के अभूतपूर्व साधनो का अस्तित्व प्रादि सभी कारणो की पृष्ठभूमि मे स्वार्थवृत्ति एव ग्रहभाव तो अवश्य होते है । इस बात को यही समाप्त कर अब आगे बढे । आज प्राय यह देखा जाता है कि वहुत-से प्रयोजन के विना ही तरह तरह की चर्चा करते साथ ही यह भी देखा गया है कि कुछ लोग किसी अभिप्राय को लिये पूर्वग्रह बाँधकर ही प्राते हुए लोग किसी रहते हैं । एक निश्चित नजर आते Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। यह बात किसी एक ही क्षेत्र मे होती हो ऐसा भी नही है । सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, नैतिक, शैक्षणिक, भौतिक, आधिभौतिक, धार्मिक और दार्शनिक क्षेत्रो मे भी आज ऐसी ही परिस्थिति दिखलाई पड़ती है। कुछ लोग अपने वंशपरंपरागत अभिप्रायो का समर्थन करते रहते हैं, कुछ लोग 'वावावाक्य प्रमाण' मान कर चलने वाले है तो कुछ लोग ऐसे भी होते है जो हम भी कुछ है' की अहभाव-जनित वृत्तियाँ लिये हुए उछलकूद करते नजर आते है। 'तर्क' जिसका हमने आगे जिक्र किया है, वहुत-से स्थानो पर घोडे के रूप मे न पाकर गाडी के रूप में भी आता है । साधारणतया मनुष्य 'तर्क' को ही आगे रखकर कार्य करता है । यहाँ पर तर्क घोडे का काम करता है। स्वय आगे चलता हुअा विचार और कार्य को अपने पीछे खीचे चलता है। अपनी ही धुन मे मस्त रह कर तथा स्वार्थ और वासना से प्रेरित होकर भी मनुष्य कभी-कभी विना सोचे ही कार्य कर वैठता है । तत्पश्चात् उसने जो कुछ भी कार्य किया है उसे ही सही प्रमाणित करने के उद्देश्य से 'तर्क' का आधार लेता है। यहाँ निर्णय अथवा कार्य पहले होता है जब कि 'तर्क' वाद मे आता है । ऐसे मामलो मे 'तर्क' घोडे का रूप लेकर नही बल्कि गाडी का रूप लेकर आता है । जैसे घोडे के आगे गाडी लगाने से गाड़ी का चलना असंभव है, ठीक उसी तरह 'तर्क' जिसका प्रयोग वाद मे किया जाता है, वह सही रूप मे 'तर्क' नहीं बल्कि स्वार्थ-परायण दलीलबाजी ही होती है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कभी-कभी हम अपनी नजरो के सामने देखते है या अनुभव करते है कि जब दो मनुष्य चर्चा करते है, आपम में बहस करते है तब वे कान वद करके बैठे होते है । एक मनुष्य दलील कर रहा हो तव उसे सुनने के स्थान पर दूसरा मनुष्य अपने मन मे अपने व्यक्त किये हुए अभिप्राय के समर्थन के लिये नई युक्तियो की खोज मे ही व्यस्त रहता है । इस प्रकार की चर्चा के समय बहुत-सी अप्रस्तुत तथा बन्दर की सी उछलकूद वाली वातो का मानो एक ढेर-सा लग जाता है। सत्य की खोज करने का तथा उसे प्राप्त करने का यह मार्ग नही, इस बात को हम आसानी से समझ सकते है। प्रश्न यह उठता है कि हमे 'सत्य' की खोज कहाँ और किस तरह करनी चाहिये ? जैन तत्त्वज्ञानियो ने जिस ढग से इन प्रश्नो का उत्तर दिया है, वैसा किसी दूसरे ने भी दिया हो, ऐसी बात हमने आज दिन तक नही सुनी । 'अनेकातवाद' तथा 'स्याद्वाद' द्वारा इन प्रश्नो का उत्तर दिया गया है । जैन तत्त्वज्ञान के सिवा किसी और तत्त्वज्ञान ने 'अनेकातवाद' और स्याद्वाद की शिक्षा दी हो ऐसा आज दिन तक जानने को नहीं मिला। ___ इस तत्त्वज्ञान के मूल मे जो मुख्य बात छिपी है वह यह है कि किसी भी एक ही दृष्टि-विन्दु से किसी बात पर सोच विचार न करना चाहिये । जिस विषय के सवध मे हमे विचार या निर्णय करना हो उसके अन्य पहलू भी है या नही इस बात पर भी विचार करना आवश्यक है। कई लोगो ने ढाल के दूसरी ओर देखने की बात कही है, किन्तु वह ढाल अपनी ही कल्पना के अनुसार होती है । इसके दो ही पहलू Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होते है । ऊपर बताये गये सभी दूषण तो उन सब मे अवश्य रहते है। इसीलिये जैन तत्त्वज्ञानियो ने इस बात पर बार-बार जोर दिया है कि तीव्र बुद्धिशक्ति के बावजूद भी जब तक तटस्थता का भाव प्रकट नहीं होता तब तक पूर्ण सत्य की प्राप्ति असभव है । इसी कारण वे कहते है कि तटस्थवृत्ति को विकसित करना नितान्त आवश्यक है। ___ इस तटस्थवृत्ति को विकसित करने के लिए अज्ञानता दूर करके सच्चा (सम्यक्) ज्ञान प्राप्त करना होगा । जो झूठा ज्ञान (भ्रम) अर्थात् मिथ्या-ज्ञान है उसे फेक देना होगा, सभी प्रकार के पूर्वग्रहो को, पहले से बने हुए अभिप्रायों को जमीन मे गाडना होगा। अहंभाव से हमे बिल्कुल मुक्त रहना होगा। अन्ध स्वार्थ, भौतिक स्वार्थ जिसका इन्द्रियादिक वृत्तियो के साथ सम्बन्ध है, उसे भी दूर करना होगा। इन्द्रियादिक वासनामो तथा वृत्तियो की गुलामी से हमे पूर्ण स्वतत्रता प्राप्त करनी होगी। विवेक बुद्धि पूर्ण रूप से जागृत करनी होगी और समग्र जगत के प्रति करुणा एवं मैत्री की भावना हृदय मे जागृत करके सहिष्णुता की परमपावक ज्योति प्रज्वलित करनी होगी। कुछ बहुत बडी बात कह दी, क्यो ? यह सब पढकर घबराने की कोई जरुरत नही । जिन्होने 'अनेकातवाद' और 'स्याद्वाद' के अपूर्व तत्त्वज्ञान की भेट जगत को दी है वे सभी जैन तीर्थकर-सर्वज्ञ भगवतगरण ऊपर बताये गये तमाम दोषो से मुक्ति प्राप्त करने में सफल रहे थे और पूर्णज्ञान-केवल ज्ञान-प्राप्त करने के बाद ही उन्होने ये Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाते जगत के सामने प्रस्तुत की थी। हम में से कोई भी व्यक्ति इस सीमा तक नहीं पहुँच पाया। लेकिन जो कुछ उन्होने कहा है उसे समझने की शक्ति भी हम मे नही ऐसा मानने की जरूरत नहीं है । इन बातो को समझने के लिये जिस प्रोत्साहन की आवश्यकता है उसे पाने के लिये यही एक कारण वस है कि इस परम पद को प्राप्त करने मे हम अभी तक सफल नहीं हो पाये। ___जैन तीर्थंकरो ने जगत को पूर्ण सत्य की खोज करने का, उसे समझने का तथा उसे प्राप्त करने का सही उपाय बताया है, इस बात को तो आज पौर्वात्य एव पाश्चात्य समर्थ विद्वान भी स्वीकार करने लगे है । सर्वज भगवन्तो ने जो उपाय हमे वताया है, उसका सहारा लेने से भला हमे कौन रोक सकता है ? यदि हम वैज्ञानिक प्रयोगशालायो का निरीक्षण करे तो हमे पता चलेगा कि एक ही वस्तु पर अनेक प्रकार के प्रयोग हो रहे है। यदि कोई एक अन्वेषणकार्य पूरा हो जाय तो उसके बाद उसके फलस्वरूप प्राप्त हुई चीज पर पुन अन्वेषण कार्य शुरू होता है और यही कार्यक्रम जारी रहता है । इन सभी अन्वेपणो के पीछे जो एक मुख्य बल कार्य कर रहा है वह यह है कि 'जो कुछ भी प्राप्त हना है उससे भी विशेष और कुछ है ।" अभी तक तो किसी वैज्ञानिक ने यह नही कहा कि जो कुछ खोज लिया गया है वह पूर्ण है और इससे अधिक या विशेष अव और कुछ नहीं है । यदि कोई यह कहे तो अन्वेषण कार्य की गति ही रुक जाएगी। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ व इसमें समझने योग्य एक विशेष बात तो यह है कि वैज्ञानिक प्रयोगशालाओ मे जो भी प्रयोग अथवा अन्वेपण कार्य हो रहे है उन सभी के पीछे सिर्फ ग्राकाशकुसुमवत् कल्पना । । ही नही है । इन सब के पीछे 'कुछ' है । हम जो कुछ भी जानते हैं इससे विशेप 'कुछ' है इस कार्य कर रही है । 'कुछ है' उत्पन्न हुई ? प्रकार की श्रद्धा दृढ रूप से ऐसी यह श्रद्धा भला कैसे इस बात पर हमे अधिक सोच-विचार करना होगा, इसमे कोई सन्देह नही । एक बात तो निश्चित है कि कही न कही से उसका उद्गम अवश्य हुआ होगा । इस से यह सिद्ध होता है कि 'जो न दिखता था न समझ मे ग्राता था ऐसा 'कुछ' अस्तित्व में अवश्य था' इन सभी सशोधन कार्यों के लिये जिस प्रेरणा की आवश्यकता है उसकी प्राप्ति हमे उपर्युक्त अस्तित्व सम्बन्धी श्रद्धा से ही हुई, यह मानना ही पडेगा । इस श्रद्धा के बल पर प्रयोगशाला में कार्य करने वाले वैज्ञानिको को प्रयोग करते समय 'तर्क का हो सहारा' लेना पडता है। झूठे तर्क पर आधारित कोई प्रयोग जव असफल हो जाता है तो फिर से नये तर्क की सहायता लेकर उन्हे अपना कार्य नये सिरे से पुन प्रारम्भ करना पडता है । और जब वे यह कार्य करते-करते अपने उस भौतिक क्षेत्र मे शुद्ध तर्क तक श्रा पहुँचते है तब उन्हें सिद्धि प्राप्त होती है । यह तो हुई भौतिक विपय से सम्बन्धित बात । इसी तरह जीवन के समस्त क्षेत्रो में, मनुष्य को शुद्ध तर्क का ग्राश्रय लेना ही पडता है । अपने ही मन की प्रयगश 1 द्वारा इस Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध तर्क को सिद्ध करना सभी लोगो के लिये सभव नही । इसलिये हमे उन्ही लोगो का आश्रय लेना होगा जिन्होने अपने समस्त पापो का क्षय करके, इस जगत और जगत के बाहर की तमाम भौतिक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक बातो को, केवल ज्ञान-Omniscuence के द्वारा देखा है और जगत के सामने प्रस्तुत किया है । इन भगवन्तो द्वारा जो कुछ भी बाते कही गई है वे सभी सत्य है या नही इसे सिर्फ जिज्ञासावृत्ति से प्रेरित होकर समझने की कोशिश करे तो वह हमे आगे की ओर दूर-दूर कही अवश्य ले जायगी। छोटे-से बालक को जव सर्व प्रथम स्कूल में दाखिल किया जाता है तब उसे ('चौदह तिया बयालिस' नहीं मालूम होता) गणित का विल्कुल ज्ञान नहीं होता। स्थापित गणितशास्त्र मे विश्वास रखकर, अनपढ माँ-बाप अपने बच्चे को स्कूल मे दाखिल करवा देते हैं । वहा पर शिक्षक बच्चे को जो कुछ भी याद करने के लिये कहता है, वच्चा ठीक उसी तरह याद करता है । 'पन्द्रह तिया पैतालीस' ऐसा जो पहले याद किया होता है उसका उसे शास्त्रीय ज्ञान नहीं होता। बाद मे जव उसकी बुद्धि का विकास होता है, वह जोड, और बाकी करना सीख लेता है, तब वह तीन वार पन्द्रह का जोड कर लेता है, और उसने पहले जो रटा था उसकी यथार्थता का अनुभव उसे तब होता है। ___ जहाँ तक तत्त्वज्ञान का सम्बन्ध है, हम सब बालको जैसे है । प्रारम्भ से ही हम यदि श्रद्धापूर्वक रहना शुरू न करेगे तो Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ ज्ञान की यथार्थता का अनुभव भला हमे किस तरह से प्राप्त होगा? कोई व्यक्ति शायद यह प्रश्न पूछेगा कि ससार भर मे गणितशास्त्र तो सिर्फ एक ही है । लेकिन जहाँ तक तत्त्वज्ञान के विषय का सम्बन्ध है, ऐसे प्रश्न का उठना क्या सभव है ? यहाँ तो 'तीन कनौजिये, तेरह चूल्हे' वाला हिसाव है। अच्छा तो इस बात को हमने स्वीकार कर लिया कि जगत मे तत्त्वज्ञान के कई प्रकार है । तो फिर हमे जैन तत्त्वज्ञान से ही क्यो प्रारभ करना चाहिये ? किसी और ही तत्त्वज्ञान से प्रारंभ क्यो न करे ? इस तरह के दूसरे प्रश्न का उठना स्वाभाविक है। इसका जवाब हमे ठीक तरह से याद रख लेना चाहिये। जैन तत्त्वज्ञानियो का यह दावा है कि "जैन दर्शन ही एक ऐसा तत्त्वज्ञान है जिसमे भिन्न-भिन्न तमाम दृष्टिबिन्दु इस तरह से सम्मिलित हो गये है जिस तरह से अनेक सरिताए सिन्धु मे।" इस तरह का दावा किसी और तत्त्वज्ञान ने किया हो ऐसा हमे याद नहीं । ऐसी परिस्थिति मे हम यदि जैन-तत्त्वज्ञान का ही अध्ययन शुरू कर दे तो उसमे आपत्ति की कौन-सी बात है ? आज विज्ञापन का युग है । पेट मे उठे हुए दर्द को मिटाने के लिये, चमडी को स्वच्छ और मुलायम रखने के लिये किसी एक दवा या साबुन का ही विज्ञापन हम पढ ले । उस विज्ञापन मे, उसी चीज के बारे मे बडे-बडे दावे किये जाते है। इसी विज्ञापन को पढकर हम इनमे से कोई एक चीज खरीदकर लाते है या नही ? विज्ञापन मे जिन गुणो का वर्णन किया गया Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ हो वे सभी यथार्थ है या नहीं, इस बारे मे उस चीज का उपयोग किये विना क्या हम निर्णय कर सकते है ? तो फिर जैन तत्त्वज्ञान के बारे मे उसके प्रणेताओ का जो दावा है उसकी यथार्थता का अनुभव प्राप्त करने के लिये एक अवसर उन्हे भी दिया जाय तो उसमे कौन- सी ग्रापत्ति है? यदि सही तौर पर देखा जाय तो वह अवसर हमे उन्हे देना नही है बल्कि प्राप्त करना है, उन्हें ऐसा अवसर प्रदान करने से आखिर मे फायदा तो हमे ही होनेवाला है, उन्हे नही । इसलिये यह तो हमारे ही लाभ की बात हुई । फिर भी फिलहाल उन्हे एक अवसर देना है ऐसा मानकर हम श्रागे चर्चा करे तो इसमे कोई आपत्ति नही । जैन तत्त्ववेत्तागरण हमारा आभार अवश्य मानेगे । जैन तत्त्वज्ञानियों का यह दृढ विश्वास है कि इस सर्वोच्च तत्त्वज्ञान को समझने की जिज्ञासावृत्ति एकबार भी जिनके मन मे जागृत होगी उनके सामने, इस तत्त्वज्ञान का सौदर्य और उसका सौरभ आप ही आप अपने बल से प्रकट हुए विना नही रह सकता । इस बात को समझने के लिये, उस सम्बन्ध मे पूर्णतया अनुभव प्राप्त करने के जिन दुर्गुणो और दोषो का त्याग करने का पहले कहा गया है उनका आज इसी वक्त त्याग करने के लिए कोई आग्रह नही करता क्योकि यदि एक बार इस तत्त्वज्ञान की समझ शक्ति का विकास प्रारंभ हुआ कि आप ही आप सभी दुर्ग अपना बोरिया-बिस्तर लिये भाग- छूटने Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ की तैय्यारी करना शुरू कर देगे, ऐसी अटल श्रद्धा इस तत्त्वज्ञान के उपदेशको के हृदय मे है । फिर भी इस तत्त्वज्ञान का यदि लाभ उठाना हो तथा उसे ठीक तरह से समझना हो, तो एक छोटी-सी शर्त का पालन हमे अवश्य करना होगा । यह शर्त 'तटस्थता भाव' कहा जाय उसे तटस्थवृत्ति से पूरा समझने की हमे कोशिश करनी चाहिये । उसे ग्राधे रास्ते पर या दो कदम चलने पर ही छोड़ न देना चाहिये । श्रापसे यही उम्मीद रखते हुए अब हम ग्रागे चर्चा करेंगे। अपनाने की है । जो कुछ भी I C6C Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय पिछले प्रकरण मे 'तटस्थ' भावना अपनाने की जो बात वतलाई गई है उसके अनुसार अब आप तटस्थ भावना की स्थिति मे आ पहुँचे है । यह मानकर आगे चर्चा करे । ___ यहाँ पर इस बात का निर्णय कर लेना आवश्यक है कि आखिर हमे समझना क्या है ? अच्छा, एक प्रश्न ही पूछ ले । इस जगत मे क्या ऐसा भी कोई उपाय है जिसकी सहायता से मनुष्य को समझ-शक्ति, छोटे-बडे तमाम क्षेत्रो मे पूर्ण सत्य की खोज कर सके और उसे प्राप्त कर सके ? जैन-दार्शनिको ने इस प्रश्न का उत्तर 'हाँ' मे दिया है। उन लोगो का यह दावा है कि सर्वज्ञ भगवतो ने इस समझ शक्ति को प्राप्त करने का जो मार्ग दिखाया है वह अपूर्व है, अद्भुत है और पूर्ण है। ___यदि हम इस बात को ठीक तरह से समझना चाहते हैं तो जैन-धर्म और जैन तत्त्वज्ञान से सम्बन्धित मुस्य-मुख्य बातो की एक सूची हमे देखनी होगी। महत्त्व को वातो पर एक विहगम दृष्टि डाल कर उनका परिचय हमे प्राप्त करना होगा। क्योकि जो तरीका, जो पद्धति, जो गणित हमे देखना और समझना है, जो उसका मूल है, जो उसके मूलभूत सिद्धान्त एव पाचरण है, उनका सक्षिप्त परिचय हो जाने से उस (तत्त्वज्ञान) को समझने मे हमे अधिक सुविधा होगी। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाँ, तो अब हम यह परिचय प्राप्त कर ले । (१) 'जैन' का शाब्दिक अर्थ है 'जिन' के 'अनुयारी'। 'जिन' का अर्थ है मन, वाणी और शरीर पर विजय प्राप्त करके जिन्होने तीर्थकर पद प्राप्त किया हो वे, तीर्थकर का अर्थ है साधु, साध्वी, श्रावक-श्राविका-इन चारो के तीर्थ (समूह अर्थात् सघ) की जिन्होने स्थापना की हो वे । तीर्थकर के लिये अर्हत्, अरिहत, सर्वन अथवा केवलज्ञानी ऐसे अन्य भी नाम हैं। अपने समग्र पापो का क्षय करके मोक्ष प्राप्ति से पहले, केवलज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् जो लोग जगत को सद्धर्भ की पहचान करवाते है वे 'जिन' भगवान के नाम से पहचाने जाते हैं और उनके बतलाये हुए मार्ग पर चलने वाले लोग 'जैन' कहलाते हैं। (२) 'जन' शब्द किसी जाति या कौम का सूचक नही। वह तो धर्म का सूचक है । जैनधर्म का पालन करने के लिये किसी कौम या जाति का भेद नही रखा गया। जैनधर्म के याचारो का पालन करने वाला तथा उसके सिद्धान्तो को मानने वाला कोई भी व्यक्ति, फिर वह किसी भी कीम या जाति का हो, किसी भी देश का निवासी हो, 'जैन' नाम से पहचाना जाता है। (३) जैनधर्म पूर्ण रूप से लोकशासनवादी धर्म इसलिये माना जाता है कि तीर्थंकरो ने जिसकी स्थापना की है वह 'सघ' एक सामूहिक सत्ता है, श्रावक-श्राविका, साधु और साध्वी इन चार विभागो के सुन्दर मिलन से बने हुए 'सघ' की गान और सत्ता इतनी विशाल है कि वह सर्वोपरि मानो Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ I गई है | तीर्थंकर भगवत भी जब उपदेश देना आरम्भ करते है तब इस 'चतुविधि' सघ को पहले नमस्कार करते है । इसमे पूर्णतया लोकशासनवाद प्रतिष्ठित है । जैन धर्म मे 'स्त्री' और 'पुरुष' के बीच भी किसी प्रकार का भेदभाव नही रखा गया । (४) जैसा कि कुछ पाश्चात्य विद्वान मानते है, जैनधर्म और जैन तत्त्वज्ञान सिर्फ ढाई हजार वर्ष से ही प्रचलित नही । जैनो के प्रतिमतीर्थकर श्री महावीर के समय से ही जैन तत्त्वज्ञान अस्तित्व मे नही आया । श्री महावीर तो इस युग के प्रतिम-चौबीसवे तीर्थकर थे । वर्तमान मुख्य काल-विभाग के प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभदेव को हुए भी ग्राज गरिणत लाखो वर्ष बीत गये । (५) श्री ऋषभदेव से लेकर श्री महावीर तक जो चौबीस तीर्थकरो का काल-निर्गमन हुआ उससे भी पूर्व जैन धर्म का अस्तित्व था । (६) जैन दार्शनिको ने काल विभाजन करते समय उसके दो विभाग किये है | एक को उत्सर्पिणी तथा दूसरे को अवसर्पिणी नाम दिया गया है। ये दोनो मिल कर एक कालचक्र पूरा होता है । ऐसे अनेक कालचक्र अनादि काल से चले आ रहे है, और अनन्त काल तक चलते रहेगे । काल-चक्र के ये दो विभाग उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी भी अनादिकाल से चलते आये है और अनत काल तक चलेगे । इन दोनो को मिला कर एक कालचक्र वनता है, ऐसे अगणित असख्य काल चक्र हो गये है, और होते रहेगे, इसकी कोई सीमा नही है । प्रत्येक उत्सर्पिणी भीर अवसर्पिणी काल-विभाग मे Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ चौबीस - चौबीस तीर्थकर होते चले आये है और होते ही रहेगे । आज हम वर्तमान काल चक्र के अवसर्पिणी- विभाग मे है । काल के इन दोनो विभागो मे से भी प्रत्येक छ हिस्सो मे बाँटा गया है । इस हिस्से को 'आरा' नाम दिया गया है । आज हम वर्तमान अवसर्पिणी के पाचवे 'आरे' मे है । अतीत मे हये अनन्त कालचक्रो मे प्रत्येक उत्सर्पिणी और प्रत्येक अवसर्पिणी मे चौबीस - चौबीस तीर्थकर हो गये, ऐसा समझा जाता है और इस क्रम को अनादि अनत माना जाता है, अर्थात् जैन लोग अपने धर्म को भी अनादि, शाश्वत और निश्चल मानते है । ऐसे अनादि और अन्त कालचक्रो की परम्परा की भाँति जैन धर्म भी अनादि है और अनन्तकाल तक रहेगा । ( ७ ) इस विश्व या ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति या अंत मे जैन तत्त्वज्ञान को विश्वास नही । जगत को अनादि अनंत माना गया है । जगत का न तो कोई प्रारम्भ है और न कोई अन्त ही । इसी तरह इस जगत का कर्ता कोई ईश्वर या ब्रह्म-तत्त्व है, इस मान्यता को जैन तत्व-ज्ञान स्वीकार नही करता । जिस तरह काल-चक्र अनादि है, ठीक इसी तरह जगत भी अनादि है और यदि उसे 'सादि' माना जाय और ईश्वर या ब्रह्मतत्व जैसे किसी को भी 'कर्ता' माना जाये तो फिर उस 'आदि' से पहले क्या था ? और उस 'कर्ता' का अस्तित्व कहाँ से आया ? ऐसे बहुत से प्रश्न हमारे सामने उपस्थित होते है । जगत के किसी भी अन्य तत्त्व - ज्ञान ने इन सभी प्रश्नो के जवाब सन्तोषपूर्ण नही दिये, इसीलिये इस सम्बन्ध मे जैन दर्शन की मान्यता Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ सतर्क और युक्ति-सगत है। (८) जैन तत्त्वज्ञान ने इस जगत के आधार स्प छ द्रव्य बताये है । द्रव्य अर्थात् पदार्थ । ये छ द्रव्य निम्नलिखित है - . (क) धर्मास्तिकाय : यहाँ पर 'धर्म' शब्द का अर्थ 'गति मे सहायक द्रव्य' बतलाया गया है । यह धर्म-द्रव्य जगत मे जो कुछ भी गतिमय है उसकी गति मे सहायता पहुचाता है। (ख) अधर्मास्तिकाय इस 'अधर्म' शब्द को पढ़ कर घबरा जाने की कोई बात नही । यहाँ 'अधर्म' का अर्थ होता है 'अगति', हम उसे 'स्थिति' कहेगे। जिस तरह कोई गतिसहायक धर्म पदार्थ है ठीक उसी तरह स्थिति में सहायता देने के लिये भी कोई एक द्रव्य चाहिए । और यह दूसरा 'अधर्म द्रव्य' अथवा स्थिति मे सहायक द्रव्य है । घूमना-फिरना (गतिमय होना) और स्थित होना इसमे जीव और जड पदार्थ स्वय स्वतत्र कर्ता है । लेकिन उनकी गति मे और स्थिति मे सहायक बनने वाले पदार्थो का होना आवश्यक है। इस वात को अब आधुनिक वैज्ञानिक लोग भी स्वीकार करने लगे है। जैन दार्शनिको ने इसके लिये 'धर्म' और 'अधर्म' नाम के दो पदार्थ अनादिकाल से बताये है । (ग) आकाशास्तिकाय : कोई ऐसा भी द्रव्य होना चाहिए जिसमे दूसरे सभी द्रव्यो को समा लेने की, सम्हालने की तथा अवकाश देने की शक्ति हो । और वह द्रव्य है 'आकाश द्रव्य' । यह आकाग, तो अब सर्वस्वीकृत और सर्वमान्य पदार्थ है। दिशाओं का समावेश भी आकाश मे हो जाता है । इस द्रव्य के दो विभाग है-(१) लोकाकाश और (२) श्लोकाकाश । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ (घ) पुदगलास्तिकाय . 'पूर' और 'गल्' इन दो धातुरो के मिलन से 'पुद्गल' शब्द की उत्पत्ति हुई। 'पूरण' और 'गतन' का अर्थ हे मिलना और अलग होना-जुड जाना और गिर पडना । जिसका स्वभाव इस तरह का हो उसके लिये 'पुद्गल' शब्द का प्रयोग किया गया है। पुद्गल का मिलने' ओर अलग होने का कार्य दो प्रकार से होता है-एक तो जीव की सहायता से और दूसरा अपने आप । इस चराचर विश्व की समग जड रचनाएँ जीव की सहायता से अथवा अपने आप मिल कर फिर अलग होते हुए इस पुद्गल पदार्थ के कारण ही होती हे और होती रहेगी। (च) जीवास्तिकाय जो जड नही है उसे चैतन्यशाली चेतन माना गया है । यह चैतन्यशाली चेतन भी एक द्रव्यपदार्थ है जिसे हम प्रात्म-द्रव्य के नाम से जान सकते है।। (छ) काल छठे द्रव्य का नाम है 'काल' । इस 'काल' द्रव्य का अर्थात् समय द्रव्य का भी अपना स्वतत्र अस्तित्व रहता है । जैन दृष्टानो ने इसे भी एक जड द्रव्य माना है । __विश्व की समग्र रचनाएँ उपरोक्त छ द्रव्यो मे ही समा जाती हैं । जीव रूप चेतन द्रव्य, पुद्गल रूप जड-द्रव्य (शरीर) से मिलकर, अाकाश द्रव्य-रूपी स्थल मे, 'धर्म' द्रव्य और 'अधर्म' द्रव्य की सहायता से 'गति' और 'स्थिति काल द्रव्य को साथ लेकर करता है । जन तत्त्वज्ञान के अनुसार विश्व-रचना किस प्रकार हुई, इस सम्बन्ध मे हमने चर्चा की है । यहाँ पर इस बात का स्पष्टीकरण करना आवश्यक है कि 'धर्म', 'अधर्म' 'आकाश' Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० पुद्गल और जीव के साथ ही जो अस्तिकाय शब्द जोड दिया गया है वह सहेतुक है । 'ग्रस्ति' अर्थात् प्रदेश और 'काय' अर्थात् समूह | इन पाँचो द्रव्यो के ग्रसस्य या अनन्त प्रदेश श्रीर समूह माने गये हैं । इसीलिये 'अस्तिकाय' शब्द जोडा गया है । जब कि काल द्रव्य का कोई प्रदेश न होने के कारण उसके साथ यह शब्द नही जोडा गया । (e) उपरोक्त छ द्रव्यो के आधार पर ही जैन- दार्शनिकों द्वारा मुक्ति-मार्ग मे उपयोगी नी तत्वो के ज्ञान का निरूपण किया गया है | ये नौ तत्त्व निम्नलिखित है। ( १ ) जीव - चैतन्यशाली चेतन । जीव द्रव्य के श्राधार पर इसका निरूपण किया गया है । (२) प्रजीव - चैतन्यरहित जड पदार्थं । इसमे धर्म, धर्म, आकाश, पुद्गल और काल का समावेश हो जाता है । (३) पुण्य - अच्छे और शुभ कर्म । (४) पाप - बुरे कर्म | ― (५) आस्रव - आत्मा के साथ कर्म का सम्वन्ध होने का मार्ग । (६) सवर - जिसके द्वारा कर्म बन्धन होने से रोक दिया जाय । श्रात्मा मे प्रवेश करते हुए कर्मों को रोकने की आत्मा द्वारा संचालित क्रिया । (७) निर्जरा - कर्म का क्षय । इस क्षय के दो प्रकार है - ( १ ) ' सकाम निर्जरा' अर्थात् तपश्चर्या आदि साधनो द्वारा कर्मो का क्षय किया जाता है । (२) 'अकाम निर्जरा' Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ अर्थात् वे कर्म भुगत लिये जाने पर समय पूरा होते ही-अपने आप दूर हो जाते हैं। (८) वध ---जिस तरह दूध में पानी मिल जाता है उसी तरह कर्म का आत्मा के साथ संबंध स्थापित हो जाय, वह वन्धन । (E) मोक्ष.-सभी कर्मों के क्षय के कारण आत्मा की मुक्ति । जैन दार्शनिको ने छ द्रव्यो की भांति इन नौ तत्त्वो का अति सूक्ष्म अवलोकन किया है । यहाँ तो उनकी अत्यन्त सक्षिप्त व्याख्या दी गई है। यदि आपको इस विपय में दिलचस्पी हो तो उस विषय से सम्बन्धित सभी ग्रन्थो को स्वय पढ लेना चाहिए अथवा तज्ज्ञ (विशेषज्ञ) पुरुषो की मदद से उन्हे समझ लेना चाहिए। (१०) उपर्युक्त छ द्रव्य तथा नौ तत्त्वो के सयोगप्रयोजन से इस अनादिकाल से चलो अाती हुई विश्वरचना मे जो कुछ भी होता है उसमे जैन दार्शनिको ने पाँच कारण प्रयोजक रूप बतलाये है । ये पांच कारण निम्नानुसार है - (क) काल.-इस 'काल' कारण से हमे 'वस्तु अथवा कार्य का परिपक्व या अपरिपक्व समय' ऐसा अर्थ समझना चाहिये। (ख) स्वभाव ~~यहाँ पर 'स्व-भाव' ऐसी व्युत्पत्ति है । अर्थात् मनुष्य या जानवर का स्वभाव नहीं बल्कि प्रत्येक वस्तु का अपना स्वभाव, जिसे हम 'सहज-धर्म' नाम से भी पहचान सकते है। (ग) भवितव्यता.-इसका दूसरा नाम नियति भी है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसका अर्थ 'कर्म द्वारा बना हुआ प्रारब्ध' नही होता । यह तो एक अनादि-अनत और स्वतत्र कारण है। (घ) प्रारब्ध ---इसका दूसरा नाम 'कर्म' भी है । व्यक्तिगत-तथा सामुदायिक कर्मो द्वारा जो बनता है सो प्रारब्ध । (च) पुरुपार्य-इसका दूसरा नाम 'उद्यम' भी है । जीवचैतन्य जो उद्यम अथवा पुरुपार्य करता है सो। जैन तत्त्वज्ञान यह मानता है कि जब तक ये पाँचो कारण इकट्ठ नही होते तब तक कुछ भी कार्य नहीं होता । इम विपय मे विशेप चर्चा हम आगे चल कर करेंगे। यहाँ तो केवल सक्षिप्त व्याख्या ही दी गयी है । (११) यह सब, अर्थात् जो कुछ भी ऊपर बतलाया गया है वह तथा दूसरी अनेक वाते समझने के लिये जिस जान की श्रावश्यकता हे उसे जैन-दार्गनिको द्वारा पाँच विभागो मे बाँटा गया है । उनके निम्नलिखित पाँच अलग-अलग नाम दिये गये है। (१) मतिजान (२) श्रुतनान, (३) अवधिज्ञान (४) मन पर्यवज्ञान (५) केवलज्ञान । इस पाँच प्रकार के ज्ञान के सम्बन्ध मे साधारणतया विशेष जानकारो पागे के पृष्ठो मे उचित स्थान पर हम प्राप्त करगे। (१२) उपरिनिर्दिष्ट ज्ञान वास्तव मे जान ही है, प्रज्ञान नही, यह प्रमाणित करने के लिये तथा उसे समझने-समझाने के लिये जैन-गास्त्रज्ञो ने प्रत्यक्ष पीर परोक्ष दो प्रमाण बतलाये है । प्रमाण से तात्पर्य हे साधार, सबूत । यहाँ पर प्रत्यक्ष प्रमाण के साव्यवहारिक और पारमाथिक दो विभाग है । जव Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ कि परोक्ष प्रमाण के अनुमान, उपमान और ग्रागम अथवा श्रुतप्रमाण, इस प्रकार तीन भेद है । इस विषय की अधिक जानकारी ग्रागे चलकर दी जाएगी । (१३) ऊपर जो प्रमाण बताये गये है, उन प्रमाणो द्वारा वस्तु का निर्णय करने के लिये जैन दार्शनिको ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव नामके चार साधन वतलाये है । उन्हे हम चार ग्राधार भी कह सकेगे। इन चारो के लिए 'चतुष्टय' नाम दिया गया है | इन्हे प्रमाण मे ज्ञेय चीज के विभाग 'निक्षेप' भी कहा जाता है । प्रत्येक वस्तु का निर्णय करते समय इस 'चतुष्टय' की अपेक्षा का अधिक महत्व रहता है । इसके भी 'स्व-चतुष्टय' और 'परचतुष्टय' नाम के दो विभाग है । इनके बारे मे कुछ अधिक जानकारी ग्रागे के पृष्ठो मे प्राप्त होगी । (१४) ऊपर बताये गये तथा अन्य विषयो की जानकारी जिसमे दी गयी है वह तत्त्वज्ञान जैन दार्शनिको मे श्रनेकातवाद, स्याद्वाद तथा मापेक्षवाद यादि नामो से पहचाना जाता है । यह तत्त्वज्ञान सर्वज्ञ भगवतो द्वारा प्रदान किया गया है । (१५) स्यादवाद तत्त्वज्ञान को समझने के लिये जो पद्धति बनाई गयी है उसे 'नय' नाम से पहचाना जाता है । इस 'नय' शब्द को हम ' अपेक्षा के कारण प्राप्त वस्तु का ज्ञान Relative Knowledge इस अर्थ मे लेगे। इस 'नय' के भी दो मुख्य विभाग हैं: " (क) द्रव्यार्थिकः -- प्रर्थात् वस्तु के साधारण रूप की जो जानकारी दे (General) । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ (ख) पर्यायाथिक.-वस्तु के विशेष रूप की जो जानकारी दे (Specific)| 'नय' के सात नाम (भेद) इस प्रकार है(१) नैगम । (२) सग्रह। (३) व्यवहार। (४) ऋजुसूत्र। (५) शब्द। (६) समभिरूढ । (७) एवभूत । उपरोक्त सात में से प्रथम तीन द्रव्याथिक-विभाग में प्राते है और बाकी के चार 'नय' पर्यायाथिक विभाग मे आते है। इन सातो के विषय मे अधिक विचार आगे करेगे। ये सातो नय तत्त्वज्ञान को ठीक तरह से समझने के लिये है। धर्म के आचरण के लिये जैन तत्त्ववेत्ताओ ने 'नय' को दो-विभागो मे वांट दिया है - (१) निश्चय नय। (२) व्यवहार नय। यहाँ पर 'निश्चय' का अर्थ मूलभूत सिद्धान्त, ध्येय अथवा एक और अबाधित सत्य, इस प्रकार किया गया है। लेकिन 'व्यवहार' मे प्रत्यक्ष रूप से जिसमे सिद्धान्त का दर्शन न हो, फिर भी उस सिद्धान्त की पूर्ति के लिये व्यवहार मे आचरण करते समय जो उपयोगी सिद्ध हो, ऐसे विषयो को सम्मिलित किया गया है । मूल सिद्धान्त का बाधक, विरोधी या उन्मूलक Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो ऐसे व्यवहार का, आचरण का इसमे समावेश नहीं होता। उपरोक्त सात 'नय' मे साधारण और विशेष ये दो बाते द्रव्यार्थिक तथा पर्यायाथिक विभाग मे बतलाई गई है, उसमे जैन-तत्त्वज्ञानियो ने विशेष बल देकर याद रखने योग्य जो बात कही है वह यह है कि___ "विशेष से रहित साधारण और साधारण से रहित विशेष ऐसी किसी भी वस्तु का इस जगत मे अस्तित्व नहीं है।" इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि ऊपर जो सातो नय बताये गये हैं उन्हें अलग अलग या व्यक्तिगत तौर पर समझ लेने के बाद भी उन्हें एक ही समूह मे गिनना होगा । नय का यह विषय अत्यन्त रसप्रद और समझने योग्य है । इस बारे मे विस्तृत चर्चा हम आगे उचित स्थान पर करेगे। (१६) जैन दार्शनिको ने एक ऐसा कोष्टक भी तैयार किया है, जिसकी सहायता से ऊपर जिन विषयो का उल्लेख किया गया है, उन्हे तथा दूसरे विषयो को हम अच्छी तरह समझ सके। उन्होने इसे 'सप्तभंगी' नाम दिया है । इसी सप्तभंगी मे स्याद्वाद के तत्त्वज्ञान का रहस्य छिपा हुआ है। इस सप्तभगी को देखकर बहुत से लोग भडक जाते है क्योकि पहली बार देखने पर तो उसमे परस्पर विरोधी बाते ही दिखाई देती है । जिन्हे वस्तु के विज्ञान की समझ या ज्ञान नही है ऐसे लोग इस सप्तभगी में प्रयुक्त शब्दावलि को देखकर उलझन मे फंस जाते है । जैन तत्त्ववेत्तानो ने एक अति महत्त्व की बात कही है जिससे इस विषय को हम अच्छी तरह से Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समझ सके । इस बात को ध्यान में रखकर 'सप्तभगी' को समझने की यदि हम कोशिश करे तो कोई दिक्कत न होगी। ___ "प्रत्येक वस्तु 'अनेकधर्मात्मक' है।" यहाँ पर अनेकधर्मात्मक' का अर्थ है "प्रत्येक वस्तु के एक नही, बल्कि अनेक पहल होते हैं।" इससे भी एक विशेष याद रखने तथा समझने योग्य बात यह है कि "इन अनेक धर्मो मे परस्पर विरोधी गुण धर्म भी होते हैं।" ___ इस विषय मे विशेप जानकारी हम आगे प्राप्त करेगे। इस समय तो जिस 'सप्तभगी' का उत्लेख किया गया है उसका ही निरूपण करेगे। (१) अस्ति अर्थात् 'है'। (२) नास्ति अर्थात् 'नही है। (३) अस्ति नास्ति । अर्थात् 'हे' प्रोर 'नही है । (४) अवक्तव्यम् अर्थात् (शब्दो द्वारा) जिसका वर्णन न किया जा सके। (५) अस्ति अवक्तव्यम् । अर्थात् 'है लेकिन अवर्णनीय है'। (६) नास्ति अवक्तव्यम् अर्थात् 'नही है, लेकिन अवर्णनीय है'। (७) अस्ति नास्ति अवक्तव्यम् अर्थात् 'हे और नही है, ___ लेकिन अवर्णनीय है। ऊपर बतलाये गये इन सात पदो मे ‘स्यात' और 'एव' ऐसे दो शब्द प्रत्येक के आगे पीछे लगाये जाते है । इन दो शब्दो का अर्थ "(स्यात्) एक विशेष प्रकार से, (एव) निश्चित" होता है । इस विषय की अधिक चर्चा हम एक विशेप प्रकरण Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में उचित स्थान पर आगे करेंगे । यहाँ तो केवल इतना हो समझ लेना चाहिए कि ये सब बाते सत्य और स्पष्ट है। इनमे गडबड या अस्पष्टता को कोई स्थान नहीं । इनमे से प्रत्येक का निश्चित और स्पष्ट अर्थ होता है। (१७) वेदान्त और दूसरे दर्शनो ने इस विश्व-रचना को 'उत्पत्ति, स्थिति एव लय' नाम के तीन विभागो मे वॉटा है। जव कि जैन दार्गनिको ने उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ऐमी तीन परस्पर सम्मिलित अवस्थाएँ बताई है । इस बारे में अधिक जानकारी हम पागे प्राप्त करेंगे । (१८) जीव अर्थात प्रात्मा को, जैन दर्शन ने एक स्वतत्र व्यक्तित्व प्रदान किया है। अनादिकाल से प्रत्येक प्रात्मा का स्वतत्र अस्तित्व था पीर अनतकाल तक रहेगा । लेकिन वह आत्मा जब सभी प्रकार के कर्मों से मुक्त हो जाएगा तभी उसे मोक्ष प्राप्त होगा। तात्पर्य यह है कि वहाँ मोक्ष मे भो उसका स्वतत्र अस्तित्व तो रहेगा ही ऐसा माना गया है। यह अस्तित्व निर्मल, शुद्ध, जान-स्वरूप और पुनर्जन्म से मुक्त माना गया है। (१६) जगत की विधायक शक्तियो मे से जैन तत्त्वज्ञान ने कर्मशक्ति को ही प्रधानता दी है। उसके सामने एक अात्मगक्ति है, लेकिन चूंकि ससार से बमा हुना प्रात्मा कर्म के वन्धन से जकडा हुमा है इमलिये वह स्वरूप मे शुद्ध होते हुए भी अशुद्ध है ऐसा तमझा गया है । इस प्रात्मगक्ति और कर्मगक्ति के बीच अनादिकाल से जो सघर्ष चल रहा है उस सघर्प मे आत्मा की समग्र प्रवृत्ति का ध्येय, कर्म-शक्ति के Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ प्राबल्य को तोडकर अर्थात् अपने साथ चिपके हुए तमाम पुद्गलो को झाडकर अपने मूल एव शुद्ध स्वरूप को प्रकट करना है । ( २० ) ऊपर बताये गये ध्येय की सिद्धि के लिये जैन तत्त्वज्ञान ने सूत्र को हमारे 'सामने रखा है- 'ज्ञानक्रियाभ्या मोक्ष' । इस वाक्य का यह अर्थ हुआ कि 'ज्ञानपूर्वक को गई क्रिया द्वारा मोक्ष' यह एक अनुपम और श्रद्वितीय सूत्र है । यहाँ पर क्रिया शब्द का अर्थ सिर्फ क्रियाकाड ही नही होता बल्कि उसका अर्थ है 'प्रवृत्ति' अथवा 'पुरुषार्थ' । इसमे उन्होने दो प्रकार की क्रियाए बताई है । एक को 'द्रव्यक्रिया' और दूसरी को 'भावक्रिया' कहते हैं । ये दोनो क्रियाएँ एक दूसरे से स्वतंत्र नही, बल्कि एक दूसरे की पूरक है । (२१) यह क्रिया अहिसा के सिद्धान्त पर आधारित है । हिसा शब्द का अर्थ वडा विशाल है । 'ग्रहिसा' को इतना अधिक और विशेष महत्त्व दिया गया है कि धर्म की एक महत्त्वपूर्ण व्याख्या के लिये 'अहिंसा परमो धर्म' (अहिंसा परम धर्म ) ऐसा कहा गया है । (२२) जैन तत्त्ववेत्तागरण यह बात भार पूर्वक कहते आये है कि ससार मे जन्म लेते हुए, मृत्यु पाते हुए, पुन पुन जन्म-मरण के चक्कर मे फँसनेवाले आत्मा की तमाम प्रवृत्तियो का ध्येय 'मोक्षमार्ग की ओर प्रगति करना है । अधर्माचरण द्वारा अवनति होती है जबकि धर्माचरण द्वारा उन्नति होती है, यह बात सर्वविदित है । आत्मा की उन्नति और मोक्षप्राप्ति के Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेतु जीव मात्र के लिये जो धर्माचरण-धर्म बतलाये गये है उन्हे जैन शास्त्रकारो ने दो विभागो मे बांटा है. १-सर्व विरति-साधुधर्म २-देश विरति-गृहस्थ धर्म जैन तत्त्वविशारदो ने इन दोनो प्रकार के आचरण मार्गों का अधिक गहराई में जाकर वर्णन किया है । गृहस्थ के लिये जैन धर्म मे 'श्रावक" शब्द का प्रयोग किया गया है। इन दोनो धर्मों का अपना-अपना विशिष्ट स्थान एव महत्व है। (२३) समस्त जैन संघ 'नमस्कार महामत्र' के नाम से परिचित मत्र की अत्यन्त भावपूर्वक आराधना करता है। सकल शास्त्रो के साररूप माने हुए इस महामत्र मे भक्ति, साधना और आत्मविकास मे अचित्य फल प्रकट करने की शक्ति छिपी हुई है। जैन तत्वज्ञान और धर्म की खास खास और महत्व की बातो का एक छोटा-सा सूचिपत्र ऊपर दिया गया है। इतना सक्षिप्त परिचय प्राप्त कर के अब हम आगे जो कुछ भी देखेगे या सोचेगे उसे समझने मे अधिक सरलता होगी। जीवन के सभी क्षेत्रो मे, छोटे बड़े सभी प्रश्नो मे हमे सच्ची जानकारी दे सके ऐसी रीति या पद्धति-जिसे हमने 'स्याद्वाद पद्धति' नाम दिया है-पर सोच विचार करने से पहले हम 'धर्म और तत्वज्ञान' के विषय मे थोडा सा विचार कर ले तो इस पद्धति को हृदयगम करने मे हमे बडी सहायता मिलेगी। तो चलिये, अब हम 'धर्म और तत्त्वज्ञान' के विपय में साधारण जानकारी प्राप्त कर लें। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और तत्त्वज्ञान 'धर्म क्या है ' तत्त्वज्ञान क्या है ? अिन दोनो के बीच क्या कुछ भेद है ? और यदि हे तो कौन-सा है ? अिन दोनो को उत्पत्ति कहाँ से हुई ? कब हुई ? इन दोनो का मनुष्यजाति पर कैसा और कितना प्रभाव पडा है ? इन दोनो के वोच क्या सम्बन्ध है ? दोनो एक दूसरे पर आधारित है या स्वतत्र है ? जब हम धर्म और तत्त्वज्ञान के बारे मे सोच विचार करेगे तब हमारे मन मे उपरोक्त प्रश्न अवश्य उपस्थित होगे। सबसे पहले हम उसकी एक साधारण व्याख्या कर ले । धर्म आचार वताता है और तत्वज्ञान का विचारो के साथ सम्बन्ध है। फिर भी ये दोनो परस्पर सबधित हैं । इन दोनो का महत्व एक समान है। धर्म और तत्त्वज्ञान की इतनी सक्षिप्त व्याख्या कर के अब हम आगे बढे । ग्रिम बात को तो सभी लोग स्वीकार करेंगे कि अच्छे विचार विना अच्छे प्राचार (वर्ताव अथवा आचरण) सभव नहो । उसी तरह अच्छे आचरण के विना अच्छे विचारो का मन मे उठना असभव ही है। सिमे, सबसे पहले हम वर्ताव पर ही विचार करगे मनुष्य का वर्ताव हमेशा किसी विचार द्वारा हो Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेरित नहीं होता । अनेक बार वह Instinctive अर्थात् किसी वृत्ति से प्रेरित होकर और Impulsive अर्थात् किसी उत्तेजना से प्रेरित होकर, कुछ न कुछ आचरण कर ही लेता है । जिस मनुप्य मे, विचार करने की आदत नही है वह बहुत बार विचारहीन कहा जाने वाला कार्य कर बैठता है। और यदि उस कार्य का अपेक्षित या शुभ परिणाम निकले तो फिर अपने इस कार्य के लिये विचार करने की उसे कोई आवश्यकता ही नही, रहती । लेकिन यदि कही विपरीत परिणाम निकले, पश्चात्ताप करने या दुखी होने का समय आ जाय, तव अधिकतर वह अपनी विचारशक्ति का प्रयोग करता है। । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य अपेक्षित या शुभ फल की प्राप्ति के लिये किसी भी प्राचरण पर विचार की-पूर्व विचार की आवश्यकता समझता है । वैसे ही, अच्छे आचरण रखने वाले मनुष्य के लिये भी वह आवश्यक बन जाता है । क्योकि, अच्छा वर्ताव करने वाले मनुष्य के विचार यदि अच्छे न हो तो समय बीतने पर उसका वर्ताव भी विगडने लगता है । और आखिर मे वह दुराचारी बन जाता है। दूसरी ओर एक ऐसे मनुष्य की कल्पना करें जो निरतर शुभ विचार ही करते हुए भी वासनायो के शिकजे से टूटने मे असमर्थ होने के कारण वह अपना व्यवहार उल्टा ही करता है और दुराचार को अपनाता रहता है । लेकिन जब तक उसके विचार अच्छे रहेगे तब तक अपने दुगनार के प्रति उसका जागृत रहना तथा बुरी आदतो, दुर्बलतानो से Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ अपने आपको मुक्त करने के लिये सतत् चितनशील तथा प्रयत्नशील रहना सभव है । इस पर से यह न माने कि प्राचार की अपेक्षा विचार का महत्त्व अधिक है । जिस तरह अच्छे विचार वर्ताव सुधार सकते है ठीक उसी तरह अच्छे आचार भी विचार को उच्च स्तर पर ले जा सकते हैं । उसी न्याय से, जिस तरह बुरे विचार बर्ताव को बिगाड देते हैं उसी तरह बुरे आचार विचारो को भी अध पतन की ओर ले जाते हैं । इसलिये इन दोनो के बीच के आपसी सम्बन्धो का एक समान महत्व है । अव एक ऐसे मनुष्य का विचार कीजिये जो किसी देव को प्रसन्न करने की सोचता रहता है लेकिन उसका हेतु, सासारिक, भौतिक सुखो को प्राप्त करने का होता है । किसी ने उसमे कहा कि मनुष्य का बलिदान करने से प्रमुक देव प्रसन्न होकर हमारे मन की इच्छा पूरी करते हैं । स्वार्थ से अन्धा बना हुआ वह मनुष्य सोच विचार किये बिना ही इस बात को स्वीकार कर लेता है और उसके मुताबिक वर्ताव करना प्रारंभ कर देता है । आज के जागृत और सुसस्कृत कहलाने वाले युग मे भी ऐसी बातो का होना असंभव नही । चालक की - सतान प्राप्ति की इच्छा वाले मां-बाप, दूसरो के बालको को मार डालते हैं ऐसी वाते ग्राज भी समाचार-पत्रो मे और न्याय की अदालतो मे हमे पढने या सुनने को मिलती हैं । इस तरह श्राचारभ्रष्ट होने वाले मानव की क्या दशा होगी ? ऐसे लोगो के लिये शरावी, मासाहारी, जुहारी, चोर Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और अपराधी बनने का मार्ग शीघ्रता से खुल जाता है। और स्वार्थ-विवश व्यक्तियो को, आचारभ्रष्ट होने के कारण क्या बुरा परिणाम होगा, इसका ख्याल कदाचित ही आता है। कुछ मध्यम कक्षा की बात करें तो प्राय यह देखा गया है कि समाज के उच्च वर्ग के प्रतिष्ठित लोग भी अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये किसी 'साहब' को रिश्वत, या अन्य मार्ग से खुश करने की कोशिश करते ही रहते है। यदि हमने विवेक खो दिया तो उमका क्या नतीजा आवेगा इस विषय में लोग कदाचित् ही विचार करते हैं। ___ इस विषय मे श्री भर्तृहरि ने अपने नीतिशतक के एक श्लोक मे गगा नदी का जो उदाहरण दिया है वह वास्तव में समझने योग्य है । इस श्लोक का तात्पर्य यह है - "स्वर्ग से पतित हो, शिव जटा स्पर्श कर के, पर्वत से भूमि पर गिर, म्लान बन के, गगा चली क्षार जल-सिंधु मे यया, विवेक खोने से पतन होता सर्वथा ।" इस एक उदाहरण द्वारा अमर योगीन्द्र भतृहरिजी ने कितने महत्व की बात कह दी है ? गगा नदी का स्वर्ग से । अवतरण तो एक रूपक की तरह से प्रस्तुत किया गया है लेकिन आचारभ्रप्ट मनुप्यो का कितना वडा समूह हमारे यहाँ देखने को मिलता है। अव हम एक दूसरे प्रकार के मनुष्य की कल्पना करे । विचार का जहाँ तक सम्बन्ध है, वह मनुष्य पूर्णतया 'अहिसा' Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ का पुजारी है। लेकिन मनोवल के अभाव के कारण वह अहिमक “वर्ताव को अपने जीवन मे स्थान नहीं दे सकता । फिर भी अच्छे विचारो की सहायता से, वह अपने आचरण के प्रति पूरा जागृत रह सकेगा। और यदि वह हिसा करेगा तो इसका उसके हृदय को दुख तो अवश्य होगा। ___अव एक और वात ले। जब हम अच्छे विचार और अच्छे वर्ताव की बाते करते है तब उस 'अच्छे' शब्द का अर्थ क्या है ? हमे जो अच्छा लगे वह ? नही, हमारी वृत्तियो को सन्तोप प्राप्त हो और इन्द्रियो को आनन्द मिले ऐसे सभी कार्य हमे अच्छे लगेगे ही, यह बात सभी समझ सकते है । हमे जो कुछ भी अच्छा महसूस हो उस सव का आचरण करना यदि शुरू कर दे तो उसके फल स्वरूप दुख के गर्त में ही गिरने का समय प्रोवेगा। __यहाँ पर हमे इस निर्णय पर पाना होगा कि 'अच्छा' माने 'सत्य' लेकिन फिर एक प्रश्न उठेगा कि 'सत्य किसे कहे' 'यह मत्य' क्या है उसका निर्णय करने की जिम्मेदारी यदि हम अपने कन्धो पर ले ले तो फलस्वरूप हम उलझन मे फंस जाएँगे । क्यो के हमारी स्वार्थ वृत्तियाँ और अधूरी समझ तथा सीमित बुद्धि फिर एक बार हमारे मार्ग मे वाधा रूप सिद्ध होगी। . इसलिये यहाँ पर, तत्त्वज्ञान की आवश्यकता का प्रश्न उपस्थित होता है । किसी एक सुनिश्चित तत्त्वज्ञान का आश्रय लेने की आवश्यकता और उपयोगिता अब हमारी समझ मे आये विना नहीं रह सकती। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाद में यह प्रश्न उठेगा कि किस तत्त्वज्ञान का आश्रय लिया जाय ? यो देखा जाय तो, जगत् के सभी तत्वज्ञान मनुष्य को अच्छे विचार प्रदान करते है । सद्व्यवहार के लिये शुभ विचारो की जो आवश्यकता है उसकी पूर्ति सभी तत्त्ववेत्तायो ने की है । स्वाभाविक तौर पर अव यह प्रश्न उपस्थित होगा कि ऐसी परिस्थिति मे हमे कौन सा तत्वज्ञान अपनाना चाहिये ? एक धोती का जोडा या साडी खरीदने के लिये हम बाजार जाते है। वहाँ जाकर ट्यूब लाइटो की रोशनी से जगमगाती हुई एक दूकान के भीतर हम प्रविष्ट होते है । व्यापारी हमे धोती और साड़ी दिखाता है। आँखो को चकाचौध कर देने वाली उस रोशनी मे, वह व्यापारी हमे जो कुछ भी बताता है, वह सब हमे अच्छा ही दिखाई देता है । लेकिन क्या यह सब कुछ सचमुच ही अच्छा होता है ? इस तरह प्राकर्पित होकर क्या हम खरीद लेते है ? कदापि नहीं। हम कपडे की जात को देखेंगे। रग कच्चा है या पक्का, इसकी पहचान करेगे, जिन रेशो का वह बना हना है उनकी जाच करेगे, उसकी सफाई देखेगे, यह भी देखेंगे कि यह माल किस मिल मे बना हुआ है, उसके मूल्य पर विचार करेगे और आखिर मे, बेचनेवाला व्यापारी ईमानदार है या नही उस पर भी विचार करेगे। इस तरह सात प्रकार के विचार करने के पश्चात् कौन-सा माल खरीदना है उसका हम निर्णय करेगे। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ इस समय इन सातो विचारो से घिरे हुए मन को यदि मालूम हो कि इस जगत् मे सात भिन्न-भिन्न प्रकार से विचार करने की समझ देने वाली पद्धति से युक्त एक तत्वज्ञान भी मौजूद है तो उसे कितना ग्रानन्द होगा ? जेन दार्शनिको द्वारा ऐसे ही एक विशिष्ट तत्वज्ञान की भेट जगत् को अर्पित की गई है जो 'प्रनेकातवाद' के नाम से विख्यात है । बाजार से एक साधारण चीज खरीदते रामय हम यह जानते है कि किसी एक विशेष बात को ध्यान मे रखकर, जैसे कि उसके वाह्य सौदर्य पर ग्राकपित होकर खरीदेंगे तो ग्रवश्य ही ठगे जाएँगे । तत्वज्ञान के बारे में ठीक ऐसा ही विचार करना क्या श्रावश्यक नही ? जिस पर हमारे जीवन का, जीवन के विकास का, जिन्दगी के सुख और सन्तोप का श्राधार है उस तत्वज्ञान को चुनते समय हम भला सावधान कैसे रह सकते हैं ? भारत में, पूर्व के देशो मे तथा पाश्चात्य देशो मे धर्म ओर तत्वज्ञान के बारे मे जो परिस्थिति प्राज विद्यमान है उससे सभी परिचित है । पाश्चात्य देश भोतिकवादी है । भौतिक सुख और भौतिक विकास की ही वे सदैव इच्छा करने वाले हैं । ग्रुपने पंगवरो द्वारा बताये गये धर्म भी उनके पास है और उन्होने अपना एक तत्वज्ञान भी बनाया है । लेकिन, यह सब भौतिक और सासारिक सुखो के चारो ओर ही घूमता रहता है । उनके सभी श्राचरण, मुख्यत ऐहिक सुखो को ध्यान मे Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ रखकर ही होते हैं। कुछ लोग तत्वज्ञान के प्रति ग्राकर्षित होते है, लेकिन इसके पीछे अधिकतर सिर्फ कुतूहल की ही दृष्टि होती है । ये लोग 'जानने' के उद्देश्य में ही उसका अध्ययन करते है, आचरण करने के लिए मानद ही करते हों । यदि हम यह कहे कि पाश्चात्य देशों में ग्रामविकास के लिये, ग्राध्यात्मिक क्षेत्र में उपयोगी हो ऐसे तत्वज्ञान वा संशोधन करने के विचार किसी के भी दिमाग मे पैदा नही हुए हैं, तो यह गलत न होगा । ग्रधिकाय में यह बात सही है । इसका मुन्य कारण तो यह है कि उनके यहाँ 'शरीर ने नग श्रात्मतत्व' की मान्यता ही नहीं है । मानव-मानव के बीच मेलजोल, सद्भाव और व्यवहार की है, इस बात को तो पाश्चात्य देशों के लोगो ने भी स्वीकार किया है। लेकिन उनका हेतु निर्क ऐहिक मुख-साधनो की वृद्धि करने तक ही सीमित रहा है। मान्य देश में किसी के मन में आत्मविकास के लिये ग्रावश्यक तत्त्वज्ञान को संशोधन करने का विचार अभी तक नहीं खाया । इसीलिये वे तत्त्वज्ञान के पूर्ण विकास को छाया ने वचित रहे है । इसके विपरीत भारत में, 'धर्म' और 'तत्त्वज्ञान ग्राम विकास के नावन माने गये हैं । और हनी दृष्टि से उनका विकास हुआ है। दोनों एक दूसरे के पूरक बन कर रहे है । न जाने प्रकृति को कौन नी ऐसी मार्केनिक लोला है जिसके कारण एशिया खड ही दुनिया भर के सभी वर्मा उद्भवस्थान बना रहा है। हिन्दू धर्म, जन धर्म, बीड ईनाई Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और इस्लाम धर्म, ये पाचो धर्म आज के विश्व के मुख्य धर्म है। इनमे से ससार ने जैन, बौद्ध और हिन्दू धर्म को तो भारत में विकसित होते देखा है जब कि इस्लाम और ईसाई धर्म भी पूर्व एशिया से ही अस्तित्व में आये है। इनमे से इस्लाम, ईसाई और बौद्ध धर्म तो पिछले दो-ढाई हजार वर्ष से ही अस्तित्व मे आये है। इन तीन धर्मों का ऐतिहासिक क्रम अाज जगत् के पास मौजूद है, इसलिये इसके उद्भवकाल के बारे मे न तो कोई सन्देह है और न कोई विवाद ही। हिन्दू तथा जैन धर्म, ये दोनो धर्म ही ऐसे हैं, जिनके अनुयायी अपने अपने धर्म अनादिकाल से चल रहे होने का दावा करते है। कोई धर्म, प्राचीन या अनादि होने के कारण ही श्रेष्ठ है ऐसा निर्णय नही किया जा सकता। लेकिन जाँच करने पर यह पता चलता है कि हिन्दु धर्मगास्त्रो मे जो अधिक से अधिक प्राचीन और प्रचलित माने गये है ऐसे उपनिपदो मे और भागवत आदि ग्रन्थो मे जैनो के वर्तमान तीर्थकर-चौवीसी के प्रथम तीर्थकर श्री ऋपभदेव विपयक उल्लेख मिलते है। अत. इन दो धर्मो मे भी जैन धर्म अधिक प्राचीन है इसमे कोई सन्देह नही । ममत्व के कारण यदि इस बात को गलत कहा जाय या जैन धर्म की निदा की जाय या फिर वेद धर्म के बाद ही उसका उद्गम हुया है ऐसा कहा जाय तो अलग बात है। लेकिन वस्तुत. इतिहास इस वात का प्रमाण देता है कि जैन धर्म इस विश्व का सबसे पुराना और प्राचीन धर्म है इसमें कोई सन्देह नही। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्चात्य तथा भारत के मान्य विद्वानो ने भी इस बात को स्वीकार किया है। जहा तक तत्त्वज्ञान का सम्बन्ध है, हिन्दू धर्म मे उसकी वहुत सी शाखाएँ है। उच्च भूमिका पर हिन्दू तत्त्ववेत्तायो के बीच मतभेद है यह वात तो प्रसिद्ध ही है । हिन्दू तत्त्वज्ञान की भिन्न भिन्न गाखानो मे वेदान्त, नैयायिक, वैशेपिक, माल्य योग, मीमामक वैयाकरण और चार्वाक आदि भिन्न-भिन्न मत है (चार्वाक दर्शन हिन्दू धर्म की शाखा है या नहीं इस गरे मे विवाद चल रहा है) वेदान्त में अद्वैत और विशिष्टाहत प्रादि अनेक शाखाएं है। ___ इन सभी के आगे, केवल जैन तत्त्वज्ञान ही एक ऐसा तत्त्वनान है, जिसमे शाखाएं या उपमार्ग नही है। धर्म के आचरण के बारे मे जैन धर्म में श्वेतावर, दिगवर और स्थानकवासी शाखाएँ है ( इन्हे फिरके भी कहते हैं )। लेकिन तत्त्वज्ञान की भूमिका पर जैन धर्म की ये तीन शाखाएँ एक ही है, एक मत है। इधर-उधर छोटे-छोटे मतभेदो का होना असभव न होते हुए भी तत्त्वज्ञान की मूलभूत पीठिका पर कोई महत्वपूर्ण मतभेद नही है। यह एक ही ऐसी बात है जो जैन दर्शन की स्थिरता, घनता तथा मूलभूत दृढता को सावित करती है। जैन तीर्यकरो ने जो अबाधित सिद्धान्त जगत् के सामने रखे है वे आज भी ज्यो के त्यो मौजूद हैं। यदि ऐसा ही है और ऐमा होने में किसी प्रकार का सन्देह नही, तो फिर इसका कोई विगेप Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० कारण भी होना चाहिए। यह कारण है जैन तत्त्वज्ञान की विशिष्टता । प्राचीनता की दृष्टि से तो जेन दार्शनिक लोग ऐसा दावा करते है कि जैन धर्म, अनादि, शाश्वत श्रौर प्रविचल हे । लेकिन केवल इसी कारण को लक्ष्य में रखकर वह विशिष्ट प्रोर श्रेष्ठ है ऐसा दावा नही किया गया। इसकी विशिष्टता एव श्रेष्ठता तो इसका जो तत्त्वज्ञान हे उसमे छिपी हुई है । जगत् के तमाम तत्त्वज्ञानो मे जिसने ग्रनोला श्रीर विशिष्ट स्थान प्राप्त किया हे गौर जो दिग्विजयी हे ऐसा यह तत्वज्ञान अनेकातवाद के नाम से प्रसिद्ध है, यह बात तो हम पहले कह चुके हैं । इस तत्त्वज्ञान की एक विशेष महत्व की बात उसकी तर्कपद्धति है । यह तर्कपद्धति ऐसी सपूर्ण और प्रमाणयुक्त है कि कही से भी अँगुली घुसाना असंभव है । जगत् के जितने भी विद्वान इसके परिचय में प्राते है वे सभी इस पर मुग्ध हो जाते है | सर्वश्री हर्मन जेकोबी, डॉ० स्टीनकोनो, डॉ० टेसीटोरी, डॉ० पारोल्ड ग्रौर बर्नार्ड शॉ जैसे पाश्चात्य देशो के विद्वान भी इस तत्त्वज्ञान पर मुग्ध हो गये है । तत्त्वज्ञान की उच्च लोकोत्तर भूमिका पर यह अनेकातवाद शायद कठिन और अटपटा दिखाई पडेगा लेकिन साधारण मनुष्यो के सदैव के जीवन मे और विचारशील बर्ताव मे तो यह " वाद" घर करके बैठा ही है। ऊपर हमने कपडे की खरीद से सम्बन्धित जो उदाहरण दिया है उसमे अनेकातवाद की छाया नही तो और क्या है ? Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "अनेकात" शब्द का विग्रह कर दिया जाय तो उसमे 'अनेक' और 'अत' ऐसे दो शब्द हमे दिखाई देगे। अर्थात् इसका सीधासादा अर्थ होगा 'जिसके अत अनेक है ।' जैन तत्त्वज्ञान या जैनधर्म के अनेक छोर है, ऐसा अर्थ नही निकालना है। इसका स्पष्ट अर्थ तो यह है कि तत्त्वज्ञान रूपी विषय का अनेक छोरो से (पहलुनौ या दृष्टियो से) निरीक्षण करनेके वाद जिस सत्य को प्राप्ति हुई है उसका परिचय हमे यह नत्त्वज्ञान कराता है। जैन दार्शनिको ने 'अनेकात' के द्वारा सिर्फ अपने ही तत्त्वज्ञान की जाँच की हो सो वात नहीं, अपनी इस अद्वितीय पद्धति से उन्होने ससार के सारे तत्वज्ञानो की छानबीन की है और ये सारे तत्त्वज्ञान केवल एक ही प्रत (एकात) पर निर्भर है यह वात भी सिद्ध कर दी है। अलग-अलग सभी दृष्टिविन्दुओ को ध्यान मे रखे विना ही, सिर्फ एक ही ओर से जाँच करके सोच विचार करके दूसरे तत्त्वज्ञानो की रचना हुई है ऐसा जैन दार्शनिको का मत है। जैन तत्त्वज्ञान मे जिसे आगम प्रमाण का एक हिस्सा मान लिया गया है वे सात 'नय' समझने योग्य है। यदि इन्हे किसी भी तत्त्वज्ञान की जाँच करने के लिये 'सात अत अथवा छोर' इस नाम से हम पहचाने तो उसमे कोई आपत्ति न होगी। इस दृष्टि से, जैन तत्ववेत्तानो ने यह साबित कर दिखाया है कि सिर्फ जैनदर्शन अकेला ही इन सातो-मात अत-सीमाओ के समूह पर निर्भर है। वाकी के मुख्य-मुख्य दर्शन ऐकातिक अर्थात् एक ही 'अंत' अथवा 'छोर' पर रचित है। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ जैन दार्शनिको के प्रमाणित अभिप्राय के अनुसार भिन्न-भिन्न दर्शनो की परिस्थिति निम्नलिखित है । (१) अद्वैत वेदात, और साख्य, 'संग्रह' नय पर रचित हैं । 1 (२) नेयायिक और वैशेषिक दर्शन, "नैगम' नय पर रचित है । (३) चार्वाक मत, सिर्फ 'व्यवहार नय' पर निर्भर है । (४) वौद्धमत, ऋजुसूत्र 'नय' का अनुसरण करता है । (५) भीमासकमत ' शव्दनय' के आधार पर बँधा हुआ है । (६) वैयाकररण- दर्शन, 'समभिरूढ नय' का आधार लिये चलता है। ( ७ ) इसके सिवा दूसरे कई Extremist उद्दाम तत्त्वज्ञान है वे सभी 'एवभूत नय' के ग्रनुसार चलते है । जव कि जैन दर्शन इन सातो 'नयो' के समूह रूप, एक विशाल महासागर सदृश है । 'नय' शीर्षक प्रकरण मे हम आगे प्रत्येक 'नय' के बारे मे अधिक चर्चा करेंगे । ऊपर जो बाते बताई गई है उनके समर्थन मे विशेष कुछ लिखने की ग्रावश्यकता नही । यदि हम अधिक विस्तार से लिखना चाहे तो लिखते-लिखते हजारो पन्नो के एक महाग्रन्थ की हमे रचना करनी पडेगी । इसलिये, जहाँ तक इस विपय का सम्बन्ध है, यहाँ पर हम इतना ही उल्लेख करेगे कि यदि किसी को इस विषय मे दिलचस्पी हो तो वे इस विपय का गहरा अध्ययन अवश्य करे। ताकि उन्हे बहुत कुछ जानने का तथा समझने का अवसर प्राप्त हो सके । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ यदि किसी को इस विषय में कोई सन्देह हो या ये सब बाते गलत मालूम होती हो तो चुप रहने के बजाय कम से कम अपनी मान्यता सच्ची है ऐसा प्रमाणित करने की दृष्टि से भी इस विषय की गहराई में उतरे, इसका अध्ययन करे तो उन्हें जो निर्णय Conclusions प्राप्त होगे वे ही इन बातो को सत्यता की प्रतीति करवायेंगे । यहाँ इम पुस्तक मे जो निर्णय निकाले गये है उनकी सत्यता के विषय मे फिर कोई सन्देह न रहेगा । धर्म और तत्त्वज्ञान विषयक विचार करते करते तथा अपने जीवन को सफलता पूर्वक मार्गदर्शन देने के लिये यावश्यक तत्त्वज्ञान को पसन्दगी करते-करते ग्रव हम इस तत्त्वज्ञान के समीप ग्रा पहुंचे जो 'अनेकातवाद' के नाम से प्रसिद्ध है । हाँ तो चलिये, श्रव इस एकान्तवाद के विषय मे हम अधिक जानकारी प्राप्त करे । 1 antaवाद की नावारण जानकारी तो पिछले प्रकरण मे चापको दी गई है । इस शब्द को हमने अनेक + अत ऐसे दो शब्दो का बना हुआ माना है । इसमें दो के बजाय तीन शब्द भी हैं । ग्रन्+एक+श्रत अर्थात् जिसका एक प्रत नही अर्थात् अनंत है उसका नाम अनेकात । यह अनेकातवाद एक | रमणीय तत्त्वज्ञान है | किमी भी चीज के बारे मे निर्णय करने से पहले हमें उसके अलग-अलग पहलुओ की प्रोर तथा उसकी अनेक सीमा की ओर दृष्टिपात करना पडेगा । यह बात अब हमारी समझ मे ठीक ग्रा गई है । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ हाँ तो चलिये, उसके कुछ और उदाहरण ले .-बहुत से लोगो का यह कहना है, वे मानते है और लोगो को मनाते भी है कि हमे ढाल के दोनो पहलुनो की ओर देखना चाहिये | लेकिन उनकी दृष्टि उन दोनो पहलुओ से प्रागे नही जाती । यदि हम ढाल के बारे मे अधिक सोच-विचार करेगे तो उसके आगे तथा पीछे के, इस तरह दो पहलुओ के प्रतिरिक्त जिस धातु से वह वनी है तथा उसके बनाने वाले के बारे मे विचार हमारे मस्तिष्क मे ग्रवश्य जागृत होगे । ढाल निर्माण करने वाले कारखाने का चित्र भी हमारे सम्मुख उपस्थित हो जायगा | थोडा-सा और विचार करने पर उस ढाल का उपयुक्त स्थान तथा उसका उपयोग करने वाले की ग्रावश्यकता हमारी दृष्टि के सामने थाएगी। युद्ध का मैदान, भोपण हत्याकाड तथा मनुष्यो की शूर-वीरता आदि के अनेक चित्र हमारे मन प्रदेश मे प्रस्तुत होगे जिन पर विचार करने से हमे बहुत कुछ जानकारी प्राप्त होगी । / एक पेड और एक पहाड़ की वात ले । पेड का तना गोल है । उसका ग्राधा हिस्सा हमे सामने से दिखाई देता है और वाकी का आधा हिस्सा देखने के लिये हमे दूसरी ओर जाना पडता है। लेकिन उसके गोलाकार दो पहलुओ के अतिरिक्त भी उस पेड के भीतर बहुत कुछ है । 'तने का खोखला, पेड़ की जडे वह जमीन जिसके अन्दर जडे गडी हुई है, उस जडो को पोपित करने वाला पानी जो जमीन के भीतर है, उस पेड का सिर, उसकी शाखाएँ, पत्ते, Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फल और उन फलो का स्वाद आदि बहुत-सी चीजो का सवध इस एक 'पेड' शब्द के साथ है। ठीक इसी तरह 'पहाड' भब्द यो तो सिर्फ तीन वर्णो का ही बना हुआ है लेकिन उसके भीतर दृष्टिपात करने पर हमे पता चलेगा कि उसका सम्बन्ध तो तीन हजार से भी अधिक चीजो के साथ है । उसमे अनेक विविधताएं होने के अतिरिक्त, हमे और भी बहुत सी ऐसी बाते जानने को मिलेगी जो एक दूसरे की विरोधी हो । यह एक ऐसी बात है जो हमारी विचारगक्ति को उत्तेजित करके उसे प्रगतिमार्ग पर ले जाती है और साथ-ही-साथ हमे एक तरह के आनन्द का अनुभव भी प्रदान करती है। चलिये हमे एक टेवल खरीदना है। एक टेवल हमारी नजर के सामने पडा हुआ है । हमे उसके मूल्य पर विचार करना है। बेचने वाला व्यक्ति जो कुछ भी मूल्य मागेगा, क्या हम वही मूल्य दे देगे ? वह टेवल लोहे का बना हुआ है या लकडी का, यदि लकडी का है तो किस प्रकार की लकडी है, टेवल नया है या पुराना, यदि पुराना है तो कितने साल से उसका उपयोग किया जा रहा है। हिफाजत के साथ उपयोग किया गया है या लापरवाही से, उसकी ऊँचाई, लम्बाई, चौडाई, उसका समस्त रूप, उसको बनाने वाला कारीगर अथवा कारखाना तथा उसे वेचने वाला व्यापारी, आदि सब के बारे मे हमे सोच-विचार करना होगा। जैन तत्त्वज्ञान द्वारा जो चार साधन बताये गये है वे द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव है जिनके बारे मे यहाँ हम थोडा-सा Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार करेंगे । टेवल का द्रव्य माने लकडी की जाति, क्षेत्र का अर्थ है लकडी देशी. सायात की हुई या दूसरी किसी जगह की है, टेवल हमारे देश मे बना हुआ है या विदेश से वनकर आया है । काल का अर्थ है कब बना, नया है या पुराना, और 'भाव' का अर्थ है, हम जिस समय खरीदने वठे है उस समय उसकी हालत, उसका रूप और उसकी मजबूती प्रादि । इन चार दृष्टियो से जांच करने के बाद इस टेवल का एक पूर्ण चित्र तैयार हो जाता हे । तत्पश्चात् उसका मूल्य निश्चित करने मे हमे कोई कठिनाई नही होती । हमारी आवश्यकता Ui gency ताकीद ग्रादि दूसरे दृष्टिविन्दु भी हमे इस प्रश्न का निर्णय करने मे सहायता पहुंचाते है। यह हुई जड पदार्थ की वात । अब हम, चैतन्य स्वरूप किसी एक मनुष्य की बात ले ले । किसी व्यक्ति का चेहरा देखकर उसके बारे मे हम कितनी बाते कह सकेगे। हम सर्व प्रथम यह तय कर लेगे कि वह नर हे या नारी या नपु सक । अव इसमे से हम नर की बात करे । वह कौन है ? कहा का है ? किस देश का है ? कौन से और कैसे परिवार मे पैदा हुआ है ? धनवान ? कुलीन ? उसके रग, रूप गरीर की हालत, सस्कार, पढाई, बुद्धि, इज्जत आदि न जाने कितनी ही वातो के विचार हमारे दिमाग मे आएँगे ? उसके वाहरी लक्षणो के अतिरिक्त उसके भीतर जाच करने पर हमे कितनी अनोखी बाते दिखाई देगी ? हर एक चीज, आपस मे विरोधी अनत गुणधर्मात्मक, अनेक प्रकार की विविधतायो से भरी हुई है। उसका उदाहरण Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ समझने की हमे किसी भी एक मनुष्य को ठीक तरह से कोशिश करने पर मिल जाएगा। क्या हम इस मनुष्य की किसी भी एक, दो-चार बातो पर विचार करने के बाद उसके बारे मे बिलकुल स्पष्ट और निश्चित अभिप्राय दे सकेगे ? नही दे सकेगे । इससे यह स्पष्ट है कि किसी भी एक ओर से (एक ही पहलू से ) किसी भी चीज को देखकर हम उसके बारे मे अपनी राय कदापि न दे सकेगे । अनेकातवाद हमे ऐसी सुनहरी और मूल्य शिक्षा देता है कि किसी भी विषय का निर्णय करने से पहले, उसके हर पहलू से जांच करो । यह कितनी सुन्दर बात है । उच्च भूमिका से सम्बन्धित कुछ बाते हम यहा पर करेगे । अनेक दृष्टि से जैन दार्शनिको का कहना है कि "जो वस्तु तत्त्वस्वरूप है, वह अतत्त्व स्वरूप भी है, जो वस्तु सत् है वही सत् भी है, जो एक है वह अनेक भी है। जो नित्य है वह नित्य भी है। इस तरह हर एक वस्तु परस्पर विरोधी गुणधर्मो से भरी हुई है ।" यदि यह बात प्रारभ मे कह दी होती तो उसे पढकर हम अपना मुह बिचकाते, और सभवत यहाँ तक पहुँच भी न पाते लेकिन इससे पहले जो थोडा-सा विवेचन हुआ है वह हमारी समझ मे यथाशक्ति आ ही गया है । इस कारण अव हमे ये सब बाते वेकार सी प्रतीत न होगी । फिर भी स्वाभाविक तौर पर एक प्रश्न उपस्थित हुए बिना न रहेगा - 'जो सत् है उसे ही 'असत्' कैसे माना जा Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ सकता है ? सर्वप्रथम तो हमे ऐसा महसूस होगा मानो स्पष्ट दिखने वाला यह प्रबल विरोधाभास ऐसा आघातजनक है कि वैठे हुए मनुष्य को खडा कर दे। साधारण बुद्धि के मनुष्य की बात को अभी एक मोर रख दे । जिन लोगो की बहुश्रुत विद्वानो मे गिनती होती हे ऐसे मनुष्य भी असभव मानकर उसे दुत्कार दे ऐसी यह असाधारण बात है । परन्तु वस्तुत ऐसा नहीं है। ___ यदि सिर्फ एक ही पहलू से निर्णय किया जाय तो यह वात हमे वेगार ही महसूस होगी। लेकिन यहाँ हमे यह नही भूलना चाहिए कि जैन दार्शनिको ने, अनेकातवाद की दृष्टि से, अनेक भिन्न-भिन्न दृष्टिविन्दुनो तथा विचारधाराया का एक साथ विचार करने के बाद ही, यह बात कही है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की चारो ही अपेक्षाएँ सातो ही नयो द्वारा की गई तुलना और सप्त भगी के कोष्टक से मिलान करने के बाद कही जैन शास्त्रज्ञो ने, यह अजीव-सी लेकिन वास्तव मे 'पूर्ण सत्य' बात कही है। व्यवहार का एक छोटा-सा उदाहरण ही ले ले । दवाई, अमुक पीडित मनुष्य के लिये उपयोगी है लेकिन दूसरे पीडित मनुष्य के लिये निकम्मी है, यह स्वीकृत तथ्य है। इसलिए, यह एक ही दवाई उपयोगी भी है और निकम्मी भी' इस बात से क्या हम इन्कार कर सकते हैं ? अन्य मत मे मानने वाले जैनेतर दार्शनिको का जैन तत्त्वज्ञान के अनेकातवाद के विरुद्ध सबसे बडा विरोध तो यह है कि "जो वस्तु सत् है वही वस्तु भला असत् कैसे हो सकती Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ है ' जो निन्य है वही भना अनित्य कसे हो सकती है एक ही चीज में दो परस्पर विरोधी धर्मों का होना उन्हे आवागपुनमवत् लगता है। नका मुग्य कारण तो यह है कि उन्होंने एक चीज को एक ही पहलू ने, एक ही स्वरूप में देखा है और दूसरे स्वरूप दूसरे पहलुओ को देखने की कोगिन तक नही हो । नत्य मे भना अमत्य ना होना कैसे नभव है ? यह एक सीवा सादा प्रश्न है। इसका सीव-मादा जवाब टने के लिये यदि हम प्रतिदिन के ऐसे अनेक अनुभवों को याद कर नो ऐसी बहुत सी बाते हमे देखने को मिन्नगी। गमे याद रखने योग्य विगेप बात तो यह है नि जनतन्त्रवेनानी ने वन्तु के पूर्ण वित्व को अपनी दृष्टि के सामने ग्जकर यह बात कही है, किसी एक हिम्मे या स्वरूप के सम्बन्ध में वह बात नही की। पानी में उत्पन्न होने वाले सिघाडे की ही बात लीजिये । वह बाहर में काला और भीतर से सफेद है। यदि उमके विषय मे अलग अलग कहना हो तो 'काला' अथवा 'सफेद' इस तरह दो बाते कह सकते है। परन्तु नमस्त त्प मे वह 'काला और सफेद है'-ऐमी एक ही बात कहनी होगी। एक मनुप्य के लिये हम "गौर वर्ण" इस शब्द का प्रयोग करेंगे लेकिन समस्त मनुष्य जाति के लिये हमे अनेक रगो की बात एक साथ करनी होगी। पूर्णचन्द्र मुखोपाध्याय नाम का एक विद्यार्थी जो अपनी कक्षा में सर्वप्रथम उत्तीर्ण हुअा है उसके लिए 'यह विद्यार्थी Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० परीक्षा में सर्वप्रथम उत्तीर्ण हुआ है' जब इस प्रकार से कहेंगे तब उसके वर्ग की अपेक्षा से यह 'सत्यवचन' हे । लेकिन दूसरी कक्षाओ के परिणाम के बारे में जब हम विचार करेगे तब, दूसरी पेक्षा से, वह 'ग्रसत्य वचन' भी है । एक दूसरी बात ले । सभी लोग इस बात को अवश्य स्वीकार करेगे कि एक चीज जिस आधार पर टिक रही हो वह ? उस आधार से कभी भिन्न हो ही नही सकती । शरीर का सारा हिस्सा, ग्रपने दो पैरो पर ग्राधार रखकर चलता है तथा स्थिर रह सकता है । यहाँ पैर, क्या उसके शरीर से भिन्न है ? कदापि नही | ठीक इसी तरह, सत्य का अस्तित्व असत्य के आधार पर ही निर्भर है । इस वात को बड़े गौर से सोचिये । यदि 'असत्य' का अस्तित्व न होता तो फिर 'सत्य' की क्या आवश्यकता थी ? यदि असत्य न होता तो फिर 'सत्य' की भला कौन पूछ करता ? जगत् में 'असत्य' है इसीलिये 'सत्य' है 'सत्य' है इसीलिये 'असत्य' है । दोनो का अस्तित्व एक दूसरे पर ही निर्भर है । यदि दोनो मे से एक को दूर कर दे तो दूसरा स्वय श्रदृश्य हो जाता है । एक की अनुपस्थिति में दूसरा निरर्थक बन जाता है । इससे यह हमारी समझ मे स्पष्ट आ जायेगा कि 'सत्य' और 'असत्य' दोनो एक ही में समाये हुए है । एक साथ हिले मिले है । सत और असत् ये दोनो अलग-अलग तत्व नही है इसका स्पष्ट दर्शन तो हमे तब होगा जब कि हम अनेकातवाद के आधार पर उनकी जाच करे। एक का अस्तित्व दूसरे के अस्तित्त्व Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के कारण, दूसरे के आधार पर ही है। यदि एक का नाश हो जाय तो दूसरा निरर्थक बन जावेगा और बाद मे उग्रकी आवश्यकता, उपयोगिता या अस्तित्व कुछ भी न रहेगा। अनेकातवाद का आश्रय लेकर गभीरता और गहराई से इस बात पर मोच-विचार किया जाय तो तुरन्त ही हमारी समझ मे आ जाएगा कि सत् और असत् भिन्न दिखाई पड़ते हुए भी भिन्न नहीं है । सत् के विना असत् का अस्तित्व असभव है और ठीक उसी तरह असत् के विना मत् का। अर्थात् आपस मे विरोधी दिन्वाई पड़ने वाले ये तत्त्व,अन्योन्याश्रित होने के कारण, तत्वत दोनो एक तत्त्व के दो स्वरूप है । अनेकात दृष्टि से देखा जाय तो ये दोनो भिन्न भी है और अभिन्न भी। ___ ठीक उमी तरह, 'नित्य-अनित्य', धर्म-अधर्म' 'एक-अनेक' आदि सभी,परस्पर विरोधी गुणधर्म होते हुए भी वास्तव मे एक ही है। समस्त स्प से एक ही है । इन तीनो युग्मो मे दो मे से एक को आप दूर करेंगे तो दूसरे का अस्तित्व Automatically स्वत. मिट जाता है। इस बात को ठीक तरह से स्वीकार कर यदि हम आगे चले तो व्यवहार में अनेक कठिनाइयो का जो सामना करना पडता है उनका प्रत आ जाय । प्रकाश और अधकार इन दो तत्त्वो की हम बात करे। यो देखा जाय तो ये दोनो तत्व भिन्न है। इन दोनो का कार्य एक दूसरे का विरोधी है । अव यदि कोई यह कहे कि प्रकाश मे अधकार भी है और अधकार मे प्रकाश भी,तथा इन दोनो बातो को मिलाकर यो कहे कि एक ही चीज मे प्रकाश तथा अधकार Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ दोनो साथ रहते है, तो प्रथम दृष्टि मे इस बात को मानने के लिये कोई तैयार न होगा । लेकिन हम यह पूछे कि प्राकाश मे जब प्रकाश था तब भला अधकार कहाँ था ? प्रकाश का आगमन होते ही अधकार कहाँ छिप गया ? सोच विचार करने पर ज्ञात होगा कि जो कार था वह तो प्रकाश मे ही विलीन हो गया । ठीक उसी तरह जव अधकार का ग्रागमन हुआ तब जो प्रकाश था वह अधकार में विलीन हो गया, उसमे मिल गया, उसके साथ ही हिल-मिल गया । इम प्रकाश और अधकार के छिपने के लिये दूसरा कोई स्थान तो है ही नहीं। इसलिये जो जहाँ था वही रह गया अथवा जो पहले न था, वह बाद मे ग्राने वाले मे मोजूद था ही और जो ग्राया वह्, प्रथम जो आाया था उसमे ही मौजूद था ऐसा कहने मे क्यों ऐतराज है ? इसके विरुद्ध दलील किस तरह हो सकती है ? जो कुछ परिवर्तन हुआ है वह तो सिर्फ ग्रवस्था अथवा समय का है। रात की अपेक्षा से अधकार और दिन की अपेक्षा से प्रकाश को हमने देखा । लेकिन, इन दोनो का ग्राधार एक ही होने के कारण, परस्पर विरोधी गुणधर्म होते हुए भी, वे दोनो एक दूसरे मे समाये हुए है, इस बात का इकार भला हम कैसे कर सकते है ? घर के एक कोने मे बैठकर मे यह लिख रहा हूँ। बिजली का बटन दबाते ही प्रकाश छा जाता है । फिर विरुद्ध दिशा मे दबाते ही मँधेरा छा जाता है। कमरा एक ही है । चारो गोर से बन्द कर दिया गया है । उजाला होते ही मँधेरा कहाँ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ गायव हो गया ? उसमे ही विलीन हो गया । अँधेरा होते ही उजाला कहाँ खो गया ? उसमे ही विलीन हो गया समझ मे नाता है न ? उदाहरण के तौर पर ही यह बात कही गई है । तत्व - दृष्टि से भी जैन शास्त्रकारो ने अधकार और प्रकाश के पुद्गलो को एक ही माना है । ग्रवस्थाभेद के कारण ही वह अधकार और प्रकाश रूप मे श्राते है । इससे यह बात स्पष्ट होगी कि परस्पर विरोधी गुण धर्म वाले ये तत्त्व, वास्तव में एक ही तत्त्व के अन्तर्गत है । अनेकात दृष्टि से इस बात को समझने मे हमे कोई कठिनाई न होगी । वेदात के ग्रनुयायी जब इस वान का विरोध करते है तव हमे वडा आश्चर्य होता है । उनके मतानुसार, प्रथम जो था वह, शुद्ध, विशुद्ध, निर्गुण ब्रह्म था । वह ब्रह्म परम चेतन स्वरूप था । उनका कहना है कि इसी ब्रह्म से माया का सर्जन हुया है । यह 'ब्रह्म' र 'माया' ये दोनो परस्पर विरोधी गुणधर्म वाले तत्व है । ब्रह्म शुद्ध है और माया 'शुद्ध' है । यदि इस माया की उत्पत्ति ब्रह्म से हुई तो उसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि श्रागमन से पहले यह माया ब्रह्म मे ही बसी हुई थी । और यदि थी तो फिर उस शुद्ध ब्रह्म के भीतर ही एक शुद्ध तत्व मोजूद था । इस तरह, वेदान्त की कल्पना के अनुमार, शुद्ध और अशुद्ध- दो परस्पर विरोधी तत्व एक साथ ही थे । ऐसा होते हुए भी, वे लोग इस बात को स्वीकार नही करते और यदि करे तो फिर, 'प्रत्येक वस्तु परस्पर विरोधी Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ गुणधर्मों से युक्त है', ऐसी बात जो जैन तत्वनान ने वताई है सो भी उन्हें स्वीकार करनी ही होगी। जैन दार्गनिको का तो यह कहना है कि 'ब्रह्म' यदि वेदान्त के कहने के अनुसार शुद्ध तत्व हो, तो उसमे से 'माया पा तत्व' जो अगुद्ध माना जाता है, उसकी उत्पत्ति ही न होती । इसलिये या तो 'ब्रह्म' केवल शुद्ध स्वरूप न था अथवा 'यदि वह शुद्ध स्वन्प था तो उससे माया की उत्पत्ति नही हुई' ये दोनो वाने हमारी समझ में आ जाएँगी। 'ब्रह्म और माया' के आपनी लम्बन्ध को जिस तरह ब्रह्मयादी वेदान्ती समझाते है वह अयुक्त है' ऐमा प्रमाणित करना पूर्ण तर्कमगत एव न्याययुक्त है। अनेकातवाद की इस बात को अव हम कुछ मामान्य स्तर पर ले जाते है । इस बात को याद रखें कि यह स्तर अनेकानदाद का नहीं बल्कि हमारी बुद्धि का है। एक मिस्टर जोन्ग नाम के मनुष्य की हम कल्पना कर नगर नगरनात् उसके सम्बन्ध मे कुछ जांच-पटतान करे। मनुष्य तो एक ही है लेकिन वह अच्छा भी है और नाथ-गाय युग भी । वह दयालु है और साथ-साथ कर भी, आ भी है और मागीचूग भी। क्षमाशील भी है और जादी गो, प्रतिमा भी, और हिमक भी, मत्यवक्ता भी गगर बोलने वाला भी है, सजन भी है और दुर्जन भी, टोटा भी है और बा भी, वाचाल है पीर धुन्ना भी, गनी भी है और माय ही नाथ अनानी भी। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ यदि किसी एक ही मनुष्य के बारे मे ऐसी परस्पर विरोधी वाते कोई कहे तो उसमे से हम सत्य किसे कहेगे ? लेकिन जहाँ तक मिस्टर जोन्स का सबध है, उसके जीवन मे हमे परस्पर विरोधी सभी लक्षण दिखाई देगे । यह बात सावित करने में हमे कोई कठिनाई न होगी। मिस्टर जोन्स को,भिन्न-भिन्न दशा मे, भिन्न-भिन्न स्थानो पर, भिन्न-भिन्न अवसरो पर, भिन्न-भिन्न सयोगो मे और भिन्न-भिन्न व्यक्तियो के साथ विलकुल विपरीत वर्ताव करते हुए हम देख पायेगे। पत्नी के प्रति प्रेममय और नौकरानी के प्रति क्रूर वर्ताव करते हुए ऐसे जोन्स बहुत से देखने को मिलेगे। हम उसे उपरोक्त सभी परस्पर विरोधी गुणो के अनुसार बर्ताव करते हुए पायेगे । ठीक इसी तरह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से "उनका वर्ताव परस्पर विरोधी है" ऐसा विधान हम बहुत से मनुष्यो के सम्बन्ध में अवश्य कर सकेगे। इसी तरह, उस प्रत्येक गुण के सम्बन्ध मे जब अलगअलग बात करनी होगी तव मिस्टर जोन्स के सारे व्यवहारो का अलग-अलग वर्णन करते समय मिस्टर जोन्स "अच्छा यादमी ", "मिस्टर जोन्स बुरा आदमी है" ऐसी अलगप्रलग और भिन्न-भिन्न वाते भी हम कह सकेगे। स्याद्वाद और सप्तभगी का जव आगे उल्लेख किया जाएगा, तव मि० जोन्स का उदाहरण, उन विषयो को समझने के लिये बहुत उपयोगी सिद्ध होगा। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ जैन दार्शनिको ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की चार अपेक्षानो का वर्णन किया है । यदि इन चारो अपेक्षाओ को ध्यान मे रखकर हम इन बातो पर सोच-विचार करेंगे तो सव कुछ ठीक तरह समझ पाएंगे। इन चारो अपेक्षाग्रो के वारे मे, एक स्वतत्र प्रकरण मे, मागे हम चर्चा करने वाले हैं। इसलिये, यहाँ पर हमने उनका इतना ही उल्लेख किया है दृष्टि एव विचारशक्ति को शुद्ध करने के लिये ये चारो बाते अत्यत उपयोगी है। ___ यदि हम प्रत्येक विषय की जाँच अनेकातवाद की कसौटी पर करेंगे तो न केवल हमे उस वस्तु के स्पष्ट दर्शन होगे बत्कि इसके अतिरिक्त एक दूसरा बहुत-बडा लाभ भी हमे होगा। हमे अनेकातदृष्टि प्राप्त होते ही हमारे जीवन मे 'समभाव' का अपने आप उद्भन होगा । क्या यह कोई मामूली लाभ है ? ___अरे, यह तो, धरती पर स्वर्ग उतारने की बात है । यहाँ पर हम एक रमणभाई नाम के सज्जन की वात करेगे । अनेकात दृष्टि को उन्होने ठीक तरह समझा है। उनकी पत्नी रमा वहन कम पढी लिखी है। उनकी पुत्री रम्यवाला ग्रेजुएट है । रमा वहन मे उम्र का अनुभव है, रम्यवाला मे यौवन की उच्छ खलता है। वात-बात मे ये माँ-बेटी नापस मे झगडती रहती है । कभी-कभी यह झगडा इतना उग्र रूप धारण कर लेता है कि उनके पडौसी श्री पोपटलाल का दिमाग भी वेकाबू बन जाता है और वे अपनी पत्नी पार्वती वहन से कहते है "यदि कही मेरी पत्नी या वेटी का भी ऐसा स्वभाव होता तो Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ देता ।" मै हाथ में झाडू लेकर उन दोनो की ठीक तरह मरम्मत कर लेकिन रमणभाई की स्वस्थता ज्यो की त्यो रहती है । श्री रमणभाई अनेकात दृष्टि द्वारा पत्नी और पुत्री दोनो की स्वाभाविक तथा सायोगिक मर्यादाग्री को ठीक समझ पाते है इसलिये क्रुद्ध होकर शोर-गुल मचाने के स्थान पर वे दोनो को शात चित्त से समझाते है | श्री रमणभाई का समभाव वना रहता हे । श्रसमभाव या क्रोध उन्हें स्पर्श नहीं करते । कर्मबन्धन से वे बच जाते है । ग्रनेकात दृष्टि के कारण उन्हे जो लाभ हुआ वह क्या साधारण लाभ है ? यदि हम अनेकात दृष्टि का लक्ष्य मे ले तो ऐसी बहुत-सी वाते हमारी समझ मे ग्रामानी से ग्रा जाएँगी। उन मिस्टर जोन्स के बारे मे, उनकी कोई एक ही बात लेकर विचार करना जैसे गलत है ठीक इसी तरह तत्त्व-विचार मे भी, किसी एक ही चीज या एक ही स्वरूप को अपनी नजरो के मामने रखकर उस पर सोच-विचार करना भी गलत है । ग्रापकी समझ मे यह बात ठीक तरह से ग्रा गई न ? थोडा सा और विचार करे | जिसके अस्तित्व के बारे मे हम विचार करते है, उसका वह अस्तित्व सर्वथा और चिरकाल तक उसी स्थिति मे कदापि न रहेगा, यदि हम इस बात को स्वीकार कर ले तो फिर अवस्था ( पर्याय) बदलने पर वह चीज जिम स्वरूप मे आज दिखाई देती है ठीक उसी स्वरूप मे बाद मे दिखाई न देगी, उसका वही स्वरूप फिर नही रहेगा, इस वात को हमे स्वीकार करना ही होगा । इसलिये, जव, जिस अवस्था मे Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ जिस चीज के अस्तित्व को हम स्वीकार करते है, तब हमारा वह स्वीकार शर्ती Quahfied or conditional बन जाता है । बाद में वह स्वीकार विना शर्त का या ग्रवाध Unqualified on Unconditional नही रह सकता । उदाहरण के तौर पर करेले को काट कर जब उसकी सब्जी बनाई जाती है तब भोजन करते समय हम 'करेला दीजिये" ऐसा न कहते हुए "सब्जी दीजिये" कहते है । कपडे से पटलून वनाने के बाद हम जब धोबी के यहा उसे धोने के लिये ले जाते है तब "कपडा धोना है "ऐसा कहने के बजाय " "पटलून धोना है" कहते है । ऐसे तो बहुत से उदाहरण हम प्रस्तुत कर सकते है । पुत्र का नाम "प्रवीण" रखने के बाद " पुत्र कहाँ गया" कहने के बजाय उसके पिता प्रवीण कहाँ गया" ऐसा पूछते है । चमडे से चप्पल बनते ही वह चमडा मिट जाता है ऐसी कोई बात नही फिर भी हम "चमडा कहाँ गया ?" ऐसा न पूछकर "चप्पल कहाँ गई ?" पूछते है | अवस्था-स्वरूप वदलते ही परिस्थिति मे किस तरह परिवर्तन आ जाता है यह बात अब ठीक समझ मे ग्रा जाएगा । ठीक उसी तरह एक स्वरूप का ग्रास्तित्व जव मिट जाता है तव उसका 'नास्तित्व' ( न + ग्रस्तित्व ) भी निर्मेल नही रह सकता । वह भी शर्ती वन जाता है । सब्जी मे करेले नही है, कोट मे या पटलून मे कपडा है ही नही, प्रवीरण मे पुत्र नही है और चप्पल मे चमडा नही है, ऐसी बात कोई नही कह सकता । अवस्था या स्वरूप बदलने से जब एक स्वरूप Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्यत हमारे सामने आता है तब, उसका पहले का स्वरूप गौण रूप से उसमे ही छिपा रहता है। पर्याय ( अवस्था ) बदलने पर और काल ( समय ) व्यतीत होने से, पदार्थ मे कौन-कौन से परिवर्तन होते है, यह भी हम देख ले। अन्य दर्शन मे जैसे उत्पत्ति, स्थिति और 'लय' इस तरह तीन अवस्थाएँ वताई गई है उन्ही को जैन दार्गनिको ने “उत्पाद, व्यय और प्रौव्य' नाम दिया है। __मूल द्रव्य अनादि हैं इसलिये उत्पत्ति का प्रश्न ही नही रहता। लेकिन अन्य किसी अवस्था से नई अवस्था का जो प्रकटीकरण हुआ उसे 'उत्पत्ति' के वजाय 'उत्पाद' नाम देना बिल्कुल तर्कसंगत एव युक्तियुक्त है । द्रव्य की जो स्थिति दिखाई पडती है उसमे भी प्रतिपल परिवर्तन तो होता ही रहता है। इसलिए इसे 'व्यय' नाम दिया गया है । ___ यदि हम स्वय अपने जीवन की जाँच करे, तो हमे ज्ञात होगा कि स्थितियुक्त होते हुए भी उसका व्यय होता है, उसका उत्पाद होता रहता है । ___इसलिये, 'लय' शब्द के बजाय 'व्यय' शब्द का प्रयोग किया जाय तो वह विलकुल सुसगत (Appropriate) है। फिर जब सब कुछ स्थिर है तो भला 'लय' कैसे हुमा जो हमे 'लय' दिखाई देता है वह तो, अस्तित्व की एक अवस्था का एक स्वरूप मात्र ही है। वास्तव में, दूसरा कोई स्वरूप धारण करने के लिए ही वह अदृश्य हो जाता है। जैन दार्शनिको ने 'स्थिति' के वदले "नोव्य" शब्द का प्रयोग किया है । यह बात भी आसानी से समझ मे आ सकती Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० है । जब किसी वस्तु की अवस्था में परिवर्तन होता है तब उसका मूल ध्रुव स्वरूप तो उसमे ही मौजूद रहता है । ग्रग्नि से जो घुंग्रा निकलता है वह श्राकाश की ओर उड़ते-उडते ग्रहम्य होता प्रतीत होता है लेकिन उसका नाश नही होता । वह घुसा बहुत दूर ग्राकाश मे जाकर, बादल के रूप मे नई अवस्था वारण करता ही है। इस स्थिति को "श्रीव्य" नाम से पहचानना और स्वीकार करना, यह विलकुल तर्कशुद्ध है । ऊपर हमने देखा कि मूल वस्तु वह को वही होते हुए भी उसके भिन्न-भिन्न स्वरूप ग्रलग-अलग नाम से पहचाने जाते हैं। ये भिन्न-भिन्न स्वरूप भी परस्पर विरोधी गुणधर्म वाले होते हैं | लोहा एक चीज है, उसमे मे वनी हुई ढाल, तलवार, चाकू, केत्री गौर सुई यादि में लोहा होते हुए भी वे सभी अलग-अलग नाम से पहचाने जाते है योग परम्पर विरोधी कार्य भी करते हैं । तलवार काटने का काम करती है, फिर भी ढाल के आगे उसका कोई वस नही चलता । कैची चीरने का कार्य करती है तो मुई उम चीरे हुए को फिर से जोडने का काम करती है । जहर तो एक हो होता है । प्रमाण और अवस्थाभेद के कारण वह मनुष्य को मृत्यु की गोद से भी सुला सकता हे और जीवन भी प्रदान कर सकता है । मारते समय वह जहर कहलाता है जब कि जीवन प्रदान करते समय वह श्रपामृत कहलाता है । एक ही चीज का यह परस्पर विरोधी स्वभाव है | Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ पिस्तौल जब हमारे हाथ मे होती है तब हमारी रक्षा करती हे | किन्तु जव दुश्मन के हाथ मे या जाती है तव वही पिस्तौल हमारी मौत का कारण बन जाती है। यहा पर पिस्तौल का क्षेत्र भेद हुया जब कि उस जहर मे ( प्रमाण ) भाव भेद हुआ था । मनुष्य की भी बाल्यावस्था, किशोरावस्था, यौवन, श्रघेडअवस्था, वृद्धावस्था और अन्तिम अवस्था हम देख सकते है | देह और नाम एक होते हुए भी कालभेद के कारण, काल की अपेक्षा से - कितने स्वरूप हुए ? गोर वे भी परस्पर विरोधी । मात्र देखने भर मे ही विरोधी नही, स्वभाव भी उन सभी अवस्था मे वदलता ही रहता है । यह वदलता हुआ स्वभाव भी परस्पर विरोधी होता है । द्रव्य भेद से, द्रव्य की अपेक्षा से, वही की वही देह मुकोमल, वज्र जैसी मजबूत, पीडित, स्वन्थ, सशक्त, ग्रशक्त, दाढी-मूंछ बिना को, दाढी-मूंछ वाली, सीधी, कमर से झुकी हुई मखमल जैपी मुलायम और झुर्रियो वाली जर्जरित ग्रादि परस्पर विरोधी गुण धर्म वाली बनती है । वही देह क्षेत्र की अपेक्षा से ग्रग्रेज, अमरीकन, हिन्दुस्तानी, योरनियन, फोन, बगाली और गुजराती यादि भिन्न-भिन्न नाम से पहचानी जाती है । भाव की अपेक्षा से, वहो मनुष्य सोम्य, रौद्र, शांत, श्रगात, स्थिर, अस्थिर, धीर, अधीर, छिछोरे स्वभाव वाला, गंभीर, रूपवान और कुरूप भी दिखलाई पडता है । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल की अपेक्षा से उसी को हम बालक, किशोर, युवा, अधेड और वृद्ध कहते है। इस तरह मनुष्य का देह, वह का वही होने के बावजूद वस्तु की दृष्टि से एक होते हुए भी, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की भिन्न-भिन्न अपेक्षा से भिन्न-भिन्न नजर आता है, अलग-अलग बन जाता है। न केवल हम हो, सभी लोग इस बात को स्वीकार करते है। ___इन बातो से यह सिद्ध होता है कि किसी भी पदार्थ मे परस्पर विरोधी गुणधर्मो का अस्तित्व तो होता ही है इसमे कोई सन्देह नही । इस बात को स्वीकार करने मे अव किसी प्रकार को अस्पष्टता न रहेगी, कुछ कठिनाई न होगी। अनेकान्तवाद का आश्रय लेकर जैन दार्गनिको ने ऐसी. वहुत-सी बाते बहुत ही स्पष्टता से समझाने की कोशिश की है। __ आधुनिक मनोवैज्ञानिको का यह कहना है कि प्रत्येक मनुष्य मे 'डॉक्टर जेकिल और मिस्टर हाइड की तरह' परस्पर विरोधी वृत्तियाँ, जिनके बीच उत्तर ध्रुव और दक्षिण-ध्रुव के समान अन्तर है, होती ही है। इसलिये किसी भी ससारी मनुष्य को सर्वथा भला अथवा सर्वथा बुरा-हम कह ही नहीं सकते।' ___एक सज्जन ने अपने नाम से एक सार्वजनिक प्रौपधालय बनाने के लिये डेढ लाख रुपया दान दिया। लेकिन अपने ही एक नौकर को, जिसे ऑपरेशन करवाने के लिये पाँच सौ रुपयो की खास जरूरत थी, उन्होने पैसे देने से साफ-साफ इन्कार कर दिया। नतीजा यह हुआ कि आवश्यक इलाज Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न करवा सकने के कारण उस वेचारे नौकर की मृत्यु हो गई। इस व्यक्ति के बारे मे हम क्या कहेगे ? दयालु',उदार ?, निर्दय , अधम ? जवाब देने की कोई आवश्यकता नही । यह वात तो आसानी से हमारी समझ में आ जाएगी। भिन्न-भिन्न क्षेत्रो मे ऐसे अनेक उदाहरण हमे देखने को मिलेगे । इन उदाहरणो के आधार पर हमे ज्ञात होगा कि जव जैन दार्गनिक लोग ऐसा कहते है कि एक ही वस्तु है भी और नही भी हे" तब वे अनेकात दृष्टि द्वारा ही यह बात कहते है और वह यथार्थ है । उनका यह कहना बिलकुल सही है । हमे भी इस बात को अवश्य स्वीकार करना चाहिये। अनेकातवादी दृष्टि के विषय मे ऐसी बाते बहुत ही समझने योग्य है, और यदि हम इन्हे अच्छी तरह समझ ले तो जगत और जीवन की सारी समस्याग्रो को हम बडो आसानी से सुलझा सकते है। अनेकात दृष्टि को अपनाकर यदि इस वात पर वडे गौर से सोच विचार करे तो हमे ज्ञात होगा कि एक ही चीज मे सत्य, असत्य, नित्यत्व और अनित्यत्व तथा एकत्व और अनेकत्व आदि एक ही समय पर मौजूद रहते है । इस बात को समझने मे हमे कोई कठिनाई न होगी। यह सब देखने और समझने के लिए अनेकातवाद का आश्रय लेना होगा । उसका आश्रय लिये विना कभी समझ मे नही आएगा। आज के इस विज्ञानवादी अणु-परमाणु-सशोधन-युग मे हम यह वात वडी आसानी से समझ पाते है कि एक और अनेक दोनो ही एक साथ, एक समय रहते है । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ वस्तु का नित्यत्व और अनित्यत्व समझना भी प्रामान है । 'सब कुछ परिवर्तनशील है' इस बात को तो सभी लोग स्वीकार करते है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा मे तथा अवस्था (पर्याय) भेद के कारण एक हो चीज अनेक स्पो मे परिवर्तित होती रहती है। चूकि वह परिवर्तनशील हे इसलिये उसे अनित्य कहा जा सकता है-अनित्य हे । फिर भी, उसका मूल द्रव्य, भिन्न-भिन्न स्वत्पो मे भी कायम रहता हैं, इसलिये उसे नित्य भी कहा जा सकता है--नित्य है। जैसे उसे सिर्फ नित्य कहना गलत है ठीक उसी तरह, मिर्फ अनित्य कहना भी उतना ही गलत है। ____ यह परिवर्तन भी सहमा-यकायक नहीं होता । वह तो अपने समयानुसार होता है । कपडे का मैला हो जाना, चावल से भात बनना, गेहूँ से रोटी बनना, वालक का वृद्ध होना, ये सव वाते यकायक नहीं हो जाती। इन सवका अपना-अपना कालक्रम है । इस तरह से सब परिवर्तन होते हुए भी, उनकी मूल वस्तु का सर्वथा नाग भी नहीं होता। किसी भी एक पदार्थ के एक स्वरूप का नाश होते ही, वह हमे दूसरे स्वरूप में नजर आता है। उसके मूल द्रव्य का, इस परिवर्तन के कारण, सर्वया नाग नहीं होता। यदि पानी अग्नि के सम्पर्क मे आये तो वह जल जाता है और भाप बनकर उड जाता है । यदि यात्रिक साधन द्वारा उसी भाप को किसी वरतन में इकट्ठा करले तो वही फिर एकबार पानी का रूप धारण कर लेता है । फिर भले ही उसे 'डिस्टिल्ड वॉटर' के नाम से क्यो न पहचाना जाय । उस भाप में पानी का मूल Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरूप तो छिपा ही था । ओक्सिजन और हाइड्रोजन (H20) नाम के दो प्रकार के वायु, जिनके रासायनिक सयोग से पानी वना है वे भी सभी प्रकार के परिवर्तन के बीच पानी मे एक या दूसरे रूप मे मौजूद रहते है । मिट्टी से जब घडा बना तब उस घडे के स्वरूप मे मूल पदार्थ मिट्टी का अस्तित्व तो है ही। जब उसी घटे के टुकडे हो जाते है, तव उस दूसरे स्वरूप में भी मूल द्रव्य मिट्टी का अस्तित्व तो रहता ही है। ___इसी न्याय गे, तत्त्वज्ञान की भूमिका के किसी भी वस्तु तत्त्व को, सर्वथा सत्य या सर्वथा असत्य, सर्वथा नित्य अथवा सर्वथा अनित्य मानने मे हम बडो भून करते है। यदि सभी वस्तुतत्व जैसे है वैसे ही रहे, उनमे परस्पर विरोधी गुणधर्मों का यदि अभाव हो और वे परिवर्तनशील न हो तो फिर उनका अस्तित्व बिलकुल निरुपयोगी हो जाएगा। पत्थर का रूप और कद जैसे पहले था ठीक वैसा ही यदि सर्वकाल मे रहे तो फिर उमका मतलब यह हुआ कि उसमे क्रियाशीलता का अभाव है। और यदि उसमे क्रियाशीलता न हो तो फिर उसके द्वारा किसी तरह के कार्य को उम्मीद कैसे की जा सकती है। ___ठीक उसी तरह, सिर्फ ब्रह्म को ही 'सत्य' माना जाय और यदि उसके अस्तित्व को बिलकुल स्थिर और अपरिवर्तनशील माना जाय तो फिर उसमे क्रियागीलता का अभाव होने के कारण उसकी क्या उपयोगिता रहेगी? Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ससार को सर्वथा मिथ्या ही माना जाय तो फिर, जिसे वास्तविक (सत्य) कहा जाता है, उस ब्रह्म के साथ उसका सम्बन्ध हम किस प्रकार से स्थापित कर सकते है, ठीक उसी तरह, जट और चेतन को एक दूसरे से बिलकुल भिन्न माना जाय तो फिर एक का प्रभाव दूसरे पर भला हम कैसे कर सकते है पडेगा ऐसी उम्मीद ? यदि जगत परिवर्तनशील है तो फिर वह ब्रह्म भी, जिसमें से वैदिक तत्त्वज्ञानियों के मतानुसार जगत उत्पन्न हुआ है, परिवर्तनशील होना चाहिये । यदि ऐसा न हो तो एक नित्य श्रीर अपरिवर्तनशील ब्रह्म से ग्रनित्य और परिवर्तनशील जगत की उत्पति भला कैसे हो सकती है ? एकात नित्य से श्रनित्य या एकात श्रनित्य से नित्य का स्वतन्त्र उद्भव ग्रसभव है' जैन तत्त्वज्ञानियों ने इस बात पर वडा जोर देकर सदिग्धता से कहा है । यह बात बहुत समझने योग्य है । द्वैत अद्वैत और उसकी सभी शाखाओ से तथा क्षणिकवाद आदि सभी एकात तत्त्वज्ञानो मे हमे यह सव ज्ञान नही मिल सकता । क्योकि जैसे कि पहले कहा गया है, इन सबकी रचना एक लय (एकातज्ञान) के ग्राधार पर तथा ऐकातिक निर्णय द्वारा की गई है। उन सभी के सामने, मरोवरो के समूह के सामने गरजते हुए महासागर की भांति जैन तत्त्वज्ञान का श्रनेकातवाद खडा है । उसकी समझ हो सच्ची समझ है । इस बात को स्वीकार करने मे ग्रव भला कौन-सी आपत्ति है ? सच पूछा जाय तो किसी प्रकार की आपत्ति न होनी चाहिये । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभी और कुछ विगेप स्पष्टीकरण करेगे। 'सत्य' और 'असत्य' के स्थान पर हम 'सत्व' और 'अमत्व' ऐसे दो गब्दो का प्रयोग करे। इन दोनो मे परस्पर विरोधी गुणधर्म हैं। फिर भी, यहा पर हम उन चारो अपेक्षाप्रो को, चतुष्टय को, ले आकर रखेगे तो ज्ञात होगा कि 'स्वद्रव्य' क्षेत्र काल भाव की दृष्टि से जो सत्व है, वही सत्व, 'पर' द्रव्य क्षेत्र काल भाव की दृष्टि से असत्व है। इस द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा मे 'स्व' क्या और 'पर' क्या ? यह तो कोई नई बात हुई,ठीक है न ? आगे चलकर हम इस पर चर्चा करेंगे । इसलिये इस विपय को छोडकर हम आगे बढे । लेकिन, हमारे मन मे किसी प्रकार का सन्देह न रह जाय इसलिये हम यहाँ पर एक छोटी सी-ज्ञान की बात कर ले । जहाँ 'स्वय' है वह 'स्व' और जहाँ 'स्वय' नही वह 'पर'। आगे इस विषय मे हम चर्चा शुरू करे तब तक यदि इस पर कुछ सोच विचार कर रखे तो आगे चलकर इस विषय को समझने में आसानी होगी। ___ इस तरह. असत्व और सत्व, अनित्यत्व और नित्यत्व, अनेकत्व और एकत्व आदि परस्पर विरोधी गुण धर्म वाले विपयो को तथा वस्तुप्रो को यदि हम विविध पहलुग्रो से देखे तो हम बडी आसानी से और अत्यधिक सरल ढग से इस बात को समझ पाएंगे कि यह सब कुछ एकातात्मक नही बल्कि अनेकातात्मक है। इस प्रकरण को समाप्त करने से पहले एक बहुत जरूरी बात कहनी है । एक ही वस्तु मे अनेक प्रकार के गुणधर्म होते है इस बात को जैनेतर तत्त्वज्ञानियो ने भी स्वीकार किया Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ है । ऐसे लोगो की ओर से, जिन्होने अनेकातवाद को पूर्ण रूप से नही समझा, एक प्रश्न यह पूछा जाता है कि " यह बात तो हमारे धर्म मे भी बताई गई है । जैन तत्त्वज्ञानियों ने भला इसमे नई बात कौन सी कही है ? यही पर, जैन दर्शन को विशिष्टता का हमे दर्शन होता है । प्रत्येक वस्तु मे अनेक गुरण धर्म होते है, यह दिखाने भर से जैन तत्त्वज्ञान को 'अनेकातवाद' नाम नही दिया गया। जैन दर्शन ने यह चीज़, यह बात सावित करके बताई है । इसके अतिरिक्त, प्रत्येक वस्तु में 'परस्पर विरोधी' तत्त्व एक साथ मिले हुए हैं, और जैन तत्त्वज्ञान का यह कहना है कि कोई भी वस्तु केवल ' अनेक गुणधर्मात्मक' नहीं बल्कि 'परस्पर विरोधी' अनेक गुणधर्मो से युक्त है । ये जो विरोधी गुणधर्म है वे एकात दृष्टि द्वारा नजर नहीं था । श्रनेकांत दृष्टि द्वारा ही हम उन्हे देख और समझ सकते हैं । जैन तत्त्वज्ञान को ' अनेकातवाद' को यही तो विशिष्टता है । और यह विशिष्टता कोई छोटी सी तो है नहीं ! जहा तक तत्त्वज्ञान का सम्वन्ध है यह एक महान् सिद्धि है । इसी कारण अनेफातवाद को 'तत्त्वशिरोमरिण' की उपाधि दी गई है । कोई एक वस्तु सत् है, नित्य है और एक है, इसलिये वह अनेक धर्मो से युक्त तो है लेकिन इस तरह अनेक धर्मात्मक होने के कारण ही उमे अनेकानात्मक नही कहा जा सकता। लेकिन सत् और असत् नित्य और ग्रनित्य एक और अनेक ऐसे परस्पर विरोधी गुणधर्मो को वह एक समय अपने मे समा लेती है और इसी कारण वह 'ग्रनेकातात्मक' Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहलाती है । इस बात को बड़े गौर से और पूर्णतया समझ लेना चाहिये । ___ एक ही मनुष्य दयालु, उदार, मधुर भाषी, परोपकारी, क्षमावान, चारित्र्यशील, धैर्यवान, हिम्मतवाज, शातमूर्ति, धर्मपरायण और दानशील है। इस तरह उसमे बहुत से गुण है । उसके प्रत्येक अलग-अलग गुण का अलग अलग दर्शन होने के कारण हम उसके सम्बन्ध मे अपनी राय बना सकते है। लेकिन इसी कारण हम इस राय को 'अनेकातात्मक' नही कह सकते । प्रत्येक गुरण के सम्बन्ध मे सोच विचार करते समय, दृष्टि और बुद्धि दोनो उस गुरण तक ही मर्यादित रहने के कारण, इन सभी गुणो को एक साथ लेते समय भी वह निर्णय एकातिक ही रहता है। अनेकात दृष्टि द्वारा ही हम यह सिद्ध कर सकते है कि इम मनुष्य के जीवन मे इन सभी गुणो के विपरीत अवगुण भी मौजूद है तथा गुणो और अवगुणो के परस्पर विरोधी धर्मो का कथन कर सकते हैं । ___ इससे यह स्पष्ट है कि यदि एक वस्तु मे परस्पर विरोधो वाते मौजूद है यह तथ्य सावित करना हो, खोज निकालना हो ग समझना हो उस समय ही अनेकातवाद की अावश्यकता उत्पन्न होती है । अधिक स्पष्टतया यह फलित होता है कि अनेकातवाद का आश्रय लिये बिना हम सच्चा निर्णय कर ही नही सकते । इतना सक्षिप्त विवरण देने के बाद अनेकातवाद की एक सक्षिप्त व्याख्या यदि करनी हो तो हम कहेंगे कि एक ही वस्तु के भीतर रहे हुए परस्पर विरोधी गुणवर्मों और तत्त्वो को प्रकट करके जो हमारे सामने प्रस्तुत कर सके उसे । अनेकांतवाद' नाम से पहचाना जाता है। इसके Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० विपरीत किसी भी वस्तु का निर्णय करने में अनेकांतवाद का प्राश्रय न लिया जाय तो उससे सम्बन्धित निर्णय कवापि सच्चा नही हो सकता। ... अनेकांतवाद के सम्वन्ध मे इतना स्पष्ट ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद अब हम 'स्याद्वाद' पर सोच विचार करेगे। इससे पहले यह एक बात स्पष्ट करने की आवश्यकता है। कि इस प्रकरण मे कुछ वातो को बार बार दुहराया गया है इसलिये पुनरुक्ति दोप सा महसूस होगा। लेकिन विपय के ज्ञान को अधिक स्पष्ट करने तथा समझाने के एक मात्र उद्देश्य से जान बूझकर ऐसा किया गया है । अव आगे बढे । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यादवाद यह मानने मे अब कोई हर्ज नही कि अनेकातवाद के विषय मे पिछले पृष्ठो मे जो कुछ लिखा गया है उसे पढकर विचार कर लेने के बाद इस अप्रतिम तत्त्वज्ञान विषयक प्रारभिक ज्ञान हमे ठीक ठीक प्रमाण मे हो चुका है । अब हम इतना तो अच्छी तरह समझ गये है कि प्रत्येक वस्तु परस्पर विरोधी अनत गुण धर्मों से युक्त है । साथ ही यह भी समझ मे आ गया है कि परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले इन तत्त्वो का ज्ञान अनेकान्त दृष्टि से देखने से ही होता है । हमे यह ज्ञान अच्छी तरह से हो और इसका स्पष्ट दर्शन हो सके, ऐसी कोई गणित-पद्धति यदि हमारे सामने हो तो वह हमे बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकती है। इस हेतु से जैन दार्शनिको ने 'स्यावाद' के नाम से प्रसिद्ध पद्धति वतलाई है। अनेकात दृष्टि से यह निश्चित हो चुका है कि प्रत्येक वस्तु परस्पर विरोधी गुण धर्मों से युक्त होती है । इस तथ्य को युक्तियुक्त एव तार्किक (Logically) ढग से प्रस्तुत करने के लिए जिस रीति की आवश्यकता है, वह रीति-वह पद्धति 'स्याद्वाद' हमे बतलाता है। , स्यावाद को अनेकातवाद अथवा अपेक्षावाद (सापेक्षवाद) के नाम से भी पहचाना जाता है। अनेकातवाद और स्याद्वाद, सामान्य दृष्टि से लगभग एक से मालूम होते है, परन्तु यदि हम दोनो को स्पष्टतया समझे तो प्रतीत होगा कि अनेकावाद के तत्त्वज्ञान को अभिव्यक्त करने की एक पद्धति 'स्याद्वाद' है। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ अनेकात तथा स्याद्वाद के बीच वाच्य-वाचक या साध्यसाधक का सा सम्बन्ध भी माना जाता है। यहाँ यदि हम उपमा देना चाहे तो अनेकान्त को सुवर्ण की तथा स्याद्वाद को कसौटी की उपमा दे सकते हैं अथवा अनेकात की एक किले से और स्यावाद की उस किले तक जाने वाले मार्गो को बताने वाले नकशे से तुलना कर सकते है। परन्तु यहाँ एक बात स्पष्ट करने की आवश्यकता है कि ये अनेकातवाद तथा स्याद्वाद एक ही तत्त्वज्ञान के अग होने के कारण वस्तुत दोनो एक ही है। 'स्याद्वाद' शब्द मे 'स्यात्' तथा 'वाद' ये दो शब्द मिले हुए है । 'स्यात्' शब्द का अर्थ हम अच्छी तरह समझ ले । आगे चलकर जब सप्तभगी का निरूपण किया जायगा तत उसमे भी इस 'स्यात्' शब्द को हम वडी महत्वपूर्ण भूमिका मे देखेंगे। अतएव इस शब्द का अर्थ हमे पहले से ही अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। इसका अर्थ हमे स्पष्टतया समझ मे आजाना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एव आवश्यक है । ___ शब्दकोप के अनुसार 'स्यात्' शब्द का सक्षिप्त अर्थ 'कथचित्' होता है । इस शब्द का विस्तृत अर्थ होता है 'किसी एक प्रकार से ( In Some respect) यहाँ 'प्रकार' शब्द का तात्पर्य है 'कोई एक अवस्था, स्थिति, या सयोग' । ___स्यात्' शब्द का अर्थ समझने में बहुत से लोग धोखा खा जाते है । कोई इसका अर्थ 'सशय' करते है, तो कोई 'सभावना, करते है । कोई इसका अर्थ 'कदाचित्' करते है। ___ ये सव अर्थ गलत है। जैन दर्शन के विरोधी लोग ऐसे उल्टे अर्थ निकालकर इस महान् तत्त्वज्ञान को यथार्थता के Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ विषय मे सन्देह उत्पन्न करने का प्रयत्न करते है । कोई कोई, अपनी अल्पबुद्धि के कारण,या उसमे गहरे उतरने की असमर्थता' या अनिच्छा के कारण ऐसे गलत अर्थ करके बैठ जाते है । जैन तत्त्ववेत्तानो ने इस शब्द का प्रयोग जिस अर्थ मे किया है, उसे समझने के लिए उसमे गहरे उतरने की इच्छा न रखने वाले भी इस शब्द से उलझन महसूस करते है। जो लोग समझना ही नही चाहते वे अपने द्वारा किये गये अर्थ से चिपके रहते है । फलत हानि उन्ही की होती है क्योकि अात्मविकास के एक अनुपम-या जिसे 'एकमात्र' साधन कहा जा सके-ऐसे प्रबल एव सुन्दर साधन से वे स्वत ही वचित रह जाते है । जो समझना चाहते है, उन्हे तो 'स्याद्वाद' ठीक तरह समझ मे आता ही है । बहुत से जैनेतर विद्वानो ने जव तटस्थ भाव से जैन तत्त्वज्ञान का अवलोकन किया है तब उन्होने इसकी महत्ता को स्वीकार किया है। गुजरात के सुप्रसिद्ध चिन्न स्व० प्रोफेसर आनदगकर ध्रुव महोदय ने अपने एक वार के व्याख्यान मे स्यादवाद सिद्धान्त के विषय में अपनी राय प्रकट की थी। उन्होने कहा था कि - ___ "स्यावाद" हमारे सम्मुख एकीकरण का दृष्टिविदु प्रस्तुत करता है । शकराचार्य ने स्यावाद पर जो आक्षेप किया है, उसका मूल रहस्य से कोई सम्बन्ध नही है । यह निश्चित है कि विविध दृष्टिविदुनो से निरीक्षण किये विना वस्तु पूर्णतया समझ मे आ नही सकती। इसलिये स्याद्वाद उपयोगी तथा सार्थक है । महावीर के सिद्धात मे प्रतिपादित स्याद्वाद को कुछ लोग सगयवाद कहते हैं । मै ऐसा नही मानता'। स्यावाद सशयवाद नही है, बल्कि वह हमे एक दृष्टिबिन्दु की Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ प्राप्ति कराता है वह हमे सिखाता है कि विश्व का अवलोकन किस प्रकार करना चाहिए।" स्वर्गीय श्री ध्रुव महोदय की तरह अन्य भी अनेक विद्वानो ने, जिनमे पाश्चात्य विद्वानों का भी समावेग होता है, स्याद्वाद के विषय मे इसी प्रकार की राय प्रकट की है । जैनतत्त्ववेत्तायो ने 'स्वात् गब्द का जिन अर्थ में प्रयोग किया है, उसे जो लोग यथार्थ रूप मे समझ लेते हैं, उन्हें फिर कोई भ्रम नहीं रहता। इस गब्द का अर्थ द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की किनी एक निश्चित स्थिति के साथ जोड कर किया गया है इसलिए 'स्यात्' ना अर्थ 'कदाचित्' 'सभवत.' या 'नकायुक्त' (सन्देह प्रधान) नहीं बल्कि निश्चित होता है। _ 'स्यात् गन्द द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की दृष्टि से एक निश्चित स्थिति अथवा अवस्था सूचित करता है। सप्तभगी में 'स्यात् के माय एवं' गब्द का प्रयोग जो किया जाता है नो इसके निश्चित प्रकार को स्पष्ट सूचित करने के लिए ही । इससे स्पष्ट होता है कि 'स्यावाद' कोई 'संभववाद'या साद'नहीं' है, यह एक निश्चितवाद' है। ___यहाँ स्वभावत कोई पूछ सकता है कि यदि यह एक निश्चितवाद ही हो, किसी प्रकार मे (कथचिन्) निश्चित स्थिति का ही दर्जन कराता हो तो 'स्यात्' गब्द लगाने की आवश्यकता ही क्या है ? इने 'स्यादवाद' के बदले 'निश्चितवाद' ही क्यो नही कहा गया। यह प्रश्न सहेतुक है। 'स्यात्' गब्द के वदले 'निश्चित' शब्द क्यो प्रयुक्त नहीं किया ? परन्तु जैन दार्गनिको द्वारा प्रतिपादित तत्त्वज्ञान की खूबी Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ક્ इस 'स्यात्' शब्द के प्रयोग मे ही है । यह एक विशिष्टता है । निश्चित प्रयोजन से इस शब्द का प्रयोग किया गया है । केवल प्रयोग के लिये प्रयोग नही, बल्कि अत्यत ग्रावश्यक होने के कारण इस शब्द का प्रयोग किया गया है । यदि इस शब्द का प्रयोग न किया हो तो ताश के पत्तो के महल की तरह अनेकातवाद के तत्त्वज्ञान की इमारत गिर कर धराशायी हो जाय । एक छोटा सा दृष्टान्त ले । भारत के सुप्रसिद्ध क्रिकेटर श्री जमु पटेल को कानपुर टैस्ट मैच मे आस्ट्रेलियन टेस्ट टीम के सामने सुन्दर वोलिग करके भारतीय टीम को विजय दिलाने के उनके कार्य से प्रसन्न होकर उनकी इज्जत करने के लिये भारत सरकार ने 'पद्मश्री' की उपाधि प्रदान की है । भारत सरकार की ओर से ग्रन्य किसी वोलर को ऐसा सम्मान प्राप्त नही हुआ । सरकार के इस कार्य से यदि कोई यह निष्कर्ष निकाले कि 'श्री जसु पटेल भारत के सर्वश्रेष्ठ बोलर है ।' तो यह निष्कर्ष कैसा कहलाएगा उन्होंने कानपुर मे जैसी सुन्दर बोलिंग की थी वैसी ही श्रेष्ठ वोलिंग प्रत्येक मैदान मे करना उनके लिए या उनके स्थान पर अन्य किसी वोलर के लिए सभव नही है । अन्य स्थानो पर सुन्दर बोलिंग करने वाले अन्य वोलर भी थे । तिस पर भी भारत सरकार ने श्री जसु पटेल को सम्मान दिया । इस पर विचार करने पर ज्ञात होगा कि केवल सुन्दर बोलिंग के कारण उन्हे चन्द्रक नही दिया गया, उस स्थान पर उनकी बोलिंग के कारण भारतीय टीम की जीत हुई, उस जीत को लक्ष्य मे लेकर ही उन्हें 'पद्मश्री' का खिताव दिया गया है । इससे स्पष्ट I Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ - होता है उनको जो सम्मान प्राप्त हुग्रा सो उस विजय की अपेक्षा से — 'स्यात् ' था, और उनकी अद्भुत वोलिंग कानपुर के मैदान की, एव उस स्थान पर उस समय खेले गये टैस्ट मैच की अपेक्षा से 'स्यात् — मुन्दर' थी । इस उदाहरण से स्पष्ट होगा कि यदि हमें श्री जसु पटेल द्वारा कानपुर में की गई बोलिंग तथा उन्हे प्राप्त सम्मान के विषय मे कोई निश्चित कथन करना हो तो 'स्यात्' शब्द का प्रयोग करना ही होगा । इस शब्द का प्रयोग किये विना यदि ऐसा मीधा सादा वाक्य कहा जाय कि "श्री जमु पटेल को उनकी सुन्दर वोलिंग के उपलक्ष्य मे भारत सरकार ने 'पद्मश्री' का खिताव दिया", तो यह बात अधूरी मानी जाएगी और विवादास्पद बनेगी । ' स्यात् ' शब्द की महत्ता तथा श्रावश्यकता उपर्युक्त उदाहरण से अच्छी तरह समझ मे आ जाएगी । चलिए तो ग्रव इस शब्द को एव उसके ग्रर्थ को पूर्णतया समझ ले । सर्वप्रथम हम उस तथ्य को पुन याद करें 'प्रत्येक वस्तु अनेक परस्पर विरोधी गुण धर्मों से युक्त होती है ।' यदि ऐसा न होता तो 'स्यात् ' शब्द ग्रावश्यक न होता । परन्तु ऐसा ही है, इसीलिए 'स्यात्' शब्द श्रावश्यक एव अनिवार्य वन जाता है । उपर्युक्त तथ्य को समझाने या समझने मे 'स्यात्' शब्द का प्रयोग न किया जाय तो, उससे रहित, कोई भी कथन असत्य बन जाता है । इस बात को विशेषत समझने के लिये इस सप्तभगी का एक पद ले । 'स्यादस्त्येव । स्यात् + ग्रस्ति + एव = (1 कथ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ चित् है ही।" इस पद मे हम 'पेन्सिल शब्द लगा दें। तव इस पद का अर्थ इस प्रकार होगा, कथचित् पेन्सिल है ही।" ___यह वात करते समय हम एक स्पष्ट खयाल रख कर चले । "यह सब लिखते समय मेरे घर के एक कोने मे रखे हुए टेवल पर पड़े हुए कागज पर चलती हुई, मेरे हाथ के पजे की अंगुलियो के बीच पकडी हुई यह पेन्मिल है । फिर, यह पेन्सिल अच्छी किस्म की लकडी की बनी है, और मैं लिख रहा हू तव दोपहर के तीन बजे है।" ____ इस पेन्सिल मे लकडी द्रव्य है, मेरे हाथ की अंगुलियाँ क्षेत्र, दोपहर के तीन बजे का वक्त काल, और अच्छी किस्म भाव है। यह ध्यान मे रखियेगा । अवयदि मै इतना ही कहूँ कि 'पेन्मिल है तो मेरे पास बैठे हुए मेरे विद्वान मित्र विनुभाई तुरन्त बोल उठेगे कि, " पेन्सिल नहीं है।" यदि मै उनको ओर ताक् तो वे फिर तड़ाक से वोलेगे कि, "आपके हाथ मे पेन्सिल भले हो, मेरे हाथ मे नही है ।" उनके कथन को क्या गलत कहा जा सकता है ? नहीं तो क्या मैने जो कहा सो गलत था ? नहीं,वह भी सच था । पेन्सिल की बात करते हुए एकदम से दो परस्पर विरोधी कथन उपस्थित हो गये-१) पेन्सिल है, २) पेन्सिल नहीं है। यहाँ पर 'पेन्सिल है' ऐसा कहने मे मै सही हूँ और 'पेन्सिल नही है' ऐसा कहने मे मेरे मित्र विनुभाई भी सही है । परन्तु अपेक्षा से ये दोनो वाते गलत भी सिद्ध होती है । अत. 'स्यात्' शब्द के प्रयोग की आवश्यकता यहाँ उपस्थित होती है । एक तरफ 'पेन्सिल है' यह तथ्य है, दूसरी ओर 'पेन्सिल Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ नही है' यह भी तथ्य है । जब मै कहता हूं कि 'पेन्सिल, है' तब जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, यह बात सत्य है, फिर भी जहा तक मेरे मित्र का सम्बन्ध है, यह कथन असत्य वन जाता है । यहाँ पर ' स्यात् ' शब्द का प्रयोग करने पर यह एक निश्चित वात हो जाएगी। फिर इसमे किसी के लिए उज्र या विवाद को स्थान नहीं रहेगा। इस शब्द का प्रयोग करने पर निश्चित तौर से यह सूचित होगा कि, 'मेरे हाथ को अपेक्षा से पेन्सिल है हो।' मेरे मित्र थो विनुभाई भी यदि स्यात्' शब्द का प्रयोग करे तो उससे यह बात स्पष्टतया फलित होगी कि 'उनके हाथ की अपेक्षा से पेन्सिल नही ही है । इस ‘स्यात्' शब्द ने यहा आकर एक विशिष्ट प्रकार की निश्चित स्थिति का निरूपण किया। "जो मेरे पास है सो दूसरे के पास नही है, और जो मेरे पास नही है वह दूसरे के पास है" इस बात का स्पष्ट खयाल मुझे, मेरे मित्र को, तथा सव सुननेवालो को दिलाने के लिये 'स्यात्' शब्द का प्रयोग हुअा है । इसका विशेष स्पष्ट अर्थ यह है कि जब हम 'स्यादस्ति' कहते है, तब यह पद 'पेन्सिल 'मेरे पास है' यह निश्चित कहने के अतिरिक्त 'यह पेन्सिल मेरे हाथ मे ही है उक्त मित्र के हाथ मे नही है' परोक्षत ऐसा भी स्पष्ट सूचित करता है । यहाँ जब 'है' कहा जाता है तब 'कथचित्-अमुक अपेक्षा से' होने की बात कही जाती है। इस पर से स्पष्टतया समझ मे आगया होगा कि यह 'स्यात्' शब्द किसी एक वस्तु की किसी एक स्थिति को स्पष्टतः प्रकट करता है । उस वस्तु की उस स्थिति विशेष तक Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ इस का अर्थ स्पष्ट एवं निश्चित है । परन्तु उस वस्तु की उस स्थिति विशेष का विचार करते समय 'उसकी अन्य स्थितियाँ, अन्य यवस्थाएं तथा अन्य स्वरूप भी होते हैं" यह बात स्पष्टतया सूचित करना भी प्रावश्यक होने के कारण ही यह 'स्यात्' शब्द प्रयुक्त हुआ है । यदि यहाँ 'स्यात्' शब्द का प्रयोग न किया हो, तो उसके कारण अर्थात् इस शब्द के बिना निप्पन्न होने वाला निर्णय अनेकान्तात्मक होने के बदले एकान्तात्मक हो जाय । फिर हम भी उस वस्तु की अन्य किसी ग्रवस्या का विचार करना ही छोड़ दे । इसके परिग्राम स्वरूप, एक शोर हमारा निर्णय एकान्तात्मक ( ऐका - न्तिक ) तथा गलत बन जाय और दूसरी ओर वस्तु की अन्य अवस्था या स्वरूपो के विषय मे विशेष ज्ञान प्राप्ति से हम वचित रह जायें । इससे स्पष्ट होता है कि यह 'स्यात्' शब्द निरर्थक या सन्देह वाचक नहीं, बल्कि स्पष्ट, सगीन एव दृढ है | किसी भी वस्तु का निर्णय करते समय द्रव्य ( Substance) क्षेत्र (Place), काल ( Time ) और भाव ( Quality ) । इन चार बातो को लक्ष्य मे रखना आवश्यक है । यदि हमारा विचारक्रम इन चारो शर्तों (Conditions ) के प्राधीन न हो तो हमारे निर्णयो ( Conclusins) की भी वही स्थिति होगी जैसी कि " अन्धेर नगरी अनवुझ राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा" वाली शिक्षाप्रद हास्य कथा मे है । इसलिए यह 'स्यात्' शब्द भिन्न भिन्न अत- प्रनेकात का सूचक है और समस्त तत्त्वज्ञान का रहस्य है, यह हमे अच्छी तरह समझ लेना होगा । यदि हम इस शव्द को छोड़ दे तो Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०. हमारी विचारधारा एक ही अन्त तक या वस्तु को एक ही अवस्था तक सीमित हो जाएगी। अनेकात-वाद को स्याद्वाद भो कहने का यह एक खास कारण है । यदि हम इस शब्द को छोड कर चले, तो हमारी स्थिति घोर अरण्य मे भटकने वाले अधे प्रवासी के समान हो जाएगी। फिर हमें उसमे से बाहर निकलने का रास्ता कभी नहीं मिल सकता । अब तो 'स्यात्' शब्द के प्रयोग की सपूर्ण उपयोगिता ध्यान मे आ गई न ? - इस विषय को कुछ विस्तार से समझने का प्रयत्न करे । - ससार के भिन्न भिन्न महाद्वीपो तया देशो मे रहने वाले मनुष्यो की चमडी के रग का विचार करे । इस विश्व मे मुख्यतया पाच रगो की चमडी वाले मनुष्य बसते है जो निम्नानुसार है-भारत मे गेहुँआ रग, चीन मे पोला, अफ्रीका मे काला, यूरोप-अमरीका मे गौर वर्ण, और अमरीका के आदिम निवासियो की चमडी का लाल रग । ___ यदि कोई पूछे कि 'मनुष्य की चमडी का रग कैसा है ?" तो हम क्या जवाव देगे ? उपरोक्त पाचो रग मनुष्य के है, फिर भी क्षेत्र-भेद से पाच रग अलग अलग है। जब हम 'गेल्या रग' कहेगे तब भारतवासियो के सम्बन्ध में यह कथन सही एव निश्चित है, परन्तु अफ्रीका के निवासियो के सम्बन्ध मे गलत भी है । ___ अफ्रीका के मूल निवासियो की चमडी का रंग काला है," इस कथन मे कोई भ्रान्ति या सन्देह नहीं है। जब हम वहाँ के निवासी के विषय मे स्यात्+श्याम'यो दो शब्द मिलाकर उत्तर देगे तो उक्त 'स्यात्' शब्द श्याम रग के विषय में कोई Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ सदेह या अनिश्चितता उपस्थित नही होने देगा | उसमे 'काला रग' यह तो एक निश्चित बात है ही । परन्तु उसके साथ ही 'स्यात्' शब्द क्षेत्र की अपेक्षा भी सूचित कर देता है, और यह निश्चित तौर पर वता देता है कि ग्रन्यत्र ग्रन्य क्षेत्रो मे काले रंग के सिवाय अन्य रंगो की चमडी वाले लोगो का अस्तित्व भी है । इस उदाहरण से विशेष स्पष्ट होगा कि शब्द के प्रयोग मे कोई 'सभावना' या ' सदिग्धता ' की बात नही, बल्कि निश्चियात्मकता है | एक और उदाहरण ले । एक ही सज्जन के विषय मे बात करे । 'श्री अवन्तिकाप्रसाद को कीर्ति का बडा भारी मोह है । ये महाशय कीर्ति प्राप्त करने के लिए उदारतापूर्वक धन का व्यय करते है | परन्तु जहाँ कीर्ति न मिलती हो वहाँ -- जैसे कि किसी भिक्षुक को - वे एक फूटी कौडी भी नही देते, इतना → ही नही, ऊपर से उसे धमकाते है । अपनी व्यक्तिगत ग्रावश्यकताओ के क्षेत्र मे भी ये महाशय बहुत ही कजूस है । घर मे दियासलाई की तूलियो का भी हिसाव रखते है । श्री अवन्तिकाप्रसाद के उपर्युक्त शब्द चित्र से फलित होता है कि उनमे उदारता एव कृपरणता दोनो परस्पर विरोधी गुण विद्यमान है । दोनो एक साथ उनमे रहते है । यदि उनके स्वभाव का वर्णन करने का प्रसंग हमारे सामने उपस्थित हो तो किस प्रकार कहेंगे ? 'श्री श्रवन्तिकाप्रसाद उदार हैं ।' 13 13 11 उदार नही है ।' Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ " " कजूस है।' ! " " कजस नही है ।' ये इस प्रकार के चार कथन हुए । क्या हम चारो वाक्य एक साथ बोलेगे ? यो यदि देखा जाय तो चारो बाते सच्ची है। दूसरी तरह से ये चारो बाते गलत भी है। इनमे से किसी एक ही वाक्य को स्वतन्त्र रूप मे बोलेगे तो वह वात सच भी मानी जाएगी और झूठ भी । तब यदि इनमे से किसी भी एक वात को निश्चित तथा असदिग्ध ढग से व्यक्त करना हो तो हम क्या करेंगे ? यहा वही 'स्यात्' शब्द हमारी सहायता करेगा । 'कथचित् उदार है।' ऐसा जवाब हम दे देगे तो इससे 'ये महाशय कीर्ति प्राप्त कराने वाले क्षेत्र मे अवश्य उदार है' ऐसी एक निश्चित वात मुख्य रूप से व्यक्त करने के साथ साथ गौणरूप से दूसरी निश्चित वात भी समझा सकेगे कि 'अन्य क्षेत्रो मे ये महाशय उदार नही है।' ___स्यात्' शब्द की यह खूबी है । यह वात अत्यन्त शाति, लगन तथा बारीकी से समझ लेनी चाहिए । शायद कोई ऐसा भी कहे कि आपने अवतिकाप्रमाद की उदारता तथा कृपणता का समन्वय करके एक समाधानकारक मार्ग ढूंढ निकाला । नही, नहीं, ऐसा उलटा अर्थ न लगाइये । ऐसे बहुत से लोग, जिन्होने स्याद्वाद को भली भाति नही समझा है, इसे 'समन्वय' अथवा 'समाधानकारक मार्ग' (Combination or Compromising Formula) कहते है, और मानते है । यह मान्यता गलत है । पहले तो यह ध्यान मे रखे कि समन्वय समान वस्तुओ का-गुणो का होता है,परस्पर Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ विरोधी वातो का समन्वय नही होता । फिर इसमें कुछ समाधान भी नही है । यह किसी प्रकार तोड-जोड करके, इधर उधर से कुछ छूट रखकर तैयार किया हुआ समाधानमार्ग नही है । यह तो एक स्पष्ट, किसी भी प्रकार की उलझन से रहित बात है इससे बढकर यह सभी उलझनो को दूर करने की रीति है । यह एक शुद्ध सत्य का मार्ग है । इसमे प्रयुक्त या श्रमत्य के साथ समाधान या ममूहीकरण नही किया गया है । समाधान में तो कुछ तोड-जोड करनी पडती है, कुछ छोड देना होता है | समाधान कभी पूर्ण न्याययुक्त, विल्कुल उचित या तर्कबद्ध हो, यह सभव नही है । यदि ऐसा होता तो, उसके लिए 'समाधान' शब्द के स्थान पर 'अदल इन्साफ' शब्द का प्रयोग किया जाता । यह भलीभांति समझ लीजिए कि 'स्यादवाद' एक 'नटस्थतावाद का अथवा निष्पक्षतावाद का सिद्धान्त है ।' यह सत्य और सत्य को समान दृष्टि से नही देखता । यह किसी एक पर प्रीति और दूसरे पर द्वेष भी नही रखता । इमका पक्षपात केवल शुद्ध न्याय की ओर होता है । ग्रसत्य और अन्याय का यह प्रखर विरोधी है । सत्य स्यादवाद की दृष्टि से एकात है, सत्य को वह कात मानता है । समन्वय या समाधान में न्याययुक्त या युक्तियुक्त (Logical) तत्त्व का अभाव होता है, जब कि स्याद्वाद तो सुतर्क(Substancial logic ) से श्रोतप्रोत है । किसी एक की हानि से दूसरे के लाभ की बात यहाँ नहीं है, दूसरे के लिये Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ कुछ बलिदान करने या छोड देने की बात इसमें नही है । स्यादवादी जब उक्त महाशय की उदारता बताने के लिये 'स्यात् ' शब्द का प्रयोग करता है, तब वह उनकी कमी को क्षति पहुँचाकर उसकी उदारता की प्रशसा नही करता, उसी तरह जब स्यादवादी 'स्यात्' शब्द के प्रयोग के साथ उनकी अनुदारता की बात करेगा तब भी उनकी उदारता की ग्रवगणना करके ऐसा नही करेगा उसकी बात में राग, द्वेष, या पक्षपात नही ना सकता । परन्तु वह एक वस्तु का जिस स्वरूप में दर्शन करता है, उसका वर्णन उस वस्तु के दूसरे स्वरूपो को सदर्भ मे रख कर ही करेगा । इस प्रकार दूसरी एक बात यहाँ स्पष्ट होती है कि स्यादवाद किसी एक ही दृष्टिबिन्दु ( View point ) का निदर्शन नही करता, वह तो अनन्त दृष्टिविदुओ का एक निष्पक्ष एव तटस्थ 'ग्राहक' ' है । श्रागे चलकर हम जो सात प्रकार के नय की चर्चा करने वाले है, वह नय तो स्याद्वाद के विराट् स्वरूप का एक ग्रा मात्र है | इसलिए स्यादवाद को 'सिंधु' और नय को 'बिंदु' को उपमा दी जाती है । ऐसे अनेक 'नयविदु' (Reservoirs ) मिलकर एक 'स्याद्वादसिंधु' (Ocean) बनाते है । फिर यह प्रश्न उठेगा कि "इसे अनेक विदुओ का समन्वय क्यो न कहा जाय ? ' समन्वय' शब्द का प्रयोग किस प्रकार होता है सो ऊपर सक्षेप में कहा जा चुका है । इस बात को जरा विस्तार से समझ लीजिये । पुण्यगाली, भाग्यशाली, उदारचरित, क्षमावान्, सयमी आदि समान कक्षा के गुरण जब एकत्रित होते है तव उस क्रिया के लिये 'समन्वय' शब्द प्रयुक्त Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ होता है । पापी, दुराचारी, व्यभिचारी, क्रोधी, शराबी, चोर यदि समान कक्षा के अवगुण एकत्रित होते हैं तो उसे भी 'समन्वय' कहा जा सकता है । भिन्न भिन्न भाव प्रकट करने वाले एक ही श्रेणी के गुणो या अवगुणों का अलग अलग समन्वय किया जा सकता है, परन्तु परस्पर विरोधी गुणो और अवगुण का ( इकट्टा ) समन्वय नही किया जा सकता । एक ही वस्तु मे जो अनेक परस्पर विरोधी गुणधर्म दिखाई देते हैं- जो कि श्रनेकातवाद ने बताये हैं-वे बाहर से आये हुए या लाकर इकट्ठे किये हुए नहीं बल्कि प्रत्येक वस्तु के अपने मूल और अन्तर्गत स्वभाव-स्वरूप ही उसमे विद्यमान होते है । यदि यह बात भलीभांति याद रहे तो हम समन्वय या समाधान के भ्रम मे नही पडेगे । यह बात पुन सिद्ध करती है कि स्याद्वाद कोई अधूरा, मदिग्ध या सन्देह वाचक नही, बल्कि पूर्ण, स्पष्ट प्रसदिग्ध एव निश्चित तत्त्वज्ञान है । वस्तु के परस्पर विरोधी गुणधर्मो को पृथक् कर दिखानेवाले ग्रनेकातवाद के तत्त्वज्ञान का एक विशिष्ट कोष्ठक स्यादवाद है । यह इन्द्रियग्राह्य नही, मनोग्राह्य है। यदि ये सब बाते पूर्णतया समझ मे या जॉय तो हम तुरन्त ही कह देगे कि 'स्यात्' शब्द को समझदारी के साथ उपयोग करके वोले हुए वाक्य पद और उसकी इस दृष्टि से प्राप्त बुद्धि ही असली ज्ञान है, सम्यग्ज्ञान है, इसके सिवा दूसरे जो 'ज्ञान' कहलाते हो वे 'मिथ्याज्ञान' है । 'स्यात्' शब्द का अर्थ ग्रव हम भलीभांति समझ गये है । यह ग्रर्थ समझने के बाद ' स्यादवाद' शब्द के विषय मे भी हमे पर्याप्त समझ ग्रा गई है । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ इसलिये हमे यह भी समझ मे या जाएगा कि तत्त्वज्ञान की ( विचार की ) भूमिका पर इस 'स्याद्' के बिना जो कुछ दूसरा है सो सब अज्ञान है । इसी प्रकार धर्म की ( प्रचार की ) भूमिका पर भी स्याद्वाद एक श्रद्भुत "आधार है । यह हमे ससार की सारी विपमतानो को दूर करने के लिए एक प्रभुत कु जी (Master key ) देता है । यह देखना भी वडा रसप्रद और उपयोगी होगा कि, यह स्यादवाद हमे जीवनव्यवहार में किस प्रकार सहायता देता है । यह बात तो निश्चित है कि स्याद्वाद हमे दैनिक जीवन मे भी प्रत्यत उपयोगी और मार्गदर्शक है । इसलिए इसमे सदेह नही कि जीवन की उपयोगिता की भौतिक दृष्टि से इस पर विचार करना हम सब को बहुत प्रिय होगा । इस का विचार करने के पूर्व चार अपेक्षाएँ, पाँच कारण, सात नय और सप्तभगी - इन सब को जरा समझ ले । इसके बाद जीवन मे स्यादवाद की रोजवरोज की उपयोगिता की चर्चा करेगे तो वह अधिक सरलता से ग्रौर शीघ्र ही समझ मे आएगी। व हम द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव की चार अपेक्षाएँ समझने का प्रयत्न करते है । 'अपेक्षा' के स्थान पर हम 'ग्राधार' शब्द का प्रयोग करेगे, जो ग्रासानी से हमारी और सबकी समझ मे या जाता है । इस प्रकरण में कुछ बाते बार बार कही गई है । हमारे मस्तिष्क में उन बातो को ग्रच्छी तरह जमाने के प्राशय से ही ऐसा किया गया है, इसलिए पुनरुक्ति दोप के लिए क्षमा माँग कर ग्रव हम ग्रागे वढगे । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार अाधार पिछले पृष्ठो मे हमने जिन चार अपेक्षाओ-आधारो का बार बार उल्लेख किया है वे चार शब्द "द्रव्य,क्षेत्र, काल और भाव" अव हमारे लिये अपरिचित नही रहे । आगे हम जो अन्य वाते कहना चाहते है उनमे भी ये चार शव्द बार-बार आयेगे । ये चारो शब्द किसी भी वस्तु के विषय मे निर्णय करने के लिये अत्यत आवश्यक आधारस्तम्भ के समान है । इसलिये हमे अब ये शब्द और उनकी उपयोगिता अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए। इनमें पहला प्राधार है 'द्रव्य' द्रव्य का अर्थ है पदार्थ । अग्रेजी मे इसे (Substance) अथवा Matter कहते है । हमे जान लेना चाहिए कि इसमे किस किस वस्तु का समावेश होता है । ‘पदार्थ' शब्द के सामान्य अर्थ मे बहुत से पदार्थ, बहुत सी वस्तुएँ, हम अपने सामने देखते है। हमारे चारो ओर इतनी वस्तुएँ पडी है जिनका कोई पार नहीं । इन सब वस्तुओ के बाह्य स्वरूप को छोडकर जो मूल द्रव्य (Basic material) रहता है उसका 'द्रव्य' नाम से उल्लेख किया गया है। जो द्रव्य या पदार्थ नित्य (Permanent) है, अर्थात् विविध अवस्थाम्रो का वहन करते है, भिन्न भिन्न स्वरूपो मे भी जो मूल द्रव्य के रूप मे कायम रहते है उन्हे हम द्रव्य मानेगे । स्वरूप या अवस्था बदलने पर भी जो मूल द्रव्य कायम रहता है सो द्रव्य । उदाहरण के तौर पर अलकार मे सोना, फरनीचर मे लकडी और घडे मे मिट्टी । पिछले 'परिचय' प्रकरण में जो छ द्रव्य बताये गये है Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ उनमे आये हुए 'काल' द्रव्य का इसमे समावेश नहीं होता, क्योकि काल एक विशिष्ट द्रव्य है। वह एक अविभाज्य वस्तु है, उसके विभाग नहीं हो सकते । हमने दिन, रात,घटे, मिनट, सैकण्ड आदि भाग काल के किये है, परन्तु वस्तुत वे काल के विभाग नहीं है। हमने व्यवहार चलाने के हेतु बुद्धि और कल्पना का सहारा लेकर काल के ऐसे विभाग बनाये है, नीर उन्हे ये सव नाम भी दिये है। प्रात काल, सध्या काल आदि जो काल कहलाते है वे वस्तुत 'काल' नही है, प्रकाश आदि प्रदार्थो का परिणमन मात्र है । काल तो एक नियामक द्रव्य है, अत द्रव्य की अपेक्षा से सबधित विषय मे से हमे काल को अलग ही रखना है । एक स्वतत्र अपेक्षा अर्थात्-आधार के तौर पर इसका विशेप उपयोग है। पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, शब्द (आवाज), विचार आदि सब द्रव्य हैं, और इन सव पदार्थों का समावेश 'पुद्गल' द्रव्य में हो जाता है। किसी भी वस्तु का निर्णय करने के लिए जैन तत्त्ववेत्ताओ ने जो चार आधार बताये है, उनमे से प्रथम अपेक्षा अथवा आधार का विचार करते समय हमे इन सब द्रव्यो (पदार्थो) को अपनी दृष्टि के सम्मुख रखना है । अर्थात् जव भी हम'द्रव्य की अपेक्षा से' ऐसा प्रयोग करे तव जिसके विषय मे बात करते हो उसके आधारभूत द्रव्य को ओर हमारा लक्ष्य होना चाहिए। उदाहरण स्वरूप कुछ वस्तुएँ लेकर उनमे कौनसा द्रव्य है सो समझ ले। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ वस्तु १ तलवार का मूल द्रव्य २ टेवल का मूल द्रव्य - द्रव्य ३ चगूठी का मूल ४ रोटी का मूल ५. चप्पल का मूल द्रव्य द्रव्य चमडा इस प्रकार जब द्रव्य की अपेक्षा मे विचार करना हो तब - www उसका द्रव्य लोहा लकडी मोना गेहू ऊपर कहे मुताबिक खयाल हमे जरूर खाएगा । दूसरा श्राधार हे क्षेत्र । 'क्षेत्र' शब्द का अर्थ है द्रव्यों के रहने का स्थान । अग्रेजी मे इसे ( Place ) या (Space) कहते है । क्षेत्र विपयक सामान्य ज्ञान तथा तात्त्विक ज्ञान मे थोडा ना अन्तर है । जो वस्तु जहा ग्रथवा जिसके आधार में पडी हो उस स्थल को हम सामान्य बुद्धि से क्षेत्र मान लेते हैं । परन्तु इस बात को यदि पूर्णतया समझना हो तो वस्तु के आधार को हम 'क्षेत्र' नही मान सकते । उदाहरणार्थ- पतीली मे दूध भरा हुआ है, सामान्यतया ऐसा समझा जाएगा कि दूध के रहने का क्षेत्र (स्थल) पतीली है । व्यावहारिक दृष्टि से ऐसा मानने में कोई हर्ज नहीं है । परन्तु 'क्षेत्र की अपेक्षा' विषयक बात को हम बराबर समझना चाहे तो इस प्रकार की मान्यता से हमे धोखा होगा । पतीली मे दूध के रहने का जो स्थान है वह पतीली से लग है । इस पतीली को यदि पगाडी पर या अलमारी मे रखे तो पतीली के रहने का स्थान - उसका क्षेत्र - अलमारी नही, परन्तु अलमारी मे वह पतीली जितना अवकाश घेरती है उतना ही पतीली का क्षेत्र है । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी तरह पतीली मे दूध का जो क्षेत्र-रहने का स्थल-है वह पतीली के क्षेत्र से भिन्न है । व्यवहार मे ऐसा कहते है कि 'दूध पतीली मे है' परन्तु वास्तव मे दूध उस पतीली मे नही बल्कि उसके भीतर के रिक्त स्थान (अवकाश) मे है । तात्पर्य यह कि जब हम 'क्षेत्र' शब्द का प्रयोग करते है तव किसी भी दूसरी वस्तु के अाधार से रहित स्थल का क्षेत्र का उल्लेख करते है। इसमे अावश्यकतानुसार अपनी विवेक्बुद्धि का उपयोग करके निर्णय करना चाहिये। पतीली स्टेनलेस स्टील को हो चाहे पीतल की, उसमे जब हम दूध भरते है तव स्टेनलेस स्टील या पीतल जिस स्थान पर है वही रहता है और दूध भी जहाँ होता है वही-पतीली के भीतर के रिक्त स्थान मे-रहता है । अत दूध को एक स्थान मे रहने का प्राधार भले पतीली ने दिया हो, परन्तु दोनो अपने अपने स्थान मे-क्षेत्र मे--अलग है। जब हम अाकाश मे उडते हुए किसी पक्षी को देखते है तव आकाश और पक्षी एक ही स्थान पर होते है । आकाश वहा है और पक्षी भी वहा है, परन्तु दोनो का क्षेत्र एक नही है । जैन दार्गनिको के मतानुसार आकाश स्वय ही एक मात्र क्षेत्र है, जब कि बाकी के द्रव्य 'क्षेत्री' है । फिर भी व्यावहारिक ज्ञान के लिए यहाँ हम यह मान कर चलते है कि जिस प्रदेश पर आकाश पाया हुआ हो उस प्रदेश मे उसका क्षेत्र है। उदाहरणार्थ किसी गॉव, शहर या प्रदेश के ऊपर जो आकाश दिखाई देता है, उस 'दृश्यमान आकाश के लिए हम केवल उदाहरण के तौर पर मान लेते है कि अमुक स्थल या प्रदेश के ऊपर का भाग उस आकाश का क्षेत्र है । आकाश एक द्रव्य Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ ( शुद्ध द्रव्य) है, जब कि पक्षी भो एक द्रव्य ( संगठित द्रव्य ) है | यहा पर पक्षी जिस प्रदेश मे है वह पक्षी का क्षेत्र है और आकाश जिस प्रदेश मे है, वह ग्राकाश का क्षेत्र है । यह समझ लेने पर स्पष्ट हो जाएगा कि ग्राकाश और पक्षीदोनो द्रव्य अपने अपने क्षेत्र मे अलग अलग है । इसी तरह प्रकाश मे जो सूर्य, चन्द्र, तारे यादि दिखाई देते है उन सबका क्षेत्र पृथक् पृथक् है, और ग्राकाश का क्षेत्र भी इन सब के क्षेत्र से भिन्न है | हम क्षेत्र की अपेक्षा की - क्षेत्र के ग्राधार की - बात करे तब इस बात को बराबर ध्यान मे रखना चाहिए । उदाहरण के तौर पर जब कोई कहता है कि 'मै कुर्सी पर बैठा हूँ' नव उसके बैठने का क्षेत्र और स्वय कुर्सी जहाँ है वहाँ उसका क्षेत्र, ऐसे दोनो क्षेत्र अलग अलग है, एक नही । इस विषय को समझने के लिये कुछ सीधे सादे उदाहरण लेते है ---- १) लिखते समय मेरे हाथ मे रही हुई पेन्सिल का क्षेत्र मेरा हाथ है । २) जिस पर लिखा जाता है उस कागज का उस वक्त का क्षेत्र टेवल है ( टेवल पर ग्रमुक भाग ) । ३) भारत के प्रधान मंत्री का कार्यक्षेत्र भारत देश है । ४) व्याख्यान देने वाले वक्ता का उस समय का क्षेत्र व्याख्यानमच ग्रथवा व्याख्यानहॉल है । ५ ) बादलो का क्षेत्र प्रकाश है ( प्रकाश के जितने विस्तार में वे हो) तात्पर्य यह है कि 'क्षेत्र की अपेक्षा से' जब विचार किया जाय तव 'प्रत्येक वस्तु के द्रव्य का क्षेत्र - उसके रहने का स्थान' Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ यह अर्थ समझना चाहिए। विवेक बुद्धि का उपयोग यहाँ भी करना चाहिए। तीसरा आधार 'काल' है। यहाँ काल का अर्थ है 'जिस वस्तु का, वस्तु के द्रव्य काहम विचार करते हो उसके उस अस्तित्व का समय । जव वस्तु मे परिवर्तन होता है, तब जिस समय यह परिणमन होता है वह उसका 'काल-समय' है । द्रव्य के तौर पर काल स्वय एक अलग पदार्थ है । जिस वस्तु का जिस समय परिणमन होता है वह समय उस वस्तु के परिणमन का समय है । एक समय पर अनेक वस्तुओ का परिवर्तन हो रहा होता है, परन्तु ऐमा नहीं कहा जा सकता कि इन सव वस्तुप्रो का परिणमन-परिवर्तन-एक ही काल मे हुआ । प्रत्येक वस्तु का परिवर्तन जिस समय हुआ वह समय, उस वस्तु के परिणमन का अपना समय है, अपना काल है-यो समझना चाहिए । ___ यह बात कुछ अटपटी मालूम होगी। परन्तु यहाँ जव हम काल या समय के विषय मे कहते है तव काल या समय की खुद की बात नहीं करते, बल्कि हमे जिस जिस वस्तु से सवधित 'काल का-समय का' विचार करना है उस वस्तु के सदर्भ मे कालका उल्लेख करते है। घडी की सुई की दृष्टिसे काल-समय एक ही है, फिर भी वह समय घडी की सुइयो का है, अन्य वस्तुओ के परिवर्तन का नहीं । इस दृष्टि से जव हम काल की अपेक्षा के विषय मे कहते हैं तव जिस वस्तु का हम विचार करते है, उस वस्तु के परिणमन के समय की अर्थात् उस वस्तु के अपने समय की बात की जाती है । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ इस वात को जरा और स्पष्ट करेंगे | ग्राम और केला दोनो फल है । हमने दो भिन्न भिन्न टोकरी मे ग्राम ग्रर केले रखे हैं । भवत् दो हजार सत्रह ( २०१७ ) के वैमाख शुक्ला पूर्णिमा के दिन सुबह सात बजे दोनो टोकरे खोलने पर पता चलता है कि ग्राम और केले दोनो फल पक कर खाने योग्य वन गये है । जब दोनो प्रकार के फल पक कर खाने योग्यतैयार हो गये तब उस दिन सुबह के मात बजे थे । 7 अव यह ग्राम का टोकरा दस दिन पहले ला रखा था, जव कि केले अगले दिन शाम को ही लाकर रखे है । जब लाकर रखे तव दोनो प्रकार के फल कच्चे थे। दोनो खाने योग्य - पक कर तैयार तो उपर्युक्त दिन को सुबह सात वजे हुए । यहाँ नाम समझने की बात यह है कि इन दोनो फलो के पकने का समय सुबह सात बजे का नही है | आम और केले के अलग अलग पकने के काल का समय का प्रश्न जब उपस्थित हो तब उचित समझ तथा गिनती के द्वारा हम कहेंगे कि ग्राम का ( पकने का ) समय दस दिन का है और केलो का ( पकने का ) समय बारह या सोलह घटो का है । ( ग्राम को पकने में दस दिन का समय लगा और केलो को बारह या सोलह घटो का ) इस दृष्टि से इन दोनो का - कच्चे से परिवत्तित होकर पके फल बनने का काल - समय-ग्रलग अलग है । साधारण समझ के लिये कुछ और उदाहरण लेते हैं । १) ऋषभदेव भगवान के निर्वारण के बाद का समय गरिणत लाखो वर्ष । २) वर्षा होने का समय = चौमासा ( इसी तरह अन्य ऋतुओं का समय भी समझिये ) । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ३) भगवान महावीर के ग्रायुण्य का काल = उस समय के ७२ वर्प। ४) तीर्थकर प्रभु के निर्वाण का काल =जिम समय निर्वाण प्राप्ति हुई मो। ५) पानो मे मिट्टी के घुलने का काल = दोनो का मिश्रण होने मे जितना समय लगे सो। इस प्रकार जब किसी वस्तु के सवध मे काल की अपेक्षा की बात करते है तब उमसे उस वस्त के उद्भव सम्बन्धी, परि मन का, अस्तित्व का तथा कार्य करने का काल समझना चाहिए। इसमे भी विवेक-बुद्धि का भलीभाँति उपयोग करना चाहिए। चौथा प्राधार है 'भाव' । यहाँ 'भाव' शब्द का अर्थ है 'वस्तु के गुण धर्म' । उदाहरणार्थ रूप, रस, गध, स्पर्ग, प्राकृति, कार्य (Function) ग्रादि सव 'भाव' के अन्तर्गत है । सक्षेप मे, वस्तु के गुण, शक्ति तथा परिणाम को भाव' कहा जाता है । अग्रेजी मे इसे Quality and functions of the substance कहते है । ये गुण धर्म, लक्षण, प्रकार, जाति, वर्ग आदि समय समय पर बदलते (Everchanging) रहते है। यह भाव प्रत्येक वस्तु का अपना-अपना स्वभाव है। प्रत्येक वस्तु के स्वभाव भिन्न भिन्न होते है । एक वस्तु के स्वभाव को 'समानता' दूसरी वस्तु के स्वभाव से हो सकती है, परन्तु एकता नहीं होती। अर्थात् प्रत्येक वस्तु का अपना अपना अलग भाव-स्वभाव होता है और परिवर्तनशोल ( Changing ) होता है। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ इसलिए जव 'भाव की अपेक्षा' लेकर निर्णय करना हो तब जिस वस्तु के विपय मे विचार करते हो, उस वस्तु के खुद के गुण धर्मों को ध्यान मे लेना चाहिए । ___इस बात को भलीभांति समझने के लिए कुछ उदाहरण लेते है. १) 'काला या लाल रग' घडे का भाव है। २) 'मिठाम' शक्कर का भाव है। ३) 'रूप या कुरूप' मनुष्य का वाह्य भाव है । ४) 'स्वार्थ अथवा परमार्थ' मनुष्य का प्रातरिक भाव है। ५) 'उष्णता' अग्नि का तथा गीतलता पानी का भाव है । इस प्रकार प्रत्येक वस्तु के अपने अपने गुण धर्म और स्वभाव आदि का विचार करके 'भाव की अपेक्षा' का निर्णय करना चाहिये । इममे भी विवेक-बुद्धि का उपयोग आवश्यक है। ___ इन चारो आधारो को (अपेक्षानो को) अच्छी तरह समझने के लिये एक संयुक्त उदाहरण लेते है । एक वस्तु को लेकर अलग अलग अपेक्षा से किस प्रकार निर्णय होता है सो देखे । एक ऐरोप्लेन-विमान--का उदाहरण लीजिये । द्रव्य -अल्युमिनियम, लोहा, लकडी, आदि जिन पदार्थों का विमान बनाने मे उपयोग हुअा वे विमान के द्रव्य है । क्षेत्र -यहाँ उत्पादन तथा कार्य-ऐसे दो क्षेत्र है। यह लदन मे वना है, इसलिए उसका उत्पादनक्षेत्र 'लदन' है, अथवा लदन मे जिम स्थान पर उसे बनाने का कारखाना हो वह 'स्थान' उसका क्षेत्र है। कार्यक्षेत्र के अन्तर्गत वह क्षेत्र आता है जहाँ वह जिस समय पड़ा हुआ हो अथवा उडता हो। पड़ा हुआ हो तो 'हवाई अड्डा' ( एरोड्रोम) और उड़ता हो तो Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ 'ग्राकाश' ये उसके क्षेत्र हुए। इन दोनो मे से मुख्यतया जिम का जिक्र चल रहा हो वह क्षेत्र समझना चाहिए । काल - इसमें भी उत्पादन और कार्य का-यो दो प्रकार के काल प्राते हैं । उसे बनाते वक्त जो समय हो वह उसका उत्पादनकाल है, और जब वह गति कर रहा हो तब का समय उसके कार्य का 'काल' है । दोनो मे से मुख्यतया जिसकी वात चल रही हो वह काल लेना चाहिए । भाव -- उसका रंग, रूप, ग्राकृति, और कार्य - ये उस विमान के भाव है | सामान्यतया उसका कार्य ग्राकाश मे उड्डुयन करना है इसलिए 'उड्डयन' (ग्राकाश मे उडना) विमान का 'भाव' है । जैन तत्त्ववेत्ताओ ने घट (घडा) दृष्टान्त के रूप मे लिया है । उसमे 'मिट्टी' उसका 'द्रव्य' है । जहाँ बनाया या रखा हो वह उसका 'क्षेत्र' है । जव बना या जिस समय रखा हो वह उसका 'काल' है और 'काला या लाल रंग' उसका भाव है । अव उपर्युक्त चारो अपेक्षाओ मे एक और महत्त्व की बात समझ लेनी चाहिए । यह बात है इन अपेक्षाओ के 'स्व' और 'पर' इन दो विभागो की । ये 'स्व' तथा 'पर' दो अलग अलग भाव है । इन दोनो शब्दो को हम वरावर समझ ले । सप्तभगी के प्रथम दो पदो मे (प्रथम और द्वितीय भाग मे ) 'है' और 'नही है' इस प्रकार के दो कथन किये गये है । ये कथन 'स्व' और 'पर' की यपेक्षा से किये गये है । 'स्व' अर्थात् अपना और 'पर' अर्थात् 'अपना नही सो' यानी पराया । इस प्रकार जब अपेक्षा को बात करते हैं, तब दो प्रकार Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ मे करते है-एक तो 'स्व-द्रव्य,स्व-क्षेत्र, स्व-काल, और स्व-भाव' और दूसरा 'पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-काल, और पर-भाव । इस तरह प्रत्येक वस्तु का निर्णय करने मे कुल आठ अपेक्षाएँ हुई । ___वस्तु के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा मे जव 'स्व' गन्द जोडा जाता है तब उससे 'अस्ति' अर्थात् 'है' ऐसा निर्देश होता है। उसी तरह इन चारो अपेक्षायो मे जब 'पर' शब्द जोडा जाता है, तब उससे 'नास्ति' अर्थात् 'नहीं' ऐसा निर्देश होता है। तात्पर्य यह कि इन चारो में जब स्व-स्वरूप की अपेक्षा होती है तब हम 'है' ऐसा कहते है, और जब परस्वरूप की अपेक्षा होती है तब हम 'नहीं है' ऐसा कहते है। ___इन चारो अपेक्षाओं के लिए 'चतुष्टय' शब्द प्रयुक्त होता है। चारो का एक साथ उल्लेख करना हो तव इस शब्द का प्रयोग किया जाता है। 'स्व और पर' गब्दो को चतुष्टय गन्द के साथ लगाकर 'स्वचतुष्टय' और 'परचतुष्टय' ये शब्द प्रयुक्त होते है। इन चारो आधारो की, उनके चार 'स्व-स्वरूपो' की और चार 'पर-स्वरूपो' की विशेप चर्चा सप्तभगी विषयक प्रकरण में की जाएगी। इसके अतिरिक्त, उससे पहले 'अपेक्षा' शब्द की विस्तृत जानकारी के लिए 'अपेक्षा' नामक एक प्रकरण भी आगे के पृष्ठो मे आने वाला है। अत इसका यहाँ सक्षेप मे विवरण किया गया है। जो कुछ ऊपर लिखा गया है, उसे भली भांति सोच विचार कर समझ लेने से वाद में की जाने वाली चर्चा विवेचना को समझने मे हमे बड़ी आसानी होगी । अब हम 'पाँच कारण' इस विषय पर कुछ विचार करे। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँच कारण इस दुनिया मे जो कुछ कार्य होता है उसके पीछे कोई न कोई कारण तो होना ही चाहिए, होता ही है । कुछ कारण दृश्य होते है, कुछ ग्रहय, कोई ज्ञात होते है कोई अज्ञात होते है । सूर्य उगता है और ग्रस्त होता है। रात जाती है, दिन आता है, मनुष्य जन्म लेता है, और मरता है । सुख, दुख, गरीबी, अमीरी, तन्दुरुस्ती, बीमारी आदि बातो से लगाकर परमाणु बम तथा हाइड्रोजन बम की उत्पत्ति, अवकाश - उड्डयन, रॉकेट मे से छूटे हुए उपग्रहा का पृथ्वी तथा चन्द्र के चारो मोर उड्डयन- परिभ्रमण - तक की सारी घटनाएँ हम अपनी आँखो के सामने होती हुई देखते है । इस विश्व मे अनादि काल से ऐसे अनेक कार्य होते रहे हैं, हो रहे है, तथा अनन्त काल तक होते रहेगे। इनमे से कई कार्यो के कारण हमे समझ मे आते है, बहुतो के हमे समझ मे नही श्रते । प्रज्ञा को परिमितता ( सीमित बुद्धि) के कारण बहुत सी घटनाओ के कारण हम समझ नही पाते । फिर भी इस विषय में हम सब एकमत है कि इन सब कार्यों के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है । भिन्न भिन्न तत्त्वविशारदो ने भिन्न भिन्न कारण ढूँढ निकाले है | जैन तत्त्ववेत्ताओ ने इन सब के लिए पाँच कारण वताये है । इन पाँच कारणो को अलग अलग तौर पर स्वीकार करने वाले मत भी हैं, परन्तु जैन दार्शनिको का कथन है कि, सामान्यतया ये पाँचो कारण इकट्ठे होने पर ही कार्य होता है । उनका यह दावा है कि सामान्यतया ये पाँचो कारण जब तक साथ नही मिलते तब तक कोई भी कार्य बनता ही नही, होता ही नही । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ चलिए, अब हम इन पांचो कारणो की जांच करें। इन पाँचो कारणो का क्रम निम्नानुसार है१ काल (समय-Time) २ स्वभाव ( वस्तु का अपना गुणधर्म-Quality or function) ३ भवितव्यता या नियति ( अगम्य शक्ति- Absti use Potentiality ) ४ कर्म या प्रारब्ध (नसीव-Luck) ५ उद्यम या पुरुषार्थ ( प्रयत्न-Effonts) पाँचो कारणो के ये नाम हुए। इस विषय मे भिन्न भिन्न अभिप्राय प्रचलित है। कई लोग केवल काल को ही कार्य का कारण मानते है। अपने आप को 'स्वभाववादी' कहने वाले मताग्रही लोग प्रत्येक कार्य के लिए केवल स्वभाव को ही जिम्मेदार मानते हैं । जो लोग भवितव्यता-नियति को मानते हैं, वे प्रत्येक कार्य के लिये नियति के सिवा और कोई कारण मानने से इन्कार करते हैं। चौथा मत 'कर्म-कारणवादी' वर्ग का है । ये लोग कर्म के सिवा अन्य किसी वस्तु को कारण रूप मे स्वीकार हो नही करते । जब कि पुरूपार्थ को मानने वाले उद्यमवादी जगत मे वनने वाले मारे कार्य के लिये उद्यम के सिवा और कोई कारण हो नही मानते । जैन तत्त्ववेत्ताओ का कथन है कि, "ये पात्रो कारण प्रत्येक कार्य के पीछे गति देने वाले है, (Gunding force)-जव तक ये पॉचो कारण एकत्र नहीं होते तव तक सामान्यतया कोई भी कार्य नही होता। अब हम 'एक कारणवादी' मत की वात सुने । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० कालः केवल काल को ही कारण मानने वाले कहते है कि 'प्रत्येक वस्तु अपने समय पर ही उत्पन्न होती है, और अपने समय पर ही नष्ट होती है । गर्भ में से बालक, दूध मे से दही, अनाज मे से रसोई, वीज मे से वृक्ष, वृक्ष मे मे फल आदि सब अपने समय पर ही होता है। चक्रवर्ती, तीर्थकर, अवतार वचपन, यौवन, वृद्धावस्था, जन्म, मृत्यु आदि मव काल के ही विपाक है । काल को छोड कर काई कार्य हो ही नहीं सकता । प्रत्येक कार्य के लिये केवल काल ही जिम्मेदार है।' ये लोग स्वय काल को भी काल का ही कार्य मानते है । स्वभाव -यहाँ फिर याद दिलाने की आवश्यकता है कि स्वभाव से तात्पर्य मिस्टर टॉम, डिक या हैरी नाम धारी व्यक्तियो का भला बुरा स्वभाव नहीं, बल्कि प्रत्येक वस्तु का जो स्व+भाव है, गुणधर्म है, सहज स्वभाव है, उसके अर्थ में 'स्वभाव' शब्द प्रयुक्त हुआ है । 'स्वभाव मे माननेवाले स्वभाववादी लोग' ऐमा मानते हैं कि जगत का कारण स्वभाव ही है । उनका कहना है कि वन्ध्या कभी पुत्र नही जनती, हाथ की हथेली मे, पैर के तले मे या स्त्रियो के मुख पर कभी बाल नही उगते, नीम के बीज मे से आम कभी नहीं उगता, ग्राम की गुटली मे से केले का या नारियल का पेड नहीं उगता, मोर के पख केवल मोर के शरीर पर ही उगते है, सन्ध्या के रग, बवूल के कॉटे, भिन्न भिन्न फल, पर्वत की स्थिरता, वायु की अस्थिरता या चचलता, अग्नि की अव॑ता आदि सब काल का नही वल्कि स्वभाव का ही परिणाम है । अर्थात् स्वभाव के कारण ही होता है । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ मछलियां, तू वे, पानी मे तैरते हैं, कोया और पत्थर पानी मे डूबते है,मूठ खाने से वायु का शमन होता है, ई से विरेचन (जुलाव) होता है, कोकडुदाना नहीं गलता, अस्थि मे से शख, उष्णता के रवभाव वाला मूर्य, गीतलता के स्वभाव वाला चन्द्र, मुंह मीठा करने वाली ईख, प्रादि सभी द्रव्य अपने अपने 'स्व-गुण' के स्वभाव के अनुसार बरतते है, अत कार्य का कारण काल नही परन्तु स्वभाव हो है। भवितव्यता:-जो लोग भवितव्यता को कारण मानते हैं वे सब काल और स्वभाव का तिरस्कार करते है। उनका कहना है कि 'जो न होने वाला हो वह नहीं होता।' भवितव्यतानुसार जो होने वाला होता है सो हुए विना नही रहता । नियति जिस ओर मनुष्य के मन को खीच लेती है, उस ओर मनुष्य विवश होकर खिंचता है । यदि नियति (भवितव्यता) अनुकूल हो तो बिना सोचे ही कार्य हो जाता है । ____ 'वसन्त ऋतु मे आम्रवृक्ष की प्रत्येक डाली पर लाखो वौर उगते है । उनमे से कितने ही झड जाते है, कुछ अचार की केरो, कुछ ग्राम और कुछ साख बनते है । गर्भ में से जन्म लेने वाले सभी जीते नही । यह सव प्रत्येक की अपनी अपनी भवितव्यता का सूचक है।' वे एक मजेदार दृष्टान्त भी देते हैं___"एक पक्षी वृक्ष पर वैठा बैठा कल्लोल कर रहा है । जमीन पर कुछ दूर एक गिकारी तीर कमान लिये उस पक्षी का शिकार करने आता है । धनुष्य पर वारा रख कर उस पक्षी को मारने के लिये निशाना ताकता है । दूसरी ओर आकाग मे ऊँचे उडने हुए एक वाज की नजर भी उस पक्षी पर पडती है। उस पक्षी को अपनी चोच में लेने के लिये, Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये रोकेट की सी तेजी से वह वाज नीचे या रहा है । इस पक्षी पर तो घोर विपत्तिग्राही पडी है । एक चोर से शिकारी का बाण और दूसरी ओर से बाज की झपटा इन दो मे से किसी भी एक के कारण इस पक्षी की मृत्यु लगभग निश्चित मालूम होती है । ऊपर से प्राते हुए सही सलामत उड परन्तु होता यह है कि एकाएक सर्प तीर तत्पर शिकारी के पैर मे दश देता है, खिचा हुग्रा तो जाता है, निशाना चूक जाने से उस पक्षी को बदले, उस पक्षी का शिकार करने के लिये बाज को विध देता है । वह पक्षी वहाँ से जाता है। शीघ्र ही अपना लक्ष्य पाने के उस पक्षी को मारने के बदले स्वय मरता है, विध कर पेड के नीचे गिराने और अपने घर ले जाने के मनोरथ वाला शिकारी स्वयं शिकार वन जाता है । जिसकी मृत्यु निश्चित दिखाई देती थी, वह पक्षी अद्भुत प्रकार से बच जाता है । ध्यान मे लीन बाज, पक्षी को " ऐसी त्रिविध घटना का उदाहरण देकर भवितव्यतावादी पूछता है, " इसमे नियति को छोडकर और कौन सा कारण हो सकता है ? अवश्य यह भवितव्यता का कारण ही था । इससे आगे बढकर वे कहते है कि “गाढ जगल मे से और खू खार युद्ध के मैदान में से मनुष्य जीवित लौटते है और घर के विछौने मे सोये सोये मर जाते है । ऐसी सब घटनाओ के लिए केवल भवितव्यता के अतिरिक्त और कौनसा कारण हो सकता है ? " उनकी मान्यता है कि ' केवल भवितव्यता ही छोडने को तीर छुट लगने के Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ इन सब के लिये कारणभूत या जिम्मेवार है और यह एक ही कारण सभी कार्यो के लिए काररणभूत है ।' यहाँ हमे भवितव्यता का अर्थ भली भांति समझ लेना चाहिए | सामान्य लोग इस शब्द के दो ग्रर्थ करते हैं नसीव या प्रारब्ध वना (१) कर्म के द्वारा मनुष्य का जो है सो " (२) ईश्वर की कृपा अथवा ईश्वर की इच्छा । से करता हू, मैंने किया यह मानव मिथ्या वकता है, पर ईश्वर की प्रज्ञा बिना पत्ता नहीं हिल सकता है, ऐसा कहने और मानने वाले भवितव्यता या नियति का अर्थ ' केवल ईश्वर की इच्छा ही' कहते हैं । ये दोनो अर्थ ठीक नही हैं । यहाँ 'भवितव्यता' शब्द का प्रयोग इन दोनो मे एक भी अर्थ मे नही किया गया है। जैन तत्त्ववेत्ताओ ने कर्त्ता के स्वरूप मे किसी ईश्वर का अस्तित्व नही स्वीकार किया है । कोई कार्य करने की 'इच्छा' एक मानव मुलभ वृत्ति है और जिसमे ऐसी वृति हो वह ईश्वर नही कहला मकता, जैन तत्त्ववेत्ता का यह कहना है । हिन्दू धर्म में ईश्वर के दो स्वरूपो की कल्पना की गई हैसाकार और निराकार । उन्होने इन दोनो स्वरूपो को क्रियाशील, कर्त्ता-स्वरूप माना है । जैन तत्त्वज्ञान इस बात को स्वीकार नही करता । यह एक अलग ही विषय है, जिसकी यहाँ चर्चा करने से विपयान्तर हो जाने की सभावना है । इसलिए यहाँ तो हमे जैन दार्शनिको के अनुसार भवितव्यता अर्थात् नियति के अर्थ का निरूपण करके रुक जाना होगा www Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तत्त्ववेत्तानो के अनुसार भवितव्यता अर्थात् नियति का अर्थ है, 'जो निश्चित हो चुका है। वे मानते है कि 'उत्सपिणी और अवसर्पिणी-काल के इन दो विभागो मे से प्रत्येक मे वारह चक्रवर्ती और चौबीस तीर्थकर ही होते हैऐसा जो निश्चित क्रम है उसके लिए भवितव्यता एक कारण है । यह कारण अन्य चार कारणो से मिलकर कार्य करवाता है, ऐसा उनका मत है। सभी कार्यों के पीछे यही एक ही कारण होता है, ऐसा वे नहीं मानते। __ जैन दार्गनिको का यह मत समझ लेना आवश्यक है । उनके मतानुसार प्रत्येक कार्य के पीछे पाँचवे अनिवार्य कारण के रूप मे नियति है ही। इस विश्वरचना मे तथा ससार की घटनायो मे ऐसे कितने ही कार्य होते है, जिनके पीछे काल, स्वभाव, कर्म और उद्यम रूप चार कारणो के अतिरिक्त कोई अगम्य कारण भी रहा हुआ होता है । जब ये चारो कारण कम पडते हैं, तब इन चारो को साथ रखकर पाँचवाँ कोई कारण भी काम करता है । उदाहरणार्थ जैन शास्त्र मे काल के जो दो विभाग वताये गये है (जिनका पहले और यहाँ भी अभी अभी उल्लेख हो चुका है) उनमे कुछ कार्य क्रमश और निश्चित ढग से होता है । उत्सपिरणी काल रूप, रस, गध, शरीर, आयुष्य, वल आदि वैभवो की क्रमश उन्नति का काल है जब कि अवसर्पिणी काल उन वैभवो को क्रमश अवनति का काल है । अवसर्पिणी काल के प्रारम्भ मे मनुष्य के शरीर का जो प्रमाण या कद होता है वह क्रमग कम होता जाता है, इसी प्रकार मनुष्य का आयुष्य भी क्रमश. कम होता जाता है । अवसर्पिणी काल पूरा होता Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ है और उत्सपिणी का प्रारम्भ होता है तब से कद और प्रायु प्रमारण वटता जाता है। यह क्रम कालचक्र के प्रत्येक विभाग मे निश्चित रूप से होता है। इन सबके पीछे एक कारण के रूप मे भवितव्यता' मुस्य या महत्त्वपूर्ण कार्य करती है । यहाँ यह याद रखना चाहिए कि किसी भी कार्य के लिए जैन दार्गनिको ने भवितव्यता या नियति को एक मात्र तथा स्वतन्त्र कारण नहीं माना। दूमरी एक ध्यान में रखने की बात यह है कि 'जहाँ चार कारण एकत्रित होकर कार्य को पूर्ण नहीं कर सकते वही नियति पाती हो, ऐसा नहीं है। प्रत्येक कार्य मे सब मिलाकर पांचो कारण सामान्यतया काम करते हैं। प्रत्येक कार्य मे भिन्न भिन्न अपेक्षा से अमुक एक कारण मुस्य-प्रधान-भाग लेता हो तव अन्य चार कारण गौण रूप मे होते है । अत जहाँ नियति के मिवा अन्य कारण मुख्य या गौण रूप में होते है, वहाँ भी नियति एक पाँचवे कारण के रूप में अनिवार्यत होती ही है । जब ईश्वर कर्तृत्वादी लोग ईश्वर की इच्छा रूप भवितव्यता की बात करते है तव वे इस एक मात्र कारण को सर्व कार्य नियता मानते है, जब कि जैन तत्त्वज्ञानी भवितव्यता को पाँचो कारणो मे से एक का स्थान देते है। यह वात वरावर समझ लेनी चाहिए । एक मात्र नियति को ही सर्व कार्यों के कारण के रूप मे मान ले तो कर्म (प्रारब्ध) और पुरुपार्थ की सारी बात ही खत्म हो जाती है। पुन मूल बात पर आते हुए हम इतना स्पष्टतया समझ लें कि यहाँ भवितव्यता या नियति का जो उल्लेख हुआ है उसका अर्थ 'ईश्वर कृपा', या 'नसीब', या 'प्रारब्ध' नही है। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ यह नसीव या प्रारब्ध तो चौथे कारण के अन्तर्गत ग्राजाता है, जिसे हमने 'कर्म' नाम दिया है । कर्म-कर्म को कारण मानने वाले कर्मवादियो के लिए दूसरा सरल, अर्थ स्पष्ट करने वाला शब्द प्रारब्धवादी है । सामान्य लोग साधारणत प्रारब्ध के लिये 'नसीब' या 'भाग्य' शब्द का प्रयोग करते है । 'जैसा जिसका नसीब' ये शब्द जव कहे जाते हैं तब उनका अर्थ 'पूर्व के कर्मों द्वारा बना हुया प्रारब्ध' होता है । इन एक ही वस्तु को सब कार्यो का कारण मानने वाले स्वयं को 'कर्मकारणवादी' कहते हैं । वे लोग काल, स्वभाव, तथा भवितव्यता को नही मानते । उनका कथन है कि "जगत मे कर्म जो कुछ करता है वही होता है । कर्म से जीव कीडा, तिर्यच, मनुष्य या देव बनता है । कर्म से ही राम को वनवास भोगना पडा, कर्म से ही सीता को कलक लगने की तथा अग्नि परिक्षा देने की स्थिति मे पडना पडा । केवल कर्म रूप एक ही कारण के प्रताप से रामायण, महाभारत और पानीपत के युद्ध हुए, वर्तमान युग के दो विश्वयुद्ध, तथा हिटलर का पतन, रावण का नाग, कृष्ण का वध, ईसा को क्रॉस, और गाधीजी का विस्तोल की गोली से मरण आदि सब कर्म के ही कारण हुए । कर्म से ही राजा या रक बनते हैं, उद्यम करने वाला एक व्यक्ति भटकता है और कर्म के फल से दूसरा सोता सोता सभी फलो को प्राप्त करता है ।" "कर्म से ऋषभदेव प्रभु को एक वर्ष तक अन्न नही मिला, और कर्म से हो महावीर प्रभु के कानो मे कीले ठोकी गई । कर्म से ही नेपोलियन शाहगाह बना तथा कर्म से ही वह कैद हो कर कारावास मे मरा ।" Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ जैसे भवितव्यता वादियो ने पक्षी का दृष्टान्त दिया है वैसे ही ये कर्म - कारणवादी भी दूसरा एक मनोरंजक दृष्टान्त देते है"एक स्थान पर अच्छी तरह बन्द किया हुग्रा एक टोकरा पड़ा था। इसमें खाने को कुछ वस्तु होगी, यह मानकर एक भूखे चूहे ने उस टोकरे में घुमने के लिये छेद करने का उद्यम प्रारंभ किया । स्वय उस टोकरे में प्रविष्ट हो सके, इम हेतु से उस नूहे ने टोकरे को कुतरना शुरू किया और कुतर कुतर कर उसमे एक छेद बना डाला । इस टोकरे मे किसी ने एक सांप बन्द कर रखा था । कई दिन का भूखा यह सांप, यह जानकर कि टोकरा कुतरा जा रहा है, अन्दर तन कर बैठ गया । ज्यो ही वह चूहा टोकरे में घुमा त्योही साँप के मुंह में जा गिरा। सांप को भोजन और मुक्ति दोनो एक साथ ही मिल गये । चूहे को खाकर, चूहे के द्वारा कुतर कुतर कर बनाये हुए छेद मे होकर वह साँप वाहर निकला और वन मे चला गया ।" 'यहाँ उद्यम तो चूहे ने किया । परन्तु उद्यम करने वाला मारा गया, और अन्दर बन्द किया हुआ साँप वहाँ से मुक्ति पाकर निकल गया । तब कहिये, इसमे कर्म ही बलवान है या और कुछ P" ऐसी बात कहकर इस दृष्टान्त के द्वारा कर्मकारणवादी कहते हैं, कि 'इस जगत में होते हुए सभी कार्यो का कारण केवल कर्म ही है ।' 1 यहाँ 'कर्म' शब्द के अर्थ के विषय मे कुछ गडवडी न हो, इसलिए यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि हम जो उद्यम, पुरुषार्थ या कार्य करते है उसके अर्थ मे 'कर्म' शब्द का यहाँ प्रयोग नही हुआ है । साधारणतया वर्तमान मे किये जाते हुए Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ कार्य भी कर्म कहलाते है, परन्तु यहाँ पूर्वकृत कर्म और उनके द्वारा बने हुए प्रारब्ध के अर्थ मे इस शब्द का प्रयोग हुया है । उद्यम - हमे यहां 'उद्यम' शब्द को पुरुषार्थ के अर्थ मे लेना है । उद्यमवादी केवल उद्यम को ही सब कार्यो का कारण मानते है । वे क्या कहते है सो भी सुन ले - "काल, स्वभाव, नियतिया कर्म असमर्थ है, एक मात्र उद्यम ही समर्थ है । उद्यम से श्री रामचन्द्रजी ने सागर पार किया, उद्यम से ही उन्होने लका का राज्य जीत कर विभीषण को दिया, पुरुषार्थ से ही पाडवो ने कौरवो को हराया ।" "उद्यम के विना न खेत मे अनाज उत्पन्न होता है, न तिल मे से तेल निकलता है । उद्यम किये बिना एकेन्द्रिय लता भी वृक्ष पर नहीं चढ सकती, उद्यम करके बीज वोये विना फसल नही होती, तैयार भोजन का कोर भी उद्यम के विना मुँह मे नही आ गिरता, एक वार यदि उद्यम से कार्य सिद्ध न हो तो दूसरी वार, तीसरी बार पुनः पुन उद्यम करते रहने से कार्य अवश्य सिद्ध होता है ।" ये लोग इसके आगे और भी कहते है कि, 'कर्म तो पुत्र है, उद्यम का फल है, उद्यम उसका पिता है । उद्यम ने ही कर्म किये है और उद्यम से ही वे दूर होते है । दृढप्रहारो ने हत्याएँ करके घोर कर्म उपार्जन किये थे, फिर भी छ महीने के उद्यम से उसने सभी कर्म समाप्त कर दिये ।' उनकी मान्यतानुसार 'उद्यम की शक्ति अपूर्व है, बूँद से सरोवर भरता है, एक एक ककड से मेड बंधती है, ईट ईट से गिरि जैसे गढ बनते है, यह सव उद्यम की शक्ति का ही प्रभाव है । उद्यम से ही अर्थ, उद्यम से ही काम, उद्यम से ही Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९ धर्म और उद्यम से ही मोक्ष भो मिलता है। विद्या और कला भी उद्यम ने ही सिद्ध होती है।' इन उद्यमवादियो के कथानुसार 'इस जगत में केवल उद्यम ही एक मात्र कारण है, और ममार के सभी कार्य केवल उद्यम के वगवर्ती है। उनके मतानुसार, 'उद्यम को छोडकर बाकी सभी कारण निकम्मे, निरर्थक,अर्थहीन एच नपु मक है।' इस तरह अब हमने इन पात्र कारणों को अलग अलग त्प में और प्रत्येक कार्य के लिए केवल एक ही कारण को मानने वाले महागयो की युक्तियो को जान लिया। तदुपरात, एक ही कारणा को मानने वालो के अतिरिक्त ऐसे भी वर्ग है जो पांच कारणो मे मे दो दो के युग्मो को मानते हैं। कोई प्रारब्ध और पुस्पार्य के मेल को कार्य का कारण मानते हैं, तो कोई उद्यम के माय नियति को जोडने हैं, दूनरे ऐसे भी है जो प्रारब्ध, कर्म और भवितव्यता के त्रिवेणीनगम में विश्वास रखते हैं। परन्तु इस विषय में पर्याप्त जांच करके, पर्याप्त प्रमाण प्राप्त करके सभी प्राधारो तथा लक्षणो को परीक्षा करके, तथा सर्वन भगवतो के कथन को साथ लेकर जैन दार्गनिको ने इन पांचो कारणो को एक समूह मे प्रस्तुत किया है। उनका कथन है कि, "सामान्यतया, जब तक ये पांचो कारण एकत्रित नहीं होते तब तक कोई कार्य नहीं होता।" उनकी बान सर्वथा नत्य तथा भलीभांति समझने योग्य है । अब हम जैन तत्त्ववेत्ताओ का अभिप्राय अत्यंन ध्यान पूर्वक देखेंगे। पांच कारणवाद-हम पहले देख चुके हैं कि प्रत्येक वस्तु के गुणधर्म की और कार्यकारणभाव की परीक्षा करने की Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० जैन तत्त्ववेत्तानो को पद्धति अनोखी और निराली है । वे वस्तु के किसी एक अत मे एक स्वरूप मे-एकान्त मे नही मानते । उनकी दृष्टि 'अनेकान्त' है । इसलिए इस विषय मे उनका कथन है कि, 'किसी भी एक ही कारण मे सब कुछ होता है, ऐसा कहना 'एकात सूचक' है। एकात मिथ्यात्व है, और अनेकात सम्यक्त्व है।' कार्य कारण के विषय मे वे कहते है कि - "पाँच अंगुलियाँ. या दो हाथ इकट्ठे होते है तभी कार्य होता है। हाथ के विना कुछ पकडा नहीं जाता, तो पैरो के विना चला नहीं जाता। दो हाथो के विना ताली नही वजती। जिद मे आकर किसी भी एक ही वस्तु या कारण को महत्त्व देने से कोई अर्थ नहीं निकलता।" ___"हम सेनापति को युद्ध मे विजय प्राप्त करने का श्रेय तो देते है, परन्तु अकेले सेनापति से युद्ध नही जीता जाता। सेनापति का युद्ध कौशल, सेना की गक्ति, अनुशासन, हथियारो की विशिष्टता, साधन सामग्रो की विपुलता, पूर्ति की सुरक्षित व्यवस्था और आखिर में जनता का पीठवल, इन सव की आवश्यकता होती है । यह सब होते हुए भी युद्ध के उद्देश्य को धर्मपरायणता का भी इसमे महत्त्व होता है।" ___ सूत के धागे से कपडा वनता है । परन्तु उससे पहले कपास का वोना, उगना, डोडी में से रूई का निकलना, उसमे से सूत तैयार करना, और उसके बाद सूत की जात, (ततु का स्वभाव) जुलाहे का उद्यम, काल का क्रम, मिलमालिक का भाग्य, आदि सभी अगो का सहयोग होता है । अरे, इन सव बातो के बाद भी पहनने वाले का प्रारब्ध न हो तो बना Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ बनाया कपडा भी भाग या अन्य किसी कारण से-जिसे 'Act of the Government or Providence'-सुल्तानीआसमानी-कहते है-~-व्यर्थ जाता है । इसमे भी यदि भवितव्यता हो तो ही कपडा तैयार होता है । यदि भवितव्यता (नियति) का सहयोग न हो तो उसमे भी अनेक विघ्न प्रात है, काय नहीं बन पाता। जैन तत्त्ववेत्तानो ने एक बहुत सुन्दर दृष्टान्त देकर समझाया है कि ये पाँचो कारण किस प्रकार एक साथ काम करते है। "नियतिवनात् जीव लघुकर्मी वन कर निगोद से बाहर निकलना है, पुण्यकर्म से मनुष्यभव और सद्गुरु का योग आदि सामग्री प्राप्त करता है, भवस्थिति का परिपाक होने पर जीव-वीर्य उल्लसित होता है, भव्य स्वभाव होने पर वह भव्य जोव पुरुषार्थ से तथा कालबल से शिवगति प्राप्त करता है।" यही दृष्टान्त एक अन्य प्रकार से भी प्रस्तुत किया जाता है:-"भवितव्यता के कारण जीव निगोद से बाहर निकलता है, स्वभाव तथा काल के सहयोग से चरमावर्त मे आता है, चरमावर्त मे कर्म के द्वारा उसे धर्म-पुरुषार्थ के लिये आवश्यक पचेन्द्रियत्व आदि सामग्री प्राप्त होती है, और इस सामग्री से युक्त श्रात्मा अव पाँचवे कारण-पुरुषार्थ के द्वारा ही मोक्ष मार्ग की साधना करता है, उस मार्ग पर प्रयाण करता है।" यहाँ नियति अथवा भवितव्यता-रूप एक कारण द्वारा जीव का निगोद मे से बाहर आने का कार्य होता है । वहा से वाहर आने के बाद, मनुष्यभव आदि प्राप्त कराने वाला पुण्यकर्म, सो कर्म नामक दूसरा कारण है। भव स्थिति का Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ परिपाक काल नामक तीसरा कारण है। जीव का अर्ध्वगामी स्वगुण-स्वभाव चोया कारण है, आत्मा का चिपके हुए कर्म रूपी मल को धोकर सपूर्णतया कर्ममुक्त होने के लिये उसका पुरुपार्थ पाँचवाँ कारण है। ___ इस प्रकार भवितव्यता के द्वारा जीव निगोद मे से बाहर निकला, स्वभाव से वह ऊर्ध्वगामी बना, कर्म से उसे सामग्री तथा सुविधाएँ मिली, उद्यम से वह मुक्ति के मार्ग पर आगे बढा, और काल का परिपाक होने से वह आत्मा मुक्त हुग्रा । इससे स्पष्टतया समझ मे पाएगा कि आत्मा की मुक्ति के एक कार्य के बनने मे उपर्युक्त पांचो कारण एकत्रित हुए तभी कार्य बना। ऊपर 'निगोद' तथा 'चरमावर्त' दो शब्दो का प्रयोग हुआ है । उनका कुछ परिचय प्राप्त कर ले । जैन तत्त्वज्ञानियो की मान्यतानुसार अनन्त कालचक्र व्यतीत होने पर एक 'पुद्गल परावर्त काल' आता है । जीव के ससारवास का यह अतिम 'समयवर्ती भ्रमण' है। इसे 'चरमावर्त' नाम दिया गया है । निगोद मे से निकले हुए जीव को चरमावर्त मे आते सामान्यतया अनन्तकाल लगता है। इस विषय मे अधिक जानने की रुचि हो तो उसका ज्ञान तज्न (विशेपज्ञ) महानुभावो से प्राप्त करना चाहिए। दूसरा शब्द 'निगोद' है । यह बहुत उपयोगी तथा समझने योग्य शब्द है । इसे समझने-समझाने के लिये 'जीवविषयक विचारो का--जीव तत्त्व विचार का-सारा शास्त्र यहा खोल कर धरना पडे । इसके लिये ग्रन्थ को अत्यन्त विस्तृत बनाना पडे, साथ ही ऐसे करने मे विपयान्तर हो Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ जाता है। फिर भी, चूकि इस शब्द से हमारा सपर्क हुआ है, इसलिये इसकी सक्षिप्त जानकारी हमे प्राप्त कर लेनी चाहिए। 'जैन तत्वज्ञान के अनुसार एकेन्द्रिय से पचेन्द्रिय तक के जितने जीव इस संसार मे है, वे सब निगोद मे से प्राये हुए हैं | 'निगोद' अर्थात् अनन्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवो का एक शरीर ।' इस लोक मे ऐसी प्रसस्य निगोदे है । एक एक मे अनन्त जीव भरे हुए है, और ऐसी ग्रसख्य निगोदो मे अनन्तानन्त जीव विद्यमान है | 'निगोद में रहे हुए जीव अत्यल्प चैतन्ययुक्त, तथा किसी भी प्रकार की विशेष सामग्री या विशेष पुरुषार्थ की अनुकूलता से रहित 'समान कर्मी' होते है । ""जितने जीव सव कर्मों को क्षय करके इस संसार मे से मोक्ष मे जाते है, उतने जीव निगोद मे से बाहर निकलते है-संसारचक्र का यह नियम है । तीनो कालो में मोक्ष जाने वाले जीवो की सख्या से अनन्तगुने जीव एक एक निगोद मे रहे हुए है । इस कारण, मोक्ष का मार्ग सतत चालू रहते हुए भी यह ससार कभी, किसी भी समय पूर्णतया रिक्त नही होता ।' 'यद्यपि निगोद के सभी जीव अत्यल्प चैतन्य वाले तथा किसी प्रकार की विशेष सामग्री या विशेष पुरुषार्थ की सुविधा से वचित है, तो भी उनका वहाँ से बाहर निकलने का कार्य नियति या भवितव्यता का वशवर्ती है- प्रर्थात् भवितव्यता के कारण वे निगोद से बाहर निकलते हैं ।' जैन तत्त्ववेत्ताओ ने जीव विषयक जो निरूपण किया है, उसके समान सूक्ष्म विवरण अन्य किसी तत्त्वज्ञान मे नही मिलता । विशेषत निगोद के जीवो के विषय मे जैन दार्शनिको Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ने जो वाते बताई है, वे सामान्यतया अगम्य है, ऐसा बहुतो को लगता है । परन्तु अाधुनिक वैज्ञानिको ने इसका समर्थन किया है । वे भी मानते है कि समस्त अवकाग सूक्ष्म जीवो से भरा हुआ है। आधुनिक वैज्ञानिको ने ऐसी खोज की है कि 'इस ससार मे ऐसे सूक्ष्म जीव भी है जो एक लाख से अधिक संख्या मे एक सुई की नोक पर वडे मजे से, विलकुल भीड किये बिना, आराम से बैठ सकते है ।' वैज्ञानिको ने इन जीवो को 'थेक्सस' नाम दिया है । ___ इससे स्पष्ट होता है कि जैन तत्त्ववेत्तानो ने निगोद की तथा निगोद मे रहते हुए जीवो की जो बात कही है वह सत्य एव प्रमाणभूत है। 'जीव-विचार' का यह विपय अत्यन्त रसप्रद है, उसका अध्ययन करने पर विशेप विश्वास होगा। जिन्हे स्थावर, त्रस, सूक्ष्म, वादर आदि जोवो के विषय मे अधिक जानने की इच्छा हो उन्हे इस विषय का साहित्य प्राप्त कर पढना चाहिए, अथवा किसी विशेपन (तज्ज्ञ) पुरुप का सपर्क साधना चाहिए। अब हम पुन. मूल विषय पर पाते है । ऊपर दिये गये निगोद के जीव के दृष्टात पर से हमे मालूम हुआ कि पाँचो कारण एक साथ मिलकर किस प्रकार एक कार्य को पूर्ण करते है। परन्तु यह तो बहुत उच्च भूमिका की बात हुई। अब हम एक सीधा सादा, और बुद्धिगम्य दृष्टान्त लेते है।। ___'हम कपड़े की एक नयी मिल बनाना चाहते है। इसके लिए प्रारब्ध से प्राप्त लक्ष्मी (पूञ्जी) उद्यम से तैयार की हुई योजना तथा इस उद्योग के सचालन मे कुशल हो, ऐसे गुणस्वभाव वाले टेकनीशियन तथा मजदूर और उन सबका Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ सम्मिलित पुरुषार्थं या उद्यम - इस प्रकार कर्म, उद्यम तथा स्वभाव' ये तीन कारण एकत्रित होने पर कार्य का प्रारंभ होता है । फिर भी काल परिपक्व हुए बिना मिल मे से कपडा बन कर बाहर नही आता । मिल के लिये मकान बनाने मे, यन्त्र - सामग्री आदि प्राप्त कर उसे स्थापित करने मे तथा अनेक प्रकार की विधियो ( Process) को पार करके कपडा तैयार करने मे समय तो अवश्य लगता है । Capital, Planning, Construction, Erection, Administration, Execu tion, Processing, Finishing, पूँजी, नियोजन, इमारत, यत्रो की स्थापना, व्यवस्था, कार्यसचालन, विधि, अन्तिम पूर्णतायदि कितनी सारी बातो की आवश्यकता होती है ? तदुपरान्त इन सब में निपुणता होनी चाहिये । यह सब होते हुए भी, सव प्रकार की सुविधाओ के बावजूद, यदि भवितव्यता का साथ न मिले तो बना बनाया खेल विगड जाता है ।' इस प्रकार पाँचो कारगो का सहयोग जब तक नही मिलता तब तक कपास मे से कपडा, घास मे से दूध, गेहूँ मे से रोटी, धान मे से भात, गन्ने मे मे शक्कर, या खान के सुवर्ण-युक्त पत्थर मे से अलकार नही बनते । इसी प्रकार जडकार्य हो चाहे चेतनकार्य, किसी भी कार्य के पीछे पाँचो कारण अवश्य होते है । कोई भी एक कारण अकेले ही, कोई कार्य पूर्ण नही कर सकता । इतना जरूर है कि कोई भी एक कारण प्रधानत मुख्य भाग लेता हुग्रा दिखाई दे सकता है, परन्तु जब तक ये पाँचो इकट्ठे नही होते तब तक कोई कार्य सिद्ध नही हो सकता । यहाँ एक बात भलीभाँति Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ध्यान में रखनी चाहिए कि अवस्था या प्रसग के अनुसार किसी भी एक कारण को प्रधानता मिलती है। ___ दूध मे जामन डालने से दही बन गया, इसमे जामन डालने का उद्यम मुख्य कारण हुा । परन्तु अकेले उद्यममात्र से दूध का दही बन गया, ऐसा कोई नही मानता। यदि ऐसा ही होता तो दही कभी न विगडता । इसी तरह हर एक कार्य के विषय मे समझिये। जैन तत्त्वज्ञानी अनेकातवाद की दृष्टि अपना कर कहते है कि, व्यवहारप्ट्या , जब जिस कारण को आगे करने से उद्यम को पोपण और चित्त को समाधान मिले, तब उस कारण को आगे करना—यह अनेकातवाद का यथार्थ उपयोग है । परन्तु किसी भी एक ही कारण को पकड कर बैठ जाना, दूसरे किमी भी कारण की उपयोगिता स्वीकार करने से इन्कार करना, अजान का सूचक है, मिथ्यात्व है, दुराग्रह है, राग द्वेप की वृत्ति को पोपनेवाला है और एकान्तवाद है । इसी तरह एकातवाद अज्ञान है, मिथ्यात्व है,दुराग्रह है और रागद्वेष की वृत्ति को पोपने वाला है। जिस कारण को आगे करने से आलस्य या चित्त के असमाधान का पोषण हो उस कारण को आगे करना भी मिथ्यात्व-एकान्तवाद है। अनेकातवाद 'सम्यक्त्व' है, 'ज्ञान' है, वह निराग्रहिता, तथा समता को पुष्ट करता है। यही जीवन का एक सच्चा मार्ग है । यह बात अनुभवसिद्ध है । ऊपर बताये हुए पाँचो कारणो का यह 'पच कारणवाद' अनेकातवाद का ही एक प्रग है। पाँच कारणो के विषय में अलग अलग कारणवादियो की Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ जो भिन्न भिन्न युक्तियाँ हैं, उनके विरोध में, तथा पचकारगवाद के पक्ष मे बहुत विस्तार से कहा या लिखा जा सकता है । परन्तु पाठको की विवेकबुद्धि तथा ग्रहरणशक्ति के प्रति पूर्णतया श्रादर एव विश्वास रखते हुए हमने यहाँ इतनी सक्षिप्त विवेचना ही की है। अव हम 'मात नय, प्रमारण तथा निक्षेप के विषय मे विचार करने के लिये आगे बढ़ेगे । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयविचार - प्रमाण और निक्षेप नय के विषय मे विचार करने के पहले 'नय' शब्द का अर्थ हम अच्छी तरह समझ ले । यह जैन तत्त्वज्ञान का एक पारिभाषिक शब्द है । इसका सामान्य अर्थ 'ज्ञान' होता है । परन्तु यहाँ यह 'ज्ञान' अपने विशाल अर्थ में प्रयुक्त नही हुआ है, सीमित अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । किसी भी वस्तु को समझने के लिये किसी न किसी प्रकार के ज्ञान की आवश्यकता होती है । स्कूलो मे भिन्न भिन्न विषय पढाये जाते है, उनमे से प्रत्येक किसी एक ज्ञान का विषय होता है । जैन तत्त्ववेत्ताओ ने 'नय' शब्द की एक व्याख्या दी है । वे कहते है - " जो किसी भी वस्तु का एक गुरण, धर्म या स्वरूप समभाता है वह 'नय' है । " पहले हम देख चुके है कि वस्तु के अनेक गुणधर्म होते है । जैन शास्त्रकारो ने वस्तु के सब भिन्न भिन्न गुणो को अलग अलग रीति से समझने के लिए सात अलग २ 'नय' वताये है । इसलिये जब हम यहाँ नय की बात करते है तब 'सात नय' का उल्लेख करते है, ऐसा समझना चाहिए । इसका विशेष अर्थ यह हुआ कि एक ही वस्तु के सात भिन्न-भिन्न स्वरूपो Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ को, गुणो को या धर्मों को जानने पहचानने के लिये सात अलग अलग नयो का उपयोग किया गया है 1 'नय' के दो उपयोग है - एक 'ज्ञानात्मक' कहलाता है, जो खुद के समझने के लिये होता है, दूसरा 'वचनात्मक' अर्थात् दूसरो को समझाने के लिये । 1 'नय' को हम 'स्यादवाद' को समझने का व्याकरण कह सकते है । प्रत्येक भाषा का अपना अपना व्याकरण होता है । यदि संस्कृत भाषा अच्छी तरह सीखनी हो तो सबसे पहले उसके व्याकरण का अध्ययन करना पडता है । जव एक बार व्याकरण का ज्ञान अच्छी तरह हो जाता है तब इस महान् वाडमय को समझने-समझाने मे हमे कोई कठिनाई नही होती । इसी प्रकार अनेकातवाद - तत्त्वज्ञान को भली भांति समझने की जिस स्यादवादपद्धति का हमने उल्लेख किया है, उस पद्धति को समझने का यह एक व्याकरण है, ऐसा कहना अत्युक्ति न होगा । यदि हम इसे समस्त अनेकान्तवाद को समभने का व्याकरण माने तो भी अनुचित नही है । । स्यादवाद के साथ 'नय' रूपी व्याकरण का सम्वन्ध हम पहले समझ ले । आालकारिक भाषा मे, उपमा देकर यदि यह वात समझानी हो तो हम कहेंगे कि 'नय' 'नदी' की तरह है, और 'स्यादवाद' 'समुद्र' की तरह जिस प्रकार सब नदियाँ समुद्र मेजा मिलती हैं, उसी तरह सभी नय स्यादवाद रूपी महासागर मे मिल जाते है । स्यादवाद का पूर्ण दर्शन हम नय के द्वारा कर सकते है । इसीलिये जैन आगमो को 'स्यादवाद - श्रुतमय' माना गया है । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ये सात नय जो हैं वे सब प्रत्येक वस्तु के लिये अपना अपना अभिप्राय रखते है। इन सातो के अभिप्राय एक दूसरे से भिन्न होते हुए भी ये सभी नय एकत्र मिल कर स्याद्वादश्रुत रूपी आगम की सेवा करते है। इस बात को अच्छी तरह समझने के लिये हम किसी राज्य के प्राय और व्यय के दो विभागो का उदाहरण लेते हैं। ___ आय विभाग केवल आमदनी करता है । व्यय विभाग केवल खर्च करता है। ये दोनो विभाग परस्पर विरोधी गुणधर्म वाले होते हुए भी, साथ मिलकर राज्य की सेवा ही करते हैं। " किसी बैंक मे जाइये । वहाँ रुपये लेने वाला कोपाध्यक्ष (Receiving Cashier) और रुपये देने वाला कोपाध्यक्ष (Paying Cashier)एक दूसरे से विलकुल विपरीत कार्य करते है, फिर भी दोनो व्यक्ति वैक की सेवा ही करते है। ___इसी अर्थ मे-ये सातो नय परस्पर विरोधी अभिप्राय रखते हुए भी, साथ मिलकर स्यावाद तत्त्वज्ञान की सेवा ही करते है । एक ही राज्य के भिन्न स्वभाव वाले तथा एक दूसरे का विरोध करने वाले सेवक उस राज्य की सेवा करते है, उसी तरह ये सातो नय समग्र रूप से स्यावाद के सेवक ही है । स्यावाद और नय के बीच का सवध हमने सिधु और विदु जैसा कहा है । विदु समुद्र नहीं है, तो समुद्र से भिन्न भी नहीं है । वह समुद्र का एक अश है । इसी तरह नय स्याद्वाद से भिन्न नही है, स्याद्वाद-रूप भी नहीं है, स्यावाद का एक अग है। हम ऊपर कह चुके है कि नय वस्तु के अमुक स्वरूप या गुण, धर्म का ज्ञान देते है। तो अब ज्ञान प्राप्त करने की पद्धति Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ का भी विचार कर लेना चाहिए । इसके लिए जैन तत्वज्ञानियो का एक वाक्य हम यहाँ उद्धृत करते है। ' प्रमाणनयैरधिगम ।' इस वाक्य का अर्थ है, किमी भी वस्तु का ज्ञान दो प्रकार से होता है एक तो प्रमारग से, दूसरा नय से । इस वाक्य मे प्रमाण और नय अलग-अलग बताये गये हैं, परन्तु 'नय' का विषय 'प्रमाण' का भी विषय है । शास्त्रकारो ने नय को प्रमाण का एक अंग माना है । प्रमाण में भी यह ग्रागाम अथवा श्रुत ( शास्त्र ) प्रमाण का है | यहाँ चूँकि हम प्रमाण को वान बीच मे करने लगे है, तो प्रमाण को भी ठीक तरह समझ ले । प्रमाण का अर्थ हैं 'सवत' ( Proof) । जिसके द्वारा वस्तु नि सन्देह, ठीक-ठीक जानी जा सके और समझ मे आावे, उमे प्रमारग कहते है | 'मति, श्रुत, अवधि, मन पर्यव और केवल - इस प्रकार जैन तत्त्ववेत्ताओ ने जो पांच ज्ञान कहे है उन्हें - ज्ञान स्वय एक प्रमाण होने के कारण - प्रमाण के तौर पर भी माना है । पाँच ज्ञान विषयक एक स्वतन्त्र प्रकरण श्राने वाला है, इसलिए यहा उनका केवल उल्लेख करके हम ग्रागे वढते हैं । न्यायदर्शन मे चार प्रमाण बनाये गये हैं । इनमे दो प्रमाण मुख्य हैं, 'प्रत्यक्ष और परोक्ष' । परोक्ष प्रमाण के तीन विभाग बताये गये है । 'प्रत्यक्ष' तथा 'परोक्ष' शब्दो का अर्थ तो शीघ्र समझ में ग्राने जैसा सर्व सामान्य है । परोक्ष प्रमाण मे - ( १ ) अनुमान ( २ ) उपमान ( ३ ) श्रागम ( श्रुत) ये तीन Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाग है । इन सब को क्रमश निम्नानुसार प्रस्तुत किया जाता है - (१) प्रत्यक्ष प्रमाण । (२) अनुमान प्रमाण। (३) उपमान प्रमाण। (४) आगम (शास्त्र) प्रमाण । अब हम इन चारो प्रमारणो को क्रमश समझने का प्रयत्न करेगे। प्रत्यक्ष प्रमाण -आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा-ये हमारी पाँच इन्द्रियाँ हैं । इन पांच इन्द्रियो तथा मन के द्वारा हमे वस्तु का बोध होता है, वस्तु को हम समझ सकते है। इसे प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं। उदाहरणार्थ, यदि हमारे हाथ में एक फूल आवे तो उसके रूप, गध, रग, आकार ग्रादि का हमे जो ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष प्रमाण है । वह फूल हमारे हाथ मे न भी हो, हम उसे देख न सके, ऐसे कही नजदीक रखा हो, तो भी हम उसकी गध का अनुभव कर सकते है। इस प्रकार नाक से गध का जो ज्ञान होता है वह भी प्रत्यक्ष प्रमाण है। यहाँ, हमारी इन्द्रियो के साथ वस्तुओ का जो सयोग होता है उसे हम प्रत्यक्ष अनुभव कहते है। जीभ के साथ स्वाद का, नाक के साथ गध का, कान के साथ आवाज का जब सवध होता है, तब प्रत्येक वार हमे उसका ज्ञान होता है। ___ इन्द्रियो और मन के द्वारा हमे जो ज्ञान होता है उसे जैन दार्शनिको ने 'साव्यवहारिक प्रत्यक्ष' नाम दिया है । इसके भी चार भेद है । इन चार भेदो के लिये जैन दर्शन मे चार पारि Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ भाषिक शब्द है-अवग्रह, ईहा, अपाय, और धारणा । इन्हे हम अस्पष्ट भास, ईषत् दर्शन, निर्णय और स्मरणाकन भी कह सकते है। दूर से कोई वस्तु दिखाई दे और हमे ऐसा लगे कि कुछ है, यह (अवग्रह) अस्पष्ट भास है। नजदीक आने पर हमे समझ मे आने लगता है कि वह क्या है ? यह (ईहा) ईषत् दर्शन है। समझ में आने पर वह 'अमुक ही' है ऐसा निश्चित होना (अपाय) निर्णय है । वाद मे हमारे मन-प्रदेश मे उसका इस प्रकार अकित हो जाना कि कभी भी वह हमे याद आ सके, (धारणा) स्मरणाकन है। उदाहरणार्थ-मान लीजिए कि दूर से कोई मनुष्य जैसी आकृति दिखाई देती है-यह अस्पष्ट भास या 'अवग्रह' है। नज़दीक आने पर मालूम होने लगता है कि वह पुरुप है यह ईषत् दर्शन अथवा 'ईहा' है । इसके बाद 'वह पुरुष ही है, स्त्री नही है' ऐसा निश्चय होना निर्णय अथवा 'अपाय' है। और बाद मे हमे वह पुरुष फिर कभी मिले तब हम उसे पहचान सके, इस प्रकार से हमारे मन प्रदेश मे भकित हो जाना स्मरण अथवा 'धारणा' है । यहाँ एक बात ध्यान मे रखनी चाहिए कि साव्यवहारिक प्रत्यक्ष के अन्तर्गत धारणा नामक भेद के अनुसार वर्तमान मे देखे हुए पुरुष का चित्र हमारे मन मे अकित हो जाता है तब तक वह प्रत्यक्ष प्रमाण का भेद है। परन्तु भविष्य मे जब हम उसे देखने पर स्मरण से पहचान लेते है, उस समय उस प्रकार पहचानना परोक्ष प्रमारण के अन्तर्गत है। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ अनुमान प्रमाण -लिंग से लिंगी का जो ज्ञान होता है, अर्थात् किसो एक वस्तु के द्वारा दूसरी वस्तु का जो ज्ञान होता है वह अनुमान प्रमाण है। उदाहरणार्थ-विशेप प्रकार की बास ग्राने पर हम जो निर्णय करते है कि कुछ जल रहा है वह 'अनुमान प्रमाण' है । यदि हमारी आँखो से दूर ग्रामपास मे कही कपडा जलता हो तो हमे विशेप प्रकार की वास आती है, सबका ऐसा अनुभव है । इस वाम पर से 'कुछ जल रहा है' ऐसा निर्णय जो किया गया, उसमे 'अनुमान' काम कर रहा है । जब हमे अपने पडौस के घर मे से या दूर से धुआँ निकलता दिखाई देता है, तो उससे हम ऐसा निर्णय जो कर लेते है कि वहाँ आग होनी चाहिए, सो अनुमान प्रमाण के द्वारा ही होता है । दूर-दूर कही याग की लपटे देख कर हम समझ जाते है कि वहाँ आग लगी होगी। जब हम प्राग बुझाने वाले बम्बे को घटा वजाते वजाते तेजी से जाते हुए देखते है तब भी हम मान लेते हैं कि किसी स्थान पर प्राग लगी है। ' दूर से शहनाई या बैड की आवाज़ सुनकर भी हम सोचते है कि कोई उत्सव है । यह सव अनुमान प्रमाण माना जाता है। यह अनुमान प्रमाण दूर की किसी भी वस्तु या विपय के सवन्ध मे निर्णय करने मे हमारी सहायता करता है । 'दूर' के दो प्रकार है, एक 'काल की दृष्टि से दूर' अर्थात् भूतकाल या भविष्य काल से सम्बन्धित पीर दूसरा क्षेत्र की दृष्टि से दूर' अर्थात् हमारे स्थान से दूर ।। इसी प्रकार मूक्ष्म वस्तु का ज्ञान भी अनुमान प्रमाण से हो सकता है। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ उपमान प्रमाण - साहश्य ज्ञान के द्वारा जो ज्ञान होता है उसे 'उपमान प्रमाण' कहते है । उदाहरणार्थ- हमारे यहाँ एक मेहमान आते है । वे हमारे आँगन मे एक गाय बधी हुई देखते है | गाय को देखकर वे सज्जन कहते है कि 'हमारे प्रदेश मे भी ठीक गाय जैसा ही एक जानवर होता है, जिसे नीलगाय ( रोझ) कहते है । इसके बाद कभी उक्त सज्जन के प्रदेश मे जाने का प्रसग श्राने पर हम वहाँ ऐसा एक प्राणी देखते है जो गाय नही परन्तु गाय का जैसा है । उक्त महाशय की कही हुई बात उस समय हमे याद आती है कि 'गाय के समान रोझ होता है' (गौरिव गवय ) । इस पर से हम निर्णय कर लेते है कि 'यह प्राणी रोझ (नील गाय ) है ।' यह उपमान प्रमारण का उदाहरण हुआ । आगम प्रमाण - प्राप्त ( श्रद्धा रखने योग्य श्रद्ध ेय तथा प्रामाणिक ) पुरुषो के वचन, कथन या लेखन से हमे जो बोध (ज्ञान) होता है वह श्रागम प्रमाण कहलाता है । सामान्यतः शब्दो के आधार पर जो ज्ञान होता है उसे श्रुत प्रमाण कहते हैं । श्रागम को श्रुत का एक अंग माना गया है । ग्रागम प्रमाण मे हमे श्रद्धा का उपयोग भी करना पडता है । शास्त्रो मे जो जो बाते दर्शायी गई है, उनको स्वीकार हम करते है, सो शास्त्रप्रमाण के द्वारा ही करते है । आगमो ( शास्त्रो) के विषय मे एक महत्त्व की बात यह है कि, प्रत्यक्ष तथा अनुमान आदि प्रमाणो के विरुद्ध उनमे कुछ नही होता, और उनमें लिखित वचन आत्मविकास Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर एव उसके मार्ग पर प्रकाश डालने वाले तथा शुद्ध तत्त्व के प्रतिपादक होते है। ___ जैन तत्त्वज्ञानियो ने आगम प्रमाण को सिद्ध प्रमाण माना है, क्योकि जिन्होने यह ज्ञान दिया है वे वीतराग सर्वज्ञ भगवान् थे। उन्होने पूर्णज्ञान-केवलज्ञान-प्राप्त करने के बाद ही यह जान दिया है, और उन्होने दिया है, यही एक बडा प्रमाण है। राग, द्वेष और अज्ञान-ये असत्य के सभाव्य कारण हैं । इनके दूर हो जाने के बाद असत्य बोलने की गुजाइश-सभावना ही नही रहती । अत जो वीतराग एव सर्वज्ञ थे उन्होने जो कुछ भी कहा है वह जगत् के हित के एक मात्र उद्देश्य मे ही कहा है। शायद कोई ऐसा प्रश्न पूछेगा कि वे सर्वज ही थे इसका क्या निश्चय है ? और इसका भी क्या निश्चय है कि उन्होने जो कुछ कहा सो सब सच ही है ? जिनकी बुद्धि का पर्याप्त विकास हुआ हो उन लोगो के लिये अपनी बुद्धि के उपयोग से वीतराग भगवान के कथन की यथार्थता समझना कठिन नही है। फिर भी, यह मुख्यत तो श्रद्धा का विपय है । हम जीवन के छोटे बडे सभी कार्यों में अधिकाशत श्रद्धा पर चलते है। हमें अपने माता पिता के द्वारा उनके माता पिता या दादा दादी के विषय मे जो जानकारी मिलती है उस पर हम अविश्वास नही करते । उन बातो को हम श्रद्धापूर्वक सच मान लेते है । इस तरह श्रद्धा रखने से हम ठगे नही जाते । तो जिन सर्वज्ञ भगवतो ने अनेकान्तवाद जैसे अद्भुत तथा अप्रतिम तत्त्वज्ञान का वोध दिया है, और जिनके कहे हुए वहुत से वचनो को आधुनिक Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १५७ वैज्ञानिको ने प्रयोगशालाओ मे जाँच कर सिद्ध कर दिखाया है, उनके दर्शाये हुए आगमो (शास्त्रो)पर अश्रद्धा रखने का कोई उचित कारण हमारे पास नहीं है। __ चारो प्रमाणो के विषय मे साधारण जानकारी देने का कार्य पूर्ण करके आगे बढने से पहले इतना याद रखना जरूरी है कि इन चार में से प्रथम प्रमाण-प्रत्यक्ष प्रमाणहमे इन्द्रियो तथा मन के द्वारा बोध कराता है, जब कि बाकी तीन-दूसरा, तीसरा और चौथा-परोक्ष प्रमारण केवल मन तथा अन्य माध्यम के द्वारा ही हमे यथार्थ बोध देते है। ऊपर तीन प्रकार के परोक्ष प्रमाण बताये गये है। इन तीन के बदले उसके पांच भेद भी किये जाते है । उन्हे स्मरण प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान, और आगम कहते है । यहाँ हम उनके विवरण मे नही उतरेगे, परन्तु जिन्हे इस विषय में दिलचस्पी हो उन्हे तज्ज्ञ (विशेषज्ञ) पुरुषो का सम्पर्क साधना चाहिए। ___-पुन नयविषयक विचारधारा पर आते समय अव हमे यह बात याद रहेगी कि नय ऊपर बताये गये प्रमाणो के विषय के अश को ग्रहण करते है। जैसा कि पहले निर्देश किया जा चुका है, नय व्याकरण के समान है। यदि सपूर्ण स्याद्वाद को कोई अनेकातवाद के व्याकरण की उपमा दे तो सात नय 'विभक्ति' की उपमा पा सकते है । हम नय को किसी भी नाम से पुकारे, यह बात अच्छी तरह समझ रखनी चाहिए कि 'नय' बडा महत्त्व का विषय है। यहाँ पर 'नय' का जो थोडा सा विवेचन हुआ है, उसे देखकर शायद किसी के मन मे यह शका उत्पन्न हो कि प्रत्येक Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ नय वस्तु के एक ही स्वरूप की बात करता है, तो फिर उसे एकान्त या मिथ्याज्ञान क्यो नही कहा जा सकता ? इस प्रश्न का साधारण समाधान तो पहले दिया हो गया है । फिर भी, इस प्रश्न का ठीक उत्तर प्राप्त करके और विषय को समझ कर आगे बढे तो बाद मे चलकर किसी शका या कुतर्क को स्थान नही रहेगा । एकान्त कब कहा जा सकता है ? किसी एक व्रत से निर्णय करके, वस्तु के दूसरे स्वरूपो को स्वीकार करने से ही इन्कार कर दिया जाय तभी वह एकात अथवा मिथ्याज्ञान बनता है । नय के सम्बन्ध मे ऐसा नही है । जब कि एक नय वस्तु के एक ही स्वरूप को ग्रहण करता है तव दूसरे नय के अनुसार बताये गये दूसरे स्वरूपो का इनकार नही करता । दूसरे नयो के द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली बात, वस्तु का दूसरा स्वरूप - उसके प्रथम स्वरूप का विरोधी हो तो भी दूसरे नय के अनुसार उम दूसरे स्वरूप को तथ्यरूप में मानने का वह विरोध नही करता । जैसे कि 'संग्रह' नय के वोध के अनुसार वस्तु का स्वरूप 'अमुक' है ऐसा कहा जाता है तो उससे, 'नैगम' नय के अनुसार वस्तु का जो गुण धर्म कहा जाता है उसका विरोध या प्रस्वीकार नही किया जाता । इसके विपरीत सातो नय वस्तु के जो भिन्न भिन्न स्वरूप बताते है, वे प्रत्येक नय मे, गौरणतया ग्रपने अपने रूप मे स्वीकृत ही है । प्रतएव नयज्ञान मिथ्या सावित नही होता । दूसरी खास याद रखने की बात यह है कि, ये सब नय 'स्यादवाद के एक ग्रग या अवयव के समान होने के कारण स्यादवाद में रहे हुए 'स्यात्' शब्द की छत्रछाया मे ही कार्य Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ करते है ।' 'स्यात्' शब्द का प्रयोजन, नयो की सापेक्षता सूचित करने के लिये भी है । परस्पर विरोधी गुणधर्मों का एक ही वस्तु मे स्वीकार करने, श्रौर ऐसा करके उस स्वीकार को उचित एव मत्य सिद्ध करने के लिये ही 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया गया है । यह पहले ही समझा जा चुका है कि 'स्यादवाद' सिद्धान्त की आवश्यकता तथा विशिष्टता इसी कारण है । नय की चर्चा करते हुए प्रमाण विषयक सामान्य जानकारी हमे मिल गई है । इसी प्रकार इस विवेचना को आगे बढाने से पहले दूसरी एक बात को समझ लेना उचित होगा । यह बात नय को समझने में 'प्रमाण' की पेक्षा अधिक उपयोगी है । हम यागे देख चुके हैं कि प्रत्येक वस्तु सामान्य एव विशेष— यो उभय रूप मे होती है। इसका यह अर्थ हुआ कि, जब हम किसी भी एक वस्तु की बात करते है, तब सामान्य अर्थ में उस वस्तु की बात करते है, या विशेष अर्थ मे, इस पर ध्यान देना और दिलाना श्रावश्यक है । यदि वस्तु के सामान्य अथवा विशेष अर्थ का खयाल किये विना कुछ कहा जाय तो ग्रर्थ का अनर्थ हो जाना बहुत सभव है । उदाहरण के तौर पर किमी मार्ग पर चलते हुए हमे एक अपरिचित सज्जन मिल जाते है और बताते है कि, "आगे दाहिनी ओर का रास्ता बन्द है ।" वह एक सामान्य अर्थ है । 'मरम्मत चालू होने के कारण वाहनो का ग्राना जाना बन्द है ।' ऐसा विशेष अर्थसूचक वाक्य प्रयुक्त न किया जाय तो सभवत हम लौट जाएंगे, और इस कारण हमारा कार्य विगडेगा या उनमें विलम्ब होगा | Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० एक दूसरा उदाहरण लीजिये । एलोपैथिक दवाइयों की बहुत सी शीशियों के लेबल पर ' Poison' 'जहर' छपा हुआ होता है । सामान्य अर्थ मे 'जहर' शब्द का अर्थ 'प्राणघातक पदार्थ' होता है । हमे डाक्टर ने 'सिवाजोल' नामक दवाई लाकर ग्रमुक ढग मे उसका उपयोग करने की सूचना दी। उसके बाद हम दवाई वाले के यहाँ यह दवाई लेने जायं, और उसके ऊपर 'पोइजन' शब्द पढ कर ही यदि लोट ग्रायें तो अर्थ का अनर्थ होगा या नही ? इससे सवधित एक मनोरंजक प्रसग इस लेखक को याद है -- एक सन्तानहीन धनवान् सज्जन का भतीजा डाक्टर वना । डाक्टर के चाचा को (उक्त धनवान् सज्जन को ) हृदय का कोई रोग था । डाक्टर ने अपने पास नमूने (Sample) के तौर पर मुफ्त आई हुई Neocor 'नियोकोर' नामक दवा की गोलियो की एक शीशी अपने चाचा को दी, जिससे चाचा को पैसे खर्च न करने पडे । उन्हे यह सूचना दी कि, "जब सीने मे दर्द हो तब इसमे से एक गोली पानी के साथ लेना ।" चाचा अग्रेजी दूसरी कक्षा तक पढे थे, और आयुर्वेदिक दवाइयो मे श्रद्धा रखते थे । विलायती दवाई लेने का उनका यह पहला प्रसंग था । शीशी पर छपा हुआ 'पोइजन' शब्द पढकर वे रोने लगे । किसी तरह चुप ही न होते थे । फिर अपने एक विश्वस्त मित्र से एकान्त मे मिल कर उन्होने कारण स्पष्ट किया - "जगजीवन भाई, देखा आपने? मैने इस बाबू को अपने खर्च से पढा कर डाक्टर बनाया । अव इसके मन मे यह पाप पैदा हुआ है कि जल्दी से मेरी सारी दौलत इसके हाथ मे आ जाय । इसलिये मुझे जहर देकर मारना चाहता है ।" 1 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ यह सुनकर पहले तो जगजीवन भाई चौके, परन्तु जब उन्हें मारी बात का पता चला तो हम पडे । चाचा ने समझे विना, कैने अर्थ का अनर्थ कर दिया था । जब उन्होने चाचा को यह बात समझाई तब उनके (चाचा के) चित्त को शान्ति मिली। इस प्रकार, वस्तु श्रीर शब्द के सामान्य तथा विशेष अर्थ का ग्रच्छी तरह ज्ञान न हो तो बहुत से विषयो में और याग तौर पर तत्त्वज्ञान सम्वन्धी उच्च भूमिका के विषय में ' अर्थ का अनर्थ होने की संभावना होती ही है । पुन मूल विषय पर याते हुए अब इस बात पर अपना ध्यान आकर्षित करे कि जैसा कि पहले परिचय के प्रकरण में बताया गया है, शास्त्रकारो ने सात नयो को दो भागो मे विभक्त किया है। (१) द्रव्याथिक यहाँ ' द्रव्य' शब्द का अर्थ 'सामान्य' (General) समझना चाहिए । जब हम 'मनुष्य' या 'जानवर' शब्द का प्रयोग करते हैं, तब उनमें से 'मव मनुप्यो जैना यह भी एक मनुष्य,' या 'सव जानवरो जैसा कोई जानवर' ऐसा सामान्य अर्थ निकलेगा । उसी तरह प्रत्येक वस्तु मे 'सामान्य 'भी होता है । 'नैगम' 'मग्रह' और 'व्यवहार' — ये तीन नय वस्तु के सामान्य अर्थ का अनुसरण करते है, तथा सामान्य अर्थ का बोध कराते है । यहाँ फिर यह खास याद रखना रहा कि यह सामान्य अर्थ भी भिन्न भिन्न और परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाला हो सकता है । - (२) पर्यायाथिक – यहाँ 'पर्याय' शब्द का अर्थ 'विशेष' किया गया है । द्रव्य को हम किसी वस्तु ( Substance) के तौर पर पहचानते है और 'पर्याय' को उस वस्तु की भिन्न Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ भिन्न वस्था (Different forms or appearances of the substance) के तौर पर जानते हैं । जब मूल द्रव्य मे हम किसी अवस्थाभेद की कल्पना करते है तब उसमे विशेष ( खास ) अर्थ निकलता है । उदाहरणार्थ - मनुष्य के तौर पर मनुष्य 'सामान्य' है, परन्तु यही मनुष्य जब किसी सभा मे व्याख्यान देता हो तव वह 'वक्ता' इस विशेष अर्थ मे प्रस्तुत होता है । ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ तथा एवभूतये चार नय, इस तरह पर्यायार्थिक ग्रर्थात् वस्तु का विशेष रूप में परिचय कराने वाले है । फिर ये विशेष स्वरूप भी, भिन्न भिन्न और परस्पर विरोधी हो सकते है, यह ध्यान मे रखना चाहिये । इस दृष्टि से, प्रथम तीन नय, नैगम, सग्रह और व्यवहार, सामान्यार्थिक नय कहलाते है, ग्रन्तिम चार नय-ऋजुसूत्र शब्द, ममभिस्ट और एवभूत विशेपार्थिक नय कहलाते है । उनके लिये पारिभाषिक शब्द ऊपर बताये है सो क्रमश द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक है । इसमे एक और समझने योग्य महत्त्व की बात है । पहले हम द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव- इस अपेक्षाचतुष्टय की, (चार श्राधारो की ) बात कर चुके हैं। इसी तरह यहाँ नय का विचार करते समय चार शब्दो वाली एक और बात हमे समझ लेने की ग्रावश्यकता है । - इसे 'निक्षेप' नाम से पुकारा जाता है । निक्षेप भी चार है, जिनके नाम निम्नानुसार हे (१) नाम निक्षेप (२) स्थापना निक्षेप Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) द्रव्य निक्षेप (४) भाव निक्षेप 'निक्षेप' एक पारिभाषिक शब्द होने के कारण हमे इसे अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। निक्षेप अर्थात् विभाग। किसी भी वस्तु के चार विभाग होते है, एक तो 'सज्ञा' अथवा नाम दूसरा'प्राकृति' तीसरा 'दल' और चौथा 'भाव' अर्थात् गुण धर्म तथा प्राचार। इन चारो मे से किसी एक का सम्बन्ध किसी वस्तु के साथ जोडना 'निक्षेप करना' कहलाता है। किसी भी शब्द मे जव अमुक अर्थ का सम्बन्ध जोडा जाता है तब, अथवा किसी अर्थ मे जब अमुक शब्द का सवन्ध जोडा जाता है तव जैन तत्ववेता उसे 'निक्षेप'कहते है। हम किसी भी पदार्थ को कोई नाम देते है, उसे पहचानने की कोई सज्ञा निश्चित करते है, फिर मूल शब्द के साथ उसका जो सम्बन्ध जोडते है उसे 'नाम निक्षेप करना' कहते है। अग्रेजी मे इसे 'Named Substance' कहते है। हम इसे अपनी भापा मे 'नामाभिधान' अथवा 'नामकरण' भी कह सकते है। 'निक्षेप'को 'शब्द का अर्थकरण' भी कह सकते है। इसमे खूबी यह है कि किसी शब्द के चाहे कितने ही अर्थ किये जायें, कम-से-कम उपर्युक्त चार निक्षेपो-नाम, स्थापना, द्रव्य तथा भाव के द्वारा उसका अर्थ अवश्य निकाला या समझा जा सकता है। यो तो निक्षेप केवल तीन अक्षरो का पारिभापिक शब्द है । यदि इसका ऊपर बताया हुआ अर्थ हम अच्छी तरह समझ ले तो हम इसके लिये विस्तृत शब्दावलि का प्रयोग करने Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ के बदले केवल 'निक्षेप' शब्द का ही प्रयोग करेंगे तो भी समझने में कठिनाई नही होगी। अब हम इन चार निक्षपो का क्रमश. परिचय प्राप्त करेंगे। नामनिक्षेपः-व्यवहार चलाने के लिए, अपनी समझ को स्पष्ट और नियत्रित करने के लिये, किसी भी वस्तु की पहचान के हेतु हम उसकी कोई सज्ञा या नाम निश्चित करते है। इसे 'नामनिक्षेप' कहा जाता है। उदाहरणार्थ किसी पूनमचन्द के पाँच पुत्रो की पहचान के लिए प्रत्येक का अलग अलग नाम रखा जाता है, वह 'नामनिक्षेप' कहलाता है । इस 'निक्षेप'का सम्बन्ध वस्तु के नाम के साथ ही है, इस नाम के किसी अर्थ या भाव के साथ नही । जिस वस्तु, पदार्थ या व्यक्ति का उसमे रहे हुए किसी खास अर्थ, भाव या गुण के कारण कोई विशिष्ट नाम रखा गया हो तो वह अर्य 'नामनिक्षेप' के अन्तर्गत नही पाता। परन्तु यो समझना चाहिए कि व्यक्ति को पहचानने के लिये उसका जो नाम रखा जाय वह नाम और व्यक्ति स्वय 'नामनिक्षेप' है । उदाहरणत हनुमानजी का दूसरा नाम 'वजरग वली' है । यह दूसरा नाम हनुमानजी के विशिष्ट गुणो के कारण, विशेपण की तरह, प्रयुक्त होता है। यह नाम एक भाव सूचित करता है, इसलिये यद्यपि नाम 'नामनिक्षेप' के अन्तर्गत है, किन्तु हनुमानजी स्वय वहाँ 'नामनिक्षेप' मे नही आते । स्थापनानिक्षेप - किसी एक वस्तु मे जब हम दूसरी वस्तु की स्थापना करके, उस स्थाप्य वस्तु के नाम से पुकारे तव वहाँ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ 'स्थापना निक्षेप' होता है । इसके दो भेद है - तदाकार स्थापना और अतदाकार स्थापना | किसी देव या व्यक्ति की मूर्ति बनाकर हम उसे उस देव या व्यक्ति का नाम देते हैं । यहाँ वस्तु पत्थर होते हुए भी, उसका उस देव या व्यक्ति के समान आकार बना कर, हम उसमे देव या व्यक्ति का श्रारोपण करते है | यह हुई 'तदाकार स्थापना' - ग्राकार बताने वाली स्थापना । दूसरी ओर हम शतरज के खेल मे लकडी या प्लास्टिक के मोहरे वना कर उन्हे राजा, वजीर, हाथी, घोडा, आदि नाम देते है | यहाँ उन नामो का हमने लकडी में प्रारोपण किया इसलिए ' स्थापना निक्षेप' किया, परन्तु उन मोहरो मे राजा, वजीर, हाथी, घोडा - आदि का ग्राकार नही होता । इसलिए इसे 'अतदाकार स्थापना' - आकार न होते हुए भी अमुक ग्राकार वाले नामो का श्रारोपण - कहते है । नाटक या सिनेमा के पात्र, चित्र, फोटोग्राफ, मूर्ति आदि मे मूल व्यक्ति की जो स्थापना होती है उसे ' तदाकार स्थापना निक्षेप' कहते है | स्मारक शिला, समाधि, ताश के पत्ते, शतरज के मोहरे, इत्यादि मे प्राकृति न होते हुए भी हम व्यक्ति की स्थापना करते है, वह 'प्रतदाकार स्थापना' कहलाती है । इस प्रकार हमे यह समझना चाहिए कि जब हम विशेष नाम द्वारा निश्चित को हुई किसी वस्तु या व्यक्ति की स्थापनाआरोपण अन्य किसी वस्तु या व्यक्ति मे करते है तब ' स्थापना निक्षेप' माना जाता है । प्रथम 'नाम निक्षेप' -'नाम और व्यक्ति' दोनो नाम Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ निक्षेप के अन्तर्गत है, उसी तरह यहाँ स्थापनानिक्षेप मे - 'प्राकृति और व्यक्ति' दोनो स्थापना निक्षेप के अन्तर्गत है । द्रव्य निक्षेप भूतकाल तथा भविष्यकाल से सम्बन्धित विवक्षित वस्तु या व्यक्ति के मूल स्वरूप का उस नाम से वर्तमान काल मे उल्लेख करना 'द्रव्य निक्षेप' कहलाता है । उदाहरणत भारतवर्ष को स्वतन्त्रता मिलने के बाद, ब्रिटिश शासन काल की सभी देशी रियासतो का भारतीय सघ मे ऐकीकरण कर दिया गया । इन सव राज्यों के जो राजा थे, वे अव राजा नही रहे । वास्तव मे राजा मिट चुके हुए फिर भी, इन महानुभावो को ग्राज वर्तमान काल मे भी 'अमुक अमुक राज्य के राजा' रूप में पहचाना या पुकारा जाता है । 'राजा' शब्द उनके भूतकाल का सूचक होते हुए भी, व्यवहार मे हम उन्हे 'राजा' कहते हैं | इसे 'द्रव्य निक्षेप' समझिये | इसी तरह, भविष्य मे किसी व्यक्ति को लाख रुपये की विरासत मिलने वाली हो तो वर्तमान मे भी हम उसके लिए 'लखपति - 'लक्षाधिपति' शब्द का प्रयोग करते है । इस वक्त ऐसा ट्रस्ट मौजूद है, जिसके अनुसार ग्रमुक उम्र में उसे लाख रुपये मिलेगे । परन्तु ग्राज उसके पास लाख रुपये नही है । फिर भी व्यवहार मे उसे 'लखपति' कहा जाता है । यह 'द्रव्य निक्षेप' का प्रयोग है | इस तरह ग्रव स्पष्टतया समझ मे आ जाना चाहिए कि जब हम किसी वस्तु या व्यक्ति के विषय में, उसके भूतकाल या भविष्यकाल को ध्यान मे रखकर वर्तमान में किसी शब्द का श्रारोपण करते हैं तब वह 'द्रव्य निक्षेप' होता है । भाव निक्षेप : किसी भी वस्तु या व्यक्ति को उसकी . Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " १६७ वर्तमान अवस्था या उसके वर्तमान गुण धर्म के अनुसार सवोंधित करना 'भाव निक्षेप' कहलाता है । 'पडित जवाहरलाल' यह शब्द 'नाम निक्षेप' सूचित करता है । उनके किसी चित्र या पुतले को यह नाम देना 'स्थापना निक्षेप' है । जब वे प्रधानमंत्री पद से अलग हो जायें तब भी उनका 'प्रधानमत्री' के तौर पर परिचय कराना 'द्रव्य निक्षेप' है, जब कि, वर्तमान मे वे जब तक प्रधानमंत्री पद पर विद्यमान है तब तक उनको 'भारत के प्रधानमंत्री' कहना 'भाव निक्षेप' गिना जाता है । इसी प्रकार दान देने वाले को दाता, राज्य करने वाले को राजा, कुत्र्ती लडने वाले को पहलवान, काव्य लिखने वाले को कवि, सघ निकालकर ले जाने वाले को सघवी ( सघपति ) ग्रादि शब्दो द्वारा उनकी अपनी अपनी क्रिया की विद्यमानता मे उन्हें उस प्रकार पहचानना 'भावनिक्षेप' कहलाता है । इस प्रकार इन चार निक्षेपो में हम एक ही वस्तु या व्यक्ति को चार भिन्न भिन्न प्रकार से पहचानते है । पहले मे पहचानने के लिये सजा या नाम, दूसरे मे मूल व्यक्ति के ग्राकार को या नाम को स्थापना ग्रन्य वस्तु मे, तीसरे मे भूतकाल अथवा भविष्यकाल का वर्तमान मे सबध, और चौथे मे वस्तु या व्यक्ति के वर्तमान काल में विद्यमान गुणधर्म का उल्लेख - इतना इन चार निक्षेपों के अन्तर्गत ग्राता है । निक्षेपो का इतना विवरण देने के वाद ग्रव हम नय और निक्षेप का सवध समझ ले । 'नय' ज्ञानमूलक, वचनात्मक, तथा ज्ञानात्मक, है । 'नय' के द्वारा हम वस्तु का ज्ञान प्राप्त करते हैं । प्रत वस्तु ( पदार्थ ) Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ के साथ इसका सवध होने के कारण वस्तु या पदार्थ के साथ के इसके सम्बन्ध को 'विपय'-विषयो भाव' कहते हैं। निक्षेप 'अर्थात्मक' है। एक ही शब्द का वाच्य अमुक अर्थ मे 'नाम' है, अमुक अर्थ मे 'प्राकृति' है, अमुक अर्थ मे 'दल' है, और अमुक अर्थ मे 'भाव' है, यह वात हमे निक्षेप' से समझ मे आती है । यहाँ हमने गब्द और अर्थ का जैसा परस्पर सम्बन्ध जोडा, वैसा सम्बन्ध नय और निक्षेप के बीच भी है । नय और निक्षेप के वीच के सम्बन्ध को 'ज्ञेय ज्ञापक' सम्बन्ध कहते है। यह सबध तथा उसकी क्रिया नय के द्वारा जानी जा सकती है अत निक्षेप भी नय का ही विपय है। _____नयविषयक इस विवेचना मे हमने 'नय' शब्द का अर्थ समझा, उसके उपयोग के विपय मे सामान्य जानकारी भी प्राप्त की, और साथ ही उसका जिनसे सम्बन्ध है उन-प्रमाण और निक्षेप–के विपय मे भी सक्षिप्त जानकारी प्राप्त करली है। अब हम 'सात नय' का क्रमश परिचय प्राप्त करेगे । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है सात तय पिछले पृष्ठो मनम, प्रमाण तथा निक्षेप विषय में साधारगा भान प्राप्त पार नहै। हमने देगा कि ये मन अपने अपने डग ने वन्नु अथवा पदार्ग के विषय में जानकारी देते न प्रकार जो ज्ञान मिलता है वह 'प्रमाणभूत ज्ञान' होता। यदि म जन नन्वज्ञान के भिन्न भिन्न विद्वानो से मिले तो बनने से प्रत्येक ने जिम मात्रा पर प्रभुत्व साप्त किया होगा, उनी पापा के विषय मे वह हमने नहेगा । एक विद्वान् हमे इस तत्त्वज्ञान कोनियमिक पहलू नमभागा, दनरे के पाम इसका गारगानिका परिचय मिलेगा, तोरा बिहान हमे इसी माहित्यिक वैभव का दर्गन गएगा। 37 प्रकार हमे भिन्न भिन्न मून गे भिन्न भिन्न प्रकार की जानकारी मिलेगी। उन सब की वातें यदि पानिन की जाये तो भागिर कुल मिलाकर वे मव एक ही विषय-जनतत्त्वज्ञान-गे गम्बन्धित बाते होगी। नब विद्वानो से हमे उनके 'अभिप्राय' भी जानने को मिलेगे। जो जिन मासा का अधिकारी विद्वान् होगा वह उस गाना के विषय में अपना अभिप्राय बाहेगा। यदि उन सबके अभिप्राय एकत्रित किये जाय तो मालूम होगा कि उन सब में पितृविपय-तत्त्वज्ञान के ही अग होगे। यदि हम इस दृष्टि से 'नय' के विपय मे विचार करें तो प्रतीत होगा कि जिस प्रकार हमें प्रत्यक्ष तथा परोक्ष प्रमाण से वस्तु का ममग्न रूप में यथार्थ ज्ञान मिलता है, उसी तरह वस्तु Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० के आगिक स्वरूप का परिचय नय के द्वारा मिलता है। पदार्थ के भिन्न भिन्न अगो का भिन्न भिन्न दृष्टियो मे अभिप्राय प्रस्तुत करके उसका यथार्थ परिचय हमे 'नय' देता है। अत 'नय' शब्द का अर्थ 'अभिप्राय' भी किया जा सकता है । जैसे प्रमाण शुद्ध ज्ञान है, वैमे नय भी एक शुद्ध ज्ञान है । इन मे अन्तर इतना ही है कि प्रमाण से हमे वस्तु के अखड स्वरूप का ज्ञान होता है, जब कि नय से हमे वस्तु के अगभूत भिन्न भिन्न स्वल्पो का ज्ञान होता है । हम पदार्यविज्ञान की किसी प्रयोगशाला (Laboratory) मे कोई वस्तु विश्लेपण के लिये दे तो उसका पृथक्करण (Analysis) करके उन प्रयोगशाला का वैज्ञानिक हमारे हाथ मे एक सूची रख देगा। इस मूची पर दृष्टि फिराने पर हमे मालूम होगा कि उसने जिस वस्तु का पृथक्करण किया है उसमे कौन कौन सी चीजे कितनी कितनी मात्रा में है। मनुप्य के गरीर मे सचरण करने वाले रक्त मे कौन कौन सी वस्तुएँ होती हैं, इसकी जानकारी हमे कोई भी पैथोलोजिस्ट दे सकेगा । रक्त की जाँच कराने के बाद कई रोगों का पूर्ण निदान हो सकता है, और पूर्ण निदान के बाद उसका सफल इलाज हो सकता है, यह तो हम सब जानते है । उसी तरह 'नय' के द्वारा वस्तु के भिन्न भिन्न अगो को जानने की पद्धति भी ऐसी एक पृथक्करण विधि (Analytical Process) है । जैन तत्त्वज्ञानियो ने वस्तु के भिन्न भिन्न स्वरूपो का वर्गीकरण (Analysis ) करने के लिये हमारे मामने सात प्रकार की प्रयोगगालाएँ पेश की है उन्होने उनको 'नय, सात नय'नाम दिया है । अब हम इन सात नयो की क्रमगः Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ जाँच करें। सातो के नाम से तो हम परिचित है, यहाँ फिर उनका उल्लेख करते है - (१) नैगम नय (२) सग्रह नय (३) व्यवहार नय (४) ऋजुसूत्र नय (५) शब्द नय (६) समभिरूढ नय (७) एवभूत नय अव हम क्रमश एक एक नय को लेकर सातो का परिचय प्राप्त करेगे । यहाँ यह ध्यान में रखना चाहिए कि 'नय' एक दृष्टि है-वस्तु को देखने की दृष्टि है । इनमे उत्तरोत्तर नय अपने पहले के नय से सूक्ष्म-सूक्ष्मतर दृष्टि वाला है।। (१) नैगम नय-इसकी सक्षिप्त व्याख्या देनी हो तो हम कह सकेगे कि, वस्तु के सामान्य तथा विशेप इन उभय स्वरूपो को जो मानता है परन्तु अलग अलग मानता है वह नैगम ।"अग्रेजी मे हम इसे ( Figurative Knowledge ) कह सकेगे। 'नगम' मे मूल शब्द 'निगम है । न+एक+गम = नैगम । इसमे 'निगम'शब्द का अर्थ होता है, सकरप (निर्णय) । 'निगम' शब्द का अर्थ 'कल्पना भी है । कल्पना से होने वाले व्यवहार को 'नैगम' कहते है। यहाँ कल्पना का अर्थ कोई असत्, काल्पनिक धर्म का स्फुरण नही, परन्तु सत्, वास्तविक धर्म का स्फुरण समझना चाहिए। इस नय मे दो वाते मुख्य है । पहली बात यह कि नय Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० भूत भविष्य और वर्तमान-इन तीनो को वर्तमानवत् बताता है। यह किस प्रकार सो देखे । (अ) हमारे एक मित्र श्री परमानन्द अमेरिका जाने का निश्चय करने के बाद हमसे मिलते है और कहते है, "मैं अमेरिका जाता हूँ।" अब जिस वक्त परमानन्द भाई हमसे यह बात कहते हैं, उस समय तो वे सचमुच हमारे सामने भारत मे ही खडे है । फिर भी चू कि उन्होने जाना निश्चित कर लिया है, इसलिए व्यवहार दृष्टि से वे हमसे कहते है कि "मैं जाता हूँ।" हम इस बात का विरोध नहीं करते । जाने की क्रिया तो भविष्य काल मे होने वाली है, परन्तु उन्होने सकरप कर लिया है, इसलिये हम उनके प्रवास पर जाने की बात को वर्तमानवत् मान लेते हैं। मेडिकल कॉलेज में पढ़ने वाले विद्यार्थियो के लिये डाक्टर' शब्द का सम्बोधन सामान्यत प्रचलित है । अभी तो विद्यार्थी पढ रहे है, उत्तीर्ण होने के बाद डाक्टर का काम तो वे भविष्य मे करने वाले है। फिर भी उन्होने डाक्टर बनने का सकल्प करके उसके लिये अध्ययन शुरु कर दिया है, इसलिये उन्हे 'डाक्टर' कह कर पुकारने मे भी हम भविष्यकाल का उपयोग वर्तमानवत् कहते हैं । ___ व्यवहार मे किये जाने वाले शब्द प्रयोग 'नैगम' नय के अनुसार है । यहाँ सकल्प की बात आती है इसलिए इसे 'सकल्प नैगम' करते है। (ा) एक आदमी पेड पर से गिर जाता है,अथवा साइकिल का धक्का लगने से उसे तकलीफ होती है, तो वह चिल्लाता है, "मर गया, बाप रे, मर गया।" हम देख सकते है कि Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ वह स्वय चोल रहा है, इसलिए मर नही गया है । फिर भी वह कहता है " मर गया । " किसी को व्यापार मे भारी नुकमान होने पर उसके लिये ऐसे शब्द प्रयोग होते है, "साफ हो गया, खत्म हो गया, मर गया ।' दरअसल तो नुकसान के रुपये चुकाने पर ही वह 'साफ या खत्म हो गया' कहा जा सकेगा । और रुपये चुकाएगा तब भी शब्दों के यथार्थ अर्थ ( सही माने ) मे तो वह साफ - विलकुल साफ - गायद ही होगा । उनी तरह किसी मकान की दीवार या छत गिर जाने पर भी उसके लिये 'मकान गिर गया' ऐसा कहा जाता है । यहाँ भविष्य में होने वाली, या होने की सभावना वाली वाते वर्तमान मे ग्राशिक रूप से कही गई है । ऐसी बातो के व्यावहारिक स्वीकार को 'ग्रश नैगम' कहते है | इसी तरह जब हम कहते हैं कि, "ग्ररिहत, विदेहमुक्त अथवा सिद्ध है ।" तव यह कथन वर्तमान मे कहा जाता है फिर भी इसमे भूतकाल एवं भविष्य काल का समावेश हो जाता है । (इ) कोई कार्य प्रारंभ किया गया हो, परन्तु पूरा न हुया हो तब भी हम 'यह काम पूरा हो गया' इस अर्थ की बात कभी कभी कहते है । ऐसा कई बार होता है । जैसे—- रसोई बनाने का प्रारम्भ करते समय जब हम कहते है कि ग्राम घीये का शाक बनाया है' तव शाक तैयार नही होता, अभी तो अगीठी पर होता है फिर भी 'शाक बनाया है' ऐसी वर्तमान सूचक बात हम कहते है । इसमे जो वस्तु प्रभो नही वनी, उसे बन गई कहने मे भूतकाल पर भविष्यकाल का आरोपण करके , Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ वर्तमानवत् प्रस्तुत किया जाता है । इस प्रकारके प्रस्तुतीकरण को 'पारोप नैगम' कहते है। ___'पारोप नैगम' के अन्तर्भूत कई शब्द प्रयोगो को 'उपचार' नैगम' कहते है । 'यह मेरा दाहिना हाथ है, ये मेरे शिरश्छत्र हैं, ये मेरे हृदय के हार है, यह मेरा सर्वस्व है' आदि अनेक बाते किसी अन्य के विषय मे भिन्न भिन्न कारणो से कही जाती है । ये सब ‘उपचार नैगम' के उदाहरण है। (ई) किसी महापुरुष की पुण्यतिथि (सवत्सरी)के दिन हम कहते है "अाज उनका निर्वाण हुआ।" इसमे 'आज' शब्द वर्तमान-सूचक है, जब कि निर्वाण तो कई वर्षों पहले हुआ था, इसलिए भूतकालिक घटना है। फिर भी हम उस घटना का उल्लेख वर्तमानवत् करते है । भूतकाल की इस घटना को जब इस प्रकार वर्तमान मे प्रस्तुत करते है तब हम वर्तमान पर भूतकाल का आरोप करते है। यह भी 'आरोप नैगम' के अन्तगत है। यहाँ हमने देखा कि भूतकाल को भविष्य-काल की तथा भूत और भविष्य के बीच वर्तमान की अपूर्ण घटनाप्रो को हम वर्तमानकाल मे वर्तमानवत् कहते है । यह 'नैगम नय' की एक ध्यान मे रखने योग्य बात है। दूसरी बात वस्तु के सामान्य तथा विशेष स्वरूप की है। हम ऊपर बता चुके है कि 'नैगम नय' वस्तु के सामान्य तथा विशेप-दोनो स्वरूपो.को अलग अलग मानता है । इसे समझने के लिये उदाहरण देते है--- ___"विवाह या इसी प्रकार के किसी अन्य अवसर पर हम फोटो चिखवाते है । इस फोटो मे अपने परिवार के अतिरिक्त मित्र Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ मडल को भी शामिल करके हमने एक 'ग्रुप फोटो' बनवाया है । इस फोटोग्राफ के विषय में जब हम कहते है, कि 'यह हमारे मित्रमडल-परिवार का फोटो है ।' तव हम 'सामान्य' अर्थ मे उसका वर्णन करते है। उसके बाद जब हम उस फोटो मे पुत्र, पुत्री, पत्नी, भाई,वहन यादि का नाम लेकर उनकी अलग २ पहचान करवाएँ, तव हम 'विशेप' अर्थ मे उसका वर्णन करते है।" ___ इस प्रकार जब हम प्रत्येक वस्तु का सामान्य और विशेपस्वरूपात्मक और लक्षणात्मक-वर्णन करते है, तव 'नैगम नय' उन दोनो स्वरूपो को स्वीकार करता है, परन्तु वह हमे उनका अलग अलग परिचय देता है ! यह हुई 'नैगम नय' की वात । (२) संग्रह नय यह नय वस्तु के सामान्य स्वरूप का । परिचय देता है। 'नगम नय' मे वस्त के सामान्य तथा विशेष, दोनो स्वरूप बताये गये है। उनमे से वस्तु के सामान्य स्वरूप के विषय मे यह नय हमे ज्ञान देता है । अग्रेजी मे इस सग्रह नय को Collective अथवा Synthetic opproach कह सकते है । synthetic शब्द यहाँ Synthesis का सूचक है, Synthesis माने 'एकीकरण' । यह नय प्रत्येक वस्तु को केवल सामान्य धर्म वाली ही मान कर उस रूप मे हमे उसका परिचय देता है । इसका अभिप्राय ऐसा है कि, सामान्य से भिन्न विशेष आकाश-कुसुम वत्, अर्थात् 'असत्' है । नीम या आम के पेड वनस्पति से अलग करके नही देखे जाते । अगुलियाँ हाथ से अलग नहीं है, और हाथ शरीर से अलग नही है । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ नय, दुर्नय न वने, सुनय बना रहे, इस हेतु से यहाँ हमें 'स्यात्' शब्द को ध्यान में रखकर चलना चाहिए । इस नय का नाम ही 'संग्रह' है, यत यह वस्तुग्रो के सग्राहक ( समग्र ) स्वरूप का ही दर्शन करवाता है । जब हम जीव, मनुष्य, जानवर, खनिज आदि शब्दो का प्रयोग करते है तो प्रत्येक शब्द मे बहुत से प्रकारो का समावेश होता है । यह संग्रह नय वस्तु के सामान्य यर्थ मे वस्तु का इस प्रकार प्रस्तुतीकरण करके उसका परिचय देता है । संग्रह नय के 'पर संग्रह' और 'अपर सग्रह' ये दो भेद बताये गये है । ये दोनो शब्द 'सामान्य' अर्थ के सूचक होते हुए भी एक मे 'महासामान्य' और दूसरे मे 'अवातर सामान्य ' का निर्देश किया गया है । यह नय वस्तु के किसी भी विशेष भाव को स्वीकार नहीं करता । उदाहरणत एक श्रालमारी मे कोट, पतलून, कमीज, धोती, साडी, यादि अनेक प्रकार के कपडे रखे हो तो यह नय इस का परिचय इस प्रकार देने के वदले केवल इतना ही कहेगा कि " श्रालमारी मे कपडे हैं ।" अनाज के गोदाम मे रखे हुए गेहूँ, चावल, दाल, मूंग, मोठ यादि का अलग अलग उल्लेख करने के बदले यह संग्रह नय कहेगा कि "गोदाम मे अनाज भरा है ।" हम देख सकते है कि व्यवहार मे भी हम प्राय इस प्रकार सामान्य अर्थ की बहुत सी बाते करते है । यह सग्रह नय पर ग्राधारित अभिप्राय है । यहाँ फिर हम 'स्यात्' शब्द को याद करे । नैगम नय मे हमने वस्तु के दो स्वरूप देखे, सामान्य और विशेष । उनमे से केवल एक 'सामान्य' को ही स्वीकार कर यह 'सग्रह नय' बैठ गया है । परन्तु 'स्यात्' शब्द को बीच मे लाने से तुरन्त Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७७ ] समझ मे आ जायगा कि यह संग्रह नय वस्तु के सामान्य स्वरूप का ही मात्र परिचय करवाता है, फिर भी दूसरे नयो का विरोध नही करता । (३) व्यवहार नय अब यह व्यवहार नय क्या कहता है सो देखे ? यह नय वस्तु के केवल विशेष स्वरूप को ही मानता है । संग्रह नय ने वस्तु का सामान्यरूप से जो सग्रहीकरण किया है, उसका विभाजन कर वस्तु मे रहे हुए विशेष अर्थ को अलग कर के उस 'विशेष' का परिचय कराने का काम यह व्यवहार नय करता है । यह नय विशेष से भिन्न सामान्य की और दृष्टि ही नही फिराता । अग्रेजी मे इस नय को Practical, Individual, Distributive of Analytical approach कहते है । इसे Gradations भी कह सकते है । यह व्यवहार नय वस्तु को विशेष धर्म वाली ही मानता है । उसके अभिप्राय के अनुसार विशेष से रहित सामान्य खरगोश के सीग जैसा है । यदि हम केवल 'जानवर' शब्द वोले तो उसमे पूँछ वाले और विना पूँछ के, सीग वाले और विना सीग के आदि अनेक जानवरो का समावेश हो इसलिये उसका स्पष्ट अर्थ नही समझा जा सकता कहे कि ' वनस्पति लीजिये' तो उसमे ग्राम, नीम, अमरूद यदि विशेष भाव के सिवा दूसरा क्या है ? विशेष अर्थ मे न वोला जाय तो कोई क्या खरीदे ? 'सामान्य' से कोई अर्थक्रिया नही होती, विशेष पर्यायो ( ग्रथं या स्वरूप ) से ही कार्य होता है । जाता है । यदि कोई Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८ ] व्यवहार नय सग्रह नय से विलकुल विपरीत वात करता है । परन्तु रोजाना जीवन मे हमे ऐसा बहुत देखने को मिलता है। जिम ममय जिस अर्थ मे वस्तु का उल्लेख करने में काम बनता हो उस अर्थ मे वैसे गन्दो का प्रयोग होता ही है । मिठाई बेचने वाले की दुकान पर 'मिठाई मिलती है। ऐसा हम सामान्य अर्थ मे कहते ही है। हमे जब पेडे, बरफी या हलवा खरीदना हो तव हम उमी दुकान को 'पेडे या हलवे की दुकान' भी कहते है। अत इन दोनो नयो के अभिप्राय एक दूसरे के विरुद्ध होते हुए भी जीवनकार्य मे एक दूसरे के पूरक तथा उपयोगी हैं। यहाँ फिर हमे 'स्यात्' गब्द ध्यान में रखना चाहिये । जव स्याद्वादी इस व्यवहार नय के द्वारा वात करेगा नव वह वस्तु के विशेष स्वरूप की ही बात करेगा। फिर भी स्याद्वाद अन्य नयो के अभिप्रायो को भी समभाव से स्वीकार करता है, यह याद रखना चाहिए। अनेकान्त की यह विशेषता है। ___ इन तीन नयो की एक दूसरे में उत्तरोत्तर भिन्नता का झे परिचय हो गया। प्रथम नय वस्तु के सामान्य और विशेष इन दो स्वरूपो को अलग अलग बताता है। दूसरा इन मे से सामान्य स्वरूप का वर्णन करता है और तीसरा विशेष स्वरूप का परिचय देता है। ____ हम पहले कह चुके हैं कि ये तीनो नय 'द्रव्यार्थिक' अर्थात् वस्तु के सामान्य अर्थ का अनुसरण करने वाले है। फिर भी यहाँ हमने देखा कि व्यवहार नय वस्तु का विशेष स्वरूप बतलाता है। स्वभावत कोई यह पूछेगा कि “ऐसा क्यो" ? Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७६ ] यहाँ हमे यह याद रखना चाहिए कि यहाँ जो 'विशेष' वताया जाता है वह 'सामान्यगामी विशेष' है, इसलिए व्यवहार नय का समावेश 'द्रव्यार्थिक' मे किया गया है । अन्तिम चार नय पर्यायार्थिक नय है । इन नयो की दृष्टि पहले तीन की अपेक्षा सूक्ष्म है और इन नयो मे हमे 'विशेषगामी विशेष' देखने को मिलता है । व हम चौथे नय का परिचय देगे । से ( ४ ) ऋजुसूत्र नय - यह नय स्थूल और सूक्ष्म प्रकार वस्तु की वर्तमान अवस्था बतलाता है, ग्रहण करता है । यह वर्तमानकालवर्ती तथा अपनी ही वस्तु को मानता है । अग्रेजी मे इसे 'The thing in its present condition' ( वस्तु अपनी वर्तमान अवस्था मे ) कहा जा सकता है । यह नय वस्त की भूत तथा भावी अवस्था को नही मानता । यह वस्तु के अपने वर्तमान पर्यायो ( स्वरूपो ) को ही मानता है । परायी वस्तु के पर्याय को यह स्वीकार नही करता है । यह ऐसा सूचित करता है कि परायी वस्तु के पर्यायो से कभी अपना काम नही होता । भूत, भावी तथा पराया, ये तीनो ही कार्य करने में असमर्थ है, इसलिये यह नय उन्हे असत् तथा आकाशकुसुमवत् मानता है । वर्तमानकाल के जिन सूक्ष्म तथा स्थूल भेदो को ऋजुसूत्र न स्वीकार करता है वे सामान्य वर्तमानकाल तथा चालू वर्तमान काल हैं । 'आज' और 'अव' ये दोनो शब्द वर्तमान के द्योतक होते हुए भी उनमे स्थूल तथा सूक्ष्म ये दो भाव रहे हुए है । ऋजुसूत्र नय वर्तमानकाल को इन दो भेदो के साथ स्वीकार करता है । इस नय की दृष्टि से जो वर्तमानकाल मे नही है और जो Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १८० ] अपना नहीं है, वह निकम्मा माना जाता है। उदाहरणार्यवर्तमान मे हमारे पास जो साधन हो वही उपयोगी हो सकता है । भूतकाल की या परायी वस्तु काम में नहीं पाती। हमारे पाग साइवाल हो और उसका वर्तमान में उपयोग किया जाता हो तो यह नय उसे साइकल कहेगा, अन्यथा यह नय उनका साइकल के तौर पर स्वीकार नहीं करेगा। (५) शब्द नय-वस्तु के लिये प्रयुक्त गब्द के लिंग, वचन, काल, सरया यादि व्याकरण भेदो में होने वाले अर्थों को अलग अलग रुप मे जानने और बताने वाला नय 'शब्दनय' है। यह नय अनेक शब्दो द्वारा पहचाने जाने वाले एक पदार्य को एक ही मानता है । फिर भी यदि जब्द के लिंग और वचन भिन्न २ हो तो यह पदार्थ को भी भिन्न २ मानता है। जैसे घटा ( गटका ) पोर घडी ( मटकी ) इन दो शब्दो मे से एक पुलिंग और दूसरा स्त्रीलिंग होने के कारण यह नय इन दोनो को भिन्न मानेगा। ___'व्यक्ति' शब्द तीजिये । इसमे स्त्री, पुरुप, और नमु सक इन तीनो का समावेश होता है। लिंगभेद के कारण इन तीनो का अलग अलग अर्थ होता है । इन शब्दो को एक वचन के बदले बहुवचन में प्रयुक्त करे तो भी अर्यभेद होता है। इसी तरह मधुरता, सुन्दरता, कोमलता, वलवान, गुणवान आदि शब्दो का जब प्रयोग किया जाता है तब लिंग (जाति) के अनुसार भिन्न भिन्न अर्थ होते है । यह नय, जो शब्द जिस अर्थ का सूचक हो उस अर्थ को प्रकट करने के लिये वही शब्द प्रयुक्त करेगा। नर और नारी का सामान्य अर्थ देने वाले मनुष्य शब्द के बदले नारी क Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८१ ] 'स्त्री' और नर को 'पुरुप' शब्द के द्वारा ही यह नय प्रकट करेगा। तात्पर्य यह है कि यह शब्दनय लिग, वचन, काल आदि के द्वारा वस्तु के अर्थ मे जो परिवर्तन होता है उस परिवर्तन के अनुसार होने वाले अर्थ में वस्तु का परिचय देता है। इसमे मुख्यत. भापा के व्याकरण का महत्त्वपूर्ण स्थान होने के कारण इसे हम 'व्याकरणवादी' नाम दे सकेगे। अंग्रेजी मे इस नय को Ghammatical Approach कहा जा सकता है। (६) समभिरूढ़ नय-- शब्दभेद से अर्थभेद माने सो समभिरूढ नय । एक ही वस्तु को अलग-अलग शब्दो द्वारा पहचाना जाता है तब वे शब्द 'पर्याय' Othen wonds कहलाते है। उन अलग २ शब्दो के व्युत्पत्तिजन्य अलग-अलग अर्थ होते है । यह नय उन भिन्न भिन्न अर्थो को स्वीकार कर शब्दभेद के कारण वस्तु को भी अलग मानता है। उपर्युक्त 'शब्द नय' कु भ, कलश, घडा, आदि भिन्न-भिन्न शब्दो द्वारा सूचित पदार्थ को एक ही मानता है, जब कि यह समभिरूढ नय उससे अधिक सूक्ष्म दृष्टि वाला होने के कारण इन तीनो गव्दो द्वारा सूचित पदार्थो को एक नही बल्कि भिन्न २ मानता है । इस नय का अभिप्राय ऐसा है कि 'यदि वस्तु का नाम बदलने से ( पर्यायभेद से ) वस्तु के अर्थ मे अन्तर न पडता हो तो फिर 'कु भ' और 'कपडे' मे भी अन्तर नही होगा। इस प्रकार यह नय हमे सिखाता है कि एक ही वस्तु के शब्द ( नाम) मे फेरफार होने पर उसमे पहले शब्द (नाम) से भिन्न तथा निश्चित अर्थ होता है। अग्रेजी मे इस नय को 'Specific knowledge' कहते Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८२ ] है । इस नय की यह विशिष्टता है कि यह शब्द का प्रचलित यर्थ नहीं किन्तु मूल अर्थ प्रकट करता है। उदाहरणार्थश्रीकृष्ण के अनेक नाम है । प्रत्येक नाम का कोई न कोई विशेष Specific अर्थ होता ही है । यद्यपि ये सभी नाम व्यवहार मे केवल 'श्रीकृष्ण' का ही नाम सूचित करते है, फिर भी समभिरूढ दृष्टि से नाम भेद के कारण प्रत्येक का लग २ अर्थ है । 'राजा' शब्द का अर्थ है 'राज्य करने वाला ।' उसके लिये 'गो-ब्राह्मण प्रतिपाल' - यह शब्दप्रयोग किया जाने पर शब्दभेद के कारण ग्रर्थभेद भी हो ही जाता है । यहाँ राज्य करना तथा गाय व ब्राह्मण का पालन करना - ये दोनो धर्म राजा मे निहित हैं, परन्तु यह समभिरूढ नय राजा के अलग-अलग धर्म को लेकर, जो जहाँ कार्यशील होगा, वहाँ उस शब्द का प्रयोग करेगा । इस प्रकार 'शब्दभेद' से प्रार्थभेद को जो जानता और समझाता है, वह समभिरूढ नय कहलाता है । (७) एवंभूत नय यह क्रियाशील -Active- नय है । यह शब्द के क्रियात्मक अर्थ को ग्रहण करता है और जिस समय क्रिया होती हो उस समय हो, क्रिया के उसी अर्थ मे उस शब्द को ग्रहण करता है । इस नय का नाम 'एवभूत' इसलिए है कि यह किसी शब्द का जो अर्थ है उसी प्रकार से ( एव ) वस्तु इस समय हुई ( भूत ) है अर्थात् उस वस्तु को उन सयोगो मे ही स्वीकार करता है | किसी भी शब्द में जिस क्रिया का भाव समाया हो वह क्रिया यदि वर्तमान मे जारी न हो तो यह नय उस शब्द को उस अर्थ मे स्वीकार नही करेगा | Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८३ ] __ हम ऊपर देख चुके हैं कि 'शब्द नय व्याकरणभेद से अर्थमेद' बताता है। परन्त यह एवभूत नय 'क्रियाभेद से अर्थभेद' सूचित करता है । इसमें खास ध्यान में रखने की बात यह है कि शब्द के अर्थ मे उल्लिखित क्रिया जिस समय न होती हो उस समय उस शब्द को यह नय उस अर्थ में स्वीकार नहीं करता। उदाहरणार्थ- 'गायक' शब्द का अर्थ होता है 'गीत गाने वाला' । एवभूत नय उसे सर्वदा गायक नहीं मानेगा। वह अादमी जिम समय गीत गाने की क्रिया करता होगा, तभी उसे 'गायक' के तौर पर स्वीकार करेगा। इसी तरह पुजारी जव पूजा की क्रिया करता होगा तभी यह नय उसे "पुजारी' कहेगा। व्यवहार में कई बार इस नय के अनुसार वर्ताव होता हुआ दिखाई देता है। उदाहरणार्थ कोई सरकारी कर्मचारी अथवा मिल में काम करने वाला कोई कारीगर जिस समय अपने २ कर्तव्य पर हो उस समय सरकारी तन्त्र, या मिल का कार्यवाहक तन्त्र उनके साथ जैसा वर्ताव करता है वैसा वर्ताव काम के वाद के समय मे नही करता। सरकारी अधिकारी जिस समय काम पर On duty हो तव उसके साथ यदि कोई मारपीट या दुर्व्यवहार करे तो सरकार उस अधिकारी का पक्ष लेती है। इस मामले मे यदि अदालत मे जाना पडे तो सरकार स्वय फरियादी बनती है, और उस अधिकारी को साक्षी वन कर जाना होता है। वही अधिकारी जव अपने घर पर या, वाहर Off duty कर्तव्य पर न हो तब यदि उसका किसी के साथ झगडा हो जाय तो उस हालत में उसके साथ सामान्य प्रजाजन का सा बर्ताव किया Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८४ ] जाता है । ऐसे मामले मे यदि कोर्ट में जाना पडे तो उसे स्वय फरियादी बनना पडता है और सरकारी सुविधात्रो का लाभ उसे नहीं मिलता। मिल में काम करने वाला कारीगर मिल में कोई दुर्घटना होने से घायल हो जाय या मर जाय तो वहाँ वह बदले (Compensation ) का हकदार होता है। रास्ते पर, मिल से बाहर या अन्य किसी स्थल पर ऐसा होने पर तो मिल के व्यवस्थापको का उससे कोई तअल्लुक नहीं होता। इन दोनो दृष्टान्तो मे दोनो जने जब कार्यरत थे, क्रिया करते थे तब एवभूत नय ने उन्हे अधिकारी तथा कारीगर स्वीकार किया। यह क्रिया पूरी हो जाने के बाद एवभूत नय की दृष्टि से ये दोनो व्यक्ति अपने मूल नामो के अनुसार 'अर्जुनमिह' और 'जोरु भा' ही रहेगे, अधिकारी या कारीगर नही । ये दोनो दृष्टान्त स्पष्टतया प्रकट करते है कि एवभूत नय इन दोनो को, जब वे कार्य द्वारा दिये गये नामो वाली क्रिया मे रत हो, तभी उन शब्दो ( नामो ) से पहचानता है । ___ समभिरूढ नय की दृष्टि से इन दोनो व्यक्तियो के लिये वे अपनी अपनी क्रिया मे रत न हो तब भी 'अधिकारी' और 'कारीगर' इन शब्दो का प्रयोग हो सकता है । इस प्रकार एवभूत नय समभिरुढ की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म अवलोकन करता है और उससे भिन्न अभिप्राय प्रकट करता है । इस प्रकार हमने इन सातो नयो का स्वरूप जान लिया। ये सभी नय 'ज्ञेय पदार्थविषयक अध्यवसाय विशेष' माने गये है । अध्यवसाय अर्थात् 'मनोगत समझ' । जो जानने योग्य पदार्थो की मनोगत-समझ-ज्ञान देता है सो 'नय' है । यह हुई Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८५ ] इसकी सामान्य व्याख्या । यह समझ भी स्वतन्त्र-निरपेक्ष-नही है, अन्य नयो से सापेक्ष ई, अपेक्षायुक्त है, यह बात भूलनी नही चाहिए, तभी अनेकान्तवाद की मर्यादा मे रहा जा सकता है । जैसा कि ऊपर बताया गया है, ये सातो नय एक एक से अधिक विशुद्ध है । उत्तरोत्तर नयो का विषय सूक्ष्म है, किन्तु एक ही वस्तु को देखने और समझने के ये भिन्न-भिन्न पहलू है । ये सातो पहलू इकट्ठे होने पर वस्तु की सम्पूर्ण जानकारी मिलती है। ये सातो पहलू मिलने से वस्तु बनती है । ये सातो नय मिलकर जो श्रुत बनाते है उसे 'प्रमाणश्रुत' कहते है । इसमे विशेष ध्यान रखने की बात यह है कि ये सभी नय परस्पर सापेक्ष होने पर ही सत्य है, अन्यथा मिथ्या है, दुर्नय है । ये सातो नय अपने-अपने स्थान पर अमुक निश्चित बस्तु बताते हैं, परन्तु दूसरे नय की बताई हुई वस्तु का खडन करे तो 'नयाभास' अथवा 'दुर्नय' बन जाय । ___वस्तु के अन्य स्वरूपो का खडन किये विना जो अपनी मान्यता को स्वीकार करता है वह मुनय है। अन्य नय से सापेक्ष रहकर, दूसरी अपेक्षाओ के अधीन रहकर जब वह वस्तु का यथार्थ स्वरूप बताता है तव उसकी गणना 'स्याद्वाद श्रुत' मे होती है। यहाँ उम 'म्यात्' शब्द को हम एक बार फिर याद कर ले । इस नय का प्रयोजन अन्य नयो की सापेक्षता सूचित करने के लिये है। परस्परविरुद्ध धर्मों का एक ही वस्तु मे स्वीकार करने के लिए-पूरी समझदारी के माथ स्वीकार करने के लिए ही, इस स्याद्वाद सिद्धान्त को आवश्यकता है । यही जैन दर्शन की अपूर्वता है । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८६ ] वस्तु एक ही हो, फिर भी उसके भिन्न-भिन्न स्वरूप बुद्धि मे उत्पन्न होते ही है। इस भिन्न-भिन्न प्रकार की बुद्धि को हम 'नयबुद्धि' कह सकते है। प्रत्येक वस्तु अनेक गुण-धर्मात्मक है । नय की मदद से इन भिन्न-भिन्न गुण-धर्मो का जो जान होता है वह भी भिन्नभिन्न है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी शक्ति तथा कक्षा Calibre and catagony के अनुसार उसे समझ सकता है । पिछले पृष्ठो मे हमने जो चार प्रमाण देखे है वे वस्तु को समग्ररूप मे प्रकट करते है, इसलिए कोई मतभेद उपस्थित नही होते, परन्तु वस्तु को जब अशत देखा जाता है तव वहाँ मतभेद को अवकाश रहता है। इन मतभेदो का निवारण करने का साधन यह 'नय-ज्ञान' है। हमारी 'मनोगत समझ' जिसे जैन तत्त्वज्ञान की परिभाषा मे 'अध्यवसाय' कहते हैं, हमारा एक अभिप्राय है । यह अभिप्राय दो प्रकार से प्रवर्तमान होता है-शब्द द्वारा तथा अर्थ द्वारा। शब्द दो प्रकार के होते है---एक रूढिगत, जो रूढि और परपरा से प्रयुक्त होता है, दूसरा शब्द व्युत्पत्ति से अर्थात् व्याख्या से बना होता है । इसी प्रकार अर्थ के भी दो भेद है, एक सामान्य (Cornmon) और दूसरा विशेष (Specific)। हमने जिन सातो नयो का परिचय प्राप्त किया है, उनमे पहले चार-नैगम, सग्रह, व्यवहार, और ऋजुसूत्र- अर्थप्रधान नय है । अन्तिम तीन-शब्द, समभिरूढ, और एवभूत शब्दप्रधान नय है। नैगम नय हमारे समीप वस्तु के सामान्य तथा विशेष, ये दोनो अर्थ प्रस्तुत करता है । सग्रह नय केवल सामान्य अर्थ ही Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८७ ] स्वीकार करता है। व्यवहार नय शास्त्रीय और तात्त्विक सामान्य या विशेप की परवाह किये विना' लोकव्यवहार मे उपयुक्त विशेष अर्थ को ही स्वीकार करता है-बताता है, जब कि ऋजुसूत्र केवल वर्तमान क्षण को हो स्वीकार करता है, वर्तमान क्रिया के उपयोगी अर्थ का ही निरूपण करता है । इस प्रकार ये चार अर्थनय है। शब्द नय रूढि से शब्दो की प्रवृत्ति को स्वीकार करता है, जव कि समभिरुढ नय व्याख्या से शब्दो की प्रवृत्ति को ओर हमारा ध्यान खीचता है । और अतिम-एवभूत नय क्रियाशील वर्तमान Active present को स्वीकार करता है। जब वस्तु क्रियाशील- In action हो तभी उसे उस वस्तु के रूप में स्वीकार करता है। इस प्रकार ये तीन नय शब्दप्रधान नय हैं। __ये सब तो विचारमूलक तत्त्वज्ञान की बाते हुई । परन्तु हमे जव धर्ममूलक अर्थात् धर्म के आचरण से सम्बन्धित कार्यमूलक वातो का विचार करना हो तब विशिष्ट-Specific हेतु के लिए जैन दार्शनिको ने दो नय प्रस्तुत किये हैं । वे दो नय है १) व्यवहार नय २) निश्चय नय यहाँ निश्चय का एक अर्थ 'साध्य' होता है । व्यवहार का अर्थ यहाँ 'साधन' माना गया है। जिन साधनो से जो साध्य सिद्ध होता है वे साधन व्यवहार के क्षेत्र मे आते है। सिद्ध होने वाला जो 'साध्य' है वह निश्चय के क्षेत्र मे आता है। उदाहरणार्थ ध्यान की क्रिया से आत्मा की शक्ति का Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८८ ] विकास होता है। यहाँ शक्ति का विकास' साध्य अर्थात् निश्चय है, और ध्यान की क्रिया को साधन अर्थात् व्यवहार गिना जाता है। सामायिक की क्रिया से आत्मा मे समभाव सिद्ध होता है। यहाँ 'समभाव' साध्य अथवा निश्चय और सामायिक की क्रिया को साधन अर्थात् व्यवहार माना जाता है। _ 'निश्चय' शब्द का दूसरा अर्थ 'वस्तु का तात्त्विक स्वरूप' होता है । यहाँ इसी स्वरूप के अनुकूल वाह्य स्वरूप व्यवहार कहलाता है। उदाहरणार्थ-'निश्चय सम्यक्त्व' अर्थात् आत्मा की तत्त्वश्रद्धा की परिणति । इस परिणति के अनुकूल सम्यक्त्व का वाह्य आचार है 'व्यवहार सम्यक्त्व' । यहाँ खास ध्यान मे रखने योग्य वात यह है कि, निश्चय को केन्द्र स्थान मे रखकर पाचरित व्यवहार ही सद्व्यवहार है और निश्चय के लक्ष्य से रहित सारा व्यवहार असद्व्यवहार है। निश्चय और व्यवहार की वात बडे महत्त्व की है। हमारी उन्नति अथवा अवनति का मार्ग निश्चय और व्यवहार के विपय मे हमारी स्पष्ट जानकारी अर्थात् सम्यग्ज्ञान अथवा अज्ञान पर निर्भर है। ___ आत्मिक ( पारमार्थिक ) और भौतिक ( व्यावहारिक ) इन दोनो क्षेत्रो मे हमारा सच्चा उत्कर्ष निश्चय तथा व्यवहार के विपय मे हमारे सुजान के द्वारा ही साधा जा सकता है । पारमार्थिक क्षेत्र की वात ले । 'पात्मा स्वभाव से शुद्ध है और कर्म से बँधा हुअा है, अत अशुद्ध है।' इस बात को तो सब ने स्वीकार किया है। यदि हम आध्यात्मिक क्षेत्र मे Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८६ ] प्रगति करना चाहते हो तो हमे ऐसा निर्णय करना पडेगा कि आत्मा से चिपकी हुई अशुद्धि को दूर कर आत्मा के मूल स्वरूप को सिद्ध करने का एक मात्र ध्येय हमारी समस्त प्रवृत्तियो का केन्द्र होना चाहिए। जब हम ऐसा निश्चय कर लेगे तब वह शुद्ध निश्चयदृष्टि बनेगा । अब यदि हम एक बार ऐसा निश्चय कर ले तो फिर हमारे समग्र प्राचार का एक मात्र लक्ष्य आत्मा को लगी हुई सारी अशुद्धियो को दूर करना ही रहेगा। __ जैन तत्त्वज्ञानियो ने मोक्षप्राप्ति के साधन के रूप मे 'ज्ञान-क्रियाभ्या मोक्ष यह एक वाक्य दिया है। इस वाक्य मे निश्चय और व्यवहार दोनो का उल्लेख है। इसमे हमे अपने आत्माको मुक्त करना है' ऐसा 'ज्ञान' सो 'निश्चय' है, और इसके लिए जो कुछ कार्य आचरण आदि के रूप मे क्रिया करना है सो 'व्यवहार' है। हमने ऊपर 'वस्तु का तात्त्विक स्वरूप' अर्थात् 'निश्चय' ऐसा जो अर्थ किया है, सो भी इसी दृष्टि से किया गया है । जब हम अपने शरीर को चेतनावस्था मे देखते है, तब उसमे जीव पदार्थ का पुद्गल पदार्थ के साथ जो सयोग हुआ है वह हमे समझ में आता है। हमारी सब प्रवृत्तियो का कर्ता तथा भोक्ता आत्मा स्वय है, यह बात भी हम जानते है। इस आत्मा का अतिम ध्येय अपने पुद्गलमिश्रित अशुद्ध स्वरूप मे से मुक्त होना और इस प्रकार अपने शुद्ध स्वरूप को प्रकट करना माना गया है। यह 'शुद्ध स्वरूप' जीव द्रव्य का अपना मूल तत्त्व है। इस मूल तत्त्व को समझने वाली दृष्टि 'निश्चय नय' है, और इसकी वर्तमान अवस्था को स्पर्श करने वाली दृष्टि Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६० ] 'व्यवहार नय' है। यहाँ प्रात्मा की वर्तमान अवस्था को स्पर्श करने वाली दृष्टि 'निश्चय नय' की अपेक्षा के अधीन रह कर हमे निश्चित स्थान पर पहुंचने का आचरणमार्ग भी बताती है । यह व्यवहार को स्पर्श करने वाली वात हुई। अत जव व्यवहार मे आचरण की वात प्रावे तब हमे निश्चय नय को दृष्टि के सामने रख कर ही अपना आचरण-क्रम Code of conduct निश्चित करना पडता है । निश्चय दृष्टि तत्त्वस्पर्शी पवित्र ज्ञानदृष्टि है। वह हमारे व्यवहार मे प्रविष्ट होने वाली अशुद्धियो को दूर करने तथा रोकने का कार्य करती है। यदि हमारा कार्य-क्रम अपने ध्येय को दृष्टि में रखे विना निर्धारित किया जाय तो उससे कोई लाभ नहीं होता । उसी तरह पारमार्थिक क्षेत्र मे यदि हम निश्चय दृष्टि को दूर कर के बरतने लगे तो खड्डे मे ही गिरेंगे । इसीलिए जैन-नत्त्ववेत्तायो ने कहा है कि मनुष्य को अपना प्रान्तरिक एव वाह्य जीवन भी उच्च और शुद्ध रखना चाहिये । हमारी नजर निश्चय पर हो फिर भी यदि हम व्यवहार को शुद्ध न रखे, अथवा व्यवहार शुभ आशय से युक्त होते हुए भी यदि हम निश्चय पर से अपना ध्यान हटा ले तो ये दोनो ही कार्य हमारे लिए विघातक सिद्ध होगे। ___ ज्ञान तथा विवेक की उपस्थिति मे जो कुछ किया जाता है उसके विषय मे जैन शास्त्रकारो ने कहा है कि 'जे वासवा ते पडिस्सवा, जे पडिस्सवा ते आसवा' अर्थात् आत्मा को कर्म वध करवाने वाले स्थान (ज्ञानी या विवेकी को ) कर्म से छुडाते है और कर्म से छुडाने वाले स्थान ( अज्ञानी या अविवेकी को ) कर्मवन्धन करवाते है।" यह बात अच्छी तरह समझने Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६१ ] योग्य है । इस वाक्य के द्वारा ऐसा उपदेश किया गया है कि जो प्रवृत्ति अनानी तथा अविवेकी को कर्म का बंध कराने वाली होती है वही प्रवृत्ति ज्ञानी और विवेकी सज्जनो को कर्म से मुक्ति देने वालो-कर्मनिर्जरा रूप बन जाती है। इसके विपरीत जो प्रवृत्ति जानी तथा विवेकी आत्मायो के लिये कर्मनाशक होती हैं वही प्रवृत्ति अज्ञानी और अविवेकी मनुष्यो के लिये कर्मवन्धन रूप होती है । उदाहरणार्थ -एक ज्ञानी और विवेकी मनुष्य किमो रोगी की शुश्रुपा करता है, तब अपने भीतर परोपकार की शुभ भावना सुरक्षित रहे और अहभाव उपस्थित न हो ऐसी नम्रता बनाये रखने के लिए वह सतत प्रयत्नशील रहता है । इसके विपरीत अज्ञानी और अविवेकी मनुष्य के हाथो कोई छोटा-सा भी जनकल्याण का कार्य हो जाय तो वह अहकार से फूल कर सब जगह अपनी गेखी दिखाता है, अथवा ऐसे अहभाव का पोषण करता है कि खुद ने कोई वडा सत्कार्य किया है। यहाँ सेवा का कार्य तो दोनो ने किया, परन्तु समझ-भेद से वह एक के लिये कर्मनाश का कारण बना और दूसरे के लिए वह कर्म-बधन हो गया। यदि निश्चय दृष्टि और व्यवहार दृष्टि के वीच का सपर्क सतत सुरक्षित रहे तो ऊपर बताया गया है वैसा कर्मवधक परिणाम नहीं होता । 'निश्चय' को हमने 'माध्य' और व्यवहार को 'साधन' रूप में माना है। इससे इतना तो अवश्य फलित होता है कि जो 'साधन' हमे 'साध्य' की अोर न ले जाय वह साधन अर्थात् वैसा व्यवहार निकम्मा और निरर्थक है। यह साधन भी वही तक साध्य की ओर ले जाने वाला Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६२ ] रहेगा जहाँ तक हमारा लक्ष्य साध्य पर लगा रहेगा । यदि हमारी दृष्टि साध्य पर से अर्थात् 'निश्चय' पर से हट जाय तो हमारे साधनो मे विकृति प्राये विना नही रहती । निश्चय दृष्टि का विषय एक विराट समझ की अपेक्षा रखता है । जैन दार्शनिको ने इसकी अद्भुत छानवीन की है । यदि यह बात पूर्णतया समझ ली जाय तो व्यवहार मार्ग भी अपने आप निश्चित हो जाय । इस प्रकार निश्चित हुग्रा व्यबहार मार्ग निस्सदेह उत्कर्षमार्ग वन जाय । धर्म और तत्त्वज्ञान विषयक प्रकरण में हमने देखा है कि तत्त्वज्ञान हमे सुविचार देता है और धर्म हमे सदाचार सिखाता है। यह सुविचार ही 'निश्चय दृष्टि' है, और सदाचार 'व्यवहार दृष्टि' है। सद्विचार और सदाचार--- ये दोनो परस्पर सम्वद्ध है, और उनका समान महत्त्व है, यह भी हमने समझ लिया है । इसी प्रकार निश्चय और व्यवहार भी परस्पर सम्वद्ध है । निश्चय को छोड़कर सद्व्यवहार नही हो सकता और सद्व्यवहार को छोड कर निश्चय से चिपके रहना सभव नही । श्रध्यात्मशास्त्र हमे हमारा अतिम ध्येय बताता है । अपनी दृष्टि इस प्रतिम ध्येय पर स्थिर रख कर वहाँ पहुँचने के लिए हम जो वर्ताव-याचरण करते है वही सच्ची व्यवहारदृष्टि है । यह बात तो अव हम ग्रच्छी तरह समझ गये है कि निश्चय दृष्टि क्या है । श्रव व्यवहार के विषय मे कुछ विचार करना आवश्यक है, क्योकि निश्चय को समझकर उसे धारण करना एक बात है जव कि व्यवहार से उससे चिपके रहना दूसरी वात है । किसी वस्तु को मान लेने मे कोई कठिनाई Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ नही होती, असलो कठिनाई तो उम मान्यता के अनुसार आचरण करने में होती है। इस संसार में हम ऐसे अनेक मनुप्यो को देखते हैं जो शुभ आशय वाले होते हुए भी शुभ प्राचरण नहीं कर सकते । इसके कारण तो अनेक प्रकार के होते हैं । जैन दार्शनिको ने जो स्याद्वाद-अनेकातवाद की तत्त्वरचना की है उसमे इस बात का पूरा खयाल रखा है । निश्चय और व्यवहार के सम्बन्ध मे स्थाद्वाद एक सुन्दर समतुला Balance के समान हे । कर्म से वद्ध ससारी जीव को निश्चय दृष्टि सुरक्षित रखने के लिए व्यवहार के आचरण में कितनी कितनी कठिनाइयो का मामना करना पड़ता है सो जैन दार्गनिको को अच्छी तरह ज्ञात है। इसलिए उन्होने व्यवहार मे 'उत्सर्ग' और 'अपवाद' नामक दो विभाग किये है। ___'उत्सर्ग' अर्थात् निश्चय की ओर ले जाने वाला मूल मार्गRight Royal Highway 'अपवाद' अर्थात् मूल मार्ग की रक्षा के लिए काम मे लिया जाने वाला उपमार्ग Diversion | यह अपवाद उक्त मूल मार्ग को रक्षा के लिए तथा उसके सफल अनुसरण के लिये है। यह भी साव्य की सिद्धि के एक साधनउपाय के तौर पर ही वरिणत है। इस बात को समझने के लिए हम एक सीधा और सरल व्यावहारिक दृष्टान्त ले। हम अहमदाबाद मे आगरा जाने के लिए मोटर लेकर मोटर के मार्ग से (National Highway) पर यात्रा कर रहे है। इस मुख्य मार्ग पर, रास्ते मे कही सडक टूटो हुई हो या मरम्मत का काम ( Repal work ) चल रहा हो तो हम Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ क्या करते है ? क्या वही रुक कर सडे हो जाते हैं ? नहीं । उस समय हम मुख्य मार्ग के आसपास बने हुए उपमार्ग ( Diversion ) का ग्राश्रय लेते है । उपमार्ग भी हम ऐसा चुनते हे जो हमे पुन मूल मार्ग पर पहुंचा दे । यहाँ मार्ग पर के टूटे भाग या खुदाई के पास रुक जाने के बदले ग्रव हम दूसरे मार्ग पर मुड गये, तब भी हमारी दृष्टि मूल मार्ग पर वापस याने की ही थी । व्यवहार दृष्टि से, धर्म के ग्राचरण में भी जब हम ऐसी किसी परिस्थिति मे पहुँच जाते हैं तब ग्रन्य कोई आय न होने के कारण हमे अपवादमार्ग का आश्रय लेना पडता है । परन्तु इस प्रकार के अपवाद में भी हमारी दृष्टि निश्चय पर ही होनी चाहिए । जब भी किसी अपवाद ( Diversion ) का उपयोग करने का वक्त आवे तव निश्चय के अनुसरण के लिए ही हमे उसका उपयोग करना चाहिए। ऐसे किसी अपवाद के उपयोग मे यदि हम उत्सर्ग-मूल मार्ग को भूल जायें तो हम फिर चक्कर मे पड जायें। यह बात भलीभाँति याद रखनी चाहिये । सीधे माग पर चलने मे दुर्घटना या प्राणहानि का भय नही हे । आध्यात्मिक क्षेत्र की इतनी चर्चा के बाद यह जानना भी वडा आनन्ददायक होगा कि भौतिक क्षेत्र मे निश्चय और व्यवहार की क्या उपयोगिता है ? इस विषय की चर्चा करने से पूर्व एक बात भलीभांति ध्यान मे रखनी चाहिये । भौतिक दृष्टि से जिसे सुख-दुख माना जाता है वह वास्तविक सुखदुख नही है । जिसे प्राप्त करने के वाद दु.ख प्राप्त होने का कभी प्रसग ही न यावे, वही सच्चा सुख Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ है। जो सुख अन्त मे पुन दु ख का कारण बनने वाला हो उसे सच्चा सुख माना ही नही जा सकता। इसलिए भौतिक दृष्टि से इस जगत् मे जिसे सुख अथवा दुख माना जाता है उसके विषय मे हम जब तक अपनी समझ को आध्यात्मिक स्वरूप नही देते तब तक भौतिक दृष्टि से भी हम सच्चे सुख के भोक्ता नही बन सकेगे-यह निश्चित वात है। निश्चय और व्यवहार की जो बात जैन तत्त्वनानियो ने वताई है सो सच्चे और अनन्त सुख को लक्ष्य मे रख कर ही वताई है। ऐसा होते हुए भी, रोजाना जीवन-व्यापार में भी ये दोनो दृष्टियॉ हमारे लिए अत्यन्त उपयोगी है । यह वात भी हमे समझ लेनी चाहिए। ___ हम एक कपडे की दुकान खोलना चाहते है। दुकान का स्थान आदि निश्चित करने के बाद जब हम माल खरीदने निकलते है। तव कहाँ जाते है ? कपडे के मारकेट मे या लोहा बाजार मे ? कपडे का व्यापार करने का निश्चय करके यदि हम कीलो के थैले खरीद लाएं तो क्या हो? यहाँ साध्य से विचलित होने से व्यापार मे असफलता ही तो मिलेगी, या और कुछ ? जीवन के भिन्न-भिन्न क्षेत्रो मे-सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक क्षेत्रो मे भी हमे अपना एक ध्येय निश्चित करना पडता है । ध्येय निर्धारित करने के बाद उस तक पहुँचा जा सके ऐसा ध्येय के अनुरूप आचरण करना पड़ता है। इजीनियर बनने का निश्चित करके यदि कोई विद्यार्थी एक इजीनियरिंग कालिज मे स्थान न मिलने से दूसरे इजीनियरिंग कॉलेज मे स्थान पाने का प्रयत्न करने के बदले नाट्यकला की Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ शिक्षा देने वाले कॉलेज में प्रामानी से स्थान मिलने के कारण वहाँ जाय तो क्या नतीजा होगा? ___ गृहस्थजीवन के कार्य मे भी ऐसे अनेक प्रसग उपस्थित होते है। आमदनी में से पैसा वचा कर अपना खुद का मकान बनवाना हो तो मनुष्य उस ध्येय की सिद्धि के लिए अपनी श्रामदनी मे से बचत करने लगता है । इस प्रकार बचा कर कुछ रकम इकट्ठी करने के बाद यदि उमका ध्यान रेडियो, रेफ्रीजरेटर, मोटर आदि वरतुनो की ओर जाय, या वह अन्य फालतू मौजशोक मे पड़ जाय तो फिर वह वनवा चुका मकान ! पुत्र के लिए सुयोग्य कन्या हूँढनी हो तब हमारा ध्येय होना चाहिए 'अपने घर के अनुरूप अमुक अमुक गुणो से युक्त कन्या' । इसके बदले यदि हम धनवान की पुत्री, या रूपवती या ऐसी अन्य किसी एक वात को ही लक्ष्य मे रख कर सम्बन्ध कर ले तो क्या परिणाम पाएगा? यदि इन सब वस्तुप्रो पर हम विचार करे तो हम प्रासानी से समझ सकेगे कि जीवन के दिन व दिन के व्यापार मे भी निश्चय और व्यवहार के बीच सामञ्जस्य की अनिवार्य आवश्यकता है । इस क्षेत्र मे जब अपवाद का आचरण करने का प्रसग आवे तब मूल ध्येय को भूल कर यदि हम काम करे तो ऐसा अपवाद-याचरण हमे खाई मे डाल देगा। यहाँ एक वात पुन याद कर ले। दैनदिन जीवन के अपने आचरण निर्धारित करने मे भी यदि हमारी मुख्य दृष्टि धर्म पर न हो, सद्धर्म बताने वाले सद्विचार ( तत्त्वज्ञान ) पर न हो-तो अन्ततोगत्वा सुख के भोक्ता हम कभी नही बन सकते। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ निश्चय और व्यवहार नय का यह विषय समाप्त करने से पहले एक बार फिर याद करले कि 'हमे निश्चय को साध्य अथवा वस्तु के शुद्ध स्वरूप के तौर पर मानना है, और व्यवहार को उसकी प्राप्ति के साधन-रूप मे मानना है। साधन का त्याग करने से जिस तरह साध्य अप्राप्य वन जाता है उसी तरह व्यवहार को छोड कर निश्चय मार्ग पर कोई प्रगति नही हो सकती। ___इन दोनो वस्तुओ का निर्णय करने मे स्याद्वाद हमारा मित्र एवं सहायक है। जब हम कोई भी व्यावहारिक या पारमार्थिक कार्य करते हैं तव उसमे हमारी कोई भूल हो रही है या नहीं, यह निश्चित करने का साधन भी 'स्याद्वाद' है । इससे फलित होता है कि कोई भी व्यवहार या परमार्थ शुरु करने के पहले, यदि हम इस अद्भुत, अभूतपूर्व और अलौकिक स्याद्वाद पद्धति से उसकी जांच कर ले तो उसमे भूल होने की सभावना नही रहेगी। अब आपको स्याद्वाद से युक्त अनेकान्तवाद का तत्त्वज्ञान अद्भुत परिपूर्ण, एक अनूठा और स्वीकार्य प्रतीत हुआ या नहीं ? हमारी नयविषयक यह विवेचना यहाँ समाप्त करने से पहले एक बात का स्पष्टीकरण आवश्यक है। यहाँ इस विषय की जो चर्चा की गई है वह विल्कुल सामान्य तथा प्राथमिक परिचय तक सीमित है। इसका यथार्थ एवं तात्त्विक विवरण करने के लिए अनेक दृष्टान्तो की तथा अतिशय विस्तार की आवश्यकता है। यहाँ जो सात नय बताये गये है वे मुख्य मुख्य नय है । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ इनके सिवा नय के और भी अनेक विभाग है। उसके सैकडो भेद है । जितने प्रकार के वचन अथवा वचन के अभिप्राय हैं उतने प्रकार के नय है। उसके प्रयोग भी अपार है । सिर्फ इतनी सावधानी रखना आवश्यक है कि 'हम सुनय से चिपके रहे और दुर्नय या नयाभास पर न उतर जायें ।' ____ जव किसी भी प्रश्न, व्यक्ति, वस्तु, पदार्थ या समस्या के विषय मे विचारपूर्वक निर्णय करने का प्रसग उपस्थित हो तव इतना अवश्य याद रखना चाहिए कि जैसा पहली नजर मे दिखाई देता है या मालूम होता है वैसा ही वह होता नही है । हरएक के अनेक पहलू होते है। इन सब भिन्न भिन्न पहलुनो को ध्यान में रखने से ही वस्तु का निश्चित स्वरूप जाना जा सकता है। इस प्रकार विचार करने से ही किसी भी प्रश्न का योग्य निर्णय हो सकता है । भिन्न भिन्न दृष्टि से प्रत्येक वस्तु को देखने की आदत डालने से हमे बहुत सी नईनई और कल्याणकारी जानकारी प्राप्त होती है। यह बात भलीभांति याद रखनी चाहिए। शायद कोई ऐसा प्रश्न पूछेगा कि जीवन में ऐसी बहुत सी वाते उपस्थित होती है जिनका निर्णय बडी तेजी से करना पडता है । फिर हम आज तेजी के जमाने ( Speed-Era ) मे जी रहे है । उस समय ऐसे सव स्थूल या सूक्ष्म विचार करने वैठे तो 'गाडी निकल जाय' 1 ऐसे प्रसगो मे क्या किया जाय ? इसका उत्तर यह है कि यदि हम नय दृष्टि से और स्याद्वाद पद्धति से सोचने का अभ्यास रखेंगे तो आवश्यकता पडने पर जल्दी से निर्णय करने मे हमे कोई कठिनाई नहीं होगी 1 अकगणित के पहाडे एक वार हम रट लेते हैं, उसके Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ वाद 'अट्ठारह पजे नब्बे' ऐसा हिसाव गिनने के लिए हमे पांच वार अट्ठारह लिखकर उनका योग करने की या कागज-कलम की आवश्यकता नहीं होती। उसी तरह एक वार यह स्याद्वादपद्धति हमारे मन में बैठ गई कि फिर तेजी से निर्णय करने मे हमे कोई कठिनाई नहीं होगी। कभी कभी उतावली मे निर्णय करके 'गाडी पकडने' की अपेक्षा उस 'गाडी को छूटने देना' अधिक लाभप्रद सिद्ध होता है। यह सब होते हुए भी ऐसे प्रसगो मे हमे अपनी विवेकबुद्धि का उपयोग करके निर्णय करने की छूट तो इसके अन्तर्गत है ही। इस प्रकार अनपेक्षित शीघ्रता से हमे यदि कोई निर्णय लेना भी पड़ा हो तो उसके बाद भी नय दृष्टि तथा स्याद्वाद-पद्धति से विचार करना हमे नही छोडना चाहिए, विचार तो कर ही लेना चाहिए। निर्णय लेने के पश्चात् भी उस निर्णय की सारासारता का विचार करने का यदि हम अभ्याम रखे तो उससे हमे लाभ हो होगा। यदि कभी हमे अपना निर्णय गलत मालूम हो तो गीघ्रतापूर्वक उस निर्णय से पीछे लौटना प्रारभिक अवस्था मे बडा सरल होता है । यदि विचार न करे तो हमे अपनी भूल समझ मे नही आती, और बाद मे चलकर वह समझ मे आती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है, और इसलिए उसमे से लौटना और उसके परिणामो से वचना कठिन हो जाता है। इसलिए निर्णय करने से पहिले और निर्णय लेनेके बाद भी दोनो वार-हमे प्राप्त हुई नई दृष्टि से लाभ उठाने की और इस पद्धति से विचार करने की आदत तो डालनी ही चाहिए। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० इस तरह से विचार करने की आदत डालने से हमे सबसे बड़ा लाभ तो यह होता हैं कि हमारी समझने को शक्ति बहुत विकसित होती है । तदुपरान्त, हमारे भीतर समता, सहिष्णता दृढता, धैर्य, सत्यप्रियता, उदारता, तथा व्यवहारकुशलता श्रादि अनेक आवश्यक गुण अपने आप प्रकट होने लगते हैं। - सामान्यतया मनुष्य अपने आपको सच्चा मानता है । कई वार यह माना हुअा सच्चापन मूर्खता की पराकाष्ठा के समान होता है। "मै मूर्ख हूँ, निपट मूर्ख और अजानी हूँ' इस वात का पता मनुष्य को जल्दी नहीं लगता। जल्दी की तो बात ही क्या, लम्बे अरसे तक और कभी कभी तो इसका पता कभी लगता ही नहीं। यदि मनुष्य नयदृष्टि से विचार करना सीखे तो उसका अज्ञान दूर होता है। इस प्रकार से विचार करने का अभ्यास एक प्रकार का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण Psycho-analysis करने में भी सहायक होता है । उसमे आखिर कल्याण ही होता है। ____ "इस नय-प्रकरण को समाप्त करने से पहले एक प्रार्थना है। वह प्रार्थना, सलाह, सूचना-या जो भी कहा जाययह कि "अपने आप को होशियार--सर्वगुणसम्पन्न मान कर और अहभाव को बीच मे लाकर कभी नहीं बलना, या वरतना चाहिये । दूसरे की सलाह, सूचना या सहायता प्राप्त करने से अपने आपको वचित नहीं रखना चाहिए। योग्य गुरु, गुरुजन या मित्र से मार्गदर्शन प्राप्त करने को हमेशा तत्पर रहना चाहिए।" 'गुरु के बिना ज्ञान नहीं मिलता।' अव हमे 'सप्तभगी' पर विचार करना है। परन्तु उससे Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहले उने समझने के लिये अत्यन्त आवश्यक 'पेक्षा' गब्द को समझ, ले। अपना उसके बाद के प्रकरण में हम 'सप्तभगी' पर विचार करने वाले हैं। 'सप्तमगी' भिन्न भिन्न अरेखाओं में प्रायोजित मात वाक्यो का नमूह है। अत उन पर विचार करते समय हमे 'अपेक्षा' बन्द का प्रयोग सतत अपनी दृष्टि मे रखना होगा। पहले हम 'चार साधार विषयक विवेचना कर चुके है । वहाँ 'द्रय, क्षेत्र, काल और भाद' इन 'अपेक्षाचतुष्टय' का कुछ परिचय तो दिया जा चुका है। फिर भी 'मातभनी' विपक विवेचना प्रारभ करने से पहले 'अपेक्षा गन्द को भलीभाति नमन लेना अत्यन्त आवश्यक है। सामान्य व्यवहार में अपेक्षा के भिन्न भिन्न अर्थ किये जाते है, या इन जल का उपयोग भिन्न भिन्न अयों में किया जाता है । भाषा का उपयोग करने मे जैने रुढि और परम्परा के कारण भी अनेक गब्दो का प्रयोग भिन्न भिन्न अर्थो मे किया जाता है, वैसे ही उनकी व्युत्पत्ति की दृष्टि से विविध मूल अर्थों में भी प्रयोग होता है। कोपकार इस प्रकार किये जाने वाले परपरागत अर्थ और अनेक मूल अर्थ भी स्वीकार करते है और शब्दकोष में उन शब्दो के आगे उनके मूल अर्थ तथा खटिजन्य अर्थ भी देते हैं। ___ इस नेक-अर्थ-पद्धति में 'अपेक्षा' शब्द का प्रयोग 'पागा, इन्छा और आकांक्षा' के अर्थ मे होता है परन्तु उसका स्याद्वाद के सम्बन्ध में मूल अर्थ और ही होता है। 'आप किस वस्तु की अपेक्षा रखते हैं। ऐसी अपेक्षा न Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ रखे।' इस अर्थ के वाक्यो का प्रयोग हमारे यहाँ बहुत सामान्य है यहाँ 'अपेक्षा' शब्द उपर्युक्त 'पाशा, इच्छा या नाकाक्षा के अर्थ मे प्रयुक्त हुआ है । हम यहाँ इस शब्द के प्रयोगो की विविधता की चर्चा में नही पडते। परन्तु इसका जो अर्थ स्याद्वाद के लिये उपयोगी है, उसे अच्छी तरह समझ लेना चाहिए । प्रस्तुत प्रसग मे 'अपेक्षा' शब्द का अर्थ 'सन्दर्भ' या 'पाधार' है। अग्रेजी मे उसके लिए With reference to context अथवा “From certain point of view" ऐसी शब्दावलि का प्रयोग होता है। इसलिए उसका अर्थ होता है, "अमुक किसी वस्तु या विषय के दृष्टिविन्दु से किसी एक विषय को लक्ष्य मे रख कर।" या इसका अर्थ "In certan 1 espect ---"किसी एक प्रकार से"-भी होता है। अग्रेजी भाषा मे इसके लिए अधिक स्पष्ट शब्द (Relatively) अर्थात् 'In 1elation to' का प्रयोग होता है । "In relation to ( के सम्बन्ध मे ) कह कर एक वस्तु के साथ दूसरी किसी वस्तु का सम्बन्ध जोडा जाता है। जब सप्तभगी मे 'अपेक्षा' शब्द का प्रयोग होता है तव उसका भी ऐसा ही अर्थ होता है। ___ जब किसी वस्तु का उदाहरणार्थ एक आभूषण का उल्लेख 'द्रव्य की अपेक्षा से, काल की अपेक्षा से, क्षेत्र की अपेक्षा से तथा भाव की अपेक्षा से' यो चार की अपेक्षा से किया जाता है तब उसमे रहे हुए द्रव्य का अर्थात् सुवर्ण का, समय का, स्थल का, तथा उसके स्वरूप ( प्राकृति ) आदि का सम्बन्ध जोडा जाता है। 'अपेक्षा' मूलत संस्कृत शब्द है। सस्कृत भाषा का शब्द Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ कोप विराट है। इस भाषा की शक्ति भी अपार है। कम से कम बब्दों में अधिक से अधिक बात कहने की गक्ति यदि किसी भाषा में हो तो वह 'सस्कृत' भाषा है। इसमे ऐसे अनेक छोटे शब्द हैं जिन्हे पूर्णतया समझने समझाने के लिए काफी विस्तार मे जाना पड़ता है। उत्तर भारत की लगभग सभी भापायो मे 'अपेक्षा' शब्द उन भापानो का अगभूत शव्द बनकर प्रवेग पा चुका है । उन अलग अलग भापात्रो के बोलने वाले इस शब्द का स्पष्ट अर्थ समझते तो है, फिर भी वे भी दूसरे व्यावहारिक अर्थों में इस शब्द का प्रयोग करते है । हमारी गुजराती भाषा में जो जो मान्य शब्द कोप है उनमे इस शब्द के व्यावहारिक अर्थों का ही उल्लेख किया गया है। 'नव-जीवन प्रकागन मदिर' द्वारा प्रकाशित 'सार्थ गुजराती जोडणी कोप' मे 'अपेक्षा' शब्द का प्राशा, इच्छा, अगत्य, आकाक्षा लिखने के बाद 'क्षित' लगाकर 'अपेक्षावालु" ऐसा अर्थ दिया गया है । यह सव देखने पर प्रतीत होता है कि व्यवहारोपयोगी अर्थ अधिक प्रचलित हुए है। परन्तु यहाँ हम तत्त्वज्ञान के विषय में विचार कर रहे हैं । अत.तत्त्वज्ञान के क्षेत्र मे यह शब्द किस अर्थ में प्रयुक्त होता है सो वात-इस शब्द का रहस्य-समझ लेना विशेष आवश्यक है । जैन तत्त्ववेत्तायो ने 'अपेक्षा' शब्द का प्रयोग निश्चित अर्थ मे किया है। हम 'अपेक्षा' शब्द के लिए • ' के सम्बन्ध मे, ' ...' को लक्ष्य मे रख कर ' ' के आधारपर '" ' के सन्दर्भ मे आदि भिन्न भिन्त परन्तु एक ही अर्थ के सूचक शब्द प्रयोग कर सकेगे। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जब हम कहेगे-'द्रव्य की अपेक्षा से', तव हम किसी भी वस्तु मे रहे हुए द्रव्य Substance on basic mate11al को लक्ष्य मे रखकर वात करेगे । उदाहरणार्थ जब हम किसी कुर्सी की वात 'द्रव्य की अपेक्षा से' करेगे तव व्यावहारिक अर्थ मे 'लकडा हमारे मन में होगा। यह लकडा आम के पेड का है, जगली है, सागवान का है या शीशम का, यह बात भी तुरन्त हमारे ध्यान में आ जाएगी।। सोने के किसी अलकार की बात करते समय उसकी आकृति कैसी भी क्यो न हो-पर द्रव्य की अपेक्षा की वात आने पर हम 'सुवर्ण' के मूल स्वरूप की ही बात करते होगे । इसी तरह जब हम क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा की बात करेगे, तव जिस वस्तु की चर्चा हो रही होगी उस वस्तु के अपने क्षेत्र ( स्थान ), काल ( समय ) और भाव ( गुण धर्म ) के साथ उस वस्तु के सम्बन्ध की स्पष्ट जानकारी उसमे से प्रकट होगी, और उसके विरुद्ध-पर द्रव्य, पर क्षेत्र, पर काल और पर भाव की बात भी आएगी ही। ___पहले हम 'उत्पत्ति, स्थिति और लय, का उल्लेख कर चुके है । जैन तत्त्वज्ञानियो ने इनके सामने 'उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य' ये तीन शब्द बताये है, इनका भी उल्लेख हमने किया है। इस त्रिपदी ( तीन शब्द ) के उपर्युक्त दो भिन्न भिन्न शब्दप्रयोगो मे 'अपेक्षा' शब्द का विशेष महत्त्व है । 'उत्पत्ति, स्थिति, और लय इन तीन शब्दो मे किसी प्रकार का आगेपीछे का सम्बन्ध नहीं है, किसी प्रकार का अपेक्षा भाव नहीं है, इसलिए ये शब्द एकान्त सूचक है, यह बड़ी भ्रान्त धारणा है। "उत्पाद व्यय और ध्रौव्य' मे सापेक्षता की अपेक्षाभाव Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ की स्पष्ट सूचना होने के कारण यह शब्दप्रयोग अनेकान्तवाद के सिद्धान्त पर आधारित है, और सही है । वस्तु मात्र परिणाम - शील हे और उसके प्रत्येक परिणमन मे - भाप में पानी की तरहउसके मूल द्रव्य का ध्रुव प्रश तो रहता ही है । प्रत जब भाप के द्रव्य की अपेक्षा की बात होगी तव उसमे 'पानी' तो अवश्य आएगा । इसी तरह जब पानी के द्रव्य की वात होगी तो उसमे 'वायु से सम्बन्धित बात' भी अवश्य आएगी । 'उत्पत्ति' शब्द का जो अर्थ किया जाता है उसे देखते हुए उसमे से ऐसी बात निष्पन्न होती है कि 'उससे पहले कुछ था ही नहीं' । ग्रव, 'पहले कुछ था ही नही' यह बात तो गलत है । उस त्रिपदी मे 'लय' शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, उस पर विचार करे तो हमे प्रतीत होगा कि इन तीनो शब्दो के प्रयोग अनुचित हैं । एक ऐसी मान्यता है कि प्रलय के समय पृथ्वी का नाश हो जाता है -- लय हो जाता है । यदि यह लय अथवा नाश सचमुच होता हो और सम्पूर्ण हो तो फिर से 'उत्पत्ति' सभव ही नही है । फिर भी हम ऐसी अनेक प्रलयकालो की - लय और नाश की बाते सुनते या पढते है | शुद्ध तर्क की दृष्टि से यह बात गलत सावित होती है । यदि हम इन तीनो स्थितियो को सापेक्ष मान कर चले, उनमे अपेक्षा भाव का आरोपण करे तभी उससे हमे प्रकाश प्राप्त होगा । इस जगत मे ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसमे किसी अन्य की अपेक्षा या दूसरे के साथ सम्बन्ध न हो । जिस प्रकार एक ही द्रव्य का अपनी भिन्न भिन्न अवस्था से सम्बन्ध होता है, उसी तरह एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य से भी सम्बन्ध अवश्य Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ होता है । जीव और पुद्गल ये दोनो अगल-ग्रलग द्रव्य हैं, फिर भी इन दोनो के बीच सम्बन्ध है । पुद्गल द्रव्य के प्रणु-श्रणु मे जीव द्रव्य - प्रात्मद्रव्य - व्याप्त है, यह तो प्रत्यक्ष बात है । ये सभी सम्बन्ध अलग अलग प्रकार की अपेक्षाग्रो के होते है । यह 'सापेक्षता' विश्व का एक त्रिकालाबाधित नियम है। जैन तत्त्वज्ञानियों ने उत्पत्ति के स्थान पर 'उत्पाद' शब्द का प्रयोग किया है। यह शब्द भी अपेक्षायुक्त - Relative है । उत्पाद का अर्थ है ' उत्पन्न' होना । फिर भी 'उत्पत्ति' प्रोर 'उत्पाद' में अन्तर है । 'उत्पत्ति' में उसके पहले कुछ भी कल्पना मे नही याता, जब कि 'उत्पाद' में उसके पूर्व और कुछ थायह स्पष्ट ग्रर्थ है | When the car is only इसी तरह 'लय' शब्द मे 'उसके बाद कुछ नहीं रहता' यह भाव श्राता है, जबकि 'व्यय' शब्द मे एक अवस्था का नाश होने पर दूसरी अवस्था का ग्राविष्करण सूचित करने वाला और इस प्रकार श्रवस्थान्तर प्राप्त होने पर भी उसके श्राधारभूत मूल द्रव्य के कायम रहने का गुरण प्रकट करने वाला स्पष्ट भाव प्रौर श्रर्थ है ग्रग्निसंस्कार के द्वारा जब मानव-देह का लय अथवा नाग होता है तव जीवित शरीर में चैतन्य रूप जो ग्रात्मा था वह और उसके चले जाने के बाद बाकी रहे हुए पुद्गल - ये दोनो किसी न किसी रूप मे कायम रहते है । श्रत 'व्यय' शब्द मे भी संपूर्ण नाग का भाव नही, परन्तु श्राधारभूत द्रव्य के कायम रहने का भाव है । इसके मूल मे भी सापेक्षता, अपेक्षा भाव --- Relativity का सिद्धान्त ही काम करता है । प्रथम त्रिपदी मे 'स्थिति' शब्द का प्रयोग किया गया है । उसके अर्थ मे तथा जैन तत्त्वज्ञानियों द्वारा व्यवहृत त्रिपदी के Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ 'ध्रौव्य' शब्द के अर्थ मे भी वडा अन्तर है । 'स्थिति' शव्द का व्यवहार मे जो अर्थ किया जाता है वह है 'जिस स्थिति में हो उसी स्थिति में रहना ।' परन्तु जगत की मानी हुई उत्पत्ति के बाद और माने हुए लय के पहले पहले जो स्थिति है - बीच की जो स्थिति है उसका अर्थ 'वहती हुई स्थिति' होता है । जव किसी वस्तु के सम्बन्ध मे इस शब्द का उल्लेख किया जाय तव भी उसका अर्थ 'वहती हुई स्थिति' ही होना चाहिए। यह तो हम जानते ही है कि प्रत्येक वस्तु की अवस्था निरन्तर बदलती ही रहती है । परिवर्तनशीलता का सिलसिला चलता ही रहता है । एक स्वरूप ग्रहश्य होने पर दूसरा प्रकट होता है । कोई एक ही स्वरूप दीर्घकाल पर्यंत टिकता हुग्रा मालूम होता हो तो भी उनमें दिन-दिन प्रतिपल फेरफार होता ही रहता है । इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि 'स्थिति' नही रहती, व्ययइस्तेमाल होता ही रहता है। रूपान्तरो के द्वारा विनागशीलता एव नवीन नवीन स्वरूपशीलता का क्रम चलता ही रहता है। इसलिए जैन तत्त्ववेत्ताओ ने 'स्थिति' के स्थान पर 'श्रीव्य' शब्द दिया है, क्योकि प्रत्येक परिवर्तन मे भी किसी स्थायी अश की सापेक्षता ( अपेक्षाभाव ) अवश्य रहती है । इस प्रकार 'उत्पाद, व्यय और धौव्य, मे हम जिन तीन परिस्थितियों का दर्शन करते हैं, वे स्थितियाँ भी पृथक्-पृथक् भिन्न भिन्न या एक दूसरे से स्वतन्त्र नही है । ये तीनो एक ही वस्तु की भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ ही है । इन तीनो अवस्थायो का एक दूसरे से जो सम्बन्ध है वह सापेक्षता — अपेक्षाभाव पर निर्भर है । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ वस्तु के प्रत्येक परिणमन मे उसका द्रव्य अग कायम रहता है, पूर्व-पर्याय का नाश होता है और उत्तर-पर्याय की उत्पत्ति होती है। वस्तु का जो द्रव्य अश है वह ध्रुव (स्थायी) रहता है, और पर्याय अश उत्पन्न नष्ट होता है (बनता-मिटता रहता है ) अर्थात् मूल द्रव्य का ध्रौव्य है, और पूर्व पर्याय का नाश तथा उत्तर पर्याय की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार वस्तु मात्र मे ये तीनो धर्म-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-अनादि अनत काल तक चलते रहते है । वस्तु का जो ध्रुव (स्थायी)अश है वह 'नित्य' है और जो उत्पन्न तथा विनष्ट अश है वह अनित्य है । इस तरह वस्तुमात्र कथचित् नित्यानित्य-स्वरूप है-इस वात पर जैन दर्शनकार विशेप बल देते है । कोई वस्तु एकान्त नित्य हो ही नहीं सकती। यहाँ शायद कोई यह प्रश्न पूछे कि "उत्पाद-व्यय तो पर्याय मे होते हैं और प्रौव्य द्रव्य मे रहता है, तब भला उत्पाद व्यय ध्रौव्य एक ही वस्तु के तीन धर्म कैसे कहला सकते है ? इसका उत्तर विल्कुल स्पष्ट है । पर्याय वस्तु से भिन्न नहीं है, द्रव्य भी वस्तु से अलग नहीं है । वस्तु स्वय द्रव्यरूप भी है और पर्याय रूप भी, अतएव ये तीनो धर्म एक ही वस्तु के है। वस्तु मात्र के जो अनेक भिन्न-भिन्न अत-सिरे-हैं, उनमे कोई भी अत स्वतन्त्र नहीं है । ये सभी अन्त किसी न किसी अपेक्षा से एक दूसरे से सम्वन्ध रखते हैं । जव जैन दार्गनिक यह तथ्य नयदृष्टि से तथा सप्तभगी के कोष्ठक के द्वारा समझाते है तव उसके विरुद्ध सवसे वडा होहल्ला यह मचाया जाता है कि 'यह बात अधूरी होने के अतिरिक्त इसमे अनिश्चितता है । ये दोनो आक्षेप, ये सव ववण्डर-झूठे हैं । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जैन तत्त्ववेत्तानो ने कोई बात अधूरी या अनिश्चित ढग से नहीं कही है। उनकी किसी भी वात मे कही भी अनिश्चितता नही है । इसके विपरीत उसमे स्पष्टतया निश्चितता ही रही । 'ही' और 'भी'-ये दो शब्द हमारो भाषा मे अनिय त्रित रूप से प्रयुक्त होते है। इन दोनो गब्दो का निश्चित अर्थ है। सप्तभगी मे 'स्यादस्ति के साथ 'एव' गब्द है, जो एक निश्चितता प्रकट करता है । 'एव' अर्थात् 'हो' । यह 'ही शब्द जहा भी प्रयुक्त होता है वहाँ वह निश्चितता प्रकट करने और वल देने के लिए ही प्रयुक्त होता है । 'स्यात् +अस्ति+ एव'इन शब्दो के मिलने से बनने वाले वाक्य से 'अमुक वात है ही' ऐमी निश्चितता ही प्रकट की जाती है । साथ ही इसके सिवा और भी' कुछ है । दूसरी ओर 'भो' लगा है । इस बात का भी 'स्यात्'शब्द से निश्चित उल्लेख होता है । ये दो शब्द 'ही' और 'भी' कोई अनिश्चय कोई सभाव्यता या कोई सदेह प्रकट नही करते । ये शब्द 'किसी एक और दूसरे प्रकार का' निश्चय प्रकट करते है । यदि यह वात अच्छी तरह समझ मे आ जाय तो फिर सप्तभगी विपयक समझ मे कोई उलझन या भ्रान्ति नहीं रहेगी। सप्तभगी मे जव 'अपेक्षा' की वात आती हैं तब वह भी एक निश्चित स्थिति है । यह 'अपेक्षा' शब्द अधूरे या अनिश्चित अर्थ मे नहीं, बल्कि पूर्ण एव निश्चित अर्थ मे ही प्रयुक्त हुआ है । 'टोपा है' और 'टोपी नही है' इन दो परस्पर विरोवी कथनो मे यह अपेक्षाभाव निहित ही है । अत भिन्न भिन्न अपेक्षाओ से भले ही भिन्न भिन्न वाते कही जायँ पर वे सव Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाते 'असदिग्ध और निश्चित' हैं । छोटा बालक वडा हो गया, अव वचपन की टोपी मौजूद होते हुए भी टोपी के तौर पर उसे काम नही लग सकती, इसलिये 'टोपी नही है' यह भी सच ही है। उसी तरह 'स्व'और 'पर' ये दोनो शब्द भी अनिश्चितता सूचित नहीं करते, निश्चितता ही सूचित करते है । उदाहरणार्थ जब हम घर मे शाक सुधारने का चाल या छूरी टूटते है, तव हमे चाकू है, अथवा 'चाकू नहीं है। ऐसे दो परस्पर विरोधी उत्तर मिलते है । ये दोनो निश्चित उत्तर है । जब चाक है तव वह निश्चित उत्तर है और जव चाकू नही है तब वह भी निश्चित उत्तर है। अव यो समझिये कि जब 'चालू नहीं है' ऐसा जवाब मिला, तव एक चाकू तो घर मे था । वह चाकू वच्चो के खेलने के लिये था और कु ठित था । अत वह अभीष्ट उपयोगी चान नहीं है । इसलिये जब यह कहा जाता है कि 'चान नहीं है' तब वह पर द्रव्य, पर क्षेत्र, पर काल और पर भाव की अपेक्षा से कहा जाता है । चाक के सिवा और अनेक वस्तुएँ घर मे होते हुए भी 'स्वद्रव्य' रूप चाकू वहाँ नहीं है । दूसरे के घर मे भले हो,पर हमारे घर मे 'स्वक्षेत्र' मे नही है । सुबह या कल था परन्तु अभी 'स्वकाल' मे नही है। जो खिलौना बना पडा है वह कु ठित है, तीक्ष्ण नही है, उसमे कु ठितत्व परभ्राव है, इसलिए स्व-भाव मे चाकू नही है। अत जब हम 'नहीं' कहते है, या 'है' कहते है तव वह निरपेक्ष, स्वतन्त्र या स्व-आधारित, कथन नहीं होता। वह कथन सापेक्ष, अपेक्षायुक्त, और सम्बन्ध रखने वाला Relative है। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ हमारी समझ और बुद्धि मे 'अपेक्षा' शब्द चामत्कारिक ढग से वृद्धि करता है | यदि हम इसकी उपेक्षा करे तो जहाँ के तहाँ रह जाएँगे, आगे बढने के बदले पीछे रहते जाएँगे । जैन तत्त्वज्ञान के ' अनेकान्तवाद' के सिद्धान्त मे 'अपेक्षा - भाव, सापेक्षता' अत्यन्त सक्रिय - Active और महत्त्वपूर्ण important हिस्सा अदा करता है । जीवन के विविध क्षेत्रो मे भी यदि हम अपेक्षा - सापेक्षता - को छोड़ दे तो प्रवेरे मे ही भटकना पडे | यह अपेक्षावाद या स्याद्वाद केवल श्रमुक प्रकार की चर्चा व्यवहार या बुद्धि की विगदता के लिए ही नहीं है, परन्तु वस्तुमात्र वास्तव से स्वयं जैसी अनेक धर्मात्मक है उसका वैसा ही दर्शन कराने वाला है । इससे ही वस्तु के समस्त स्वरूप समझे जा सकते हैं । इस प्रकार सापेक्षवाद या स्याद्वाद की दृष्टि वस्तु में कुछ नई सृष्टि नही करती, अथवा कोई श्रारोपण नही करती परन्तु मार्गदर्शक को तरह जो कुछ वस्तु में है उसे खोल कर दिखाती है । राम पिता भी है और पुत्र भी, यह भाव लव-कुश की तथा दशरथ की अपेक्षा से स्पष्ट होता है । 'सापेक्ष' शब्द का अर्थ, 'म + पेक्षा -- जिसमे अपेक्षा रही हुई है सो' होता है । मूलत. प्रधानता उसके अपेक्षा भाव की ही है । यह तथ्य और अपेक्षा गब्द का अर्थ अच्छी तरह समझ लेने पर 'सप्तभगी को समझने मे हमे वडी सरलता रहेगी, और किसी प्रकार की कठिनाई नही होगी । चलिये, व हम 'सप्तभगी' का विवेचन करेगे । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तभंगी अब हम इस सप्त भगी के जिन सात भगो की जानकारी प्राप्त करेगे उन्हे हम यहां एक ही वस्तु को सात भिन्न भिन्न रीतियो से जाँचने की कमीटी Test के तौर पर मान सकते है। सुवर्ण को परखने के लिए उसकी कसौटी करने का एक पत्थर होता है, जिसे स्वर्णकार 'कमीटी' के नाम से पहचानता है। वस्तु को पहचानने, परखने और समझने के लिए जैन शास्त्रकारो ने 'सप्तभंगी' नामक मात 'कसौटी मिद्ध निर्णययन्त्र' वनाये है-Seven formulas for testing -- निर्णय करने के लिए सात विधियाँ । ___पहले मनुष्य को कुछ भी जानने की इच्छा ( जिज्ञासा) होती है। जिनासा का वीज है सशय । सराय सात प्रकार के होते है, अतः जिज्ञासा के भी सात प्रकार हुए । सशय अर्थात् एक प्रकार का प्रश्न और जिनासा अर्थात् उसका उत्तर प्राप्त करने की क्रिया। मशय सात तो उनके उत्तर भी सात । आठवे प्रकार का सशय अभी तक कोई खोज नही सका है। हम अपना घर बन्द कर, ताला लगा कर यात्रा करने के लिए सपरिवार दूसरे गाँव गये हैं। वहाँ समाचार मिलते है कि हमारे गांव मे चोरो का उपद्रव शुरु हुअा है । यह समाचार मिलते ही हम कुछ अस्वस्थता अनुभव करेगे, और हमारे मन मे अपने घर की सुरक्षितता के विषय मे सगय पैदा होगा। इस समय के सात प्रकारो की हम जांच करे: १) क्या मेरे घर में चोरी हुई है ? २) क्या चोरी नहीं हुई ? Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ ३ ) चोरी हुई होगी, या नही हुई होगी ? ४ ) क्या कहा जा सकता है ? ५ ) हुई होगी, पर क्या कहा जा सकता है ? ६ ) नही हुई, पर क्या कहा जा सकता है ? ७ ) हुई है, नही हुई, पर क्या कहा जा सकता है ? जैन दार्शनिक इन सात जिज्ञासाओ के लिए घड़े का उदाहरण लेकर प्रश्न पूछते है ( १ ) क्या घड़ा है ? ( २ ) क्या घडा नही है ? (३) क्या घडा है, और नही है ? ( ४ ) क्या घडा श्रवाच्य है ? ( ५ ) क्या घडा है और अवाच्य है ? ( ६ ) क्या घडा नही है और प्रवाच्य है, ( ७ ) क्या घडा है, नही है, और अवाच्य है ? - इन सात के अतिरिक्त ग्राठवाँ प्रश्न कभी किसी को नही उपस्थित हुआ । श्राप प्रयत्न कर देखियेगा, यदि आप आठवाँ प्रश्न ढूंढ निकालेगे तो आपका नाम एक बडे प्राविष्कारक के रूप मे अमर हो जायगा । हमे तो विश्वास है कि इसके लिए प्रयत्न करना निरर्थक ही सिद्ध होगा । ये सात प्रकार के सशय और सात प्रकार की जिज्ञासाएँ जैन तत्त्ववेत्ताओ ने बताई है, इसीलिए सात है ऐसा नही । दरअसल अभी तक आठवाँ प्रकार कोई बता नही सका है । प्रत. ये सात ही है, यह तथ्य स्वीकार करके ही हम आगे बढगे । जब कोई व्यापारी पेढी ( कपनी ) किसी कार्य के लिए किसी सहायक (Assistant) की नियुक्ति करती है, तब उसे नियुक्तिपत्र देने से पहले उसकी कसौटी करती है । जिस काम के लिए उसे नियुक्त करना हो उसके बारे मे उसका ज्ञान श्रीर Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ अनुभव उसकी प्रथम कसौटी है । उसके बाद वह व्यक्ति परिश्रमी है या नही, प्रामाणिक है या नही, विश्वासपात्र है या नही, तन्दुरुस्त है या नहीं, अच्छे खानदान का है या नही, उसके लिए योग्य सिफारिशे ( References ) हैं या नही, उसकी वारणी श्रौर लेखनशैली अच्छी है या नही और अन्त मे वह दूसरो को प्रभावित कर सकता है या नही - ग्रादि सारी बातो की पूरी जाँच करने के बाद ही उसकी नियुक्ति की जाती है । तदुपरात इस बात का विचार भी किया जाता है कि वह व्यक्ति स्वभाव से झगडालु है या शान्त, मधुर चौर समाधानप्रिय है । इस प्रकार नियुक्ति करने के वाद भी उसे स्थायी पद देने से पहले तीन या छह महीने का प्रयोगात्मक समय (Piobation Period) दिया जाता है । हाँ यदि वह ममेरा मौसेरा या चचेरा फुफेरा कोई सम्बन्धी हो तो बात और है । इस प्रकार भिन्न भिन्न व्यक्तियो और वस्तुओ की परख करना एक सनातन व्यावहारिक सिद्धान्त है । जैन दार्शनिको द्वारा निर्मित सप्तभगी भी इसी तरह की एक पद्धति - Formula—G1oup of formulas है । इन सात कसौटियों पर चढाने के बाद जो निर्णय Solution Conclusion किया जाता है वह पूर्ण और विश्वासपात्र - Complete and Rehable ही होता हैइस विषय मे फिर किसी शका के लिए कोई अवकाश नही रहता । इस पद्धति से निर्णय करने के बाद मनुष्य के मन पर कोई बोझ नही रहता । वह किसी प्रकार की चिन्ता किये विना निश्चिन्त नीद ले सकता है । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ क इसके अतिरिक्त इस फॉरमुला की विशेषता यह वह सपूर्णतया बुद्धिगम्य - Completely rational है। इसमे ऐसा गूढ, गहन या अगम्य कुछ भी नही जो समझ मे न श्री सके । 1 अच्छा तो अब हम सात भगो-कसौटी सिद्ध निर्णय - त्रो की जाँच करे । कसौटी पर कसने के लिये किमी सुवर्णयुक्त वस्तु को श्रावश्यता तो होती ही है, हमे भी यहाँ इसके लिये किसी वस्तु की जरूरत होगी । जैन तत्त्ववेत्ताग्रो ने इसके लिए 'घट' अर्थात् 'घडा' चुना है हम भी उसी से प्रारंभ करेंगे । यहाँ पहले निर्दिष्ट 'स्यात्' और 'एव' शब्दो का पूरा महत्त्व है प्रत. हम इन दोनो शब्दो को साथ लेकर ही ग्रागे वढोगे । कसौटी १ - स्यादस्त्येव घट | - इस वाक्य को भली भाँति समझने के लिए हम सधियो का विग्रह कर लेते है - स्यात् + ग्रस्ति + एव घट । इसका अर्थ हुआ — कथचित् घडा है ही । यहाँ हमने 'स्यात्' शब्द प्रयुक्त किया है । इसका अर्थ तो हम पिछले पृष्ठो मे समझ चुके हैं । यह वाक्य हमे बताता है कि 'अमुक अपेक्षा से घड़ा है ही ।' साथ ही साथ दूसरी किन्ही अपेक्षाग्रो की गर्भित सूचना भी देता है । पहले हम जिन चार श्राधारो की चर्चा कर चुके है उनमे 'स्व' शब्द जोड कर हमे यह निश्चित करने मे कोई कठिनाई नही होती कि 'स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्व-भाव की अपेक्षा से घड़ा है ।' 'यह घड़ा है हो' यह एक निश्चित वात हो गई । अव हम यह समझेंगे कि उक्त चार अपेक्षाएँ घडे को किस तरह लागू होती है । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ १ ) द्रव्य की अपेक्षा से घड़ा मिट्टी का है। मिट्टी घडे का अपना —— स्वद्रव्य है । २ ) क्षेत्र की अपेक्षा से घड़ा बाहर के खड मे है | यह उसका स्वस्थल हुन । ३ ) काल की अपेक्षा से घडा कार्तिक मास में है । यह उसका स्वकाल हुआ । ४ ) भाव की अपेक्षा से घडा लाल रंग का है । यह उसका स्वभाव हुआ । इस घड़े के साथ साथ हम एक फूलदान (Flower vase) भी लेते है | यह फूलदान पीतल का बना है । जब उसमे फूल डाल कर उसे मेज पर रखते है तब वह फूलदान बन जाता है । फूल निकाल कर उसमे हम मूँग भर दे तो वह एक सामान्य बर्तन बन जाता है । अब हम उसे अपेक्षा - चतुष्टय से जाँचे । १) फूलदान का स्व द्रव्य 'पीतल की धातु' है । २) फूलदान का स्व- क्षेत्र दीवानखाना है । ३) फूलदान का स्व-काल उसमे जितने समय तक फूल रहते है वह समय है | क्योकि वह ऊपर ४) फूलदान का स्व-भाव दीवानखाने की शोभा मे वृद्धि करना है । उसे हम 'फूलदान है' ऐसा कहते है बताई हुई चारो अपेक्षाएँ पूर्ण करता है । घडे के सम्बन्ध मे तथा इस फूलदान के सम्बन्ध मे प्रथम भग द्वारा इन चारो अपेक्षाओ के अधीत यह निर्णय हुआ कि वह 'है ही ।' इस प्रकार उक्त Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ यह निर्णय करने में उक्त 'स्यात्' गव्द के प्रयोग से घडे मे तथा फूलदान मे रहा हुआ अपेक्षाभाव सूचित हुआ, और 'एव' शब्द से इस कथन मे निश्चित भाव आया । इस रीति से निर्णय करने मे हम उचित मार्ग पर (On ught path) है । अर्थात् इस प्रथम कसौटो ने हमे एक निर्णय प्रदान किया कि "घडा है।" कसौटी २-स्यान्नास्त्येव घट । सधियो का विग्रह करने पर यह वाक्य यो पढा जाएगा स्यात्+न+अस्ति+एव घट । इसका अर्थ हुआ'कथंचित् घडा नही ही है।' ___ऊपर पहली कसौटी मे स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, और स्व-भाव की अपेक्षा से 'घडा है ही' ऐसा निर्णय करने के बाद हम विचार करने लगे कि, 'तव क्या घडा नही भी है सही । ऐसा अन्य भी कोई निर्णय लिया जा सकता है क्या ?' दूसरे प्रकार की जिज्ञासा के द्वारा जाँचने पर इस दूसरे भग से हमे यह ज्ञात हा कि घडा जो है सो 'स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से है। परन्तु वही घडा परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से नही है । अर्थात् पूर्वोक्त घडा है सही पर वह तांबे का नही है, अन्दर के खंड मे नही है, अगहन महीने में नहीं है, लाल रंग का नहीं है। उपर्युक्त फूलदान भी इसी तरह 'नही है' ऐसा निश्चित होगा । स्व' की अपेक्षा से जो था, सो पर द्रव्य, पर क्षेत्र, पर काल और पर भाव की अपेक्षा से नही ही है ऐसा कहने मे कोई उलझन नही है। इनमे से एक ही अपेक्षा का उपयोग करते हुए उसमे से फूल निकाल कर मूग भर दिये जायें Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ । तो - वह फूलदान मिट जाता है चारो अपेक्षाओ को साथ रख कर तिस पर भी हम तो इन करते है कि ही निर्णय 'फूलदान नही है ।' इस सब पर भली भाँति विचार करने पर हमे स्पष्टतया समझ में आएगा कि 'स्व' की अपेक्षा से घड़ा था - वह 'पर' की अपेक्षा से नही रहता । फूलदान का की अपेक्षा पर निर्भर था और 'पर' की करने पर वह 'नास्तित्व' बन गया । प्रस्तित्व भी 'स्व' ग्रपेक्षा से विचार यह दूसरी कसोटी हमसे कहती है कि १) तांबे की धातु ( पर द्रव्य ) की अपेक्षा से घड़ा नही है । - २ ) प्रदर के खड ( पर क्षेत्र ) की अपेक्षा से घड़ा नही है । ३) अगहन महीने ( परकाल ) की अपेक्षा से घड़ा नही है । ४) हरे रंग ( पर भाव ) की अपेक्षा से घडा नही है । इसी तरह से उक्त फूलदान भी मिट्टी का नही है दीवानखाने के बाहर नही है, उसमे जिस समय फूल न हो उस समय नही है, और जब दीवानखाने की शोभा में वृद्धि नही करता तब भी नही है । इस प्रकार इस दूसरी कसौटी के द्वारा परखने पर हमे मालूम हुआ कि घडा और फूलदान नही है । जहाँ तक इस कसौटी ( भग ) का सबंध है, यह एक निश्चित बात हो गई । 'स्यात्' शब्द इस दूसरे भाग मे भी इस निर्णय की सापेक्षता सूचित करता है, और 'एव' शब्द करता है । निश्चित-भाव प्रकट Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ इन दो प्रकार की जिज्ञासाम्रो को मतुष्ट करने पर हमे फिर तोमरी जिज्ञासा जागृत होती है कि, 'तब क्या बढा उभय स्वर प है ।' उनका उत्तर देने के लिए तीसरा भग तैयार ही खड़ा है । उने हाथ में लेने के पूर्व सुविधा के लिए हम अपेक्षा से सम्बन्धित अपने शब्दप्रयोगों का एक 'राग्रह' बना ले । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन चार शब्दो के बदले हम 'चतुष्टय' शब्द प्रयुक्त करेंगे। उनमे अावश्यकतानुसार 'स्व' और 'पर' जोट कर हम स्वचतुष्टय' तथा 'परचतुष्टय' गब्दो का प्रयोग करेंगे। अब देखिये तीसरी जिज्ञासा का उत्तर यह है फसोटी ३-स्यादस्तिनारित चैव घट । अब, उसको सघियो का विग्रह करे स्यात्+अस्ति+न+अस्ति+च+एव घटः । इस का अर्थ हुा-कचित् घटा है हो और कथाचित् नहीं ही है।' हमारी वृद्धि की असली कमीटी अब यहां से शुरु होती है। प्रथम दो भगो मे हमे ज्ञात हुआ कि घडा है और घटा नही है । उग वक्त तो हमने समझ लिया कि ठीक है भाई, घडा जहां है वहाँ है और जहां नही है वहाँ नही है । परन्तु इस तीसरे भग मे तो 'है और नहीं हैं ऐसी एक सयुक्त बात कही गई है। यह फिर क्या है ? है, तो है, नहीं है, तो नही है । तब फिर यहाँ 'है और नहीं है' ऐसी सदिग्ध बात करने की क्या आवश्यकता है ? सबसे पहले तो हम यह समझ ले कि इस ज्ञानयुक्त मनोरजन सी प्रतीत होने वाली बात में कोई अनिश्चितता या सदिग्धता नहीं है। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० यह बात पहले और दूसरे भग के योगफल जैसी प्रतीत होती है, परन्तु यह योगफल नहीं है । यह एक 'तीसरी नश्चित बात है। ___ यहाँ हम पहले समझी हुई एक बात को याद कर ले। 'परस्पर विरोधी फिर भी सम्बन्धित अनेक गुण धर्म एक ही वस्तु मे निहित है ।' यह बात पहले कही जा चुकी है । ____ यह तीसरा भग यहाँ एक ऐसी बात कहता है जो पहले और दूसरे भग मे नही कही गई। वस्तु के जो भिन्न भिन्न स्वरूप होते है वे अलग अलग स्वरूपो के समूह या योगफल की तरह नही होते, स्वतन्त्र होते हैं, यह वात हम अनुभव से जानते है । कदाचित् योगफल हो तो भी उसका स्वरूप अलग ही होता है। किन्ही दो रगो के मेल से जव तीसरा रंग बनता है तव हम उसे 'दो रगो के मिश्रण' के नाम से न पुकार कर तीसरे ही नाम से पुकारते है। यह तो सव के अनुभव की बात है । इसी तरह स्वचतुष्टय की अपेक्षा से 'है' और परचतुष्टय की अपेक्षा से 'नहीं है'-इन दोनो को एकत्रित करके जब हम 'है और नही हैं ऐसी तीसरी बात कहते है तब वह योगफल न रह कर तीसरी एक निश्चित वात बन जाती है । 'है' का अस्तित्व और 'नही है' का नास्तित्व-इन दोनो के स्थान पर 'है और नही है ऐसे तीसरे निर्णय का अस्तित्व यहाँ प्रकट होता है। इस तथ्य को भलीभॉति समझने के लिए 'शराव' का 'उदाहरण' लेते है। हमे गराव के विपय मे भिन्न भिन्न मतव्य मिलेगे। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ हम शराव वन्दी-विभाग के अधिकारी से पूछेगे तो वह कहेगा, "शराव उपयोगी नही है।" __शराव का नियमित उपयोग करने वाले से पूछे तो वह कहेगा कि शराब उपयोगी है। ____ डाक्टर से पूछे तो उत्तर मिलेगा, "शराव उपयोगी है और नही है।" यदि डाक्टर से हम फिर पूछे तो वह स्पष्टीकरण करेगा कि औषधि के रूप मे शराब उपयोगी हे और पीने की आदत के तौर पर उपयोगी नहीं है क्योकि हानिकारक है। । ये तीनो मन्तव्य भिन्न भिन्न अपेक्षायो पर आधारित है। फिर ये तीनो स्वतन्त्र मन्तव्य है। बात समझ मे आ गई न ?, और अच्छी तरह से समझने के लिए हम कहेगे कि प्रथम भग मे हमे श्री 'स्वचतुष्टय' की ओर से एक निश्चित उत्तर मिला । दूसरे भग मे हमे श्री 'परचतुष्टय' की ओर से दूसरा निश्चित उत्तर मिला । अन्त मे इस तीसरे भग मे 'स्वचतुष्टय परचतुष्टय एण्ड कम्पनी' की ओर से तीसरी निश्चित राय मिली। हम हीरे का 'दृष्टान्त ले । एक हीरा 'आसमानी झाई वाला सफेद' (Blush White)है और दूसरा लाल झाई वाला सफेद (Reddish White) है । इन दोनो के क्रमश 'आसमानी और सफेद' तथा 'लाल और सफेद' ये दोनो रग होते हुए भी प्रत्येक के लिए एक तीसरा निश्चित शब्द प्रयुक्त होता है और उससे पहले के वनिस्वत तीसरी ही वस्तु का बोध होता है । उसी तरह यह 'है और नहीं है' भी (१) 'है' तथा (२) 'नही है'-इन दोनो से अलग तीसरी ही बात हमे केह जाता है। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૨ जैसे घडे के विषय में वैसे ही फूलदान के विषय मे भी इस तीसरे भग के अनुसार निश्चित हो गया कि 'फूलदान है और नहीं है।' अब यह पूर्णतया समझ मे आगया होगा कि इस तीसरे कथन मे किसी प्रकार की अनिश्चितता या सदिग्धता नहीं है। यह तीसरी कसौटी वस्तु का तीसरा स्वरूप समझने के लिए है । यह कथन सापेक्ष है । जो लोग इस बात को अच्छी तरह समझ लेगे उन्हे इसकी समझ के विषय मे कोई भ्रान्ति नहीं रहेगी। इस प्रकार घडा और फूलदान है और नही है इस बात की समझ प्राप्त करके आगे बढने से पहले पुन इतना याद कर ले कि इस तीसरी निश्चित वात मे भी 'स्यात्' शब्द होने से स्वचतुष्टय और परचतुष्टय की मर्यादाएँ और अपेक्षाएँ क्रमश स्वस्थान मे है ही। यह शब्द अपने ढग से तृतीय भग मे भो अन्य अपेक्षायो का गभित सकेत तो करता ही है । फिर भी इस तीसरी वात मे कुछ भी सशय या अनिश्चय नही है । इसके विपरीत, यह हमे वस्तु को समझने की तीसरी दृष्टि' देती है। इन तीन निर्णयो के बाद फिर चौथी जिज्ञासा प्रकट होती है जो हमे चौथे भग की ओर ले जाती है। ४ कसौटी-स्यादवक्तव्य एव घट । सधि अलग करने पर यह वाक्य यो पढा जाएगास्यात+अवक्तव्य +एव घट । इसका अर्थ होता है --'कथचित् घडा अवक्तव्य ही है।' अवक्तव्य अर्थात् 'जिसका वाणी या शब्दो द्वारा वर्णन । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ हो सके । ' हमे अपनी समझने की शक्ति की उत्कटता का असली उपयोग यहाँ करना है । पहले मे कहा कि 'है', दूसरे मे कहा कि 'नही' तीसरे मे हमे ज्ञात हुआ है कि 'है और नही है ।' ये तीनो वाते तो हमारे दिमाग मे आ गई परन्तु यह ' प्रवक्तव्य' क्या है ? घडे का वर्णन क्यो नही हो सकता इस बात को समझना कोई कठिन नही है । हमे अपनी रोजाना जिन्दगी में इस प्रकार का शब्दप्रयोग कई वार होता दिखाई देता है । से उदाहरणार्थ - किसी के अत्यधिक उपकार के भार से दवा हुआ कोई व्यक्ति मुंह बोल कर या लिखित रूप से ऐसा शब्दप्रयोग करता है, "मेरे पास अपनी भावना का पूर्णतया वर्णन करने के लिए शब्द नही है ।" इसी तरह किसी अत्यधिक वढ जाती है तव कुछ है, "मेरे दिल मे क्या क्या है, भी प्रकार की भावना जव लोग ऐसा कहते भी सुने गये उसका वर्णन करने में असमर्थ हूँ । अग्रेजी भाषा मे इस आशय की शब्दावलि देखने को मिलती है - I have no words to expless — I am unable to express my gratitude ! मेरे पास इसे व्यक्त करने के लिए शब्द नही है — में अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने मे असमर्थ हूँ । इस प्रकार के वाक्यो का प्रयोग करने वाले लोगो को अपनी भावनाओ की जानकारी तो होती है । वे नासमझ तो नही होते, यह बात तो सभी समझ सकेंगे, परन्तु उनकी बात व्यक्त करने के लिए निश्चित शब्द नही मिलते, इसलिए वे इस प्रकार के वाक्य बोलते है । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ पहले तीन भगो मे घडे के विषय में क्रमश कथन द्याया । एक मे हमने घडे का ग्रस्तित्व स्वीकार किया । दूसरे मे उसका 'प्रभाव - न होना' स्वीकार किया। तीसरे मे ग्रस्तित्व और प्रभाव' विषयक एक निश्चित कथन हमने मजूर किया । तीसरे भग मे वस्तु के दोनो धर्मो का क्रमण कथन है । परन्तु यदि कोई कहे कि दोनो का युगपद् कथन करो तो इमे कहना पडेगा कि 'ऐसे तो वह वक्तव्य है ।' यदि कोई कहे कि 'है प्रोर नही है' यो नही बल्कि एक ही स्पष्ट बात इस चौथे भग से करो, तो हम कहेंगे कि एक ही साथ 'हे श्रीर नही है' यह भाव प्रकट करने वाला कोई 'एक' शब्द भाषा मे नही है, इसलिये यह वात 'वक्तव्य' है, इसका वर्णन नही किया जा सकता । जव हम किसी बीमार श्रादमी का हाल जानने के लिये जाते है तो वह सामान्यतया उत्तर देता है - 'ठीक है, अच्छा है ।' परन्तु 'ठीक' शोर 'अच्छा' ये दोनो शब्द सापेक्ष है । 'कल से अच्छा पर बीमारी शुरु होने से पहले के स्वास्थ्य की अपेक्षा 'खराब' ये दोनो अर्थ उस उत्तर मे निहित है । जब हम उससे कहे कि भाई, तबीयत का ठीक ठीक स्पष्ट वर्णन करो' तव वह क्या जवाब देगा ? एक ही जवाब दे सकता है कि 'कुछ कहा नही जा सकता ।' यह जवाब ग्रस्पष्ट नही है क्योकि 'ऐसा या वेसा कुछ कह सकने की स्थिति मे नही हूँ' इस वाक्य मे भी एक स्पष्ट अर्थ है ही । युद्ध के मैदान मे, वैज्ञानिक प्रयोगशालाओ मे तथा न्यायालयो मे ऐसी परिस्थिति कई बार देखने जानने को मिलती है। वहाँ चलती हुई प्रवृत्तियो के परिणाम के विषय Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ में पूछने पर हमे ऐमा जवाब मिलता है-'Cant say anything कुछ भी नहीं कहा जा सकता।' यह कोई अस्पष्ट जवाव नही है । यह परिस्थिति का सच्चा और स्पष्ट मूत्याकान है। इसी तरह से घडा 'अवक्तव्य' है ऐसा कहने में भी एक निश्चित और स्पष्ट अर्थ है । 'हे और नहीं है' इस वाक्य मे से 'और' गब्द को हटाकर हम परिस्थिति का वर्णन नहीं कर सकते। यहाँ भी वही 'स्यात्' शब्द है । यह शब्द इस अभिप्राय के अतिरिक्त अन्य सापेक्ष सभावनाओं का उल्लेख करते हुए भी मूल कथन की निश्चितता को सुरक्षित रखता है । 'एक' शब्द कथन को सपूर्ण निश्चितता प्रदान करता है । एक ही वस्तु को 'है' 'नही है' तथा 'है और नहीं है। इन तीनो दृष्टियो से एक साथ प्रस्तुत करने मे जो कठिनाई है उसे यह चौथा भग एक शब्द 'प्रवक्तव्य' के द्वारा दूर करता है। इस बात को इस ढग से प्रस्तुत करने मे हम असत्य कथन करने से बच जाते है । इसके उपरात एक सत्य कथन करने वाले के रूप मे हम सम्मान भी प्राप्त कर लेते है । इस प्रकार यह चौथा भग हमारे सामने एक नया दृष्टिबिन्दु प्रस्तुत करता है-वस्तु को समझने की एक नई दृष्टि देता है । वेदान्तमत मे नेति नेति (न+इति)का जो विधान है, वह सप्तभगी के इस चौथे भग को समझने के लिए एक सामान्य दृष्टान्त का काम देता है। वर्णन करने के असामर्थ्य मे से 'नेति नेति' (ऐसा नहीं, ऐसा नही)शब्द स्वत प्रकट हुए है। ये शब्द बोलने वाला ब्रह्म को समझने की अपनी शक्ति की दृष्टि से ऐसा शब्दप्रयोग करता है । परन्तु वह ऐसा नही Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ कहता कि 'ब्रह्म कोई वस्तु नही है।' इसी तरह चौथे भाग मे 'अवक्तव्य' शब्द अमुक सापेक्षता का सूचक है और एक स्पष्ट विधान प्रस्तुत करता है | अर्थात् चौथे भाग द्वारा हमने यह निश्चित किया कि 'घडा तथा फूलदान प्रवक्तव्य है |' तत्त्वज्ञान मे एव व्यवहार मे दोनो में इस चौथे निर्णय का विशेष महत्त्व है । हमारी चार प्रकार की जिज्ञासाएँ तृप्त हुईं। परन्तु पाँचवी तो खडी ही है। चलिए, अब हम पचम भग की प्रोर आगे बढे | कसौटी ५ - स्यादस्त्येव स्यादववतव्यश्चैव घट | इस वाक्य की सधियो का विग्रह करे स्यात् +अस्ति + एव स्यात् + अवक्तव्य + च + एव घट | इसका अर्थ हुआ, कथचित् घडा है ही, और कथचित् घडा वक्तव्य है ही । इस पाँचवे भग मे हमारे सामने एक नई ही - पांचवी - दृष्टि प्रस्तुत होती है । चौथे भग मे हम सापेक्ष दृष्टि से 'अव - क्तव्य' कह कर रुक गये थे । ऐसा कह कर हमने उसके अस्तित्व को अस्वीकार नही किया । यदि ऐसा करे तो 'स्यात्' शब्द निरर्थक हो जाय । चौथे भग के द्वारा निर्णय करते समय हमारे सामने तीन कथन थे - (१) है, (२) नही है (३) है और नही है । इन तीनो के उपरान्त वस्तु की और एक स्वतन्त्र खासियत के आधार पर हमने 'अवक्तव्य' द्वारा चौथा स्वतन्त्र कथन किया था । यह चतुर्थ विधान स्पष्ट, बुद्धिगम्य और दिन व दिन के जीवन में प्रयुक्त वाक्य है, यह बात भी हमने स्वीकार की थी । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ यहाँ हम एक नया स्वतन्त्र विधान इन पांचवी कसोटी के नाधार पर कर रहे हैं-है और प्रवक्तव्य है।' ममे में 'बनग' को तो हम ठीक तरह से समझ चुके हैं। जिम दन्तु में दो परस्पर विरोगी गुण-धर्म हो उने उन दोनो स्पो में एक ही बार में और एा ही रीनि ने समझाया नहीं ना सकता । अब यह पाँचा भंग वस्तु के अस्तित्व को स्वीकार कर के फिर 'वत्तव्य' कहता है। बह पांचवां भग उस्तु को स्वचतुष्ट-अपेक्षिन रितत्व को स्वीकार करता है, साथ ही उनमें यह बात भी जोड देना है किन्नन्न परचतुष्टर तथा स्वतन्त्र स्व-पर-चतुप्रयव्य वो अपेक्षा ग्लो लक्ष्य में लेकर उसका वर्णन नहीं हो सकता। _वन्नु के सभी धर्मों को स्पष्ट करने के लिए प्रथम चार भगो के द्वारा प्रस्तुत मन्तव्य पर्याप्त नहीं होने के कारण ही इस पांचवे और इसके बाद के छठे तथा मानवे भगो की यावश्यकता उपस्थित हुई है। पहले के चार भग भली भाति समझ में आजाने के बाद इस पांचवे भंग को नमनने में कोई कठिनाई नही होगी । 'वस्तु है और प्रवक्तव्य है' यह एक निश्चित बात उन कसोटी से सिद्ध होती है । इसे समझने के लिए एक उदाहरण लेते हैं 'कुआं खोदने के लिए ऐसी जगह पनन्द की जाती है जिमके नीचे अधिक से अधिक निकट से पानी निकल सके। जमीन के नीचे पानी है यह एक निश्चित तथ्य (Matter of fact) है । फिर भी कुरा खोदने के लिए पसन्द की हुई जगह के विषय मे कोई निश्चयपूर्वक यह नहीं कह सकता कि वहाँ अवश्य निकट से पानी निकलेगा। इस अवसर पर यदि कोई Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ पूछे कि क्या यहाँ पानी है तो उसका क्या उत्तर हो सकता है ? ऐसा स्पष्ट जवाव, जिसमे से असदिग्ध समझ प्राप्त हो सके, केवल इस वाक्य के द्वारा ही दिया जा सकता है-'है पर कुछ नहीं कहा जा सकता।' कुआँ खोद कर उसमे से पानी निकालने के वाद कोई नहीं पूछेगा "क्या यहाँ पानी है ? इसी तरह, जब यह पाँचवी कसौटी कहती है कि 'है और प्रवक्तव्य है' तो यह भी एक स्पष्ट और निश्चित बात है। यह पाँचवाँ कथन भी सापेक्ष है और अन्य अपेक्षायो से होने वाली अन्य निश्चित वातो का अस्वीकार नहीं करता। यह पहले के चारो से एक विशिष्ट और नई बात हमारे सामने पेश करता है। एक बार फिर समझ ले कि स्वचतुष्टय की अपेक्षा से 'है' यह निश्चित वात करने के बाद, यह पाँचवाँ भग स्व-पर-चतुष्टयद्वय को ध्यान में रख कर एक साथ वर्णन नही हो सकता-ऐसी दूसरी निश्चित वात भी उसके ( अस्तित्व के ) साथ ही कहता है । इस तरह घडा और फूलदान-दोनो के बारे मे, हम इस पांचवी कसौटी के द्वारा बताये गये निर्णय से यह स्पष्ट कथन करते है कि 'है और अवक्तव्य है।' अब हम अपनी छठी जिज्ञासा का उत्तर पाने के लिए छठे भग की ओर बढते है। कसौटी ६-स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यश्चैव घटः । सधियाँ छोडने पर यह वाक्य निम्नानुसार पढा जाएगास्यात्+न+अस्ति+एव,स्यात्+अवक्तव्य +च+एव घट. । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ इसका अर्थ होता है - 'कथचित् घडा नही ही है और चित् वक्तव्य है हो ।' हमने प्रथम कसौटी वाले ' है ही' शब्दावलि से प्रकट होने वाले अस्तित्व को तथा चोथे भग के 'ग्रवक्तव्य' को साथ रख कर पाँचवे भग में पाँचवाँ कथन किया था। इस छ े भग मे हम दूसरे भग मे से 'प्रभाव - नास्तित्व' तथा चौथे भाग में से 'ग्रवक्तव्य' इन दो विधानो को एक साथ प्रस्तुत करते है । पांचवे भाग में हमारे सामने जिस तरह पहली घोर चौथी कसौटी के सयोजन से पाँचवाँ नया दृष्टिविन्दु प्रस्तुत हुआ था, उसी तरह इस छठे भाग मे हम दूसरे और चौथे भाग के सयोजन द्वारा एक नयी निश्चित परिस्थिति का दर्शन करते हैं । परचतुथ्र्य की ग्रपेक्षा से घड़ा नही है यह वात निश्चयपूर्वक सिद्ध होती है । परन्तु स्व-पर-चतुष्टयद्वय की अलगअलग अपेक्षात्रो से तथा 'स्यात्' शब्द के ग्राधार से उसमे एक दूसरा निश्चित कथन भी जुड जाता है कि 'घडा प्रवक्तव्य है ।' अर्थात् इस छठे भाग मे एक स्वतन्त्र बात कही गई है कि 'घडा नही है और अवक्तव्य है ।' यहा पुन उपर्युक्त कुआँ खोदने का उदाहरण ले । किसीकिसी प्रदेश को 'जल-हीन प्रदेश' कहते है । वहुत गहराई तक खोदने पर भी वहाँ पानी नही निकलता । इसलिए कुआँ खोदने के बारे मे उक्त प्रदेश की जलहीनता की अपेक्षा से यह निश्चित हुआ कि 'इस जमीन के नीचे पानी है ही नही ।' फिर भी जहाँ जमीन है वहाँ नीचे पानी है, यह तथ्य भी निश्चित है । इसलिये इस पर से हम दो तथ्य निकाल सकते हैं कि 'यहाँ पानी होते हुए भी खोदने से प्राप्त नही हुआ । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० व्यावहारिक उपाय से पानी नही मिला इसलिए 'पानी नहीं है। वैज्ञानिक मान्यतानुसार जमीन के नीचे पानी होता ही है, फिर भी यहाँ नहीं मिला। तो यह पानी क्यो नहीं मिला ? फिर भी हम निश्चयपूर्वक यह कहने की स्थिति में नही है कि फिर से प्रयत्न करने पर अन्य किसी स्थान पर खुदाई करने पर, या वोरीग आदि भिन्न भिन्न उपायो सेइन सब भिन्न-भिन्न अपेक्षायो के द्वारा भी पानी नहीं मिलेगा। ___ अत इस जलहीन कहलाने वाले प्रदेश मे 'पानी नही है. और अवक्तव्य ( कुछ नहीं कहा जा सकता ) है'-ऐसी एक सपूर्ण बात कह कर हम परिस्थिति का समुचित चित्र प्रस्तुत कर सकेगे । यह एक स्पष्ट और निश्चित वात हो गई। पाँचवे भग की है और प्रवक्तव्य हे' वाली वात के समान ही यह 'नही है और अवक्तव्य है' वाली नयी वात छठे भग मे आई है । यह छठा नया दृष्टिविन्दु दीपक की भांति स्पष्ट है । सप्त-भगी की सपूर्ण शृखला की यह एक अनिवार्य कडी है। इस तरह इस छठे भग के द्वारा हम यह स्वीकार कर लेते है कि -- 'घडा और फूलदान नहीं है और प्रवक्तव्य हैं।' अव सातवी और अन्तिम जिज्ञासा का उत्तर प्राप्त करे । कसौटी ७-स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्यश्चैव घट । इसकी सधियो का विग्रह करे:स्यात् + अस्ति+न+अस्ति+अवक्तव्यः+च+ एव घट । इसका अर्थ है, 'कथचित् घडा है, नही है और प्रवक्तव्य पांचवे भग मे पहले और चौथे के सयोजन से एक नया Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ चित्र बना था। छठे भग में दूसरे और चौथे के सयोजन से हमे नया दृष्टिबिन्दु प्राप्त हुआ। अब इस सातवे भग मे हम पहले, दूसरे और चौथे-इन तीनो को साथ रख कर यह अतिम नया चित्र बनाते है। पाचवे और छठे भग की तरह यह सातवाँ कथन भी एक स्वतन्त्र परिस्थिति है। यह भी निर्णयात्मक और निश्चित कथन है। इसमे तीन अलग अलग वाते होते हुए भी तीनो मिल कर हमारे सामने एक सम्पूर्ण वात प्रस्तुत करतो हैं । पाँचवे और छठे भग को समझने के बाद इसे समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी। इस सातवी कसौटी में स्वचतुष्टय, परचतुष्टय और इन दोनो अपेक्षाओ को एक साथ प्रयुक्त करने से उपस्थित होने वाली 'अवक्तव्यता' ये तीनो एकत्रित होकर हमारे सामने एक नया ही विशिष्ट चित्र प्रस्तुत करती है। जिस प्रकार इससे पहले के छह भगो में प्रकट हुई बाते-वताये गये निर्णय-~~~ एक दूसरे से भिन्न है उसी तरह यह सातवॉ चित्र भी इन छहो से भिन्न है। इससे हमे और एक नई ही समझ प्राप्त होती है। यह समझ पिछली छह प्रकार की समझ से भिन्न और विशिष्ट है। ____ है, नही है और शब्दो मे उसका वर्णन नहीं हो सकता' इस वाक्य मे भी निश्चितता का सूचक 'एद' शब्द है ही।' फिर दूसरी अपेक्षायो के द्वारा जो अन्य स्वरूप उस वस्तु मे निश्चित तौर पर हैं, उनकी स्वीकृति सूचित करने वाला 'स्यात्' शब्द भी इसमे है। इस दृष्टि से यह सातवी कसौटी हमारे सामने एक सातवाँ स्पष्ट और निश्चित चित्र पेश करती है। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રરર अपेक्षा भेद से एक ही वस्तु का होना, न होना और अवक्तव्य ( वर्णनातीत ) होना" एक सुन्दर और अद्भुत चित्र है, साथ ही बुद्धि-गम्य भी। यहाँ हम उपर्युक्त कुएँ और पानी की वात फिर याद करते है। एक कुएँ मे पानी है, दूसरे मे नही है । दोनो की खुदाई एक सी थी। जिस स्तर पर एक मे पानी निकला उसी स्तर पर दूसरे मे नहीं निकला। अव, जिस जमीन मे ये दो कुएँ खोदे गये है, उसमे अमुक स्तर पर पानी नही है, अमुक स्तर पर पानी है, और एक ही स्तर पर एक कुएँ मे पानी है और दूसरे मे नही है । हम यह वात भी निश्चयपूर्वक कहने की स्थिति मे नही है कि इस जमीन मे दूसरे कुएँ खोदने पर, या जिस कुएँ मे पानी नहीं निकला उसे अधिक गहरा खोदने पर पानी निकलेगा या नहीं ? यदि हम इस सम्पूर्ण परिस्थिति को पूर्णतया व्यक्त करना चाहे, वात जैसी हे बैसी असदिग्धता-पूर्वक कहना चाहे तो हमारे लिए एक ही विकल्प बाकी रहता है और वह यह है कि 'पानी है, पानी नहीं है और कुछ कहा नही जा सकता' ऐसा उत्तर दे। 'क्या इस जमीन में पानी है " इस प्रश्न के उत्तर मे यदि हम कहे कि 'है, नहीं है और अवक्तव्य है' तभी हमारा उत्तर यथार्थ पीर वास्तविक होगा। यह सप्तम कथन भी 'एव' शब्द के द्वारा निश्चित, तथा 'स्यात्' शब्द के द्वारा अन्य अपेक्षाओ के अधीन है, अत इसे समझने मे कोई कठिनाई नही होगी । वह भी एक सापेक्ष कथन है और इस प्रकार सत्य वचन है । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ व्यवहार में भी हमे इस प्रकार की परिस्थिति देखने को मिलती ही है। एक उदाहरण लेते है 'देवजी भाई नामक एक सज्जन को नागजी भाई नामक दूसरे सज्जन ने व्यापार के लिये अपनी पचास हजार रुपये की पूजी उधार दी, और इस पूजी से देवजी भाई ने व्यापार शुरु किया । व्यापार करते करते यह पूजी सुरक्षित रहेगी, बढेगी या नष्ट हो जाएगी, इसका निश्चित उत्तर तो कोई नहीं दे सकता। ___'अव, देवजी भाई के पास अपनी पूजी नहीं थी अत देवजी भाई पूजीहीन है, और परायी पूजी उनके पास आने से वे पूजी वाले है, तथा उनके व्यापार का परिणाम भविष्यकाल की उनकी धीरज, चतुराई, उन्हे प्राप्त सहयोग तथा उनके प्रारब्ध-आदि अनेक अपेक्षाओ पर निर्भर होने के कारण आज यह नहीं बताया जा सकता कि यह पूंजी उनके पास सुरक्षित रहेगी या वढेगी या नष्ट हो जायगी। इन परिस्थितियो मे हमे एक सम्पूर्ण बात इस तरह ही कहनी पडेगी-"देवजी भाई के पास पूजी है, नहीं है, और कुछ नहीं कहा जा सकता।" उनके पास से नागजी भाई कभी भी अपनी पूजी वापस माँग सकते है-यह सभावना रूपी एक अपेक्षा भी इसमे निहित ही है। सब, दूसरी ओर हम नागजी भाई की बात ले । पूजी उनकी अपनी है, इसलिए 'है'। उन्होने पूजी देवजी भाई को व्यापार करने के लिए दे दी है, इस कारण अब वह उनके पास नहीं है, अत 'नही है ।' देवजी भाई के पास यह पूजी पुन प्राप्त होगी या नहीं, यह बात तो देवजी भाई के व्यवसाय के प्रकार, विकास, सफलता-असफलता के अतिरिक्त उनकी Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३४ नीयत पर भी निर्भर है, अतः इन सब अपेक्षाओ के अधीन होने के कारण इस प्रश्न का स्पष्ट जवाब नहीं दिया जा सकता । अतएव नागजी भाई की पूजी के विषय में पूछे जाने वाले प्रश्न के उत्तर मे है, नहीं है, और प्रवक्तव्य है' ऐसी एक मात्र सम्पूर्ण वात यदि हम कहते हैं, तो वही पूर्णतया यथार्थ चित्र प्रस्तुत करेगी। इस प्रकार भिन्न भिन्न अपेक्षायो के कारण स्वचतुष्टय, परचतुष्टय तथा स्व-परचतुष्टय की युगपत् कथन से सबधित अपेक्षात्रयो के अधीन रह कर सातवे भग के द्वारा यही एक सम्पूर्ण और स्वतन्त्र बात कही जा सकती है कि "धडा तथा फूलदान है, नहीं है और प्रवक्तव्य है।" सातवे भग मे भी 'स्यात्' तथा 'एव' ये दोनो शब्द हैं, अत: सातवाँ कथन भी निश्चित और सापेक्ष है । यह हमारी सातवी और अन्तिम जिज्ञागा का बहुत ही सुन्दर उत्तर है। सातों कसोटियाँ एक साथ ऊपर हमने सात भगो के द्वारा वस्तु के धर्म के विषय मे सात भिन्न भिन्न निर्णय किये । ये सातो स्पष्ट, निश्चित और स्वतत्र होते हुए भी इनमे से प्रत्येक कथन मे वस्तु का सपूर्ण चित्र नही है । इन सातो को यदि हम स्वतत्र रहने दे और प्रत्येक को यदि वस्तु का सम्पूर्ण चित्र मान ले तो हमारी यह मान्यता 'ऐकान्तिक' और अशुद्ध मानी जाएगी । यह सव वस्तु की अनेक धर्मात्मकता समझने के लिए हम उसे 'अनेकोत' के द्वारा जाँच रहे थे । अत सपूर्ण चित्र तो हमे तभी प्राप्त होगा जब सातो कसौटियो के द्वारा हमने जो अलग अलग स्वरूप देखे है Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ उन सबको हम एकत्रित कर दे, अन्यथा एकान्त निर्णय के कारण हम दोषी ठहरेगे। ये सातो निर्णय अपने अपने चतुष्टय मे स्वतन्त्र होते हुए भी 'स्व' तथा 'पर' चतुष्टय की अपेक्षा से एक दूसरे के साथ सम्बन्धित तथा जुडे हुए थे ही। इस महत्त्व की बात को हम भूल न जाय, सतत स्मरण रखे, इसी हेतु से इस फारमुला मे 'स्यात्' शब्द प्रत्येक भग मे रखा गया है। जब हम इन सातो स्वरूपो को समन रूप में देखेगे तभी एक सपूर्ण चित्र तैयार होगा। परन्तु इस तरह सपूर्ण चित्र बनाने के वाद भी हम 'स्यात्' शब्द को विदा नहीं कर सकते। इसमे से यदि हम 'स्यात्' शब्द निकाल दे तो हम ऐसी भ्राति मे पड़ जाएंगे कि इस तरह वना हुना सम्पूर्ण चित्र अन्य अगउपागो से रहित है । इस प्रकार पुन हम 'ऐकान्तिक निर्णय' के दोष मे पडेगे, क्योकि स्यात्-पद के विना तो यह अर्थ भी निकल सकता है एक समय 'अस्ति' हे और भिन्न समय मे 'नास्ति' है । स्यात्-पद की सहायता से, जिस समय 'अस्ति' है उसी समय 'नास्ति' है, यह बात समझाने वाले वास्तविक अनेकात से महान् लाभ प्राप्त होता है। इस दृष्टि से यहाँ जो 'स्यात्' शब्द लगा है वह हर हालत मे अनिवार्य-Indispensable है। यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एव सर्वदेशीय बात है । इसी कारण जैन तत्त्वज्ञान को 'स्यावाद' नाम दिया गया है । इसमे से यदि 'स्यात्' शब्द हटा दिया जाय तो शेष कुछ नहीं रहता है, यह बात सप्तभगी से बिल्कुल स्पष्ट एव निश्चित हो जाती है । ' यह बात भी अब अच्छी तरह समझ में आ गई होगी कि Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ सप्तभगी से सम्बन्धित 'है, नही है, है और नही है' आदि प्रथम दृष्टि में उलझी हुई प्रतीत होने वाली बातो मे कोई उलझन या गडबडी नही है । इसके ग्रनुरूप कई दृष्टात पेश किये जा सकते है | ' पोटेशियम सायनाइड' नामक एक पदार्थ है । वह एक घातक विप है | इसका एकाध करण भी मनुष्य के खून मे मिलते ही उसके प्राण शरीर मे से छटपटा छटपटा कर निकल जाते है। फिर भी इसके अनेक प्रौद्योगिक ( Industrial ) उपयोग भी है। इलेक्ट्रोप्लेटिंग के उद्योग में इससे बनने वाले एक लवर (Salt) का उपयोग होता है। फोटोग्राफी के क्षेत्र मे फिल्म की पट्टिया और प्लेटे धोने मे भी इसके विलयन (Solution ) का उपयोग होता है । इसके और भी कई उपकारक उपयोग है | लिए एक वडी यह पोटेशियम सायनाइड वैज्ञानिको के समस्या हे । श्रभी तक वैज्ञानिक इसका हल नही खोज सके है । अभी तक समार को यह मालूम नही हो सका है कि इस पदार्थ का स्वाद कैसा है । मनुष्य की जिज्ञासावृत्ति ने ज्ञानप्राप्ति के लिए जो भगीरथ पुरुषार्थ आरम्भ किया है, पोटेशियम सायनाइड का स्वाद उसका एक ज्वलन्त उदाहरण है । जगत को इसकी जानकारी देने के लिये आज तक कई वैज्ञानिको ने स्वेच्छा से अपने प्राणो की वलि दे दी है । यह जानते हुए भी कि जीभ से इस जहर का सपर्क होते ही तात्कालिक मृत्यु हो जाती है, कितने ही वैज्ञानिको ने इसका स्वाद मालूम करके दुनिया को उसकी जानकारी देने के लिए निष्फल पुरुषार्थ कर अपने प्राण Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ खो दिये है । दाहिने हाथ मे पेसिल पकडे, एक कागज पर ' पोटेशियम सायनाइड का स्वाद '-' है, ऐसा वाक्य लिख कर उसमे रिक्त स्थान की पूर्ति करने के प्रयत्न में रहे हुए जोखिम को ग्रच्छी तरह समझते हुए भी उक्त विष को जीभ पर रखने वाले और प्राणो की बलि चढाने वाले वैज्ञानिको की जिज्ञासावृत्ति कितनी उग्र, तीव्र और महान् होगी, इसकी कल्पना कोई भी कर सकता है। ? इस पदार्थ का स्वाद खट्टा, खारा, कडुग्रा, मीठा, तिक्त, आदि में से कोई एक होना चाहिए। इनमें से 'कोई' एक शब्द कागज पर लिखने मे एकाध सेकण्ड भी शायद ही लगे । परन्तु यह जहर इतना घातक है कि वह किसी को ऐसा एक शब्द लिखने का मौका तक नही देता । इस काम के लिए किया गया किसी का भी प्रयत्न ग्रभी तक सफल नही हुआ । जिस जिसने ऐसा प्रयत्न किया वह उसी क्षण भर गया और इस जहर के स्वाद की समस्या अभी तक हल हुए विना ही पडी है | पोटेशियम सायनाइड मे कोई 'स्वाद है या नहीं' इस प्रश्न पर यदि हम सप्तभागी के उपयोग के द्वारा विचार करे तो उसके सातो पदो मे इसका जवाब मिलेगा । इस बात पर तो सभी वैज्ञानिक सहमत है कि वह एक स्वादयुक्त पदार्थ है | परन्तु इसका स्वाद कैसा है इसका उत्तर प्रभी तक नही मिल सका है । इसलिए इस 'स्वाद' के लिए भी ऐसा निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि जीवन ग्रनाशक स्वाद 'नही है ।' इस तरह यहां 'है' 'नही है' 'है और नही है' आदि सभी पदो का प्रयोग हो सकता है । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ इस जहर के स्वाद को मालूम करने की और दुनिया को बतलाने की एक तीन उत्कण्ठा ग्राज भी वैज्ञानिक जगत में जीवित है । इसके लिए अपने प्राणो का बलिदान करने वालो के प्रात्मा में रही हुई विश्वकल्याण की भावना ऐसी महान् और उदात्त है कि सभी को उसका ददन करने की इच्छा हो जाय । इस पर विचार करते हुए मन मे एक ऐमा प्रश्न उठता है कि 'प्रात्मा के मूल स्वरूप-यात्मज्ञान-के स्वाद के विषय मे भी ऐसी ही तीन जिज्ञासा और उसके लिए सर्वस्व का बलिदान करने की भावना इस विश्व मे क्यो नहीं प्रकट होती ? इसके लिए प्रवल पुरुषार्थ करने की अभिलापा क्यो जाग्रत नही होती ? जिन्हे यह अभिलापा जगी और जिन्होने परम पुरुषार्थ किया वे तो पार हो गये और उनमे से जो तीर्थकर भगवान् ये वे जगत के सर्वश्रेष्ठ उपकारी वन गये। उपर्युक्त जहर का स्वाद जानने की बात तो केवल विज्ञान को तथा विज्ञान के द्वारा विश्व को एक गूढ रहस्य की जानकारी देने तक सीमित है, जब कि आत्मा के मूल स्वरूप को पहचानने मे तो स्वकल्याण की एक बहुत बडी और आवश्यक वात भी है । सासारिक सुखो के प्रति उद्वेग धारण करके, प्राणि-मात्र के प्रति-जीव मात्र के प्रति-मैत्री और करुणा रखते हुए निर्लेप उपकार भाव धारण करके प्रात्मोद्धार का प्रवल पुरुषार्थ प्रारभ करने मे तो अन्तत आत्माका-हमारा अपना कल्याण है। आत्मा की मुक्ति का मार्ग उपर्युक्त जहर के स्वाद के समान गूढ और रहस्यमय भी नहीं है । सर्वज्ञ भगवतो ने हमे यह मार्ग बता ही रखा है । उसका अनुसरण करने मे कोई Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ कठिनाई नही है, और हो तो भी वह पोटेशियम सायनायड के समान प्राणघातक नहीं, प्राणोद्धारक है । उसका सपूर्णत. अनुमरण करने की निश्चय दृष्टि को ध्येय रूप में स्थापित करके यदि उसका अशत भी पालन करने का प्रारभ किया जाय तो वह परम आनन्द और परम सुख का साधन बने । यदि हमारे भीतर यह जिज्ञासा जगे तो हमारा कल्याण हो जाय । यदि हम सप्तभगी की इन सात जिज्ञासाओ को आत्मा की मुक्ति के साथ अनन्त सुख की प्राप्ति के साथ जोड कर विचार करेगे तो परमपद की प्राप्ति के मार्ग का एक ज्वलन्त चित्र हमारे सम्मुख प्रकट होगा । हम यह वात समझ जाएंगे कि किस प्रकार का जीवन जीने से हम अनन्त सुख के भोक्ता बन सकेगे। ____ अब हम एक भला और सच्चा जीवन जीने को महत्त्व को और आवश्यक बात पर आ पहुँचे है । कुछ लोग पूछते है कि, 'सप्तभगी के बुद्धिप्रयोग से हमने एक वस्तु के सात भिन्नभिन्न स्वरूप तो देखे, परन्तु उससे हमे लाभ क्या हुआ ? यह मान भी ले कि अनेकान्तवाद के तत्त्वज्ञान मे स्याद्वाद नामक प्रमाणभूत पद्धति, नय नामक विलक्षण व्याख्या और सप्तभगी नामक सुन्दर व्याकरण है, पर उससे हमे क्या लाभ ? उमसे लाभ तो अमूल्य है । उसका वर्णन करने मे पृष्ठो पर पृष्ठ रगे जा सकते है । यहाँ जो प्रश्न पूछा गया है वह आत्मलक्षी न होकर ससारलक्षी है । सासारिक सुखो की प्राप्ति मे सप्तभगी उपयोगी है या नहीं ? रोजाना के जीवन मे उसकी जानकारी से कोई लाभ हो सकता है या नही ? इन प्रश्नो के बुद्धिगम्य उत्तर मांगे जाते हैं । हम सब जानते है कि सुखी Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन जीने का छोटा सा ध्येय समस्त विश्व को अपने मे समाकर बैठा है । तत्त्वज्ञान ने सद्विचार वतलाये है, और धर्म हमे उन सद्विचारों के अनुरूप अच्छे श्राचरणो की शिक्षा देता है । अच्छा जीवन जीने का प्रश्न इसके अन्तर्गत होने से बुद्धि के विपय मे अनुपम और अद्भुत सप्तभंगी दिन व दिन के जीवनव्यवहार में हमे किस प्रकार उपयोगी हो सकती है, यह समझना आवश्यक है | इस बात पर विचार करते समय 'स्यादवाद - समग्र' हमारे लिए अत्यन्त उपकारक है, यह तथ्य आ खडा होगा । फिर भी यह प्रकरण सप्तभगी विपयक होने के कारण हम इस बात की पहले जाच करे कि हमे इसकी जानकारी से क्या व्यावहारिक लाभ होता है । इसके लिए 'वेरिस्टर चक्रवर्ती' नामक एक कल्पित पात्र लेकर अव हमारे सम्मुख एक नया प्रकरण आता है। चलिए उसका परिचय प्राप्त करे । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैरिस्टर चक्रवर्ती हमने पिछले प्रकरण मे देखा कि 'सप्तभगी' एक विशिष्ट प्रकार की 'कसौटीमाला' – A chain of wonderful formulas—है । यह एक सिद्ध पद्धति - proved Method ( केवल Proved ही नही, Approved भी ) है, मिद्ध के उपरान्त स्वीकृत भी है । उसमे कुछ भी सदिग्ध नही, कुछ भी अस्पष्ट नही, कुछ भी अनिश्चित नहीं है । इसका उपयोग करके एक ही वस्तु को हमने सात भिन्नभिन्न रीतियो से पिछले प्रकरण में जाँच लिया । उसमे घडा और फूलदान इन दो वस्तु को माध्यम बना कर हमने सप्तभगी का वर्णन किया था यदि हम इस तरह सात भिन्न २ रोतियो से विचार करने लगे तो यह बात भी निश्चित है कि हमे उससे अपने रोजाना जीवन मे व्यवहार के ग्राचरण का निर्णय करने में भी बहुत सहायता मिल सकती है। यहाँ हम एक और दृष्टान्त का सहारा लेते है जिससे इस प्रकार मिलने वाली सहायता का हमे स्पष्ट दर्शन हो जाय । इस हेतु से हम 'वैरिस्टर चक्रवर्ती' नामक एक कल्पित पात्र की सृष्टि करते है । यह नाम यहाँ एक कल्पित पात्र का है | यहाँ जो कुछ लिखा जा रहा है उसका किसी भी जीवित व्यक्ति के साथ, भूत, भविष्य या वर्तमान के ऐसे किसी नाम के साथ कोई सम्बन्ध नही है — इतनी स्पष्टता करके अव हम आगे बढ़ेगे | इन वैरिस्टर साहब मे एक विशेष प्रकार का सद्गुण है | यह गुण है उनकी उदारता । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०४२ 'उदारता' प्रात्मा का एक गुण है । द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव मे से अात्मा को यदि हम द्रव्य मान कर, उदारता का विचार करे तो उदारता गुरण 'भाव की अपेक्षा मे पाता है। उदारता कोई द्रव्य नहीं है, आत्मा के स्वगुण का स्वभाव का एक अंग है। ____ इसके बावजूद उदाहरण के तौर पर वेरिस्टर चक्रवर्ती की उदारता को हम एक 'वस्तु' मान कर चलेगे। हम यह प्रयोग सप्तभगी की व्यावहारिक उपयोगिता समझने के लिए कर रहे है। इसके लिए हम पहला वाक्य यो बनाते हैं'वैरिस्टर चक्रवर्ती उदार है।' अब हम 'वैरिस्टर चक्रवर्ती की उदारता के लिए द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव की चार अपेक्षाएं निश्चित करते हैं। द्रव्य-वैरिस्टर चक्रवर्ती की उदारता के लिए द्रव्य, उनके पास ममय ममय पर ( अतिरिक्त ) ववे रहने वाले पैसे अर्थात् धन रूपी द्रव्य है । जव उनके पास वन ( अतिरिक्त ) वचा हुआ पड़ा हो तव उनकी उदारता रूपी वस्तु क्रियाशील बनती है। क्षेत्र-वैरिस्टर चक्रवर्ती की उदारता का क्षेत्र उनकी ज्ञाति है। परन्तु इस ज्ञाति मे भी जो गरीब वर्ग है उस क्षेत्र मे ही उनकी उदारता प्रकट होती है, अन्यथा नहीं। काल-वैरिस्टर चक्रवर्ती सुवह नित्यकर्म से मुक्त हो कर अपने मवक्किलो से मिलने तथा कोर्ट-सम्बन्धी कार्य की तैयारी करने में समय बिताते है। दिन के समय वे कोर्ट में मुकदमे लड़ने में व्यस्त रहते है । शाम को कभी-कभी क्लव मे जाकर कुछ देर विज खेलते है। इस बीच कभी-कभी Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ दे व्हिस्की के दो चार पैग भी चढा जाते है। रविवार तथा छुट्टी के दिन वे घर पर ही रहते है । अत उनकी उदारता का काल वह समय है जव कि वे काम में लगे हुए न हो; क्लव मे न गये हो, नशा किये हुए न हो । इस प्रकार जब वे फुरसत मे होते है तव अपनी उदारता को क्रियाशील बनाते है, अर्थात् उनकी उदारता के लिए काल की अपेक्षा है उनकी फुरसत का समय। ____ भाव --बैरिस्टर चक्रवर्ती की उदारता के लिए भाव उनका 'शिक्षा-प्रेम' है। शिक्षा के सिवा अन्य किसी क्षेत्र मे वे एक पाई भी खरचने को तैयार नहीं है । यहाँ तक कि यदि कोई मनुष्य भूख से मर जाता हो तो भी वे अपनी जेव मे से एक पाई भी नही निकालते । शिक्षा को छोडकर वाकी सभी विपयो मे वे विलकुल अनुदार है। शिक्षा-सवधी सभी वावतो मे वे छूट से पैसे खर्च करने को तैयार रहते है । इस तरह, वैरिस्टर चक्रवर्ती की उदारता के लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की उपर्युक्त चार अपेक्षाएं हुई। सक्षेप मे-बैरिस्टर चक्रवर्ती की उदारता के लिए पैसे 'द्रव्य' है । उनके गरीव जातिजन 'क्षेत्र' है, उनका फुरसत का और विना नगे का समय 'काल' है, और उनका शिक्षा-प्रेम 'भाव' है । ये चारो मिलकर उनके स्वद्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल तथा स्व-भाव रूपी स्वचतुष्टय हुए। इसी तरह उनके पास पैसे जव बचे हुए (अतिरिक्त) न हो तव वह 'पर-द्रव्य' है । उनके गरीव ज्ञातिजनो को छोड़ कर बाकी सब लोग 'पर क्षेत्र' है, जब वे काम मे हो, या नशे मे हो वह समय 'पर-काल' है और शिक्षण को छोड़कर वाकी सब विषय 'पर-भाव' है । यह उनका पर चतुष्टय Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् उदारता के लिए 'पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर-काल, और पर-भाव-हुआ । इस तरह ऊपर दिये गये स्वचतुष्टय को अपेक्षा से बैरिस्टर चक्रवर्ती उदार है और पर-चतुष्टय की अपेक्षा से वैरिस्टर चक्रवर्ती उदार नहीं है । अव हम इस उदारता-रूप वस्तु को सप्तभगी के सात पदो के अनुसार परखे । प्रथम भंग-बैरिस्टर चक्रवर्ती उदार है। दूसरा भग -वैरिस्टर चक्रवर्ती उदार 'नही है। तीसरा भग -वैरिस्टर चक्रवर्ती उदार हैं और नही है । चौथा भग --बैरिस्टर चक्रवर्ती की उदारता 'प्रवक्तव्य है'। पाँचवा भग-वैरिस्टर चक्रवर्ती की उदारता है और अव क्तव्य है। छठा भग-बैरिस्टर चक्रवर्ती की उदारता 'नही है और प्रवक्तव्य है। सातवॉ भग.-वैरिस्टर चक्रवर्ती की उदारता है नही है और अवक्तव्य है।' हमे यह मान कर ही चलना है कि इन सातो पदो मे हमारे पूर्व परिचित दो शब्द 'स्यात्' और 'एव' हैं ही । अत ऊपर के सातो कथन सापेक्ष और निश्चित है।। अव हम इस बात की जाँच करेगे कि व्यवहार मे वैरिस्टर चक्रवर्ती की उदारता उपर्युक्त सात पदो की सात अलग अलग दृष्टियो से क्या काम करती है ? इस जाँच के हेतु हम 'चतर्भुज' तथा 'गगाधर' नामक दो सज्जनो को इस 'सप्तभगी-समारभ' मे दाखिल करते है। ये दोनो सज्जन वैरिस्टर साहब की उदारता का लाभ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५ उठाने वाले उम्मीदवार है । ये दोनो ग्राकर पूछते है कि 'क्या बैरिस्टर साहब की उदारता का लाभ मिलेगा ? इन दोनो सज्जनो मे से चतुर्भुज भाई वैरिस्टर साहब की ज्ञाति के सदस्य है । स्वचतुष्टय मे से एक अपेक्षा - स्वक्षेत्र की अपेक्षा को ध्यान मे लेकर हम उनसे कह देगे कि "बैरिस्टर की उदारता का लाभ आपको मिलेगा ।" यहाँ प्रथम भग की अपेक्षा से निश्चित हुआ कि 'बैरिस्टर साहब उदार है ।' श्री गंगाधर बैरिस्टर की ज्ञाति के सदस्य नही है । उदारता के लिए यह पर क्षेत्र होने के कारण, इस पर क्षेत्र की अपेक्षा से गंगाधर भाई से तो हम कह देगे कि 'वैरिस्टर साहब उदार नही है ।' पहले और दूसरे भंग के अनुसार हमने जो दोनो बाते कही, उनसे पहले आये हुए चतुर्भुज भाई को प्राशा बन्धने के कारण वे हमारे पास बैठते है । प्रथम भग से उन्हे यह लाभ हुआ, 'आशा बँधी ।' दूसरे भग से जवाब मिलने से श्री गंगाधर भाई वहाँ से चले जाते है । उन्हें यह लाभ हुग्रा कि बैरिस्टर की उदारता उसके लिये नही ही है ऐसा निश्चित उत्तर मिलने के कारण वे झूठी आशा रख कर व्यर्थ हैरान होने से बच गये । चतुर्भुज भाई यह जानकर खुश होते है कि 'गगाधय भाई चले गये और अव में ही एक उम्मीदवार बाकी रहा हूँ । उन्हें ऐसी आशा बँधी है कि लाभ होगा, फिर भी अधिक निश्चित करने के लिये वे फिर से पूछते है, "वैरिस्टर साहब की उदारता का लाभ, मै उनका ज्ञातिजन है, इसलिये मिलेगा Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ तो सही । क्या मुझे यह लाभ अवश्य मिलेगा? क्या वैरिस्टर साहब सचमुत्र उदार हैं ?" ___इस प्रश्न का हम क्या जवाब देंगे ? वैरिस्टर चक्रवर्ती के स्वक्षेत्र की अपेक्षा से वे चतुर्भुज भाई के लिए अवश्य ही उदार हैं । परन्तु हमे यह पता नहीं है कि ये सज्जन अन्य सभी अपेक्षाओ को पूर्ण करते हैं या नहीं । अत यदि हम उन्हे एक ही वाक्य मे स्पष्ट जवाव देना चाहे तो हम उनसे कहेगे कि 'बैरिस्टर साहब उदार है और नहीं है।' ऐसा परस्पर विरोधी उत्तर सुनकर चतुर्भुज भाई हमसे इसका स्पष्टीकरण मागते है, तब हम उनसे कहते हैं कि वैरिस्टर चक्रवर्ती की उदारता सर्वकाल मे सर्वक्षेत्र मे तथा सर्वभाव से कार्य नहीं करती, प्रकट नही होती । उसके लिये शर्ते ( अपेक्षाएं ) है-स्वचतुष्टय की अपेक्षा से वे उदार है और परचतुष्टय की अपेक्षा से वे उदार नहीं है। ये चतुर्भुज भाई वैरिस्टर चक्रवर्ती की जाति के है । अत यह एक अपेक्षा पूर्ण होने के कारण वैरिस्टर साहब के यहाँ जाने का विचार करके वे हम से पूछते है-'यदि मै वैरिस्टर के पास जाऊँ तो क्या मुझे लाभ होगा? इस प्रश्न के उत्तर मे यदि हम एक स्पष्ट और निश्चित बात कहना चाहे तो हमारे लिए चौथे भग वाला उत्तर ही अनुक्कल और यथार्थ होगा। हम तुरन्त उनसे कह देगे"प्रवक्तव्यम् अर्थात् कुछ नहीं कहा जा सकता " यहाँ हम चतुर्भुज भाई से दो बातो मे से एक भी निश्चित तौर पर नहीं कह सकते कि उन्हें लाभ मिलेगा या नहीं Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलेगा। क्योकि मिलना या न मिलना स्व तथा पर चतुष्टय की अपेक्षा पर निर्भर है । हम चतुर्भुज भाई को एक निश्चित एव असदिध उत्तर देना चाहते है। हम यह नही जानते ये सज्जन कितनी अपेक्षाएं पूर्ण करते हैं, और हम उन्हे अधेरे में या झूठी जागा मे भी रखना नहीं चाहते । अत चौथे भग के अनुसार यह निश्चित अभिप्राय हम उनके सामने प्रस्तुत करते हैं। फिर भी चतुर्भुज भाई को यह जवाब देकर कि, 'कुछ नहीं कहा जा सकता' हम उन्हे निराश नहीं करते। वैरिस्टर साहव की उदारता से सम्वन्धित सभी अपेक्षानो से हम उन्हे वाकिफ करते है, या अपने उत्तर के द्वारा हम उन्हे सभी गों से वाकिफ होने का सकेत करते है। ___अव चतुर्भुज भाई हम से कहते है,-"मैं वैरिस्टर साहब को ज्ञाति का हूँ, और मुझे अपने पुत्र की शिक्षा के लिए उनकी सहायता की आवश्यकता है।" ___ यह वात कह कर उदारता के ये उम्मीदवार क्षेत्र के अतिरिक्त भाव की अपेक्षा भी पूर्ण करते हैं। इतना उनका केस मजबूत बनता है। इसलिए उन्हे वेरिस्टर साहब की उदारता का लाभ मिलना चाहिए। फिर भी हम यह नहीं जानते कि अन्य अपेक्षाएं पूर्ण होती हैं या नहीं। अत पाँचवे भग का आश्रय लेकर हम उन्हे यो स्पष्ट उत्तर दे सकेगे_ 'वेरिस्टर साहब उदार है और अवक्तव्य है अर्थात् कुछ कहा नहीं जा सकता।' अर्थात् वैरिस्टर साहब उदार तो हैं ही परन्तु हम अभी तक निश्चित रूप से यह कहने की स्थिति मे नही पहुँचे हैं कि उनका लाभ चतुर्भुज भाई को मिलेगा Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૮ या नही । ऋत हमारा यह उत्तर विल्कुल स्पष्ट एव यथार्थ है । अव, चतुर्भुज भाई से अधिक वातचीत करने पर हमे पता चलता है कि उनकी स्थिति ऐसी है जिसे सामान्यतया सुखी कह सकते है । उनके वथनानुसार घर के सामान्य खर्च के लिए उनकी प्रानदनी पर्याप्त है, परन्तु उन्हें ग्रपने पुत्र के कॉलेज की उच्च शिक्षा के लिए होने वाले खर्च को निभाने मे कठिनाई पडती है । इस वात से निश्चित हो जाता है कि वे गरीब नही है । वैरिस्टर की उदारता के स्वक्षेत्र की जो ग्रपेक्षा उनकी ज्ञाति के होने के कारण पूर्ण होती थी वह यहाँ कुछ कमजोर पड जाती है, और अन्य अपेक्षाएँ तो अभी बाकी ही है । इन सयोगो में हम यह निश्चित धारणा बना लेते है कि उन्हे वैरिस्टर साहब की उदारता का लाभ नही मिलेगा । फिर भो उनकी सफलता-असफलता का श्राधार इस बात पर है कि उदारता विपयक वैरिस्टर साहब के 'स्वक्षेत्र' की अपेक्षा पूर्ण होती है, इस बात की प्रतीति उन साहब को किस प्रकार होती है । प्रत छठे भग का आश्रय लेकर हम चतुर्भुज भाई से कहेंगे " बैरिस्टर साहब की उदारता नही है और प्रवक्तव्य है ।" अर्थात् हमे नही लगता कि चतुर्भुज भाई गरीब है | त बैरिस्टर साहव पर क्षेत्र की अपेक्षा से उदार नही है, जब कि उसके सिवा दूसरी पेक्षाओ के विषय मे चित्र अस्पष्ट होने के कारण चतुर्भुज भाई उनके पास जायें तो नतीजा क्या होगा सो हम नही जानते, उसका वर्णन नही कर सकते । हमारा यह उत्तर चतुर्भुज भाई के सामने एक ऐसा Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ स्पष्ट चित्र प्रस्तुत करता है कि परिस्थिति को देखते हुए बैरिस्टर साहब की उदारता उनके लिए नहीं है, फिर भी कुछ कहा नहीं जा सकता । इस उत्तर से चतुर्भुज भाई को एक नवीन दृष्टि मिलती है जिससे उन्हे वैरिस्टर के पास जाने और अपना अभीष्ट प्राप्त करने के लिए अपना केस ऐसे ढङ्ग से सावधानी पूर्वक पेश करने का मार्ग दर्शन प्राप्त होता है जिससे कोई गलतफहमी न हो। यह सब समझ लेने के बाद चतुर्भुज भाई वैरिस्टर चक्रवर्ती के पास जाने के लिए खडे हो जाते है । जाते जाते वे पूछते है, "पूरी सावधानी से बात करूँ तो बैरिस्टर साहब की उदारता का लाभ क्या मुझे अवश्य मिलेगा?" इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए हमे सातवे भग का सहारा लेना पडेगा। हम उन्हे झूठी अाशा बँधाना नहीं चाहते, उन्हे निराश करना भी नहीं चाहते, इसके उपरान्त चतुर्भुज भाई का यह उलाहना भी सुनना नहीं चाहते कि 'आपने मुझे गलत राह दिखाई, मुझे परिस्थिति का स्पष्ट चित्र नही दिया।' अतएव हम उनसे कहेगे कि___'वैरिस्टर साहव उदार है, उदार नहीं है, और अवक्तव्य है ।' प्रवक्तव्य है अर्थात् कुछ नहीं कहा जा सकता, शब्दो मे वर्णन नही हो सकता । इस जवाब से हम बैरिस्टर साहब की उदारता के स्व-चतुष्टय तथा पर-चतुष्टय की भिन्न भिन्न अपेक्षामो तथा इन दोनो की एकत्र अपेक्षा को ध्यान मे रख कर चतुर्भुज भाई को एक नवीन स्वतन्त्र दृष्टि देते है । इस प्रकार हमने श्री चतुर्भुज भाई को सातो भगो की भिन्न-भिन्न दृष्टि से और भिन्न-भिन्न अपेक्षाओ के अनुसार जो Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० सात कथन-अभिप्राय-दिये उन सबने मिलकर वैरिस्टर चक्रवर्ती की उदारता विषयक एक सम्पूर्ण चित्र निर्माण किया। वैरिस्टर चक्रवर्ती की उदारता क्या है, क्या नहीं है, कहाँ है, कहाँ नहीं है, कव है, कव नहीं है, उसका लाभ मिल सकता है या नहीं, यह लाभ किसे मिल सकता है और किसे नही मिल सकता, किन परिस्थितियो मे मिल सकता है और किनमे नही, कब मिल सकता है और कव नही, आदि आदि सारे पहलुओं को स्पष्ट करने वाली सारी वावतो का निरूपण चतुर्भुज भाई के सामने इन सातो भगो से प्राप्त भिन्न-भिन्न उत्तरो के द्वारा तथा इन सव उत्तरो के योगफल के द्वारा प्रकट हो जाता है । यहाँ हमे यह नहीं भूलना चाहिए कि इस प्रकार निर्मित सम्पूर्ण चित्र हमारे पूर्व परिचित 'स्यात्' शब्द के अधीन है, क्योकि यह सम्पूर्ण चित्र भी अपने प्रत्येक अगोपाग की अपेक्षा के अधीन है । इम चित्र मे अपेक्षाभाव से एकत्वे और अनेकत्व-दोनो निहित ही है। ___ ऊपर हमने वैरिस्टर चक्रवर्ती की उदारता का जो दृष्टात देखा उसमे कोई वाल की खाल निकालने वाला शायद इधर उधर कही कोई वाधा या उज्र खडा करे, यह वात असभव नही है । परन्तु हमे यह न भूलना चाहिए कि यहाँ हमने सप्तभगी की व्यावहारिक उपयोगिता बताने के शुभ हेतु से एक पात्र की कल्पना द्वारा एक चित्र प्रस्तुत किया है । मुख्य प्रश्न तो इस रीति से विचार करने अर्थात् वस्तु के भिन्न भिन्न पहलुनो को जांचने का अभ्यास करने का और इस प्रकार हमारी तुलना शक्ति को साफ और मजबूत बनाने का है। इसमे सन्देह नहीं कि यह उद्देश्य यहाँ पूर्णतया सुरक्षित रहा है। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी तरह, बैरिस्टर माहब के अदालतो काम-काज में भी त्याद्वाद का उपयोग लाभदायक रीति में किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, एक पेढी के मुनीमजी का खून हो गया है । इस केन मे हम चक्रवर्ती माहब को बचाव पक्ष के बैरिस्टर नियुक्त करते है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को चारो अपेक्षाएं इन खून के केस पर लागू होती है। (१) बमूली करके लौटने न्यून हुअा है। -द्रव्य (-) क्बई गहर में चोवी तालाब के पास खून हुमा । क्षेत्र (B) दोपहर के ढाई से तीन बजे के बीच खून हुा ।काल्न (४) लूटने के इरादे ने खून किया गया। -भाव अब बैरिस्टर चक्रवर्ती अभियुक्त के बचाव के लिए ऊपर के संयोगो और तथ्यों को ध्यान में लेकर द्रन्ध, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षाओं ने युक्त नेम तैयार करते हैं। (१) बून अभियुक्त ने नहीं किया है। -द्रव्य (२) अभियुक्त बोबी तालाब के पास नहीं था। -क्षेत्र (३) दोपहर के एक बजे में चार बजे तक अभियुक्त वोगबनी में था, और इस बात के गवाह तय प्रमाण मौजूद है। -काल (४) अभियुक्त ऐमा व्यक्ति नहीं है जो खून करे । उसने अपने जीवन में कभी बटमल या मच्छर भी नहीं मारा है। -भाव उपरि निर्दिष्ट दोनों चतुष्टयो मे से मुनीमजी, जिनका खून हुआ है, के लिए जो स्वचतुष्टय है वह अभियुक्त के लिए पर Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ चतुष्टय वन जाता है, और अभियुक्त के लिए जो स्वचतुष्टय है वह खून के विषय मे परचतुष्टय बन जाता है। __अव जिसका खून हुमा है सो हुआ ही है । खून हुआ है यह एक तथ्य है। यह वात एक निश्चित तथ्य के रूप में प्रस्तुत की गई है । अव प्रश्न अभियुक्त के बचाव का है । उसका वचाव वैरिस्टर चक्रवर्ती के हाथ मे है । उनके सामने फरियाद-पक्ष के सरकारी वकील है । वे दोनो मिलकर, आमने सामने खडे रह कर न्यायाधीश के सम्मुख यह केस चलाने वाले है, अपनी अपनी बात पेश करने वाले है । इस केस मे फरियाद-पक्ष तथा वचाव पक्ष की ओर से गवाह भी आएंगे। केस के समय ज्यूरी के सदस्य भी उपस्थित रहेगे।। ___न्याय-फैसला-करने का कार्य न्यायाधीश महोदय को करना है । इससे पहले वे ज्यूरी की राय भी प्राप्त करेंगे। वे महाशय इस केस की समस्त कार्यवाही के समय अपने मदा के स्वभावानुसार तटस्थता धारण करके बैठेगे । फरियाद-पक्ष यह सिद्ध करने का प्रयत्न करेगा कि अभियुक्त ने खून किया है । बैरिस्टर चक्रवर्ती यह सिद्ध करने के लिए कि अभियुक्त निर्दोष है, अपनी पूरी ताकत लगा देगे । इन सब मे क्या सत्य है, इस वात का निर्णय करके निष्पक्ष फैसला सुनाने का कार्य अन्त मे न्यायाधीश महोदय को करना है। ___ अब हम यह देखेंगे कि केस की कार्रवाई के दर्मियान न्यायाधीश महोदय के सम्मुख कैसे भिन्न-भिन्न चित्र उपस्थित होते है। (१) फरियादी पक्ष की ओर से प्रस्तुत अभियोगपत्र से यह अभिप्राय प्रकट होता है कि 'अभियुक्त दोषी है। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ (२) वैरिस्टर चक्रवर्ती का बचावपत्र पढने में दूसरा अभिनाय नामने आता है कि 'अभियुक्त टोपी नहीं है।' (३) अभियोगपत्र को अपेक्षा मे नया बचावपत्र की अपेक्षा में तटस्प न्यायायोग नोट करते है कि 'अभियुक्त दोषी है और नहीं है ।' ( ४ ) इन परिस्थितियों में निर्णय देने का कार्य प्रवक्तव्य' है निर्णय के विषय मे कुछ नहीं कहा जा सकता। (५) परियाद पक्ष के गगहो के ज्यान लिए जाते है, श्रीर वैरिस्टर चक्रवर्ती उनकी जांच Crossexamination) करते हैं । गवाहो के बयान देखते हुए अभियुक्त दोपी है, परन्तु जॉत्र को देखते हुए उनके दोषी होने का निर्णय नहीं दिया जा सकता। अत 'अभियुक्त दोपी है, पर निर्णय के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता। (c ) बचाव पल के गवाहो के बयान लिये जाने हैं, और सरकारी वकील उनकी जॉच ( Crossexamination ) करते है। इन गवाहो के वयान देखते हुए अभियुक्त दोपी नहीं है, परन्तु जाँच को देखते हुए उसके दोषी नहीं होने का निर्णय नही दिया जा सकता । अतः 'अभियुक्त दोपी नहीं है, परन्तु निर्णय के विषय मे कुछ नहीं कहा जा सकता। (७) फरियाद पक्ष का केस, सगीन ग से पेग हुना है, वचाव पक्ष की ओर से भी अभियुक्तो के हित Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ मे इसी तरह सगीन प्रतिपादन हना है, परन्तु ज्यूरी का निर्णय पाना अभी बाकी है । इसलिए निर्णय के विषय मे न्यायाधीश साहब ने आखिरी फैसला नही किया है । अत 'अभियुक्त दोपी है, 'अभियुक्त दोपी नहीं है, और निर्णय के विषय मे कुछ नहीं कहा जा सकता। ये सातो भिन्न भिन्न दृष्टिकोण आदरणीय न्यायाधीश के सामने पेश हुए है, नोट किये गये है। ये सातो मिलकर जो एक सपूर्ण चित्र प्रस्तुत करते है, वह अब उनके सामने है । प्रत्येक अभिप्राय को पृथक् पृथक् और सातो को एकत्रित करके अादरणीय न्यायाधीश केस के विषय मे अपनी वात ज्यूरी के सदस्यो के सामने पेश करते है। न्यायाधीश महोदय ज्यूरी का मार्गदर्शन अवश्य करते है, परन्तु निर्णय नहीं देते। यह बात समझने योग्य है। न्यायाधीश को जो फैसला करना है, जो निर्णय देना है, उसके विषय मे वे पहले से कोई निश्चय नही कर लेते । ज्यूरी का निर्णय आने के बाद ही वे अपना क्या मतव्य या अभिप्राय है सो सोचेगे और उसके बाद ही निर्णय देगे। अव, ज्यूरी के सदस्य एक अलग कमरे मे जाकर सारे केस पर विचार करते है, परस्पर विचारविनिमय करते है । वैरिस्टर चक्रवर्ती ने अपना केस स्यावाद शैली को ध्यान मे रखकर तथा स्थापित कायदे-कानून अच्छी तरह समझ-समझा कर पेग किया है । वे ज्यूरी के सदस्यो पर इस तरह का दृढ प्रभाव डाल सके है कि क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षाएँ देखते हुए अभियुक्त निर्दोष ही है । जिस स्थान पर खून हुआ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ है वहाँ अभियुक्त था ही नहीं, और जिस नमय खून हुत्रा बताया जाता है उस समय वह घोत्री तालाव पर नही पर बोरीवली ने था- इस तरह के नगीन और विश्वास-पात्र प्रमाण उन्होंने कोर्ट में पेश किये है | यह सब देख कर, पर्याप्त सोच विचार करने के बाद ज्यूरी यह निर्णय ( Verdict ) देती है कि अभियुक्त निर्दोष है।' न्यागावोग महोदय को पर्याप्त सोच विचार के बाद प्रतीत होता है कि यह निर्णय उचित है और इसीलिए वे भी अपना यह फैसला ( Judgement ) सुना देते है कि 'अभियुक्त निर्दोष है और उसे छोड दिया जाता है ।' 'अभियुक्त मुक्त हो जाता है, वैरिस्टर चक्रवर्ती को सफलता मिलती है । यह स्यादवाद पद्धति की विजय है । इस सारे केन मे हमने देखा कि न्यायायोग नहोदय बिल्कुल निप्पक्ष, तटस्य, तथा अपने पद के गोरव के प्रति सचेत रहे हैं । उनमें मध्यस्य वृत्ति, अति निपुण बुद्धि और विवेकपूर्णगांभीर्य सभी गुण थे जो स्यादवाद सिद्धान्त का सफल अनुसरण करने के लिए आवश्यक हैं । इसीलिए वे न्याययुक्त निर्णय दे सके | जैन तत्त्ववेत्तात्रों ने स्यादवाद को समझने के लिये इन गुरणों की विशेष आवश्यक्ता मानी है । 1 पहले कहा जा चुका है कि स्यादवाद सत्य और न्याय का पक्षपाती है । उपर्युक्त केस में वैरिस्टर चक्रवर्ती ने अभियुक्त का बचाव स्याद्वाद शैली में प्रस्तुत किया था, यह सच है । परन्तु इस तरह प्रस्तुत करने में उन्होने ऐकान्तिक कथन किया होता तो वह स्याद्वाद शैली न कहलाती । इसी तरह माननीय न्यायाबीग महोदय ने जो निर्णय दिया उसमे स्यादुवाद की Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ पद्धति तथा अनेकान्तवाद विपयक पूर्ण जानकारी ने काफी महत्त्व का भाग लिया है। पूरे दृष्टान्त से यह वान सिद्ध होती है । जैन शास्त्रकारो ने ग्रनेकान्तवाद तथा स्यादुवाद को एक साधारण ज्ञान-तत्त्वविज्ञान माना है । यह एक अत्यन्त गंभीर विपय है । उन्होने इस विषय का ज्ञान जिस तिस के सामने खोलने का निषेध किया है। उन्होने यह शर्त रखी है कि 'जिनकी बुद्धि की ग्रहणशक्ति अतिशय उच्च कोटि की हो, जो पूर्वग्रह से पूर्णतया मुक्त हो, सम्पूर्ण तटस्थता धारण करने वाले हो' मुमुक्षु भाव से ज्ञान-प्राप्ति के लिए ही इस तत्त्वविज्ञान को समझना चाहते हो तथा जीवन एव जीवन के ध्येय के प्रति पूर्णतया जाग्रत तथा गभीर हो, ऐसे विशिष्ट कोटि के विवेकी जिज्ञासूत्रो को ही इस विषय का ज्ञान दिया जाय । जैन तत्त्ववेत्ता श्रनेकान्तवाद के अध्ययन तथा पठनपाठन के सम्बन्ध मे शताब्दियों से इस शर्त का पालन करते आये है । सबको यह ज्ञान देने के सम्बन्ध में, इस निषेध के कारण ही, उन्हे सकोच अनुभव होता रहा है । इसका एक परिणाम यह हुआ कि इस अद्भुत तत्त्वविज्ञान को अन्य ऐकान्तिक मतमतान्तरो जितनी ख्याति प्राप्त नही हुई । आज हम बुद्धिवाद के युग मे जी रहे है, ऐसा दावा किया जाता है । जीवन के भिन्न भिन्न क्षेत्रो मे पहले जो सन्तोप विद्यमान था, अब उसका स्थान असन्तोष ने ले लिया है । जो कुछ जात है उतने से सन्तोष मानकर बैठ रहने को आज की दुनिया तैयार नही है । अव नया नया जानने और समझने की भूख खुलने लगी है । स्यादवाद सिद्धान्त को जिज्ञासुमो के खुले बाजार मे रखने Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ का समय अब आने लगा है। अब इस सिद्धान्त का प्रचार करने का-बडे पैमाने पर और जोर शोर से प्रचार करने का समय आ पहुंचा है। यदि कहा जाय कि आज इस सिद्धान्त को समझने की जितनी आवश्यकता है उतनी पहले कभी नही थी, तो अतिशयोक्ति न होगी। थोडा सा खतरा लेकर भी इस उपकारक और दुर्लभ तत्त्व-विज्ञान का पूरी शक्ति से प्रचार किया जाना चाहिये । तत्त्वनान के उच्च तथा कठिन क्षेत्र से लेकर, विचारमूलक भूमिका में लेकर आचार मूलक प्रदेश तक की सभी परिस्थितियो मे अनेकान्त तत्त्वज्ञान की जानकारी अत्यन्त उपयोगी हो सकती है। इस ज्ञान का विवेक पूर्वक उपयोग करने वालो के लिए इसमे लाभ और कल्याण कूट कूट कर भरा पड़ा है। इस पुस्तक मे अब तक जो कुछ लिया गया है उसे पढने पर पाठक के मन मे जैन धर्म तथा जैन तत्त्वज्ञान के प्रति अवश्य आदर पैदा होगा-इस विषय की और भी अनेक महत्त्व की बातो के सम्बन्ध मे जिनासा भी अवश्य उत्पन्न होगी। अत इसके बाद के पृष्ठो मे हम कुछ उपयोगी ज्ञान का निरूपण करेगे। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचज्ञान प्राथमिक भूमिका पर यह एक विवादास्पद प्रश्न है कि ज्ञान किसे कहा जाय ? ज्ञान पिपासा ज्ञान प्राप्त करने की पिपासा-जिनासा, उसके लिए की जाने वाली खोज और परिश्रम आदि आज के युग मे एक सामान्य प्रश्न वन गया है। ___ लोग व्याख्यान सुनते है, पुस्तके पढते हैं, और चर्चामत्ररणा भी करते हैं। इस भौतिक जगत मे ज्ञान प्राप्त करने की तीव्र इच्छा मुख्यत सुख प्राप्ति के हेतु से उद्भूत दिखाई देती है। तरह तरह के और भॉति भॉति के विपयो के बारे मे नया नया जान प्राप्त करने की तीव्र अभिलापा ने बाज मानवमन पर अधिकार जमा लिया मालूम होता है। यह एक शुभ चिह्न है। “ परन्तु हम जिस वस्तु की प्राप्ति के लिए परिश्रम करे उसके यथार्थ स्वरूप को ही न जानते हो तो हमे क्या मिलेगा ? जो मिला सो जिसे हम खोजते थे वही है या और कुछ, यह किस तरह निश्चित किया जा सकता है। जैन तत्त्ववेत्तानो ने मोक्ष ( मुक्ति ) प्राप्त करने के लिए एक सूत्र दिया है,--ज्ञानक्रियाभ्या मोक्षः। इसका अर्थ है- ज्ञान और क्रिया के द्वारा ही मोक्ष प्राप्त हो सकता है।' यहाँ ज्ञान और क्रिया को एकत्र करके अधिक स्पष्ट अर्थ भो निकाला जा सकता है कि 'ज्ञानपूर्वक क्रिया करने से मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।' इस वाक्य मे 'मोक्ष' शब्द के स्थान पर हम प्राप्त करने Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ की किसी भी वस्तु का नाम रखे तो भी उसमे 'ज्ञान' और 'किया' ये दो शब्द तो हमे रखने ही होगे। 'ज्ञान' 'क्रिया' ये दो ननातन गन्द है। इन दोनो के विषय मे हम 'अनादिअनन्त अथवा शाश्वत युगल'-ऐसे शब्दो का प्रयोग भी कर सकते हैं। समार मे पुरुप और स्त्री को एक रथ के दो पहिये माना गया है । ये दोनों पहिये अनडिन हो दोनो मे सुमेल हो, तभी यह रथ व्यवस्थित गति कर सकता है। परन्तु ज्ञान और क्रिया को जोडी तो इतनी महत्त्वपूर्ण, इननी अधिक आवश्यक है इन दोनो के साथ वी-पुरुप की जोडी की तुलना तो विराट के सामने वामन के समान है। कोई भी कार्य हो, फिर चाहे वह भीतिक क्षेत्र का छोटे से छोटा, या वडे मे वडा कार्य हो चाहे आध्यात्मिक क्षेत्र का, आत्मा की मोक्ष प्राप्ति के लिए कठिन से कठिन कार्य हो, ज्ञान और क्रिया की इस अपूर्व जोडी के महयोग के विना सिद्ध नहीं हो सकता। श्रद्धा और बुद्धि के सहयोग का जो महत्त्व है उससे कई गुना अधिक महत्त्व ज्ञान क्रिया त्पी युगल का है। इन दोनो को अलग कर दीजिए तो कुछ भी कार्य नहीं हो सकेगा । यह एक अविभाज्य युगल-Inseparable couple है। यदि ज्ञान अकेला पड जाय तो वह कजूस के घन की तरह निरर्थक-वन्व्य हो जाता है। जान से विलग हुई क्रिया भी इसी तरह वन्ध्या -Unproductive-और निरर्थक Useless बन जाती है। वाल (अबोध) जीवो के लिए जैन तत्त्वविशारदो ने ज्ञान Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० और क्रिया की एक अत्यन्त सरल और सुन्दर व्याख्या दो है । "अमुक कार्य करने योग्य है ऐसी समझ सो जान और उस कार्य को अमल में लाना मो क्रिया।" उदाहरण के तौर पर 'असत्य बोलना पाप है' यह नमझना 'जान' है और 'असत्य बोलने का त्याग करना' क्रिया' है । इसी तरह 'सच बोलना धर्म है' यह समझना 'जान' है ' और 'सच ही बोलना' 'क्रिया है। अब यहाँ हम तुरन्त हो समझ सकते हैं कि 'हमेगा सत्य ही बोलना चाहिए, अमत्य कभी न बोलना चाहिए' ऐसी समझ-रुपी जो ज्ञान है उमका यदि क्रिया रूपी अमल न किया जाय तो ऐमी नमझ-ऐने ज्ञान से क्या अर्थ निकलेगा ? अर्थात् इस ज्ञान के क्रिया स्पी अमल के विना ज्ञान से कोई लाभ नही हो सकता। ___ इसी तरह, क्या धर्म है, क्या करने योग्य है और क्या छोडने योग्य है, इन से सम्वन्धित ज्ञान से रहित कोई भी क्रिया हम करे तो वह भी अर्थहीन और कभी कभी तो अनर्थ कारक भी हो सकती है। इन दोनो के सुमेल के विना हम कोई प्रगति नही कर सकते। __एक सीधा सादा दृष्टान्त ले । हम एक कारखाना खोल कर उसमे 'हवाई जहाज' बनाना चाहते है । हवाई जहाज सम्बन्धी सम्पूर्ण ज्ञान एव उसे बनाने की क्रिया-- Technical knowledge and processing-इन दोनो के सुमेल के विना हम हवाई जहाज की पूंछ (Tail) भी नही बना सकेगे। घर मे रसोई करते समय भिन्न भिन्न खाद्य वस्तुएँ बनाने का ज्ञान और उसके लिए आवश्यक मेहनत-क्रिया-इन दोनो मे सुमेल होगा तभी रुचिकर भोजन तैयार हो सकेगा। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ इस तरह इस दुनियाँ मे कुछ भी प्राप्त करना हो, सिद्ध करना हो, फिर चाहे वह आध्यात्मिक क्षेत्र मे हो चाहे भौतिक क्षेत्र मे, ज्ञान और क्रिया के सयोग के विना कुछ नही वन सकता। 'ज्ञान क्रियाभ्याम्' यह एक दिव्य सूत्र (Heavenly Slogan) है। इसके पीछे प्राप्त करने योग कोई भी दूसरा गब्द रख सकते है । दूसरे गन्द रखने के लिए केवल इतनो ही गर्त है कि वह शब्द प्राप्त करने के पदार्थ का या हेतु का सूचक (Objective) होना चाहिए । 'नान और क्रिया के द्वारा पर्वतारोहण' ऐसा हम कह सकते है, 'ज्ञान और क्रिया के द्वारा पर्वत' ऐसा नही कहा जा सकता। यह सूत्र सर्व स्थान पर, सर्व काल मे, प्राप्त करने के विषय वाली सर्व वस्तुप्रो के लिए प्रयोग करने योग्यUniversally applicable -सर्व देगीय सूत्र है । निस्सदेह इस कथन को भी सापेक्ष-अन्य अपेक्षाओ के अधीन समझना चाहिए। ____ मजा तो तब आएगा जब हम इस गन्दावलि के वाद 'जान' गब्द रखे। नानक्रियाभ्या जानम् "ज्ञान प्राप्त करने के लिए भी जान और क्रिया की आवश्यकता है" अथवा "नान पूर्वक की गई क्रिया के द्वारा ही ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।" यह वात भली भाँति समझने योग्य है। यहाँ हम जान के दो विभाग करते है, एक तो 'वह जान जो प्राप्त करना है, और दूसरा 'उसे प्राप्त करने के लिए आवश्यक जान ।' इनमे पहला 'साध्य' है और दूसरा 'साधन' है । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ववई से टोकियो जाना हो तो हमे टोकियो जाने के रास्तो का ज्ञान होना चाहिए । हर किसी गाडी, नौका या हवाई जहाज मे चढ वैठने से टोकियो नही जाया जा सकता। यहाँ हम पहले निश्चय करते है कि हमे टोकियो जाना है। फिर वहाँ पहुँचने के मार्ग टूटते है । अनुकूलता एव ग्रावश्यकता के अनुसार द्रव्य और काल के सयोगो के अनुसार हम नौका मार्ग या विमान मार्ग निश्चित करते है और तब टोकियो पहुँचने के लिए आवश्यक ज्ञान के अनुसार किया करते है। हम समुद्र के दर्शन करना चाहते हैं। इसके लिए हम ऐसे स्थान को पसन्द करते है जहाँ ममुद्र हो, समुद्र तट हो । ऐसा करने के बदले यदि हम गीर के जगलो मे या हिमालय को पर्वत माला में भटकना शुर करे तो क्या हमे समुद्र के दर्शन होगे? 'ज्ञानक्रियाभ्या ज्ञानम्' जब हम यह वाक्य कहते है तव उससे निम्नलिखित बाते निश्चित होती है - ( १ ) हमे ज्ञान प्राप्त करना है। (२) जो ज्ञान हम प्राप्त करना चाहते हैं उसे पाने के मार्ग रूपी ज्ञान यदि हमारे पास न हो तो वह ज्ञान हमे नही मिल सकता । ज्ञान प्राप्त करने के मार्ग की जानकारी भी एक 'ज्ञान' ही है, अतः 'हमे ज्ञान प्राप्त करने के मार्ग का ज्ञान भी प्राप्त करना है ।' (३) ज्ञान प्राप्त करने के मार्ग का ज्ञान प्राप्त कर के, इस ज्ञान के अनुसार हमे क्रिया करनी है, इसके लिए हमे कार्यवद्ध-क्रियाशील बनना है । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ अब, यहाँ स्वभावत कुछ प्रश्न उपस्थित होते है। (१) ज्ञान-प्राप्ति के पीछे हमारा हेतु । (२) उम हेतु की पवित्रता, निर्दोषता और विशुद्धता । (३) जो ज्ञान ह्म प्राप्त करना चाहते है, क्या उससे मारा हेतु सिद्ध होगा। हम एक पवित्र, निर्दोष और विशुद्ध हेतु-त्र्येयनिश्चित करके उसके लिए आवश्यक ज्ञान प्राप्त करने का उद्यम शुरू करे, इसके पूर्व इस बात को स्पष्टतया समम लेना आवश्यक है कि 'वह ज्ञान हमे अपनी इच्छित वस्तु प्राप्त करने मे उपयोगी होगा या नहीं, क्योकि यदि हम यह बात निश्चित किये विना, ठीक तरह से समझे विना काम करने लग जाएँ तो हम हैरान ही होते रहेगे, जान के बदले भ्रम को ही लिए घूमा करेंगे। इसका कारण यह है कि 'अज्ञान' भी एक प्रकार का 'ज्ञान' है, "झूठा ज्ञान' भी एक प्रकार का 'जान' है। 'मै अज्ञान हूँ' यह बात जो मनुष्य जानता हो उसे तो आज के युग में एक 'महा ज्ञानो' समझना चाहिए। यह जानना भी कि 'म अन्नान हूँ' एक प्रकार का जान है। प्राचीन तत्त्ववेत्ता भुकरात (Socrates) के विषय मे एक बात प्रचलित है। कुछ लोगो ने यह आकाग वारणो मुनी कि 'इस युग में आज सब से अधिक चतुर तथा बुद्धिमान व्यक्ति सुकरात है।' यह मुन कर वे लोग मुकरात के पास गये। मुनी हुई आकाग वाणो उसे सुना कर उन्होने पूछा-'क्या यह सच है " • सुकरात ने कुछ देर सोच विचार कर जो उत्तर दिया Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ वह बहुत ही सोचने और समझने योग्य है। उसने कहा, ___ हा यह सच है, क्योकि मै यह बात अच्छी तरह जानता हूँ कि मै कुछ भी नही जानता। इस तरह जो मनुष्य यह बात अच्छी तरह जानता है कि 'मै अज्ञानी हूँ' उसके पास एक 'महा-ज्ञान' है, क्योकि इससे उसकी जिज्ञासा ज्ञान प्राप्त करने की इच्छाजीवित और ज्वलत बनी रहती है। परन्तु इस जिज्ञासा की तृप्ती के मार्ग मे एक बडी मुसीबत आ-उपस्थित होती है । इसका कारण है इस दुनिया मे मिथ्या ( झूठे ) ज्ञान का अस्तित्व । इसीलिये जिस मनुष्य को ज्ञान प्रात करने की इच्छा हो उसे सर्वप्रथम तो उसे यह ढूंढ निकालना चाहिए कि सच्चा (सम्यक्) ज्ञान क्या है । इसके लिए भी पहले ज्ञान चाहिए, पीछे क्रिया। क्रिया अर्थात् प्रयत्न । ___ सच्चे और भूठे ज्ञान की समझ को हम 'सरासर का विवेक' इस नाम से पहचान कर प्रारम्भ करे । यह समझ कहा से आ सकती है ? किस तरह आ सकती है । __ इसके लिए हमे सबसे पहले 'अहभाव' पर काबू प्राप्त करना होगा । जब तक हम इस 'लाग' से मुक्त नही होगे कि 'मै सव कुछ जानता हूँ, में जो जानता हूँ वही सच है, तब तक हम आगे नहीं बढ सकते। ___व्यर्थ ही नहीं कहा गया है कि 'गुरु विना ज्ञान नहीं ।' सबसे पहले शिष्य बनना पड़ता है। कोरी पट्टी लेकर स्कूल जाना होता है। आज तो, लगभग जहाँ देखे वहाँ सब 'गुरु ही नजर आते Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ है । दूसरो को सलाह और शिक्षा ( ये ज्ञान के ही स्वरूप है ) देने को सब कोई तैयार और उत्सुक है, लेने को कोई राजी नही है | और जो शिष्य प्राते है उनमे से अधिकांश ‘शिप्य भाव से नही, ग्रपितु 'गुरुभाव' से प्राते है । ये लोग जो कुछ कहे अथवा माने उसे हम सही कहे Confim ( स्वीकार ) करे तो तब तक ये लोग हमे गुरु मानने की कृपा करते है । ज्योही हम उनसे कहे कि 'तुम्हारा खयाल गलत है उसी क्षण से हम उनके 'गुरु' मिट जाएँगे । मुँह पर भले कुछ न कहे, पीठ पीछे निंदा शुरु कर देगे । यह ग्रहभाव का प्रताप है । एक सज्जन स्वयं को अत्यन्त विनम्र और ग्रहभाव से युक्त मानते है । वे बात बात में ऐसा करते फिरते है, 'मुझमें अभाव नही है ।' जो भी कोई उनसे मिलते है, उन सबको वे प्रभाव छोड देने का उपदेश दिया करते है । एक बार इन साहब से कहा गया, "आप से ग्रहभाव कूटक्कूट कर भरा है ।" "क्या ?" एकदम ग्रॉखे फाडकर ये साहब प्रश्न पूछते है । यदि इनकी फैली हुई आँखो मे विस्मय दिखाई दे तो कोई बात नही । परन्तु इनमे तो क्रोध की भडक दिखाई देती है । ज्यो ही उनसे कहा जाता है कि 'आप स्वय को जैसा मानते है वैसे नही है' त्योही उन्हे क्रोध या जाता है और आखे लाल हो जाती है । आज जगह - जगह यही देखने को मिलता है । अव हम अपनी मूल बात पर वापस आते हैं । ज्ञान-प्राप्ति के हेतु निश्चित करने के बाद जब तक हम यह Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ निश्चित न कर ले कि यह ज्ञान प्राप्त करने का मार्ग हमें अभीष्ट ध्येय तक पहुँचा सकेगा या नहीं, तथा यह ज्ञान मच्चा है या भूठा, तव तक हम एक कदम भी नही उठा सकते । परन्तु यह निश्चित करने का कार्य सरल नहीं है, अत्यन्त कठिन है। ___ जहाँ निगाह टाले वही लोग ज्ञान की दुकान लगा कर वैठे दिखाई देते है । सब जगह ऐसे वोई लटकते हा दियाई देते है, कि “यहाँ पाइए, हमारे पान ही सच्चा ज्ञान है, और सब जगह भूठा है।" कहाँ जायें ? किसके पास जाय ? ___अपर बताई गई परिस्थितियों के कारण ही 'सुदेव, मुगुरु और 'सुधर्म' ये तीन गब्द आवश्यक बने हैं। ___कोट सिलाने के लिये हम 'अच्छा दर्जी' खोजते हैं। परन्तु यदि कपडा अच्छी किस्म का न हो तो 'अच्छा दर्जी' कहाँ तक मदद कर सकता है ? यदि हम टाट का टुकडा लेकर दर्जी के पास जायें और उसने कहे कि 'कोट मी दो' तो वह क्या जबाव देगा? इसी तरह यदि हम बटिया कपडा लेकर किसी मोची के पास जाकर कहे कि 'कोट वना दो' तो क्या होगा? इससे यह सिद्ध होता है कि यदि हम अपनी जिनामावृत्ति को निर्मल, अहभाव-रहित न बनावे तो देव गुरु, धर्म हमारी कितनी सहायता कर सकेगे ? खास कर जव कि जगह जगह पर ऐसे वोर्ड पढने को मिलते है कि, “सुदेव, सुगुरु योर मुधर्म केवल हमारे ही पास हैं" तव इनमे 'सु' कौन और 'कु' कीन, यह कैसे निश्चय किया जाय ? ___एक लोकोक्ति है कि "खुशामद खुदा को भी प्यारी है।" मनुष्य की सारी तेजस्विता खुशामद के आगे गौण वन जाती है। जो लोग हमसे वार वार कहते है कि 'आप बहुत भले Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ gy आदमी है उन्हे हम भले मानते है । हमारी प्रशसा करने वाले हमे अच्छे लगते है । उसी तरह 'आप धर्म प्रिय है' आप धर्मानुरागी है, आप मे उच्च कोटि की योग्यता है ऐसा कहने वाले गुरु भी हमे पसन्द आ जाते है । और तब ये गुरु हमे जो मार्ग बताते है, वह मार्ग भी हमे अच्छा और सच्चा प्रतीत होता है। ___ इस बात पर से यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए कि हमे खुशामद प्रियता और अहभाव छोड़ कर ही सुदेव, सुगुरु, सुधर्म तथा सच्चे (सम्यक्) ज्ञान की खोज में निकलना चाहिए। ___ यदि हम स्यावाद सिद्धान्त से सुसज्जित अनेकातवाद को समझने का प्रयत्न करेगे तो हमे यह समझने मे बडी सहायता मिलेगी कि सच्चा ज्ञान क्या है और उसे प्राप्त करने का सही मार्ग कौनसा है । ज्ञान के विषय मे यह तत्त्वज्ञान क्या कहता है सो देखे . जैन तत्त्ववेत्तानो ने ज्ञान को दो विभागो मे वॉटा है - (१) सम्यक् (अर्थात् सच्चा) ज्ञान । (२) मिथ्या (अर्थात् झूठा) ज्ञान । उन्होने सम्यक् ज्ञान के पॉच भेद वताये है(१) मतिनान (२) श्रुतज्ञान (३) अवधिज्ञान (४) मन पर्यवज्ञान (५) केवलज्ञान मिथ्या ज्ञान के उन्होने तीन भेद बताये है - Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ (१) मति ग्रज्ञान (२) श्रुत (३) विभाग ज्ञान ज्ञान इस ज्ञान को विपरीत ज्ञान भी कहते हैं । सम्यक् और मिथ्या ज्ञान के ग्रन्य भेद तो अनेक हैं । हमे सच्चे ज्ञान से काम है, न हम सम्यक् ज्ञान के पाँच मुख्य प्रकारो की जाँच करते हैं । १- मतिज्ञान - जो जान हमे इन्द्रियां के द्वारा तथा मन के द्वारा प्राप्त होता है, हो सकता है, उसे मतिज्ञान कहते है । २- श्रुतज्ञान - जो ज्ञान शब्द के ग्रावार पर मन के द्वारा प्राप्त होता है उसे श्रुतज्ञान कहते है । ३ - अवधिज्ञान - इंद्रियाँ और मन ग्रादि किसी भी माध्यम की सहायता के विना ही, द्रव्य, क्षेत्र, और काल की अपेक्षा की सीमा मे रूपी (साकार) पदार्थो का जो ज्ञान, श्रात्मा को साक्षात् होता है उसे अवधिज्ञान कहते है । ४ – मन पर्यवज्ञान -- जो ज्ञान अढाई द्वीपो मे रहे हुए सनि पचेन्द्रिय जीवो के मन को साक्षात् दिखाता है वह मन पर्यवज्ञान कहलाता है। इसमे भी इन्द्रियों की तथा मन की सहायता की आवश्यकता नही है । सरल अर्थ मे इन्द्रियों की तथा मन की सहायता के बिना ही मनोद्रव्य का अर्थात् दूसरो के मन मे रही हुई और भरी हुई बातो का जो ज्ञान श्रात्मा को साक्षात् होता है वह मन पर्यवज्ञान है | ५ - केवलज्ञान - इन्द्रियो की तथा मन की सहायता के विना Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ हो, रूपी अरूपी (साकार ओर निराकार) सूक्ष्म ओर स्थूल श्रादि गर्वकाल के सर्व पदार्थों का सर्वदर्शी तथा सम्पूर्ण ज्ञान जव प्राप्त होता है तब उसे केवलज्ञान कहते है । यह पूर्ण-पूर्ण ज्ञान है, और जिन्हे इनकी प्राप्ति होती है उन्हे 'सर्वज' अथवा 'केवली' कहते है। केवलजान को अंग्रेजी मे 'omniscience' कहते है। जिन्हे यह जान प्राप्त हुआ हो उन्हे अग्रेजी मे 'omnisclent' कहते है । आत्मा का पूर्ण ज्ञान-रूपी जो 'स्व-स्वरूप' है, वह इसमे सपूर्णतया प्रकट होता है। यह सिर्फ 'पात्मज्ञान' नही है, वरिक समन वह्माड तथा उसकी समस्त रचनायो को अपने मे समाने वाला पूर्ण पूर्ण ज्ञान है । इन पांच में से प्रथम दो ज्ञान-'मति' और 'श्रुत' परोक्ष ज्ञान है, क्योकि इनमे इन्द्रियों तथा मन रूपी माध्यम Medium आवश्यक होता है। अन्तिम तीन 'अवधि, मन.पर्यव और केवलज्ञान' प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाते है, क्योकि किसी भी प्रकार के माध्यम के विना ये ज्ञान स्वय ग्रात्मा को साक्षात्-प्रत्यक्ष-प्राप्त होते है । पहले हमने चार प्रमाणो पर विचार करते समय इन्द्रियो के द्वारा तथा मन के द्वारा होने वाले वोध को 'प्रत्यक्ष' प्रमाण बताया था । यहाँ यह बताया गया है कि मति और श्रुत ये दोनो ज्ञान इन्द्रियो की तथा मन की सहायता से होते है । फिर भी यहाँ हम इन्हे 'परोक्ष-ज्ञान' कहते है। यह जो भेदविरोधी कथन-मालूम होता है, उसका कारण यह है कि व्यावहारिक और आध्यात्मिक वातो मे भेद है। इन्द्रियो से होने वाले ज्ञान को हम व्यवहार मे परोक्ष कहने के बदले Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० प्रत्यक्ष कहते है। परन्तु याध्यात्मिक क्षेत्र मे, उच्च भूमिका पर, परिस्थिति बदल जाती है । व्यवहार मे हमे केवल इन्द्रियो तथा मन का प्राश्रय लेकर ही चलना होता है। आध्यात्मिक विकास के क्षेत्र मे इन्द्रियो को तथा मन को अलग रख कर, उन पर सपूर्ण अधिकार प्राप्त कर के, आत्मतत्त्व के शुद्ध स्वरूप को प्रकट करने की बात याती है। इसलिए जैन तत्त्ववेत्तानो ने एक अोर इन्द्रिया और मन तथा दूसरी ओर यात्मा, इन दो भिन्न भिन्न अपेक्षायो से प्रत्यक्ष प्रमाण के दो विभाग बनाये है, जिन्हे वे 'साव्यवहारिक प्रत्यक्ष' और 'पारमार्थिक प्रत्यक्ष' कहते हैं। इन्द्रियो म और मन से होने वाला ज्ञान प्राध्यात्मिक क्षेत्र में 'परोक्ष' माना गया है, परन्तु व्यावहारिक क्षेत्र मे उसे प्रत्यक्ष अर्थात् 'माव्यवहारिक प्रत्यक्ष' माना गया है, जब कि आध्यात्मिक क्षेत्र में जिसे 'प्रत्यक्ष ज्ञान' कहते है उसे 'पारमायिक प्रत्यक्ष' माना गया है । जो ज्ञान इन्द्रियो की तथा मन की महायता के विना प्रकट होता है, प्राप्त होता है, वही सच्चा प्रत्यक्ष ज्ञान है, क्योकि यह आत्मा का अपना महज गुण है और जब इन्द्रियाँ तथा मन इत्यादि माव्यम की महायता के बिना ही यह ज्ञान आत्मा मे साक्षात् ( प्रकट ) होता है नव यह जान ही सच्चा प्रत्यक्ष प्रमाण बनता है। प्रमाण-गान मे इसे 'पारमार्थिक प्रत्यक्ष' कहते है। इस अर्थ मे, मति और श्रुत ये दोनो 'परोक्षजान' है । यहाँ हमने 'अवधि, मन.पर्यव तथा केवलज्ञान' को प्रत्यक्ष ज्ञान माना है । परन्तु इसमे भी दो विभाग है । अवधिज्ञान तथा मन.पर्यवज्ञान को 'देश प्रत्यक्ष' अथवा 'अश प्रत्यक्ष' Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ कहते हैं । केवलज्ञान को 'सकल प्रत्यक्ष' अथवा 'पूर्ण प्रत्यक्ष' कहते है । केवलज्ञान 'रूपी, अरूपी, स्थूल सूक्ष्म इत्यादि सब पदार्थो को सर्व द्रव्य को, सर्वकाल में और सर्व पर्यायो से जानता है, अत उसे 'सकल प्रत्यक्ष' कहा है । अवधिज्ञान और मन पर्यवज्ञान सर्व पदार्थो को और सर्व पर्यायो को नही जानते । केवलज्ञान की तुलना में ये दोनों ज्ञान अपूर्ण है । इसलिए उन्हे 'देश प्रत्यक्ष' अर्थात् 'मर्यादित प्रत्यक्ष' कहा है । परन्तु इसका यह अर्थ नही है कि ये दोनो ज्ञान कम निर्मल या कम महत्त्व के है । मति और श्रुतज्ञान की तुलना मे अवधि और मन पर्यवज्ञान, ज्ञान की बहुत ऊँची स्थिति बताते है । आजकल जिसे 'ग्रात्मसाक्षात्कार जीवन्मुक्त', आदि शब्दो से अभिहित किया जाता है, वह स्थिति तो प्राय ' मतिज्ञान की अवस्था' है । मन की शक्तियो का विकास करके अमुक निश्चित विकास सोचा जा सकता है, उससे विलक्षण परिणाम प्राप्त किये जा सकते है । इस प्रकार से मानसिक शक्ति का जो विकास होता है, उससे प्राप्त किसी किसी अनुभव को कई लोग ‘आत्म-साक्षात्कार' मानते है, परन्तु वस्तुत यह मतिज्ञान की अवस्था है, अत आध्यात्मिक विकास की तो यह केवल एक प्राथमिक भूमि का ही है । इसमे मिथ्या - ज्ञान को भी अवकाश है । मनुष्य का मन एक विराट विषय है । मन की शक्ति असीम है । मन पर काबू और नियंत्रण करके बहुत बहुत जाना और समझा जा सकता है । मन के अपनी आँखें, ग्रपने Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ कान, अपनी नाक, अपना जीभ पीर अपनी त्वचा होती है। यह सब कुछ सूक्ष्म होता है, अर्थात् इन्द्रियगम्य नहीं है । एकाग्रता प्राप्त करने के जो भिन्न भिन्न मार्ग है, जैसे अलग अलग योग भक्ति आदि उनसे मन की गक्ति का अमीम विकास किया जा सकता है । मन चर्म-चक्षुम्रो की महायता के बिना नाकार तथा स्वरूप को जान सकता है। मन कान की महायता के विना दूर दूर की बातचीत सुन सकता है। मन गन्ध और स्पर्ग भी सबन्धित इन्द्रियो नी महायता के बिना अनुभव कर सकता है। अन्य मनुष्यो के मन मे चल रहे विचारो को भी मन पढ सकता है। मन की अद्भुत शक्ति का विकास करने वाला मनुष्य कभी कभी इस विश्व में आसानी से 'महात्मा' बन जाता है । ऐसे शक्तिशाली महानुभाव के इर्द गिर्द भक्त-मडल भी बडी तेजी से इकट्ठा हो जाता है । सामान्य जन-समूह की सासारिक सुखो की कामना ऐसे महात्मानो के आत्म-विकास का मार्ग अवरुद्ध कर बैठ जाय तो इसमे आश्चर्य ही क्या ? अपनी प्राप्त की हुई सिद्धियो के विषय मे अहभाव-जनित भ्रान्ति के कारण ऐसे महात्मा भी कभी कभी 'धर्म पवर्तक' से लेकर 'स्वयशभु, स्वयसिद्ध, हाजर इमाम और भगवान' तक के विरुदो मे भटक जाते है । जो लोग इस भ्रान्ति मे नही भटक जाते, भटके हो तो बाहर निकलते है और मन को छोड कर जो लोग शुद्ध प्रात्मा के क्षेत्र मे प्रवेश प्राप्त करने के लिए कार्यसाधक बनते है, उन्ही के लिए आगे वढने का और केवलज्ञान की उच्च भूमिका तक पहुँचने का मार्ग खुलता है । वाकी सब भव-अटवी मे भ्रमण करते रहते है। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३ यदि यह बात जल्दी समझ मे आ जाय तो सुदेव, सुगुरु और सुधर्म को समझने और प्राप्त करने मे बहुत सहायता मिल सकती है | यदि हम भौतिक कामनाओ तथा दुनिया की लोलुपताओ से क्षरण भर के लिए भी मुक्त न हो सकते हो, तो फिर उन मव तथाकथित महात्माग्रो मे और कोई कोई महात्मा वन वैठे हो उनमे हमे 'साक्षात् भगवान' के दर्शन हो तो चर्य हो क्या ? परन्तु मन के द्वारा प्राप्त ज्ञान आध्यात्निक दृष्टि से 'परोक्ष-ज्ञान' है, और सच्चा मार्गदर्शन वे ही दे सकते है जिन्हें प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त हुग्रा हो । यदि हम इतनी वात समझ ले तो चमत्कारी तथा चमत्कार - मार्तडो से हम चोधिया नही जाएँगे, और लुब्ध भी नही होगे । एक और बात याद रखने योग्य है । प्राध्यात्मिक क्षेत्र मे भी मति और श्रुतज्ञान मे मिथ्या अथवा विपरीत ज्ञान की संभावना है । यह वात निश्चित रूप से सभव है कि मन कितना ही शक्तिशाली वन जाने पर भी 'ज्ञानी' बना रहे । पहले जो विपरीत ज्ञान बताये गये है, उनमे 'मतिश्रज्ञान' तथा 'श्रुत- ग्रज्ञान' का उल्लेख किया ही है । यदि श्रुतज्ञान सम्यक् (सच्चा) हो तो वहाँ से ग्रात्मा के क्षेत्र मे प्रत्यक्ष ज्ञान में प्रवेश करने का मौका मिलता है । परन्तु यदि वह ज्ञान मिथ्या अथवा विपरीत हो तो वहाँ से विकास के बदले अवनति शुरु होती है, साधा हुआ विकास खो दिया जाता है, फलत जहाँ थे वही वापस गिर पडते हैं । यह बात बहुत ध्यान देने योग्य है । मानव-मन की चमत्कार कर दिखाने की शक्ति ग्रात्मविकास का साधन नही है | श्राध्यात्मिक साधना करते करते Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ हमे जिस विकासक्रम से गुजरना होता है उसमे मन की शक्ति का खिलना और कुछ ऐसे वैसे चमत्कार दिखा सकना स्वाभाविक है। फूल-फल के पेडो के विकासक्रम में जैसे स्वाभाविक अवस्थाएँ होती है, उसी तरह यह भी एक अवस्था या अवस्थाएँ है। यह ध्येय नहीं है, साध्य नहीं है, यह यात्ममुक्ति का साधन भी नही है । यह तो छलने वाली, ठगने वाली तथा ललचाने वाली अवस्था है। यदि यही रुक गये तो वडा खतरा है। इस बात को कैसे समझे ? पहले हमने जो कथन किया है कि 'ज्ञानक्रियाझ्या ज्ञानम्' उसका तात्पर्य यदि हम पूर्णतया समझले तो यह बात पूर्णत. समझ मे आ सकती है । यही कारण है कि हमे सद्-धर्म और सद्गुरु का पालम्बन लेना पड़ता है। यह बालवन लेने के लिए हमे विवेक रूपी ज्ञान की जरूरत होती है। वह ज्ञान-सच्चे ज्ञान का वह सच्चा मार्ग-हमे जैन तत्त्वविज्ञान अनेकान्तवाद और स्याद्वाद बताता है । ____ यह बात 'बाबावाक्य प्रमारणम्' या 'हम कहते है इसलिये मान लो, जैसी नहीं है। हम स्वय योग्य अवलवन द्वारा इसका प्रयोग कर सकते है। हम इसका अनुभव भी कर सकते है। जिसका हमे अनुभव हो वही सच्चा ज्ञान है। यह अनुभव परोक्ष नही, परन्तु प्रत्यक्ष होना चाहिये। इन्द्रियो और मन की सहायता से हमे जो अनुभव होता है सो परोक्ष अनुभव है । जब हम सम्यक् -सच्चे मार्ग पर हो तव भो वह अधूरा अनुभव होता है । पूर्ण अनुभव तो केवल आत्मा के द्वारा, अन्य किसी चीज की-किसी भी माध्यम की सहायता के विना ही हो सकता है । यही अनुभव प्रत्यक्ष है, दूसरा नही। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७५ राजनीति मे लोकशासन के विषय मे For the people, by the people, and of the people'-जनता के लिए, जनता के द्वारा और जनता का, ऐसा एक सूत्र है । आत्मा के क्षेत्र मे भी हमे जो अनुभव प्राप्त करना है वह भी 'पात्मा के लिए, आत्मा के द्वारा और आत्मा का'--For the soul, by the soul and of the soul-होना चाहिए । राजनैतिक दर्शन--Political philosophy के चिन्तको ने पूर्ण लोकशासन तथा सुराज्य के विषय मे जो उच्च और चरम-Highest extreme-कल्पना की है उसमे 'राजा राज्यकर्त्ता अथवा राज्यतन्त्र' जैसा कुछ नही होता। किसी भी प्रकार की राज्य-सस्था के बिना लोग स्वय उच्च, पारमार्थिक और आदर्श जीवन जी सके-ऐसा अतिम आदर्श Finaal goal माना गया है। पुलिस, फौज, अदालत और राज्य नाम की सत्ता की आवश्यकता ही न हो ऐसा कब सभव है ? यह स्थिति तभी प्राप्त हो सकती है जव समस्त मानव समाज मानवता की-'शिवमस्तु सर्वजगतः' कीभावना से विभूपित हो जाय, स्वार्थ और सकुचितता के स्थान पर परमार्थ और समभाव को अपनाए । इस स्थिति को सच्चा और प्रत्यक्ष लोकशासन-Real, direct democracy-माना गया है। आत्मिक क्षेत्र मे भी ऐसी ही बात है। इन्द्रियो और मन के द्वारा जो अात्मतन्त्र चल रहा है उसके स्थान पर स्वय आत्मा के द्वारा ही अपना तन्त्र प्रत्यक्ष (Direct ) रूप मे चले, और इन्द्रियाँ, मन आदि किसी तन्त्र की, किसी अधिकारी वर्ग की, किसी सत्ता की या किसी माध्यम की आव Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ श्यकता ही न रहे-मानव जीवन का यही अन्तिम आध्यात्मिक लक्ष्य-Final spiritual goal है । हम जिस ज्ञान की खोज करना चाहते है उस ज्ञान को पाने का हेतु भी आत्मा की इस अवस्था को सिद्ध करना ही होना चाहिए। - इसके बदले हम भ्रमो मे ही भटके रहते है । हमारे चारो भोर जो सच्ची समझ रही हुई है उसको ओर हमारा ध्यान नही जाता। हम इन्द्रियो और वासना की पकड मे ऐसे जकडे गये है कि जो सच्चा नहीं है उसे सच्चा मानते है और जो सच्चा है सो हमे नही सुहाता। जैन तत्त्ववेत्तानो के बताये हुए जान दे जो भेद हमने यहाँ देखे उन पर भली भाँति विचार करने पर मालूम होगा कि ये ज्ञान के प्रकार बुद्धिगम्य एव वैज्ञानिक है । इसमे अधश्रद्धा की या ऐकान्तिक बात नहीं है । वैज्ञानिक प्रयोगशाला (Scientific laboratory) मे जिस तरह प्रयोग होते है. उसी तरह इसके प्रयोग भी हम अपने आत्मा की प्रयोगशाला में कर सकते है, और इसकी सच्चाई सार्थकता और सिद्धिदायकता अनुभव कर सकते है। ज्ञानविषयक इस विवेचन से हम यह निष्कर्ष निकालते है कि सम्यक् ( सच्चा ) ज्ञान 'अनुभव ज्ञान है । स्तर के भेद से यह ज्ञान परोक्ष हो चाहे प्रत्यक्ष, पर यह तो हमे स्वीकार करना ही होगा कि ज्ञान अर्थात् 'अनुभव' है।' इसके बदले हम इस संसार मे क्या देखते है ? यदि हम पारमार्थिक (आध्यात्मिक) क्षेत्र में से साव्यवहारिक क्षेत्र मे आ कर देखेगे तो यहाँ भी हमे ज्ञान और अनुभव का भेद समझ मे पाएगा। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ व्यवहार मे जिन्हे हम 'ज्ञानी' कह कर पुकारते है उनमे से अधिकाश तो-Encyclopedia - जानकारी के भडार के अतिरिक्त और कुछ नही होते । जो कुछ उनके पास होता है वह ज्ञान नहीं बल्कि केवल Information-~जानकारी होती है, सो भी पुस्तकाकार प्रकाशित Encyclopedia -विश्वकोष (सग्रहग्रन्थ) की तुलना मे अल्प-अत्यल्प होती है। हम 'ज्ञान' के नाम से अभिहित बहुत सारी जानकारी एकत्रित करे और उसका अमल-आचरण करने के नाम पर-क्रिया के सम्बन्ध मे-केवल शून्य ही हो तो हमे अपनी इस सारी मेहनत से क्या लाभ होगा? कुछ भी नही । - इसीलिए सत्पुरुप कह गये है कि "व्यवहार मे जिसे ज्ञान माना जाता है, उस ज्ञान के 'सिन्धु' की अपेक्षा 'अनुभव का बिन्दु' अधिक महान है।" इसलिए हमे अपने हेतु की सिद्धि के लिए जो ज्ञान पसद करना है, वह ज्ञान हमे 'प्रत्यक्ष अनुभव' की ओर ले जा सके ऐसा सच्चा-सम्यक् होना चाहिए। इस ज्ञान की प्राप्ति की ओर जाने वाले मार्गों के चुनाव में भी हमे सच्चे मार्ग का अवलम्बन करना चाहिए। हमारा उद्देश्य भी विशुद्ध, उदात्त और पारमार्थिक होना चाहिए। अव, विवेकपूर्वक विचार करने पर प्रतीत होगा कि -- . सच्चा ज्ञान अर्थात् 'अनेकान्त तत्त्वविज्ञान ।' सच्चा मार्ग अर्थात् 'स्यावाद ।' सच्चा हेतु अर्थात् 'यात्मा के स्वरूप का प्रत्यक्ष अनुभव ।' + + + + Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म 'कर्म' क्रियावाचक, क्रियासूचक, क्रियादर्शक शब्द है । कर्म का अर्थ ही हैं क्रिया । जिस तरह गति में क्रिया है, उसी तरह स्थिति में भी क्रिया है । क्रिया के दो प्रकार कहे गये है । (१) द्रव्यक्तिया (२) भावक्रिया | इनमे से जो क्रिया इन्द्रियों और शरीर से होती है उसे द्रव्यक्तिया कहते है। हम उसे वाह्य क्रिया भी कह सकते हैं । जो क्रिया मन के द्वारा होती है, जो कुछ संकल्पविकल्प, भले बुरे विचार, प्रेम (राग) तथा तिरस्कार (द्वेष ) इत्यादि जो क्रिया होती है सो भाव क्रिया है । इसे हम आन्तरिक क्रिया कह सकते है | यदि हम किसी राह चलते सामान्य व्यक्ति को खड़ा रख कर कर्म के विषय में पूछे तो वह ऐसा उत्तर देगा, "हमारे द्वारा जो कुछ भी कार्य होता है सो कर्म ।" कुछ समझदार व्यक्ति उत्तर देगा कि, "जैसा करोगे वैसा पाओगे । करते हो सो कर्म और पाते हो सो फल है ।" इस तरह कर्म-विषयक व्यावहारिक समझ तो सर्व साधारण तथा क्वि व्यापक है । परन्तु कर्म-विषयक शास्त्रीय ( वैज्ञानिक) ज्ञान का दुनिया मे पर्याप्त प्रचार नही है, पर्याप्त जानकारी नहीं है । तत्त्वज्ञान के विचारानुसार 'कर्म किसी क्रिया अथवा प्रवृत्ति का सस्कार ही नही है । कर्म एक वस्तु है, वह द्रव्य-भूत वस्तु है | उसके अपने पुद्गल होते है । इन पुद्गलो को कर्म वर्गरगा के पुद्गल कहते है । हम मन, वचन और काया के द्वारा जो भी कार्य करते हैं उन्हें 'जीव की प्रवृत्ति' माना जाता है । श्रात्मा की इस Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ प्रवृत्ति से कर्म के पुद्गल खिंच कर प्राते है और उससे चिपकते है । कर्मवगंगा के पुद्गल लोकाकाश में ग्रर्थात् विश्व मे सर्वत्र भरे पडे है | जब ये पुद्गल ग्रात्मा से चिपकते है तव उनका यो चिपकना 'कर्मवधन' कहलाता है । तात्पर्य यह है कि तत्त्वज्ञान की दृष्टि से "क्रिया के द्वारा निष्पन्न होने वाला पुद्गल - विशेष की रचना का कार्य ही कर्म है ।" इस क्रिया मे मन, वचन और काया से होने वाली क्रिया के अतिरिक्त श्रात्मा के मिथ्यात्व, अविरति, कपाय आदि की क्रिया का भी समावेश होता है । मन, वाणी और शरीर की क्रियाग्रो के प्रकार के अनुसार कर्म के पुद्गल खिच कर आते है, बँधते है, और आत्मा जीव से चिपकते है । इस तरह "कार्य अथवा क्रिया के द्वारा खिंच कर आने वाले और ग्रात्मा से चिपकने वाले पुद्गलो के समूह को शास्त्रीय परिभाषा मे 'कर्म' कहते है । इनके भी दो प्रकार है - द्रव्य कर्म और भाव कर्म । जीववद्ध कार्मिक पुद्गलो क 'द्रव्यकर्म' कहते है और जीव के राग-द्वेष, इत्यादि विभावात्मक परिणाम को 'भावकर्म' कहते है । इन दो प्रकार के कर्मो से परस्पर कार्य-कारण-भाव का सम्बन्ध है | भावकर्म से द्रव्यकर्म और द्रव्यकर्म से भावकर्म की प्रवृत्ति होती है । यह कर्म-रूप क्रिया श्रनादिकाल से चली आ रही है । अनन्तकाल तक चला करेगी। जिसे हम जीवन कहते है, वह भी एक क्रिया ही है । इस दृष्टि से जीवन भी एक कर्म है । तत्त्वज्ञानियों ने आत्मा के जो दो स्वरूप बताये है वे है, 'मुक्त ग्रात्मा' और 'कर्मवद्ध ग्रात्मा ।' यहाँ जो 'मुक्त' शब्द प्रयुक्त हुआ है उसका अर्थ 'कर्ममुक्त' समझिये । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध भी अनादि है । दुनिया के अनादि-अनन्त अस्तित्व की अपेक्षा से कहा जा सकता है कि कर्म का आत्मा के साथ सम्बन्ध भी अनादि-अनन्त है परन्तु जहाँ तक आत्मा का प्रश्न है, कर्म के साथ उसका सम्बन्ध अनन्त नहीं है, मान्त है । समस्त कर्मों का क्षय करके जव आत्मा 'मुक्त' बनता है तब कर्म के साथ उस यात्मा का सम्बन्ध समाप्त हो जाता है । इसका दूसरा तर्क-सगत (Logical) अर्थ यह हुआ कि जब तक सर्व कर्मों का क्षय नहीं होता तब तक प्रात्मा 'मुक्त' नही होता । ____ तात्पर्य यह है कि किसी भी गरीर मे जब तक आत्मा कर्म से अशुद्ध अथवा वद्ध वन कर परिभ्रमण करता है तब तक वह कर्म करता रहता है । इन कर्मो के फल स्वरूप ही उसे जन्म लेना, जीना, मरना, फिर जन्म लेना और भाँति-भांति के शरीरो मे बद्ध होकर स्वर्ग, पृथ्वी और नरक के बीच चौरासी लाख योनि मे परिभ्रमण करना पडता है।। पिछले 'पाँच कारण' वाले प्रकरण में हमने 'कर्म' को कार्य के एक कारण के रूप मे देखा है । जहाँ तक प्रात्मा के सासारिक पर्यायो का-शरीर, राग-द्वेप और मुख दु ख का, सम्बन्ध है, उसमे कर्म एक प्रधान कारण है। हम अपनी आँखो से 'कर्म' को देख नहीं सकते, फिर भी जैसा कि पहले कहा गया है, कर्म एक पुद्गल है । पुद्गल अर्थात् रूपी-साकार । परन्तु यह रूप अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण इन्द्रियगम्य नहीं है। ___जैन तत्त्वज्ञानियो ने समग्र विश्व-रचना के आधार स्वरूप जो छह द्रव्य बताये हैं उनमे पुद्गल भी एक द्रव्य (पदार्थ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ Substance) है, ऐसा कहा है । प्रत्यन्त सूक्ष्म प्रणु-परमाणुत्रो का समूह पुद्गल द्रव्य के अन्तर्गत प्रा जाता है । यह द्रव्य भी अनेक परस्पर विरोधी गुण धर्म रखता है । आधुनिक विज्ञान ने वारीक से वारीक परमाणु को देखने के लिए जो अद्यतन साधन बनाये है वे अभी तक सूक्ष्म और सूक्ष्मतम परमाणु तक नही पहुँचे है। कर्म भी अतिसूक्ष्मसूक्ष्मातिसूक्ष्म परमाणुओं का एक समूह है । अन्य गु परमाणुओं की तरह यह भी अलग होने और जुडने के स्वभाव वाला है । भौतिक विज्ञान के पास इसे जानने और देखने के लिए कोई साधन नही हैं । एक समय था जब विज्ञानप्रेमी ऐसा सब मानने से इनकार करते थे, परन्तु ग्रव वे इनकार नही करते । जैन तत्त्ववेत्ताओ ने हजारो लाखो वर्षो पहले से कहा है कि 'शब्द' भी पुद्गलो का एक समूह है । एक समय था जब इस बात को विज्ञानवादी स्वीकार नही करते थे । जव गव्द को ग्रामोफोन के रिकार्ड में बाँधने का श्राविष्कार हुआ तब सारे ससार ने यह बात मजूर की । तार- रस्सो की मदद के बिना, वायरलेस से वेतार के सदेशो का लेन देन जब से शुरु हुआ तब से विज्ञान के क्षेत्र मे एक क्रान्तिकारी सशोधन युग प्रारम्भ हुआ । बम्बई मे हम जो गब्द बोले वे वायु की तरगो पर सवार होकर क्षण भर मे सारे मसार मे घूम जाते है, और वैज्ञानिक साधनो के द्वारा अन्य लोग उन्हे हजारो मील की दूरी पर सुन सकते है | इस वात के अनुभव के बाद सबने जैन दर्शन की यह बात मान्य रखी है कि शब्द मे सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमाणु-रूप पुद्गल विद्यमान है । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ इसी प्रकार कर्म भी पुद्गलो का समूह है substance है। आज भले ही वैज्ञानिक वर्ग इस बात को स्वीकार न करे, पर यह एक प्रमाणित तथ्य है और विचारको के द्वारा इसका स्वीकार हुए विना नही रहेगा, चाहे जत्दी हो चाहे देर मे । जैन तत्त्वज्ञान मे विचार को भी पुद्गल Substance माना जाता है । शुद्ध तात्त्विक दृष्टि से 'विचार' मन के सूक्ष्म पुद्गलो की क्रिया है । जैसे भापण-शब्द पुद्गल की क्रिया है वैसे ही विचारो द्वारा मन मे होने वाली क्रिया भी मनोवर्गणा के नाम से अभिहित पुद्गलो की क्रिया है। भाव-क्रिया मन से होती है। उसमे विचारो की प्रधानता है। (जैन दर्शन मन की क्रिया प्रात्मा के अन्दर ही मानता है, इसलिए बाहर से तो उसका केवल अनुमान होता है।) मन के भी दो विभाग है- 'भाव-मन' और 'द्रव्य-मन' । यहाँ विचार 'द्रव्य-मन' से सम्बन्ध रखते है, भाव-मन से नही । द्रव्य-मन पुद्गल-स्वरूप है, भाव-मन जीव का अध्यवसाय है, भावना है। __ 'पुद्गल' शब्द का सीधा-सादा अर्थ करना हो तो कह सकते है कि जो 'पूरण और गलन' अर्थात् इकट्ठे हो सकते है और अलग हो सकते है, और जिनके रूप, रस, गध, स्पर्ग आदि गुण होते है वे 'पुद्गल' है । यदि हम ऐसा मान ले कि जो केवल ऑखो से दीख सके या प्रयोगशाला मे मानव कृत साधनो से जिसका निरीक्षण हो सके वही पुद्गल है, तो मानव की सशोधन वृत्ति ही समाप्त हो जाय; यह मानना पडे कि मनुष्य ने जो कुछ देखा है उसके सिवाय और कुछ भी नहीं है । हम ऐसा मानने को Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૨ तैयार नही है । कोई भी समझदार आदमी ऐसा मानने को तैयार नही होगा । आज तक विज्ञान ने जो खोजे की है, जो नया नया सशोधन भी हो रहा है, थोर जो नये ढंग के प्रयोग चालू है, उन सबके फलस्वरूप एक तथ्य हमारे सामने दीपक की तरह प्रकाशमान होता है कि "अभी तक वहुत बहुत जानना वाकी है ।" हमे इन सब मे से यह स्पष्ट और निश्चित वात मालूम होती है । आधुनिक वैज्ञानिक प्रयोगो से हमे ऐसी ही दूसरी एक अधिक महत्त्व का वात ज्ञात होती है । वह वात यह है कि "नये नये संशोधन के द्वारा हमारे सामने जो सव ग्रनोखा परिणाम प्रस्तुत किया गया है उसमें 'कुछ भी नया नही है ।' जगत् के स्वरूप के विषय मे हजारो लासो वर्ष पहले ग्रात्मजानियो और केवली भगवन्तो ने जो कुछ कहा था, शास्त्र-मन्थो मे लिखित हो हो कर जो कुछ हमारे पास श्राया था, उसमे न हो, ऐसी कोई नई बात हमे ज्ञात नही हुई । प्लास्टिक और बैकेलाइट जैसे पदार्थो से बनी हुई चीजे हजारो वर्ष पहले जमीन मे गडी हुई सस्कृति का परिचय देने वाले पिछले दिनो खोद कर निकाले हुए प्राचीन नगरो के ग्रवगेपो मे देखने को मिलती हैं । यह बात कहने में हमारा उद्देश्य आधुनिक विज्ञान को उपालभ देना नही है । वर्तमान विश्व मे वैज्ञानिक संशोधन का महत्त्व साधारण नही है । उन्होने जो कुछ खोजा, बताया और भी खोज रहे हैं उसके पीछे काम करने वाली बुद्धिशक्ति के लिए वे हमारे अभिनन्दन के पात्र है । वैज्ञानिक लोग Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ भी अपने ढग से दुनियों के उच्च कोटि के उपकारक है। हाँ, मानव-सहार के साधनो का आविष्कार करने वाले पुरुपो के प्रति हम उपकारक-भाव से नही देख सकते । बीसवी सदी मे कहिये, या सर्वकाल के लिए कहिये, वैज्ञानिक सशोधन मानव की बुद्धिशक्ति के इतिहास मे देदीप्यमान नक्षत्रो के समान है, और इस वात से इनकार नही किया जा सकता। खेद मात्र इतना ही है कि मनुष्य की बुद्धि क्षणिक और नाशवान् सुख की खोज करने के बदले परम और शाश्वत सुख की खोज मे लगी होती तो मानव-समाज के अस्तित्व के लिए भय उपस्थित करने वाले भयानक साधनो के वदले परम-आनन्द प्रमोदकारक दिव्य साधनो से यह दुनिया सुशोभित होती। ___ वैज्ञानिको की गोधपद्धति के विषय मे जानकारी प्राप्त करना वडा मनोरजक होगा । सामान्यतया दो प्रकार की धाररणाएँ । ( Assumption ) बना कर काम का प्रारभ किया ___ा है। एक धारणा, 'अमुक वस्तु ऐसी है' ऐसा मान कर और दूसरी धारणा, 'यह वस्तु ऐसी नही है' ऐसा मान कर की जाती है। इस मे एक मनोरजक बात तो यह है कि कई बाते 'है' ऐसी श्रद्धा मे से नहीं, बल्कि 'नही है' ऐसी अश्रद्धा मे से प्रकट हुई है। 'नही है' यह सिद्ध करने के प्रयत्न मे 'है' ऐसा सिद्ध हो गया है । 'नही है' ऐसा मान कर बैठ रहने के बदले 'नही ही है' ऐसा सिद्ध करने के प्रयत्न करने मे यह है ऐसा निश्चित हो गया है। सन् १४९२ ई० मे कोलम्बस ने अमेरिका महाद्वीप खोज निकाला, पर वह हिन्दुस्तान पहुँचने के जल मार्ग की Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५ खोज मे निकला था । उस समय हिन्दुस्तान योरपवासियो के लिए अज्ञात देश नही था । उन्हे भारत ग्राने के खुश्की के रास्ते की जानकारी तो थी ही, गौर उस समय भारत के साथ व्यापार-विनिमय भी चलता था, जब कि पश्चिम - गोलार्ध के विषय मे किसी को उस समय जानकारी न थी । कोलम्बस निकला तो था हिन्दुस्तान की खोज मे पर उसने खोज निकाला अमेरिका । इन दोनो गोलार्धो मे बसने वाले लोगो के परस्पर सपर्क मे आने का प्रारब्ध ( कर्म ) जगा, काल परिपक्व बना, कोलम्बस को निमित्त बना कर पुरुषार्थ मनुष्य की शोधवृत्ति के भाव से सज्जित हुआ और भवितव्यता उसे पूर्व के बदले पश्चिम दिशा मे घसीट ले गई । यह पाँचो कारगो की सुभग फलदायकता का कितना सुन्दर उदाहरण है । कोलवस के उदाहरण से यह सिद्ध होता है कि सशोधन के लिए शुभ निष्ठा से प्रयास करने वाले पुरुषार्थी लोग अन्य चार कारणो की अपेक्षाओ के अधीन रह कर कुछ न कुछ प्राप्त तो अवश्य ही करते है । हिन्दुस्तान नही तो अमेरिका । कोयला ढूंढते ढूंढते कभी हीरा मिल जाने की भी संभावना तो है ही । मानव की जिज्ञासा - वृत्ति भी कितनी अद्भुत है । कुछ है, या होना चाहिए यह मान कर वह पुरुषार्थ करता है, कोई एक वस्तु नही है, ऐसा मानकर 'वह ऐसा नही ही है' यह सिद्ध करने के लिए भी वह पुरुषार्थ करता है । विज्ञान (Science) के सभी विद्यार्थी यह बात जानते है । वे 'नही है' ऐसा मान कर अपनी प्रयोगशाला मे कुछ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ प्रयोग करते है, और फिर वे इस निर्णय पर पहुँचते है कि वह ' है ' । जब विज्ञान के विद्यार्थी अपनी प्रयोगशाला (Laboratory मे प्रयोग —— Practicals करते है, तब वे जो भिन्न भिन्न पद्धतियाँ प्राजमाते है उनका एक नमूना यह रहा " एक विद्यार्थी हाथ मे 'कागज' लेता है । फिर वह यह मान कर कि 'यह कागज नही है' प्रयोग शुरु करता है । विश्लेषण (Analysis ) करते करते जब यह प्रयोग पूरा होता है तब उसका निर्णय ( conclusion ) यह प्राता है कि 'यह कागज है ।' प्रारम्भ में 'नही है' ऐसी धारणा ( assumption) करते है | प्रयोग के अन्त मे वे ऐसा निश्चय करते है कि यह धारणा गलत थी । यहाँ जो 'कागज' की बात लिखी है सो केवल उदाहरण के लिए ही । इस तरह 'है' या 'नही है' ऐसा मानकर प्रयोग करने वाला कुछ न कुछ परिणाम तो लाता ही है । निष्फलता भी एक परिणाम है, र परम पुरुषार्थियो के लिए यह सफलता की जननी ( पुरोगामी) है | अत हम अवश्य चाहेगे कि वैज्ञानिक सशोधन जारी रहे । केवल हमारी यह इच्छा मानव कल्याण को भावना के अनुरूप होगी, क्या यह स्पष्टता करने की कोई आवश्यकता है ? इस विश्व में जो ग्ररूपी, अतीन्द्रिय, सूक्ष्म ( Invisible ) पदार्थ है, उन सबकी जानकारी भौतिक प्रयोगशालाओ द्वारा प्राप्त होगी या नही, यह तो एक प्रश्न ही है । इसके लिए तो 'प्रात्मिक अनुभव' को छोडकर और कोई प्रयोगशाला नही है । परन्तु जो रूपी - इन्द्रियगोचर (Visible ) पदार्थ है, उनका प्रयोगात्मक ज्ञान भौतिक प्रयोगशालाओ द्वारा प्राप्त करने के Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८७ लिए अथाह प्रयत्न हो रहे है । ग्राज जिन्हे सूक्ष्म कह सके ऐसे अणु-परमाणुओं तक विज्ञान पहुँचा है | ये सब रूपी ( माकार) पदार्थ ही है । इन रूपी पदार्थों मे जो अति सूक्ष्मसूक्ष्मातिसूक्ष्म पुद्गल है उन्हें प्रयोगात्मक ढंग से सिद्ध करने की बात कुछ संभव नही है । कर्म मे और मन के विचारो मे सूक्ष्मातिसूक्ष्म पुद्गल है, यह बात केवल शास्त्र - प्रमारण से नही, अनुभव प्रमाण से भी सिद्ध हो चुकी है । आधुनिक वैज्ञानिक यह मानकर कि 'पुद्गल है' उन्हे खोज निकालने का प्रयत्न करे अथवा 'पुद्गल नही हो है' ऐसा प्रमाणित करने के लिए प्रयत्न करे तो इससे मानव जाति को लाभ ही होगा, ऐसा मानना ग्रनुचित नही है । सामान्यतया ये पुद्गल अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण और वे इन्द्रियो के विषय नही वन सकते, यह देखते हुए, ऐसे प्रयास पूर्णतया फलीभूत होने की सभावना नही है, फिर भी ऐसी आशा रखना अनुचित न होगा कि यदि ग्राधुनिक वैज्ञानिक इसके लिए प्रयत्न करे तो उसमे से कुछ न कुछ प्राप्त तो होगा | विज्ञान ने गरोर के पुद्गलो को स्वीकार किया है तो फिर कर्म के पुद्गलो के विषय मे किया गया सशोधन विल्कुल निष्फल नही होगा, और कुछ नही तो अन्त मे ये सशोधन करने वाले श्रात्मिक प्रयोगशाला की ओर आकर्षित तो होगे ही। आज इस बात पर तो कोई मतभेद नही रहा है कि ससार की समस्त प्रवृत्तियो का, विचित्रताओं का, विपमताओ का और उन्नति-यवनति का एक महत्त्वपूर्ण कारण 'कर्म' है । कर्मशास्त्र पर अनेक बडे बड़े ग्रन्थ लिखे गये है । कई लोग तो कर्म के खेल पर इतने मुग्ध है कि ससार की सारी प्रवृत्तियो Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिए वे एक मात्र कर्म को ही कारण मानने है । इस विपय पर अनादि काल से लिखा गया है, लिना जा रहा है और लिया जाता रहेगा। ऐमा होते हुए भी कर्म के विषय में जो साहित्य उपलब्ध है, उसमे मे जैन दार्गनिको द्वारा प्रस्तुत नाहित्य के समान गहन-गभीर और बिगाल नाहित्य दुनिया भर में कहीं नहीं है। जैन विद्वानो के लिये हए 'कर्मग्रन्थ' पट कर हम दग रह जाते हैं, चकित हो जाते है, उनमें हमे उतना विस्तृत विवरण मिलता है। आज दुनिया भर मे यह तब्य न्त्रीहन हो चुका है कि कर्म के विषय में मूक्ष्म में नूम धानबीन केबल जैन माहित्य में ही मिलती है । कर्म-विज्ञान के विषय में सूक्ष्मानिसूक्ष्म विवरण नीर समस्त तथ्य जैन साहित्य में ही है। " कर्म का आत्मा के माय सम्बन्ध एव कर्म के पुद्गलो की अगम्य और अपार लीला-यह एक ऐमा विराट विषय है कि उसमे मात्र चचुपात करने के लिए भी विशिष्ट योग्यता प्राप्त करना आवश्यक है । हमारा पीर दुनिया का महान नीभाग्य है कि आज भी इस विषय को पूर्णतया समझा मकने वाला साहित्य और उसे बहुत बहुत अच्छी तरह समझे हुए जैन विद्वान मौजूद है। आज यह तथ्य तो सर्वथा मान्य हो चुका है कि 'कर्म' जैसा कुछ है सही, और कर्म के ही कारण सुख दुख, समानता, असमानता आदि का बहुत वडा पालम चल रहा है । ईश्वरवादी महापुरुप जव कहते हैं कि 'राम भरोसे वैठि के सबका मुजरा लेत, जैनी जिनकी चाकरी तैमा तिनको देत ।' तव वे भी कर्म की ही बात कहते हैं । इस दोहे मे 'चाकरी' शब्द कर्म का ही सूचक है। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ आत्मा और कर्म का सम्बन्ध एक 'सनातन सघर्ष' है । अग्रेजी मे जिसे "Tug of wai' - विपरीत दिशा मे रस्सा खीचने की स्पर्धा कहते है । उस प्रकार का एक खेल आत्मा और कर्म के बीच अनादि काल से खेला जा रहा है । जब आत्मा मोक्ष मार्ग के लिए पुरुषार्थ शुरु करता है, तब से इस खेल का असली प्रारम्भ ग्रमल मे आता है, तभी ध्यान मे आता है । आत्मा स्वय ही कर्म का कर्ता और भोक्ता है । कर्म से मुक्त होने की शक्ति भी आत्मा की अपनी ही शक्ति है । आत्मा स्वय ही सुख और दुख के सभी सवेदन अनुभव करता है । ग्रात्मा इनके कारण भी जान सकता है, परन्तु यह जानने की शक्ति श्रात्मा के अपने कर्मो के द्वारा कुठित हो जाती है । जिन्हे जैन तत्त्वज्ञानी 'प्रावरणीय कर्म' कहते है, उन कर्मों से आत्मा स्वयं ही अपने लिए कठिनाइयाँ उपस्थित करता है । ग्रात्मा खुद ही अपने विकास में, अपने शुद्ध स्वरूप के प्रकटीकररण मे अन्तराय-भूत कर्म करता है, उसके अपने कर्म ही उसके लिए बाधक होते है । किसी बालक को या जानवर को सुई चुभोने पर दुख की जो चीख निकलती है वह केवल शरीर से नही अपितु श्रात्मा से सम्बन्ध रखती है । क्योकि यदि उसका सम्बन्ध आत्मा से न होकर केवल शरीर से ही हो तो निष्प्राण शरीर मे से भी ऐसे सवेदन उत्पन्न होने चाहिए, लेकिन नही उत्पन्न होते । साधारण दियासलाई लग जाने से मनुष्य चिल्ला उठता है, जब कि श्मशान मे सारा शरीर जल कर भस्म हो जाता है, तब वह जरा सा भी नही हिलता डुलता, मामूली Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० चीख भी उसगे से नहीं निकलती । सुख दुख के सभी सवेदन गरीर से नहीं, बल्कि प्रात्मा से सम्बन्ध रखते है-जड शरीर मे रहे हुए चेतन यात्मा गे--यह बात समझने और समझ कर स्वीकार करने के लिए यह एक उदाहरण ही काफी है । इस तथ्य को प्रमाणित करने के लिए अनेक उदाहण दिये जा सकते हैं, परन्तु अाज तो यह वान गर्व-स्वीकृत होने के कारण अधिक विस्तार करना अनावश्यक है। आत्मा चेतन्य स्वरूप है और गरीर जास्वरूप है। कर्म भी पुद्गल होने के कारण, गरीर के पुदगलो की तरह 'जड' है । ये जड कर्म-पुद्गल शरीर में रहे हुए चेतन यात्मा को वाँध कर, घेर कर बैठे है । ये कर्म-पुद्गल-कर्म आत्मा की बाजी विगाडने का-उन्नटने का कार्य अनादिकाल से करते आये है। यह एक अच्छा तमाशा है। हमारी विन्ली, हमसे ही म्याऊँ' जैसी यह बात है । अग्रेजी मे 'Frankenstein' 'फेकेन्स्टीन' एक शब्द है । एक कल्पित कथा मे इस नाम के एक यन्त्र मानव का पान आता है । एक महान् वैज्ञानिक ने एक यत्र मानव (Robot) बनाया । उसने विनाश करने की अद्भुत शक्ति से इस यन्त्र मानव को सुसज्जित किया। उसने अपने सभी शत्रुनो को धराशायी करने की ग्राशा से यह यत्र-सचालित मानव-मूर्ति वनाई थी। परन्तु वाद मे इसका यह अजाम हुआ कि अपने ही बनाये हुए उस यत्रमानव को अपने वश मे रखने का कार्य उस वैज्ञानिक के लिए असभव हो गया। अन्त मे उस यत्र मानव ने अपने निर्माता उक्त वैज्ञानिक को ही मार डाला । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ यात्मा और कर्म के बीच का सम्बन्ध भी लगभग उक्त वैज्ञानिक पोर फे केन्स्टीन के सम्बन्ध के समान है। प्रात्मा स्वय राग द्वेप ग्रादि कपायो के कारण, खुद सुखी वनने और दूसरो को दुखी बनाकर अानन्द पाने के लिए कर्म के जड पुद्गलो को अपनी ओर खीचता है। परन्तु वाद मे चल कर ये ही पुद्गल, प्रात्मा के खुद के ये ही कर्म उपर्युक्त यत्र-मानव फे केन्स्टीन की तरह आत्मा की शक्तियो को नष्ट कर देते है, कुठित कर देते है । व्यवहार मे ऐसा जो कहा जाता है कि 'हाथ का किया, हृदय में लगा' सो ऐसी ही बात है। ____उक्त वैज्ञानिक मे और आत्मा मे बडा अन्तर यह है कि वैज्ञानिक (उसका शरीर) मर गया, जब कि आत्मा मरता नही । वैज्ञानिक तो मरने के बाद फ्रेवेन्स्टीन के त्रास से मुक्त हो गया, परन्तु अात्मा कर्म-रूपी फेकेन्स्टीन से नहीं छूटता । वह जहाँ भी जाता है, कर्म उसके साथ ही जाते है । अथवा यो भी कह सकते है कि कर्म यात्मा को जहाँ जाने की इच्छा हो वहाँ उसे जाने देने के बदले दूसरी ही जगह घसीट कर ले जाता है। परन्तु उक्त वैज्ञानिक मे और आत्मा में एक दूसरा वडा अन्तर है। यत्र-मानव बनाने के बाद उससे कैसे वचना, यह बात वैज्ञानिक को मालूम नहीं थी, जवकि, आत्मा यह जान सकता है कि कर्म से केसे मुक्त हुअा जाय । यह उसका स्वभाव गत जान (Inherent Knowledge) है। आत्मा जब कर्म के प्राबल्य के कारण उससे मुक्त नही हो पाता उस समय भी यह जान सकता है कि 'उससे छूटा जा सकता है।' कर्म की प्रबलता के कारण कभी ऐसा भी Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ होता है कि आत्मा यह वात भूल जाता है कि 'इसमे से छूटना चाहिये योर छूटा जा सकता है।' किये हुए कर्मों को भोगते भोगते उसकी छिपी हुई स्मृति ग्रवश्य वापस ग्राती है, याने वाद फिर चली भी जाती है, फिर लीट ग्राती है । यह क्रम श्रात्मा और कर्म के बीच चलते हुए ग्रनादि सघर्ष मे गोल-गोल घूमता ही रहता है । कभी कभी आत्मा जो चाहता है सो नही पा सकता, प्रयत्न करने पर भी नही पा सकता। उदाहरणार्थ, एक ही गुरु के दो शिष्य एक सा परिश्रम करने पर भी एक विद्वान् बन जाता है और दूसरा मूर्ख बना रहता है । दूसरे का परिश्रम कम नही है, फिर भी वह ज्ञान प्राप्त नही कर सकता । यहाँ उसे ज्ञान प्राप्त करने मे जो कर्म वाधा डालता है उसे जैनतत्त्ववेत्ताओ ने 'ज्ञानावरणीय कर्म' नाम दिया है । फिर भी ऐसा नहीं होता कि यह कर्म सदा-सर्वदा वाधा डालता ही रहे । उसकी समय मर्यादा का आधार आत्मा के पुरुपार्थ पर है । - कर्म का जो वर्गीकरण - ( Classification ) - जैनतत्त्ववेत्ताओ ने किया है उसमे कर्म के मूल ग्राठ भेद बताये है । उसके उपभेद १५८ है, और उपभेदो के उपभेद असख्य है । कर्म के इन आठ मुख्य प्रकारो मे से 'ज्ञानावरणीय कर्म' आत्मा के ज्ञान गुरण को ढकता है, प्रकट नही होने देता । सूर्य की अनुपस्थिति मे जिस प्रकार अमावस्या की अधेरी रात पृथ्वी पर काजल -सी काली चादर विछा कर बैठ जाती है, उसी तरह यह ज्ञानावरणीय कर्म ग्रात्मा के ज्ञान गुण को चारो ओर से ढक कर बैठ जाता है । इस कर्म की मात्रा न्यूनाधिक होती है । कभी वह आत्मा को बिल्कुल ज्ञान और मूढ बना Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ देता है, कभी आत्मा की जान-स्वरूप दगा को प्रकट करने की-जान प्राप्त करने की इच्छा मे न्यूनाधिक प्रमाण मे वाधक होता है। इस कर्म के-कर्म के प्रभाव के-अश और प्रमाणDegree and 1atio-कम ज्यादा होते हैं। अग और प्रमाण के अनुसार वह आत्मा के ज्ञान गुण का अवरोध करता है। कर्म का दूसरा मुख्य भेद 'दर्गनावरणीय कर्म' के नाम से अभिहित है । यह कर्म आत्मा की दर्गन-गक्ति का अवरोध करता है, आत्मा की जाग्नत अवस्था का भी अवरोध करता है । इसमे भी अश और प्रमाण होते है । ____ कर्म का तीसरा मुख्य भेद 'मोनीय कर्म' कहलाता है । मोह अात्मा का एक जवरदस्त दुश्मन है। वह अात्मा के शुद्ध स्वरूप को उलट पुलट देता है । दु ख का कारण हो तो भी वह आत्मा को मुख की भ्रान्ति मे डाल देता है। इसके दो भेद है-दर्शन मोहनीय और चारित्र्य मोहनीय ।। दर्गन मोहनीय कर्म आत्मा की तत्त्वरुचि को रोकता है, तत्त्व-अतत्त्व के सम्बन्ध मे भ्रम पैदा करता है। चारित्र्य मोहनीय कर्म वीतरागता को रोक कर राग, द्वेष, ईर्पा, वैर आदि उत्पन्न कराता है। यह कर्म तृपया एव कलुपितता उत्पन्न करता है। कर्म का चौथा भेद अन्तराय कहलाता है। इस कर्म के द्वारा शुभ कार्यों मे वाधा उपस्थित होती है। दान धर्म, वस्तु की प्राप्ति और भोगोपभोग मे यह कर्म बाधा डालता है । इस कर्म के कारण होने वालो वाधानो से छूटने के लिए 'अन्तराय कर्म-निवारण की पूजा करवाना जैनो मे साधारण Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ तया प्रचलित (customaly) है। अन्तराय कर्म-निवारण को पूजा करवाने के पीछे प्रात्मा का एक सकल्प रहता है। इस संकल्प के द्वारा मनोभाव को शुद्ध बनाने की विधि सहित क्रिया जेन गास्त्रकारो ने बताई है। मनोभावो का विशुद्रीकरण अपने पाप मे एक प्रकार का शुभ कर्म होने से वह अन्तराय कर्म की विपरीत-प्रमलता को छिन्न-भिन्न करने मे सहायक होता है। इसके उपरान्त, अद्भक्ति-वीतराग परमात्मा की भक्ति गीर तपस्या के द्वारा भी इस कर्म से छुटकारा हो सकता है। ये चारो कर्म 'घाती कर्म' कहलाते है। इन कर्मों मे आत्मा के स्वभाव-भूत मुख्य गुणो का नाश करने की 'घातक शक्ति' होने के कारण इन्हे 'घाती फर्म' कहते हैं। कर्म के पाँचवे मुख्य भेद को आयुज्य कर्म कहते है । चार गति और चौरासी-लाख-योनि मे, प्रत्येक गगेर परिवर्तन के समय भिन्न भिन्न गरीरो मे प्रात्मा को कितना काल व्यतीत करना है, सो इस 'आयुष्य कम' के द्वारा निश्चित होता है। कर्म का छठा मुख्य भेद 'नाम कर्म' कहलाता है। प्रात्मा को कौन कौन से शरीर में, कैसी प्राकृति मे कैसे रूप मे और कैसे रग मे जाना है, सो बाते इस कर्म के द्वारा निश्चित होती है । आत्मा को जो भिन्न-भिन्न 'वस्त्र परिधान-गरीर ग्रहण' करने पडते है सो इसके कारण । आत्मा को गरीर, रूप, रंग, इन्द्रियाँ, चाल, यश, अपयग, सौभाग्य, दुर्भाग्य, सूक्ष्मता, स्थूलता आदि जो प्राप्त होते है सो 'नाम कर्म के आधार पर प्राप्त होते है। कर्म का सातवाँ मुख्य भेद 'गोत्र कर्म' कहलाता है। उच्च, Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ नीच, मध्यम आदि कुलो मे जन्म लेने की क्रिया इस कर्म के कारण होती है। कर्म का आठवा मुख्य भेद 'वेदनीय कर्म' कहलाता है। यह कर्म आत्मा को सुख दुख आदि दिलवाता है । इसके दो भेद है-शाता वेदनीय और अशाता वेदनीय । यह कर्म भी अपने अश तथा प्रमाण के अनुसार आत्मा को सवेदन पहुँचाता है । सुख के लिए 'माता' और दुख, रोग, वेदना के लिए 'प्रगाता', ये दोनो जैन तत्त्वज्ञान के परिभापक शब्द है । जिसे हम भूख, तृषा आदि कहते है वह भी आत्मा की एक अगाता वेदना ही है। ___इन अतिम चार कर्मो को 'अघाती कर्म' कहते हैं । ये कर्म आत्मा के मुख्य गुणो का घात नही करते, उमको गति का नियमन करते है। आत्मा कौन से क्षेत्र मे जाएगा, मर्कट देह धारी वनेगा या मानव देह धारी, कगाल वा चडाल के यहाँ जन्म लेगा या धनवान वा विद्वान् के यहाँ, ओर यात्मा को सुख दुख के कैसे कैसे अनुभव होगे, कब शाता मे रहेगा ओर कव अशाता मे, यादि आदि वाते इन चार कर्मों द्वारा नियत्रित होती है । इन कर्मों का आत्मा के मुख्य गुणो या रवभाव के साथ विरोध नहीं है, ये कर्म उन गुणो के वाधक या घातक नहीं है । अत इन्हे 'अघाती कर्म' कहते है, यद्यपि इन कर्मों से घाती कर्मों का उत्तेजन देने का कार्य परोक्षत होता है। जैन दार्गनिको ने कर्म के ये आठ प्रकार बताये है । कोई भी प्रात्मा जब कर्म के वधन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करता है, जन्म-मरण के फेरे मे से मुक्ति पाता हे तव इन आठो कर्मो Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ का क्षय अनिवार्य गिना जाता है । इन पाठो कर्मो के नाग (क्षय) के बाद ही यात्मा सिद्धत्व प्राप्त करता है । जैन तीर्थकर जब केवलज्ञान प्राप्त करते हैं तब प्रथम चार घाती कर्मो का क्षय-नाग करने के बाद ही उस स्थिति पर पहुँचते है । जव प्रात्मा के मूल ज्ञान रवल्प को अवरुद्ध करने वाले इन चार कर्मों का पूर्णत क्षय होता है, तभी आत्मा ‘परमात्मा' बनता है, और तभी 'सर्वजता-केवलज्ञान' प्रकट होता है । केवलज्ञान प्राप्त करने के बाद तीर्यकर त्रिलोक के जीवो को वोध देने के लिए और सम्यक् जान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र-रूप मोक्ष-मार्ग का उपदेश देने के लिए जो अायुप्य भोगते है उसमे उनके चार अघाती कर्म उन्हे लगे हुए होते है। ये प्रघाती कर्म प्रात्मा के मूल स्वरूप (Basic quality) मे वाधक नही होते । तीर्थकरो का आत्मा जिस गरीर मे होता है, उस गरीर को छोड़ने का समय वे भगवान जानते होते है । जब वह समय आता है, तब तक मे वाकी बचे हुए चार अघाती कर्म भोग कर तथा छेदन करके वे सिद्धत्व प्राप्त करते है। ____ जव तीर्थकरो को केवलज्ञान प्राप्त होता है तब वे रूपो अरूपी, सूक्ष्म और स्थूल-समस्त पदार्थों को और प्रत्येक पदार्थ के अनेक परस्पर विरोधी गुण धर्मों को प्रात्मा से प्रत्यक्ष देखते है और समझते है । इस विषय का ज्ञान अपने उपदेश (देशना) के द्वारा वे दुनिया को देते है। उनका यह ज्ञान 'सकल प्रत्यक्ष' ज्ञान होता है । वे जिस स्तर पर पहुँचे है उस स्तर पर पहुँचे विना अन्य किसी को यह प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मकना, यह बात वे जानते हैं। वे उपकारकभाव से दुनिया को ऐसा मार्ग बनाने जाते है जिसने उनका परोक्ष ज्ञान हो सके । यह नाग है-'स्यादवाद' । जो ज्ञान तीर्थकरो को प्रत्यक्ष रूप में प्राप्त हुना, वह जान दुनिया के ननुप्गे को, मुझे, आपको, जिन्हें चाहिये उन सवको द्रव्य, क्षेत्र, काल, भात्र आदि की अपेक्षा ने गेग्यतानुसार माप्त हो सकता है । 'स्याबाद' के द्वारा यह ज्ञान प्रय प्राप्त किया जा सकता है । यह स्यावाद का विशेष महत्व है। कहा गया है कि.___ "केवलनानी प्रात्मा प्रत्यक्ष स्वरूप में जो जानते है, वह सब 'स्याद्वाद' परोक्ष बलप में जानता है। केवलजान और स्गवाद दोनो सर्वनत्त्व प्रकाशक ई, एक प्रत्यक्ष त्प में और दुसरा परोक्ष रूप में । अर्थात् स्याबाद ने तत्व का जो परोक्ष ज्ञान होता है वह केवनान ने प्रत्यक्ष होता है।" __ यह वात नर्वया सन्य है । अन्य दर्जनो मे जानी माने जाने वाले महागयो ने जो बात अपने अनुभव के अनुसार नुभव करके लिखी है, उसे मानने के लिए केवल श्रद्धा के सिवाय और कोई माधन नहीं है। केवलनानी भगवन्तो ने अपने प्रत्यक्ष अनुभवों के द्वारा देखे हुए जिन तत्त्वो का लाभबोध-जगत को दिया है, उसे बुद्धिगम्य रीति से, परोक्षतः नममने के लिए उन्होंने जगत को एक बास्त्र की-एक वैज्ञानिक प्रवृतिती -नी भेट दी है। यह पद्धनि है 'स्यावाद' । म उसे देखने, जानने और समझने के लिये सब लोगों को किसी नंका या नकोच के विना आमत्रण दे सकते हैं। निस्सह, श्रद्धा से बुद्धि को विभूपिन करके ही जाना होगा। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ अव कर्म के विषय पर पुन आते हैं। हमने देखा कि केन्स्टीन को पैदा करने वाला उक्त वैज्ञानिक तो मर गया, पर अपने ही बनाये हुए 'यत्र-मानव' का तो वह नाश नही कर सका । आत्मा के लिए ऐसी बात नही है । कर्म रूपी जिस फे केन्स्टीन को स्वय आत्मा ने अपने कर्मो द्वारा पैदा किया है उसका विनाश-क्षय भी प्रात्मा कर सकता है । एक खास गौर करने और याद रखने जैसी बात यह है कि ग्रात्मा जब मनुष्य शरीर मे हो तभी कर सकता है। एकेन्द्रिय से लगाकर तिर्यचपचेन्द्रिय तक के गरीरो मे आत्मा की यह शक्ति पूर्णतया प्रकट नहीं होती । मानव-भव को छोड कर प्रात्मा के अन्य भवो मे कर्म के आवरण आत्मा की इस शक्ति को प्रकट नहीं होने देते। अत एव जहाँ तक मानवभव का, मनुष्य-शरीर का, सम्बन्ध है, प्रात्मा के परिभ्रमण में प्राप्त होने वाली अवस्थाम्रो मे यह सर्वोच्च स्थिति है । स्वर्गलोक मे या वैमानिक-लोक मे देव वन कर गया हुआ आत्मा वहाँ अपनी मुक्ति के लिए उत्कृष्ट उद्यम नहीं कर सकता । उस आत्मा को जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति पाने के लिए मानव-शरीर मे आना ही पड़ता है। मनुष्य-देह के विना आत्मा का उद्धार नहीं हो सकता। __ यह मानव-देह का-मनुष्य-भव का-उज्जवल पक्ष है, परन्तु इसका दूसरा पक्ष भी है। जिस तरह मानव-शरीर कर्मो को छोडने के लिए अात्मा का उत्तमोत्तम साधन है, उसी तरह दूसरी ओर आत्मा को नरक मे ले जाने वाली प्रवृत्तियाँ भी इसी मानवभव मे अधिक होती है। अधिक से अधिक कर्मछेदन की तरह अधिक से अधिक कर्म-बन्धन, और उसकी Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ दीर्घ परम्पराएँ भी मनुष्य-भव मे ही निर्मित होती है । प्रात्मा जव मनुष्य-देह मे हो तभी प्रात्मा और कर्म के बीच बडा भारो कहा जा सके ऐसा मुकावला होता है। यहाँ शायद कोई पूछे कि “ऐसा क्यो ? मुक्ति की प्राप्ति मनुष्य-भव मे ही सभव है और अन्य किसी भव मे क्यो नही ?" इसका उत्तर तो सीधा और सरल है। विवेक, विचार, त्याग तथा वाचा की शक्ति प्रादि जो समस्त सामग्री मानवदेह मे प्रात्मा के पास होती है, वह अन्य कौन से शरीर मे है ? मनुष्य-शरीर मे जितनी सृजन-शक्ति erentive energy है उतनी दूसरे कौन से शरीर मे है । जहाँ तक आत्मा और शरीर का सवध है, आत्मा के लिए मोक्ष प्राप्त करने का सर्वोच्च वाहन (Supi eme medium) मानव-शरीर है। हवाई जहाज हमे बहुत ऊपर आकाश मे ले जाता है, परन्तु यदि वहाँ वह टूट जाए तो ऐमी दशा हो कि हमारी हड्डियो के टुकडे भी शायद ही हाथ लगे। उसी तरह इस मनुप्य भव का सदुपयोग करके अात्मा अपने सर्वोच्च गुणो को प्रकट कर सकता है, उसका दुरुपयोग करके अपने लिए बुरी से बुरी (Extic me worst) स्थिति भी पैदा कर सकता है। आत्मा के लिए मानव भव के सिवा और किसी भव मे दोनो ओर के सिरो की स्थिति (Poles apait) उपलब्ध नहीं है। जो कर्म आत्मा की इस सारी दौड धूप मे महत्त्व का भाग लेते है उन्हे साधारण बुद्धि से पुण्य और पाप ये दो नाम दिये गये है। एक बार एक प्रात्मार्थी मनुष्य एक सत पुरुप के पास गया । उसने सन्त पुरुष से पाप और पुण्य की ऐसी व्याख्या Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० मांगी जो सक्षिप्त हो, फिर भी अचूक हो । उक्त सत पुरुष ने उसे दो वाक्यो मे, केवल दो ही वाक्यो मे और छह शब्दो मे ही यह बात समझा दीपरोपकार पुण्याय, पापाय परपीडनम् । इसी अर्थ के और भी सुभापित हैपरेपा पीडन पापम् । परेपा सुचितन पुण्यम् । अर्थात् "परोपकार से पुण्य होता है, दूसरो को दुःख देने से पाप होता है । दूसरो को पीडा-दु ख-हो ऐसा कुछ भी करना पाप है और दूसरो की भलाई सोचना-जीव मात्र के कल्याण की भावना रखना पुण्य है ।" इन दो वाक्यो मे कैसी महान् बुद्धि मूर्त हुई है। पुण्य कर्म से आत्मा को भौतिक साधन सामग्री तथा आध्यात्मिक जानकारी के साधन-ये दो लाभ होते है । पाप कर्म से आत्मा के लिए भौतिक दुख तथा आध्यात्मिक समझ से दूरत्व उत्पन्न होते है । जैन तत्त्ववेत्ताओ ने पुण्य और पाप के क्षेत्रो मे आने वाले कर्मों की भी विशद समीक्षा की है। पुण्यानुबधी पुण्य, पुण्यानुवधी पाप, पापानुवधी पुण्य, पापानुवधी पाप आदि कर्मों के विपय मे अधिक से अधिक जानकारी जैनदर्गन मे है । (पुण्यानुवधी पुण्य अर्थात् नया पुण्य उत्पन्न करने वाला पुण्योदय जैसे ऐश्वर्य होते हुए भी धर्म की इच्छा हो । इसी तरह बाकी तीन भी समझ ले ।) कर्मो के वन्धन तथा छेदन मे द्रव्य की अपेक्षा भाव का महत्त्व अधिक है । मनुष्य के गरीर मे जो मन है, उसके वाह्य स्वरूप के विषय मे हमे थोडा सा ज्ञान है, उसके आन्तरिक स्वरूप का ध्यान तो लाख मे दस बीस को भी होगा या नहीं, यह भी एक प्रश्न है। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ श्रात्मा जिन कर्मो को शरीर अर्थात् इन्द्रियो से बाँधता है वे तो मनके द्वारा वधने वाले कर्मों के सामने ऐसे है जैसे पहाड के सामने पताशा । श्रात्मा का कर्मों के बन्धन और छेदन का महान साधन मन है । उसमे भी जो ग्रन्तर्मन है, जिसे ग्रेजी मे Sub conscious mind कहते हैं उसमे चलता हुन उपद्रव तो अपरपार है । अग्रेजी मे बाह्यमन को Conscious mind ( जाग्रत चेतन मन ) और ग्रन्तर्मन को Sub conscious mind ( अर्ध जाग्रत मन उपचेतन मन ) कहते है । पाश्चात्य मानस - शास्त्री 'Unconscious mind' ( अ जाग्रत - चेतन मन ) ऐसा मन भी एक शब्द प्रयोग करते है | अर्धजाग्रतता या अजाग्रतता जाग्रत मन की अपेक्षा से है । जहाँ तक आत्मा का सवध है, मानसिक वृत्तियो से भी आत्मा के आन्तरिक ग्राशय और झुकाव आदि का ही विशेष महत्त्व है । आत्मा के जो आन्तरिक शुभ - अशुभ भाव, भावनादि होते है उन्हें जैनतत्त्वज्ञानियों ने 'अध्यवसाय' नाम दिया है । एक सट्टाखोर जैसे अपने घर मे एक कमरा बन्द करके बैठे बैठे ही टेलीफोन के द्वारा लाखो के वारे न्यारे करता है, वैसे ही आत्मा अन्त करण मे अपार उथल-पुथल करता है । कहते हैं कि एक 'समय' जितने काल मे श्रनन्त कर्म वधते है और अनन्त कर्म छूटते है । 'समय' काल का सूक्ष्मातिसूक्ष्म विभाग है और हम जिसे 'एक सेकड' कहते है उसका सख्या - तवाँ भाग 'एक समय' कहलाता है । 'एक समय' जितने काल मे कर्म के सूक्ष्मातिसूक्ष्म पुद्गलप्रनन्त पुद्गल वधते ( जुडते ) तथा छूटते होते है । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ कर्म के पुद्गलो की समग्र सृष्टि प्रति अति अति गहन गूढ और विराट है। इसका सपूर्ण सर्वदर्शी नीर प्रत्यक्षनान तो आत्मा को तभी होता है जब उसका ज्ञान गुण खिलता है, पूर्ण कलाओ से खिलता है, केवलज्ञान प्राप्त होता है। परन्तु परोक्षत इसका मनोगत जानकारी प्राप्त करनी हो तो इस ज्ञान का विपुल भण्डार जैन गावकारो के पास है । उसकी जानकारी मिल सकती है। ___ जैसे हम दुनियाँ मे रोग, विप, वाघ, भेडिये, सर्प, छलकपट, खजर, तलवार, पिस्तोल, मशीनगन और बम प्रादि से डर कर, सम्हल कर चलते है, उसी तरह कर्म के पुद्गलो से भी चेत कर चलना चाहिए। आत्मा के लिए पाप कर्म के पुद्गलो मे जो भयानकता है, वैसी दुखदायकता तो अन्य किसी वस्तु मे नही है। परन्तु कर्मो से निराश होने की भी आवश्यकता नहीं है। जैन दार्गनिको ने इन से छूटने और वचने का राजमार्गRight Royal Highway-समस्त ससार के सम्मुख खोल ही रखा है। इस मार्ग को समझने का तत्त्वविज्ञान 'अनेकान्तवाद' है, पद्धति 'स्याद्वाद' है और पाचरण करने के लिए सम्यग् दर्गन ( Right vision ) सम्यक् ज्ञान ( Right Knowledge ) और सम्यक् चारित्र ( Right conduct ) रूप धर्म है। ____ कर्म के विषय मे इतना समझने के बाद हमे एक नई वात भी समझ मे पाएगी । यह कर्म रूपी क्रिया द्विपक्षी है। एक मोर आत्मा अर्थात् हम क्रिया करते हैं, उसी समय दूसरी ओर कर्म के पुद्गल भी जुडने और अलग होने की क्रिया करते होते है । इसका अर्थ यह हुना कि हमारी और कर्म के पुद्गलो Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३ की निया एक साथ ही चलती है। यह तो हम जानते ही हैं कि जब हम भाषण देते है । तव हमारी बोलने की क्रिया और श्रोताजनो की सुनने की क्रिया-यो द्विपक्षी क्रिया चलती है । उस समय ही बोलने वाले की भावक्रिया कर्म के पुद्गलो को अपनी ओर खीचती होती है, अोर सुनने वाले के मन पर पड़ने वाला प्रभाव रूपी क्रिया भी कर्म के पुद्गलो को अपनी ओर भावपित करती है। अनः बोलने वाले और नुनने वाले इन दोनो पक्षो के लिए फिर कर्म के पुद्गलो को क्रिया की अपेक्षा से द्विपक्षी क्रिया चलती रहती है। यहाँ विपतः सनझने योग्य बात यह है कि एक ही व्याख्यान मे एक ही बात करते हुए जो वाक्य बोले जाते है, उनके द्वारा सुनने वाले की सुनने की क्रिया से कर्म के जो पुद्गल खिंच कर पाते है वे एक ही प्रकार के नहीं होते। उदाहरणार्थ-किनी सभा मे जव वक्ता किसी समाजविरोधी तत्त्व के विषय मे बात करता है तव एक श्रोता उससे दुखित होकर ऐसी भावना रखता हैं कि हे प्रभु इसे सद्बुद्धि दे, और दूसरा उन वात मे तमतमा उठता है और ऐसा विचार करता है कि 'इसका सत्यानाग कर देना चाहिए, इसे जडमल से उखाड़ लेना चाहिए ।' उन दोनो श्रोताओं के मन में उठने वाले ये दोनो प्रकार के भाव कर्म के भिन्न-भिन्न प्रकार के पुद्गलो को खीच लाते है, और उन दोनो की कर्म पुद्गल रूप जो क्रिया होती है वह अलग अलग तरह की होती है। इसमे ऐसा भी होता है कि एक ही वाक्य सुन कर एक मनुष्य के कर्म पुद्गलो का 'वध' होता हो, जव कि दूसरे के कर्म पूद्गलो का क्षय भी होता हो। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ जेन दार्शनिको ने यह बात भली भाँति समझाने के लिए क्रिया के दो भेद बताए है । एक 'सम्यक्' (ग्रर्थात् सच्ची ) क्रिया और दूसरी मिथ्या ( अर्थात् झूठी ) क्रिया । सच्ची ग्रात्मदृष्टि की बुद्धि-पूर्वक जो क्रिया होती हे उसे सम्यक् क्रिया कहते है, और उससे विपरीत क्रिया को मिथ्या क्रिया । यहाँ भी ज्ञान और क्रिया एक दूसरे के पूरक है । क्रिया रहित ज्ञान जमीन मे गडे हुए खजाने की तरह निरर्थक है, फिर वह चाहे कितना ही मूल्यवान् क्यो न हो । बिना ज्ञान के बिना सच्ची समझ के - क्रिया भी निष्फल है । कोई घर के आँगन मे गमले में तुलसी का पौधा लगा कर गमले की मिट्टी मे पानी डालने के बदले घी डाला करे तो क्या होगा ? यह मान कर कि पानी से घी बहुत अधिक पोषक है, और ग्रार्थिक दृष्टि से स्वय बहुत धनवान होने के कारण इस तरह घी का व्यय करने में समर्थ है, तुलसी के पौधे को पानी के बदले घी पिलाने लगे तो उसमे से क्या उगेगा ? ज्ञान रहित क्रिया भी इसी तरह को समझिये । सम्यक् क्रिया से पवित्र ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार तपाचार और वीर्याचार ग्रादि ग्राचारो के पालन का समावेश होता है । इस क्रिया के दो भेद है - द्रव्य क्रिया और भावक्रिया । इनमे से द्रव्य - क्रिया ग्राचार स्वरूप है, और भावक्रिया आचार तथा विचार - उभय स्वरूप हे । यद्यपि दोनो का महत्त्व एक सा है तथापि सापेक्ष दृष्टि से भाव-क्रिया का जो फल है वही मुख्य हैं । तत्त्वज्ञान को जानने वाला व्यक्ति प्रचार में-- धर्म के ग्राचरण मे—शून्य मात्र को लेकर घूमता हो तो उसका ज्ञान Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०५ मात्र 'तथ्य -संग्रह या जानकारी का भडार' ही वन जाता है । वह शायद दूसरे को भले उपयोगी हो, उसके खुद के लिए निरर्थक है, वृया है । जब इस ज्ञान को प्राचरण में रखा जाय तब भी द्रव्य ( वाह्य ) और भाव ( प्रान्तरिक) का परस्पर सम्बन्ध रहता है | भाव से सुक्रिया के लिए प्रेरणा मिलती है, द्रव्य क्रिया से भाव -क्रिया जाग्रत होती है । द्रव्य -क्रिया के विना भाव क्रिया पैदा नही होती, और भाव -क्रिया के विना द्रव्य - क्रिया फलदायक नही होती । यदि वाह्य क्रिया शुष्क, जड, नासमझ और केवल भाव शून्य आदत के समान ही हो तो वह मुक्ति-मार्ग के लिए निरर्थक सिद्ध होती हे । व्यवहार में भी यही बात है | जिस काम में मन नही लगता उस काम से कोई लाभ नहीं होता । सामाजिक, प्रतिक्रमण, पूजा, पाठ, अव्ययन, भक्ति करते समय स्तवन (भजन) गाना आदि सव द्रव्य क्रिया है ।' इनका प्रयोजन भाव जाग्रत करके चित्तवृत्ति को व्यवस्थित एव समभावशील बनाना है । ये सब द्रव्य क्रियाएँ करते समय यदि इस बात की समझ न हो कि "मैं यह क्या कर रहा हूँ, किस लिए कर रहा हूँ," और इसके अतिरिक्त मन भी अन्यत्र भटकता हो, तो ऐसी क्रियाएँ निरर्थक सिद्ध होती है । इसीलिए कहा गया है कि कोई भी कार्य, चाहे वह मोक्षप्राप्ति का हो चाहे केले की पकौडियाँ तलने का हो, ज्ञान और क्रिया के सामजस्य के बिना सिद्ध नही होता । यदि बाह्य क्रिया करते समय भाव जाग्रत न होता हो तो इस कारण से क्रिया छोड देने की जरूरत नही है | यदि छोड दे तो उसका भयानक परिणाम होता है, क्योकि द्रव्य Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ क्रिया छूट जाने के बाद तो हिसादि मिथ्या क्रियाएँ ही हाथ मे रहती है, और इन मिथ्या क्रियाश्रो मे शुभ परिणाम वाले भाव जाग्रत करने की कोई शक्ति नही है । भाव का जाग्रत होना कोई साधारण या छोटी सी बात नही है । इसके लिए बहुत समझदारी के साथ सम्यक् क्रियाओ के बहुत बहुत प्रयत्न करने पडते है । त यदि द्रव्य-क्रिया के समय भाव जाग्रत न होता हो तो उस 'ग्रजाग्रति' के प्रति 'जाग्रत' रह कर और भाव जगाने के उद्देश्य को जीवित रख कर क्रियाएँ जारी रखने में ही फायदा है । इससे किसी सुभग क्षरण मे भाव जाग्रत हो जाएगा । यदि प्रपूर्व भाव प्राप्त हो जाएगा तो हमे अपनी की हुई असख्य द्रव्य क्रियाओ की निरकता के बाद पूर्व सार्थकता अवश्य मिलेगी । इसके लिए इतनी ही शर्त है कि हमे आवश्यक समझ और भाव का सवेदन प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए । हम मे भाव जाग्रत नही होता, इस तथ्य को अपने प्रयत्न की त्रुटि मान कर हमे अपनी समस्त शक्तियो को इसके लिए प्रयुक्त करना चाहिए । यदि हम इस बात की उपेक्षा करेंगे तो इस प्रकार की शुष्क क्रियाएँ सदा के लिए वध्या ही रहेगी । ..हमे इस कार्य के लिए अनेक श्रालम्बनो की श्रावश्यकता होती है। उनमे मुख्य आलम्बन 'सद्गुरु' का है । हमे सुदेव और सुगुरु-इन दोनो को परमात्मा मानना है । एक दृष्टि से सापेक्षभाव से, सद्गुरु तो 'प्रत्यक्ष परमात्मा' है । समुद्र मे अगाध अपार जल है, परन्तु जब श्राग लगती है तब हमारे आँगन का कुआँ या हमारे गाँव या शहर का वॉटर वर्क्स काम आता है । ऋत यदि हम निरजन निराकार वीतराग - Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ परनात्मा के एक साकार स्वरूप के तौर पर सद्गुत का आलत ग्रहण करेगे तो उससे अवश्य हमें बडा भारी लाभ होगा । हम अपने को उच्च भूमिका पर चढ़ाने का और नीचे गिरने से अटकाने का कार्य योग गुरु की सहायता से ही कर सक्ते हैं | यहाँ हमने र्न, कर्म के स्वरूप तथा कर्म के परिणान आदि का सामान्य परिचय प्राप्त कर लिया है । इस विषय में अधिक जिज्ञासा वय जागत होगी । इसके लिए भी सदगुरु रूप तज्न (विशेषज्ञ) एवं सत पुरुष का सत्सग सावता यावव्यक है | यदि हमने निकलेंगे तो अवश्य प्राप्ति होगी । इस विषय की गहराई ने उतरने की बात अपने अन्तःकरण मे अक्ति करके अब हम आगे बडे Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रात्मा का विकास-क्रम 1 पिछले प्रकरण मे हम कर्म-विषयक विचार कर चुके है । कर्म और ग्रात्मा के बीच का सम्वन्ध अनादि है, यह बात भी हम समझ गये है । अव हम आत्मा के विषय मे भी थोडा विचार करेगे । 'आत्मा' माने क्या ? कौन ? एक मित्र से मिलने के लिए उनके घर जाकर देखा तो दरवाजा वन्द है । भीतर से मित्र तथा उसके परिवार के लोगो के श्रानन्दमय वार्तालाप की आवाज ग्राती है । हम अपनी उपस्थिति की सूचना देने के लिए दरवाजा खटखटाते है | "कौन है ?" अन्दर से प्रश्न पूछा जाता है । "मे हूँ, चन्दुभाई" दरवाजा खटखटाने वाला उत्तर देता है | इस उत्तर का अर्थ होता है, दरवाजा खटखटाने वाला "मे" हूँ, और यह 'मै' चन्दुभाई के नाम से पहचाना जाता है । इसमे 'चन्दुभाई' तो उक्त 'मे' का नाम निक्षेप है । इस प्रकार भिन्न भिन्न नामो से पुकारे जाने वाले सभी सज्जनो के जो नाम हैं उनमे से प्रत्येक एक 'मैं' का नाम है । प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए 'मैं' शब्द का प्रयोग करता है । तो अव प्रश्न यह उठता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए जो शब्द प्रयुक्त करता है वह 'मैं' कौन है ? वोलने का कार्य जीभ करती है, दरवाजा खटखटाने का कार्य हाथ करता है, प्रत्येक इन्द्रिय जब जव जो जो काम करती है तव प्रत्येक वार Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ 'मै देखता हूँ' 'मै बोलता हूँ,' 'मैं सुनता हूं, 'मै साँस लेता हूँ, 'मै जलता हूँ' 'मै चलता हूँ' आदि वाक्य वोले जाते है; इनमे जो 'मैं' आता है वह कौन है ? जीभ ? आँख ? कान ? नाक ? हाथ पैर ? त्वचा ? आप कहेगे, "नही ये सव तो शरीर के अवयव है। ये सव मिल कर जो सारा शरीर बना है सो 'मै' । __ अब यदि हम शरीर को 'मै' याने तो फिर मृत शरीर मे से 'मैं' की आवाज क्यो नही पाती। आप इसका उत्तर तुरन्त देगे कि "मृत शरीर मे जीव नही है, इसलिए कौन जवाव दे ?" इस उत्तर का अर्थ यह हुआ कि 'मैं' नामका जो जीव था वह शरीर मे से चला गया तव शरीर मे 'मै' जैसा कुछ नही रहा, परन्तु जब तक यह जीव शरीर मे था तब तक समस्त शरीर ही नही बल्कि शरीर के अगोपांगो के लिए भी 'मै' शब्द का प्रयोग करता था। ___ यह जीव 'मैं' के अतिरिक्त 'मेरा' शब्द का भी प्रयोग करता था । मेरा शरीर मेरे हाथ, मेरी आँखे, मेरी नाक, मेरे कान, आदि गब्दो का वह जब प्रयोग करता या, तब उसके द्वारा वह एक दूसरी जानकारी भी हमे देता था कि, "जिसे मै 'मेरा' कहता हूँ वह 'मैं' नहीं।" ___ 'मेरा घर', 'मेरे वस्र' आदि शब्दो का जब हम प्रयोग करते हैं, तब यह बात तो आसानी से समझ मे आती है कि ये सब वस्तुएँ मेरी होते हुए भी मुझ से भिन्न है। इसी प्रकार शरीर मे रहा हुआ 'मैं' जब 'मेरा शरीर' आदि शब्दो का प्रयोग करता है, तब वोलने वाला 'मैं' और उसके द्वारा Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० वरिंगत शरीर आदि अग एक दूसरे से भिन्न है यह तो निश्चित है । यह जो 'मे' है वही 'श्रात्मा' है । जड शरीर में रहा हुआ जो चैतन्य स्वय को 'में' नाम से पुकारता है वही ग्रात्मा है । इसका यह अर्थ हुआ कि ग्रात्मा माने 'में' । इसी प्रकार आत्मा जिस जिस को 'में' अथवा 'मेरा' कह कर पुकारता है, उसमे भी उक्त 'में' रहा हुआ होने के कारण हमे उस गरीर को भी 'मैं' अथवा 'आत्मा' कह सकते हैं । ध्यान मे रखना चाहिए कि यह एक सापेक्ष वात है । आत्मा के विषय मे पहले जो थोडा सा वर्णन ग्रा चुका है, उसमे हमे ग्रात्मा के दो मुख्य स्वरूप जानने को मिले । एक मुक्त ग्रात्मा, तथा दूसरा कर्म बद्ध ग्रात्मा । अव ग्रात्मा जब तक जड पुदुगलो के समूहरूप शरीर मे वधा हुआ है तब तक वह कर्म बद्ध आत्मा ही है, यह स्पष्ट हो गया । जो आत्मा अपने सभी कर्मो का क्षय करके 'मुक्त' हो गया, उसे तो 'मे' 'मेरा' जैसा कुछ नही रहता । अतः जव हम ग्रात्मा के विषय मे विचार करते हैं तब शरीर में वन्द कर्म-वद्ध आत्मा का ही विचार करना होता है । इसका अर्थ यह हुआ कि जव आत्मा 'मैं' कहता है, तब, वह मुक्त आत्मा नही अपितु कर्म बद्ध आत्मा है | इन कर्मो ने आत्मा को किस प्रकार और किस जगह बांधा है ? तत्त्वज्ञानियों ने इसका उत्तर इस प्रकार दिया है, "कर्म का आत्मा के साथ सम्बन्ध दूध और पानी जैसा है ।" जव कर्म का वध ( बंधन ) होता है, इस बध के कारण आत्मा Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के साथ कर्म का जो सगम होता है, वह दूध और पानी के संगम के समान है। अर्थात् दूध और पानी मिल जाने से दोनो मे जैसा एकत्व प्रकट होता है वैसा ही एकत्व 'वध' होने के बाद आत्मा और कर्म का भी होता है। यह बात बहुत ध्यान देने योग्य है । आत्मा मूल द्रव्य के रूप मे शुद्ध है। कर्म का सयोग होने से वह अशुद्ध वना है । अब यहाँ शुद्धि और अशुद्धि का अलग अस्तित्व नही रहा। ये दोनो मिल कर एक स्वतन्त्र अस्तित्व प्रकट करते है । अर्थात स्वतन्त्र आत्मा तथा स्वतन्त्र कर्म पुद्गलो का सयोग होने से जो तीसरा स्वतन्त्र अस्तित्व प्रकट होता है उसे तत्त्वज्ञानियो की भाषा मे 'कर्म वद्ध ससारी आत्मा' कहते है। हम उसे 'शरीर-जीवित शरीर' के अर्थ मे पहचानते है । यह प्रात्मा जब अपने शरीर को 'मेरा' कहता है, तब वह स्वय उसमे व्याप्त होने के कारण सापेक्ष दृष्टि या हम जोवित शरीर को भी 'यात्मा' कह सकते है। इससे यह ज्ञात होता है कि यह कर्म-वद्ध आत्मा अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को पहचानता है, और इसीलिए वह स्वय को 'म और उसके अतिरिक्त अपने शरीर को तथा शरीर के अंगो को 'मेरा' कह कर पुकारता है । इस दृष्टि से आत्मा को अनादिकाल से लगे हुए जड पुद्गल भी 'मै' नाम से पुकारे जाने के कारण वे पुद्गल भी 'आत्मा' वनजाते है। याद रखिये कि यह बात भी सापेक्ष दृष्टि से होती है। अब हम 'मै' और 'मेरा' का क्रमश. विस्तार करेगे, तो समझने मे बडा आनन्द प्राप्त होगा । सब से पहले तो आत्मा के साथ जो गरीर सोधा-प्रत्यक्ष Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ सम्बन्ध रखता है, उस शरीर के लिए भी श्रात्मा 'में' शव्द का जो प्रयोग करता है सो एक प्रकार के सम्बन्ध के कारण संस्कार के कारण — करता है । वास्तव मे तो श्रात्मा और शरीर भिन्न ही हैं । दोनो के द्रव्य ग्रलग अलग है, परन्तु कर्म के सयोग से दोनो एक बन जाते है, एक बनने का सस्कार मिलने से दो मे से एक वन जाते है । व इस चर्चा को हम प्रागे वढाएँगे । “ये मेरे पिताजी है, ये मेरी माताजी है, यह मेरी पत्नी है, ये मेरे पुत्र-पुत्री है, ये मेरे मित्र है ।" ऐसे ऐसे वाक्य बोलते समय हमारे चित्त मे मेरेपन का एक सस्कार अथवा ध्वनि तो होती ही है । शुद्ध तात्त्विक दृष्टि से शरीर तथा ग्रात्मा भिन्न भिन्न होते हुए भी सस्कारवश एक वन जाने के कारण जब हम 'मैं' का प्रयोग करते है तब उसके द्वारा आत्मा और शरीरदोनो का उल्लेख होता ही है । ऐसी ही दृष्टि से जब हम परिवार के लोगो तथा मित्रो के लिए 'मेरे' शब्द का प्रयोग करते हैं तब चित्त मे उठते हुए संस्कार के द्वारा हम उन सब के साथ एकत्व ग्रनुभव करते है । इम दृष्टि से विचार करते हुए मन मे यह भाव लाकर कि 'जो मेरा है वह में ही हैं' हम यह भी कह सकते है कि मध्यम पुरुष तथा अन्य पुरुप की भिन्नता रखने वाले वे सब 'मेरे' होने के कारण 'वे भी मैं ही हूँ' यहाँ यह न भूलना चाहिए कि यह भी एक सापेक्ष वात है । चित्त के इस संस्कार के कारण जिस किसी के लिए हम 'मेरा' शब्द का प्रयोग करते है उन सब के साथ हमारा Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३ संस्कार जनित एकत्व भी होता हो है । इस प्रकार विचार करते करते, "मेरा परिवार, मेरी ज्ञाति, मेरा समाज, मेरा घर, मेरा गाँव, मेरा जिला, प्रान्त, देश, मेरी पृथ्वी, मेरा आकाश और सेरा जगत, " ऐसा जब हम कहेंगे तब उन सव के साथ 'मेरेपन का सस्कार' होने के कारण हम एकत्व का अनुभव कर सकेंगे, तथा यह सब भी 'में' ही हू, ऐसा कह सकेंगे 1 इस प्रकार जगत के समस्त जीवो के साथ जव सस्कारजनित एकत्व उत्पन्न होगा तव ऐसा भाव अवश्य आएगा कि "इन सव जीवात्माओ मे 'मैं' हूँ ।' उसी प्रकार जगत के जड पदार्थों के साथ का हमारा - आत्मा का सम्बन्ध देखते हुए 'यह सब भी मेरा है' ऐसे सस्कार चित्त मे पडने से यह सव भी 'में' ( मै – स्वरूप ) बन जाएगा । आत्मा के विषय में इतनी बात सुन कर आप शीघ्र ही एक प्रश्न पूछेंगे - "वेदान्तियो के जैसी ही यह वात हुई । यद्वैत के विषय मे श्री शंकराचार्य की ओर से जो बात कही गई है, वैमी ही बात आपने भी की ।" "नही, इसमे 'अद्वैत' आया तो सही किन्तु यह अद्वैत वेदान्त मत का नही है क्योकि वेदान्त का अभिप्राय ऐकान्तिक है । हमने जो वात की है सो सापेक्ष दृष्टि से और उसमे अनेकान्त की स्पष्ट छाया है, यह न दृष्टि से हम समस्त विश्व के साथ एक 'सत्' नामक महासामान्यरूप मे है | इसमे जब हम जड़ को भी 'में' समझते हैं तब जड़ विषयों का भोग करने की आसक्ति विराम प्राप्त कर भूलिये । सग्रह - नय की Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ लेती है, क्योकि "यदि 'जड' माने 'मैं' तो 'मैं' को भोगना क्या? हम अपने आत्मा को नहीं भोगते ।"--ऐसा ज्ञान होता है । तव जगत के सभी प्रात्मानो के साथ एकत्व अनुभव करने की जो बात जैन दार्गनिक कहते है, वह सापेक्ष है, और ऐकान्तिक नही है । 'आत्मसमदर्शिता' आत्मा के विकास का अनिवार्य साधन होने के कारण सभी आत्मानो मे अपनापन अनुभव करना निरपेक्ष अद्वैत नही है। जिस जिस के विषय मे 'मेरेपन' के सस्कार उद्भूत होते है उन सव को 'मेरे' अर्थात् 'मै' मान कर चलने मे सापेक्ष दृष्टि से कोई उज्र नहीं है। 'ये सब मेरे नही है। ऐसा मान कर चलने की अपेक्षा 'ये सब मेरे ही हैं' ऐसा मान कर चलना मन का उच्च सस्कार है। कर्म के बन्धनो से मुक्त होने के लिये प्रात्मा के लिये प्रात्मा के पुरुपार्थ मे अपने प्रात्मा की तरह सव पर अपनेपन का-'अात्मसमदर्शिता' का भाव वडे महत्त्व का स्थान रखता है। इस सापेक्ष अद्वैत की चर्चा को अब हम आगे बढाते है। एक बात निश्चित कर ले कि इस जगत मे जो चेतन-स्वरूप जीव है, वे सभी मेरे है अर्थात् वे सभी "मै""यात्मा" है। 'मेरा तेरा और उसका' इस भाव की अपेक्षा यदि हम 'सभी मेरा' अर्थात् 'सभी मै' ऐसा भाव प्रकट कर सके तो 'राग-द्वेप' नामक दो मुख्य प्रात्म-शत्रुनो मे से एक 'वैप' की पराजय तो हो ही जाएगी। __इसलिए सापेक्ष दृष्टि से आत्मा का परिचय प्राप्त करते हुए हम यहाँ इस नतीजे पर पहुँचते है कि 'यात्मा' माने 'मैं' और 'मैं' अर्थात् 'समग्र विश्व' । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१५ अब हम 'मै' की ओर लौटते है। यह 'मै' सो हम ही है, यह वात समझ कर हम आगे बढे । 'हम क्या चाहते है ?' यदि इस प्रश्न का हम संक्षिप्त और सही उत्तर चाहते है तो हमे दो अक्षर का एक शब्द उत्तर मे सुनने को मिलेगा "सुख ।" "शाबाश, क्या ही सुन्दर वात कही है।" । "हमे सुख चाहिए। यह सुख हमे अपने लिए चाहिए । हम सुख की प्राप्ति के लिए प्रयत्न भी अवश्य करेगे । हम जो चाहते हैं सो 'सुख' है, 'दुःख' नही। जिसमे जरा भी दुख हो उसे हम 'सुख' नहीं मानेगे। उपर्युक्त सापेक्ष अद्वैत अर्थात् 'आत्मसमदगिता' की वात यदि यहाँ पर झांकती हुई न मालूम हो तो समझना चाहिए कि हम खाई में गिरे है।। हम अपने सुख के लिए जो कुछ प्रयत्न करे उससे यदि अन्य किसी को कुछ भी जरा सा भी दुख होता हो तो वह हमारे लिए भी 'दुःख' ही है । उसमे हमारे लिए सुख हो ही नही सकता। हम आत्मा के स्वरूप को मेरेपन का भाव लेकर विकमित करते “समग्न विश्व 'मै' ही है" ऐसी भावना तक पहुंचा चुके थे। तो अब, यदि हम से ऐसा कुछ भी कार्य हो जाय जिससे समग्र विश्व मे विचरते हुए जड-चेतन्य-सयोग से रचित किसी भी शरीर, मन या जीव को कुछ भी दुख प्राप्त हो तो उसको हमे अपना निजका दु ख मानना ही रहा । वास्तव मे है भी ऐसा हो । यदि हम स्वार्थ या मोह के वश होकर ऐसा Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ न माने तो भी श्राखिरकार ऐसा कोई भी प्रयत्न हमारे लिये 'दुख' मे ही परिणत होगा । यदि हम सुख ही चाहते हो तो इस तथ्य को स्वीकार किये बिना कोई चारा नही है । हमे यह बात हमारे एक परम कर्तव्य की याद दिलाती है । इस परम पुनीत कर्तव्य को जैन- शास्त्रकारो से चार वाक्यों मे प्रस्तुत किया है— १ 'खामेमि सव्वजीवे' २ 'सव्वे जीवा खमतु में' ३ 'मित्ती मे सव्वभूएस' ४ वेर मज्झन केराई । इन चार वाक्यो का अर्थ निम्नानुसार है १ मै सब जीवो से क्षमा माँगता हूँ, सव को क्षमा करता हूँ । २ सव जीव मुझे क्षमा करे । ३ जीवमात्र के साथ मुझे मैत्री भाव है । ४ मुझे किसी के साथ वैर भाव नही है । अपने विकास की इच्छा रखने वाले किसी भी आत्मा को इन चार वाक्यो से ही प्रारंभ करना होगा, इन चारो वाक्यों के साथ एकत्व - समरसता का अनुभव करना होगा । समरसता प्रकट करने के लिए आवश्यक एक पूर्व भूमिका होती है जिसका नाम है 'कृतज्ञता भाव' । 'कृतज्ञता भाव' अर्थात् जिन जिन लोगो ने हम पर उपकार किये हो उन सबके प्रति आभार की भावना । यह आभार प्रकट करने का साधन है, 'नमस्कार - भाव' | Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ 'नमस्कार भाव' से तात्पर्य है नम्रता' । 'नम्रता' अर्थात् 'अहभाव का सपूर्ण विसर्जन ।' यदि अहभाव का विसर्जन न हो तो नम्मता नही नाती । यदि नम्रता न जगे तो 'नमस्कार-भाव' प्रकट नहीं होता। 'नमस्कार-भाव प्रकट हुए विना क्षमा करने की तथा क्षमा मांगने की वृत्ति उत्पन्न नहीं होती। क्षमा करने और क्षमा मांगने की वृत्ति उत्पन्न हुए बिना प्राणीमात्र के प्रति मैत्री-भाव पैदा नहीं होता, प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव के विना यह भावना नही आ सकती कि 'मुझे किसी से वैर-भाव नही है । ' इसमे से यदि कुछ भी हम से न हो सके तो हमारे-आत्मा के-विकास की दिशा में एक कदम भी आगे नहीं बढा जा सकता। यदि प्रागे न वढा जा सके तो कभी सुख प्राप्त नहीं हो सकता। यहाँ हम सुख की जो बाते कर रहे है सो 'आत्मसमदर्शिताभाव' को लक्ष्य मे रखकर कर रहे हैं। हमने देखा कि जिससे अन्य किसी को जरा भी दुख पहुंचे वह हमारे लिये सुख का कारण कभी बन ही नहीं सकता । इसलिए स्वभावत हमारा अपने लिए सुख प्राप्त करने का प्रयत्न हमे जीव-मात्र का-समस्त जगत का-कल्याण चाहने की ओर खीच ले जाएगा। यदि अहभाव का विसर्जन हो जाय, नम्रता जगे, नमस्कार भाव प्रकट हो, क्षमा वृत्ति उत्पन्न हो, मैत्रीभाव प्रकट हो, वैर भाव नष्ट हो जाय तो उसके सहजफल-स्वरूप हमारे हृदय मे 'शिवमस्तु सर्वजगत' (समस्त विश्व का कल्याण हो) की भावना अवश्य जाग्रत होगी । यदि यह भावना जाग्रत न हो तो हमे समझना चाहिए कि ऊपर बताये हुये मे से कुछ भी Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ हमारे भीतर विकसित नही हुआ है और यदि हमे ऐसा लगता हो कि इसमे से कुछ हममे है तो वह केवल भ्राति ही होनी चाहिए । ? यहाँ कोई पूछेगा कि "उस शिवमस्तु सर्वजगत' की क्या आवश्यकता हे ? प्राणीमात्र के प्रति मैत्री भाव रखे, और किसी के प्रति वैर भाव न रखे क्या इतना काफी नही है इन दो वस्तुग्रो से हमारे भीतर तटस्य भाव तो प्रकट होती ही है । तटस्थ भाव धारण करके हम अपने कल्याण की श्रात्मलक्षी प्रवृत्ति मे मग्न रहे तो क्या हर्ज है ?" इसका उत्तर देना तो मरल है । सच्चा और वास्तविक तटस्थ भाव तो जीव मात्र के कत्याण की भावना मे है । इस बात को भूल कर यदि हम केवल अपना अपने श्रात्मा का कल्याण- साधन करने की प्रवृत्ति लेकर ही बैठ जायें तो हम इससे एक ओर स्वार्थ श्रीर दूसरी चोर 'उपेक्षा भाव' इस तरह दो प्रकार के दोपो मे पड जाँय, ऐसी सम्भावना है । इस प्रकार की उपेक्षा भावयुक्त तटस्थता मे से द्वेष का ग्राविर्भाव होने की भी संभावना है । उदाहरणत हम जिस मकान मे रहते हो उसके बाहर के आँगन को अपने मे समानेवाले गली के चौगान मे भावुक लोगो को एक समुदाय श्रावणमास में भजन कीर्तन के हेतु प्रति दिन शामको एकत्र वेठता हो और उस समय हमारे बाहर जाने या घर आने का योग हो तव यदि हम कल्याण कामना के बदले केवल तटस्थ भाव लिये फिरते हो तो चूकि ये लोग हमारे मार्ग के अवरोधक होने से हमे बाधा पहुँचाते है, इसलिये उनके प्रति रोप या द्वेषभाव उत्पन्न होते देर नही लगेगी । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ हाथी और बरगोग का उदाहरण लीजिए। साथ ही पैरो तले पाती हुई चीटी की बात भी व्यान में रखिये। उस खरगोन और वीटो को पैरो तले कुचले जाने से बचाने के लिए यदि केवल 'मुझे कर्मवचन होगा' ऐसा भाव ही मन में हो तो उन समय पैर को ऊपर अवर मे उठाये रखने में पड़ने वाला न्ट सभवन में दुन्यांन मे वल देगा। इसके बदले उक्त दोनो प्राणियो के कल्याण को तथा उन्हें कष्ट न पहुंचाने की भावना से हम जो तकलीफ नहेगे वह हने शुभध्यान की ओर ले जाएगी । कप्ट जन्य भयभीतता में कभी शुभधान नहीं था सकता। यह बात बहुत ध्यान में रखने योग्य है। आत्मा के विकासपय में यह एक अत्यन्त आवश्यक जान है । अत यदि हम मुजी होना चाहते हो, अपने प्रात्मा को कन्याण मार्ग की पगडण्डी पर चढाना चाहते हो, तो उसका प्रारम्भ जीव मात्र का निव-कल्याण चाहने से हो सकेगा। यह बात्मा के विकासक्रम की एक परमावश्यक पगडण्डी है । इतनी प्रास्ताविक विवेचना के पश्चात् 'मारे जगत का कल्याण हो' ऐसी मंगल भावना को अपने हृदय में प्रतिष्टित करके अव म आत्मा के विषय में तात्त्विक विवेचना की ओर मुडते है। इस विषय मे जैन दार्गनिको द्वारा प्रतिपादित नवतत्त्व'के विषय में जानकारी प्राप्त करना बहुत ही आनन्द प्रद एव उपयोगी होगा। इन नौ तत्त्वो के नाम निम्नानुसार है। १जीव २ अजोव ३ पुण्य Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ पाप ५ पासव ६ सवर ७ बन्ध ८ निर्जरा है मोम इन नवो तत्त्वो का आत्मा के साथ सीवा सम्बन्ध होने के कारण आत्मा तथा उसके विकासक्रम को समझने में इन नौ तत्त्वो की विवेचना हमारे सम्मुख एक नयी दुनिया प्रस्तुत करेगी । अब म इन नी तत्त्वो की क्रमग परीक्षा करेगे। १ जीव - पहले हम निगोद तथा निगोद मे वसते हुए जीवो के विषय में कह आये हैं । उस तथ्य को लक्ष्य मे लेते हुए यह वात तो स्वीकृत हो चुकी है कि इस विश्व में अनादिकाल से अगनित असख्य, अनन्त जीवो का अस्तित्व है। यहाँ हमें निगोद से वाहर निकल कर इस समार मे परिभ्रमण करने वाले जीवो के विपय मे विचार करना है। जीव अर्थात् जिसमे चैतन्य है-ऐसा आत्मा। जैन तत्त्ववेत्तानो ने आत्मा के आठ मूल स्वरूप बताये है। वे पाठ स्वरूप निम्नलिखित है (१) द्रव्य-यात्मा, (२) कपाय-यात्मा, (३) योग-यात्मा (४) उपयोग-यात्मा, (५) जान-प्रात्मा, (६) दर्शन-यात्मा (७) चारित्र-आत्मा (८) वीर्य-प्रात्मा । आत्मा के इन आठ स्वरूपो मे से दो 'हेय', दो ‘उपादेय', तथा चार 'ज्ञेय' स्वरूप माने जाते है । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२१ जैन दार्शनिको ने प्रात्मा के मुख्य दो भेद कहे है - १-ससारी २--मुक्त 'ससारी' आत्मा अर्थात् कर्म के पुद्गलो से बँध कर इस संसार मे ससरण-परिभ्रमण करने वाले आत्मा। मुक्त अर्थात् सभी कर्मो का क्षय करके जो मुक्त हो गये है, मोक्ष मे गये है, वे आत्मा। ससार मे परिभ्रमण करते हुए कर्मबद्ध आत्मायो के मुख्य दो भेद है, एक 'स्थावर' और दूसरे 'त्रस ।' जो जीव अपने आप गति नहीं कर सकते, जिन्हे नियत-- आयुष्यकाल तक स्थिर रहना पड़ता है, और जो सुखप्राप्ति के या दु खनिवारण के प्रयत्न नही कर सकते, उन्हे 'स्थावर' जीव कहते है। इस विभाग में 'पृथ्वीकाय' वनस्पतिकाय, वायुकाय, जलकाय तथा तेजस्काय' जीवो का समावेश होता है। इन स्थावर जीवो के पुन दो प्रकार है, सूक्ष्म तथा स्थूल । स्थूल जीवो के लिए जैन पारिभाषिक नाम 'बादर जीव' है। इनमे से सूक्ष्म जीव अगणित एकत्रित हो तो भी चर्मचक्षुप्रो से दिखाई नहीं देते । वादर अथवा स्थूल जीवो को हम नङ्गी आँखो से देख सकते है । ये सब जीव केवल स्पर्गन-इन्द्रिय के द्वारा ही सवेदनो का अनुभव करने वाले एकेन्द्रिय जीव है। इसके सिवा उनके और कोई इन्द्रिय नही है। ____ जो जीव स्वेच्छापूर्वक चल फिर सकते है, उन्हे 'त्रसजीव' कहते है । दो, तीन, चार और पाँच इन्द्रियो वाले सभी जीवो का इनमे समावेश होता है। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ जिनके त्वचा और जीभ, ये दो इन्द्रियाँ हो वे 'हीन्द्रिय जीव ' , जिनके त्वचा, जीभ, और नाक हो वे त्रीन्द्रिय जीव, जिनके त्वचा, जीभ, नाक और आँख हो वे 'चतुरिन्द्रिय' जीव, जिनके त्वचा, जीभ, नाक, आँख और कान हो वे पचेन्द्रिय जीव । पचेन्द्रिय जीवो के चार प्रकार बतलाए गये है (१) मनुष्य, (२) तिर्यच, अर्थात् पशु-पक्षी श्रादि (३) देवलोक मे बसनेवाले देवता श्रीर ( ४ ) नरकभूमि मे रहने वाले नारकीय जीव । जीव के लिए 'आत्मा' शब्द का प्रयोग होता है । जो जीता था, जोता है, जिएगा सो जीव । 'अतति' - भिन्न-भिन्न गतियो मे गमन करे सो 'आत्मा' । चैतन्य ज्ञान दर्शन, का स्फुरण जिसमे हो वह चेतन । जीव कहिये, चेतन कहिये, या आत्मा कहिये, मूल स्वरूप मे ये सब एक ही द्रव्य के लग अलग सज्ञावाचक नाम है । हम 'परिचय' प्रकरण में इस जगत के आधारभूत जिन छ द्रव्यों का वर्णन कर आये है, उनमे से जीव - यह एक द्रव्य - (Substance) चैतन्यशाली (Living Substance) है। यह स्थावर तथा त्रस कहलाने वाले ससारी अर्थात् कर्मबद्ध जीवो का वर्णन हुआ। मुक्त जीवो का वर्णन अन्तिम मोक्ष तत्त्व के अन्तर्गत किया जायगा । २) अजीब 'जड' कहलाने वाले उन सव पदार्थों का समावेश 'प्रजीव Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३ तत्त्व' मे होता है, जिनमे जीवत्व - चैतन्य नही होता । पहले हम जिन छ द्रव्यो का वर्णन कर चुके हैं उनमे से जीव द्रव्य उपर्युक्त जीव तत्त्व मे आ गया । बाकी के पाँचो द्रव्य-धर्म, धर्म, पुद्गल, आकाश तथा काल अजीव तत्त्व के अन्तर्गत है । जीव-का- आत्मा का - इन पांचो द्रव्यो के साथ सम्बन्व है, और जीव समेत छहो द्रव्य ही विश्व है । ये छः द्रव्य विश्व की रचनाओ के ग्राधारभूत है । जीव और जीव के― चेतन तथा जड़ के सयोग से ही जगत चल रहा है । दूसरे शब्दो मे यो कह सकते है कि जीव और जीव का मयोग ही ससार है | ३) पुण्य ४) पाप. तात्त्विक अर्थ में जिन्हे 'धर्म' चोर 'धर्म' नामक दो द्रव्य कहा गया है वे पुण्य और पाप नही है । वे दो तो पदार्थ है और वस्तुओ को गति करने में सहायक द्रव्य को 'धर्म' तथा स्थिति करने में सहायक द्रव्य को 'अवर्म' नाम दिया गया है । व्यावहारिक अर्थ मे हम पुण्य और पाप को क्रमश 'धर्माचरण तथा ग्रधर्माचरण' कह सकते है । परन्तु जव 'नवतत्त्व ' के सिलसिले में तीसरे ओर चौथे तत्त्वो को 'पुण्य और पाप' के नाम से पुकारा जाता है तब उसका तात्पर्य हमे कर्म के पुद्गलो से बनने वाले पुण्य कर्म और पाप कर्म समझना चाहिये । कर्म करते कराने मे दुख की सामग्री हम जो शुभ कर्म करते हैं वे 'पुण्य' और बुरे है वे 'पाप' है । पुण्य कर्म हमे मुख के साधन प्राप्त कारणभूत है, और पाप कर्म हमारे लेकर उपस्थित होते है । लिये Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ कर्मविषयक पिछले प्रकरण मे हम मुख्य आठ कर्मो के विपय मे कह प्राये है | इनमे से पहले चार कर्म ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, योर अन्तराय अशुभ परिणाम वाले होने से सभी पाप कर्म है । अन्तिम चार कर्म - नाम, ग्रायुष्य, गोत्र और वेदनीय - ' शुभाशुभ' हे ग्रर्थात् इनमे से हर एक मे कोई शुभ तो कोई शुभ कर्म है, अर्थात् प्रत्येक मे पुण्य याने शुभ, तथा पाप याने शुभ- ऐसे दोनो प्रकार के कर्म परिणाम होते है । भौतिक सुख और दुख के ग्राधार क्रमश सत्कर्म तथा दुष्कृत्य है । पुण्य और पाप रूपी कर्म कर्मवद्ध श्रात्मा के लिये उन्नति और अधोगति की दो विरुद्ध दिशाओ मे जाने वाली पगडडियो के समान है । श्रात्मा मध्यवर्ती स्थल ( Centre) पर है | वह पाप-पुण्य की पगडडियो के द्वारा अवनति - उन्नति की ओर प्रयाण करता है । पापकर्मो से ग्रात्मा अधोगति की प्रोर ढकेला जाता है, और पुण्यकर्म से ग्रात्मा अपनी मुक्ति के पथ पर प्रयाण शुरु करता है । तात्त्विक दृष्टि से पुण्य और पाप दोनो आत्मा के ससार मे परिभ्रमण के कारण है, परन्तु आत्मा को मोक्षमार्ग की ओर गति करने के लिये आवश्यक योग्य सामग्री प्राप्त करने के हेतु पुण्य कर्मो का आश्रय लेकर ही प्रारम्भ करना पडता है । ५) श्रास्तव ऊपर हम पुण्य और पापरूप कर्मों की बात कर रहे थे, उनसे पुण्य तथा पाप के उपार्जन का मुख्य प्रयोजक आत्मा का मनोव्यापार है । मन के इस व्यापार को वचन और कार्यो के द्वारा होने वाले कर्म पुष्ट करते है । इस प्रकार मन वचन Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२५ और काया के द्वारा बँधने वाले कर्मों का आत्मा के साथ सयोग होता है-इसे प्रास्रव कहते है । आत्मा के अध्यवसाय से कर्म के पुद्गलो का प्रवाह आत्मा मे प्रविष्ट होता है-यह क्रिया प्रास्रवण-रूप है इसलिये इसके प्रयोजक मन, वचन, काया के व्यापार को 'पासव' कहा जाता है। मन से भला या बुरा चितन होता है । इस भले या बुरे चिंतन को वाणी कल्याणप्रद अथवा दुष्ट भाषा मे व्यक्त करती है तथा काया अर्थात् शरीर के अन्य अवयवो के द्वारा जो भला या बुरा आचरण किया जाता है उससे कर्मपुद्गलो का प्रवाह आत्मा मे खिच कर आता है, इसलिये इसे आस्रव या पाश्रव कहते है । इसकी सक्षिप्त व्याख्या देनी हो तो हम प्रास्रव को आत्मा मे कर्मपुद्गलो के प्रविष्ट होने का द्वार भी कह सकते है। आत्मा के विकासक्रम के साथ प्रास्रव का सीधा सम्बन्ध है। जैन दार्शनिको ने आत्मा के विकासक्रम की श्रेणी को 'गुण-स्थानक' नाम दिया है। कर्म के पुद्गलो का आत्मा में प्रवेश करने का यह प्रास्त्रव-द्वार ज्यो-ज्यो छोटा होता जाता है त्यो त्यो प्रात्मा का विकासस्तर उत्तरोत्तर ऊंचा होता जाता है । गुणस्थानको की संख्या चौदह है । 'नवतत्त्व' का निरूपण पूर्ण हो जाने के पश्चात् तुरन्त ही हम गुणस्थानको के विपय मे विचार करेगे । फिलहाल इतना समझ ले कि आस्रव अर्थात् आत्मा में पुद्गलो के प्रविष्ट होने के लिए प्रवेशद्वार । कर्म-पुद्गलो को अन्दर आने का आमन्त्रण आत्मा स्वय अपने कर्मों तथा प्रवृत्तियो के द्वारा है देता। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ६ संवर ऊपर हमने श्रास्रव को कर्मपदुगलो के लिये श्रात्मा का प्रवेश द्वार कहा है । अव दरवाजा होता है तो उसे बन्द करने के लिये किवाड भी होते है । किवाड बन्द होने पर बाहर से भीतर जाने मे अटक या रुकावट होती है । श्रात्मा स्वयं अपने मन, वचन और काया के व्यापारो से कर्म के पुद्गलो को अपने भीतर आने का श्रामत्रण भेजता है । उसी तरह वह अपने शुभ एव निर्मल परिणाम वाले व्यापारो से कर्मपुद्गलो को अन्दर थाने से रोक भी सकता है । इस प्रकार जब कर्म पुद्गल किवाड बन्द देख कर अन्दर प्राते ग्रटक जाते है तव कर्म नही वधता । कर्म बधने से ग्रटकने की क्रिया को एव श्रात्मा के जिस व्यापार से कर्म के पुद्गल ग्राते हुए टक जाते है उसे भी दोनो को 'सवर' कहते है । के आज कल प्रौद्योगिक योजना मे भाखरा नागल बाघ जैसी सिचाई की जो योजनाएँ हुई है उनमे बहते हुए पानी को एक स्थान पर रोक कर उसका जमाव किया जाता है । उसे रोकने के लिए जो इमारती काम किया जाता है उसे डैम (Dam) अथवा वध कहते है। इस प्रकार इकट्ठी की हुई जलराशि को वध के दूसरी ओर जाने देने के लिए बन्ध के बीच-बीच मे सिमेट और लोहे के द्वार बनाये जाते है । उन्हे खोलने और बन्द करने के लिए जो किवाड होते है उन्हे ( Sluce gates ) स्लुइस गेटस् कहते है । इन दरवाजो को जितनी हद तक खोलना आवश्यक हो उतनी हद तक कम या ज्यादह - खोल कर इस प्रकार कम या ज्यादह पानी दूसरी ओर जाने दिया जाता है। Perm यदि हम आत्मा को कर्म के बन्धन-रूपी जलाशयो के Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ बध-(Dam) की उपमा दे तो पालव को इस वध मे कर्म पुद्गल-रूपी जल के आने के प्रवेशद्वार वाली नहर कह सकते हैं और इस प्रवेशद्वार को बन्द करने वाले किवाड हम 'सपर' को कह सकते है। यह किवाड जिनना भी ज्यादह या कम बन्द हो उतना कर्मप्रवाह कम या ज्यादह अन्दर प्रा सकता है और यदि बिल्कुल ही बन्द कर दिया जाय तो कर्मप्रवाह बाहर ही अटक जाए। प्रात्मा स्वयं अपने निर्मल अध्यवसायो ( व्यापारो ) के द्वारा यह कार्य करता है, और उसके गुणस्थानक को श्रेणी ज्यो ज्यो ऊंची चढती जाती है त्यो त्यो लवर अर्थात् आस्रवनिरोध भी बटता जाता है । दूसरी ओर आत्मा सवर के द्वारा ज्यो-ज्यो यात्रव को वन्द करता जाता है त्यो-त्यो उसके गुणस्थानको की श्रेणी ऊँची होती जाती है, उसका विकास ( मोक्षमार्ग की दिशा में ) बढता है। ७ बंध - सवर की अनुपस्थिति मे पात्रव के द्वारा प्रात्मा के प्रदेश में प्रविष्ट कर्मपुद्गल आत्मा के साथ वध जाते है, जड जाते है, उनका स्वभाव, स्थितिकाल, रम और प्रदेशप्रमाण निश्चित हो जाता है और वे आत्मा के साथ प्रोतप्रोत हो जाते है। इस प्रक्रिया को 'बन्वतत्त्व' कहते है। कर्म की जो सारी थ्योरी (Theory)~कर्मशास-है उसका 'बधतत्त्व' के साथ सम्बन्ध है। कम-सम्बन्धी प्रकरण में हमने जो मुख्य आठ प्रकार के कर्म बताये है, उनका आत्मा के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध 'बन्धतत्त्व' कहलाता है। यह सम्बन्ध क्षीरनीरवत्' कहा जाता है, अर्थात् दूध मे जैसे पानी एकाकार हो जाता है, वैसे Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ही कर्म का ग्रात्मा से चिपकना और एकाकार हो जाना 'वध' के नाम से पहचाना जाता है । जैसा कि पहले कहा जा चुका है, कर्म के मुख्य आठ प्रकार है । तदुपरान्त उनके १५८ उपविभाग है, और उन उपविभागों के उपविभाग तो असख्य है । कर्मो की दुनिया भी विराट और अनेक श्राश्रयों से पूर्ण है । कई कर्म जल की धारा की तरह बह जाने वाले होते है, क दूध की तरह चिकनापन अनुभव कराने वाले, कुछ दूध से अधिक गाढे, रेडी के तेल जैसे, कई कर्म कम चिपकने वाले गोद जैसे और कोई ऊँची किस्म के गोद की तरह चिपकने पर फिर न उखड़ने वाले होते है तो कई कर्म सिमेंटककरीट की तरह पक्के चिपकने वाले होते है । जिस प्रकार प्रदालत मे प्रस्तुत मुकदमो मे कई 'समरी सूट्स' अर्थात् तुरन्त निपटने वाले, कई स्मॉल कॉज, अर्थात् छोटी रकम के चौर जरा अधिक समय मे निपटने वाले, होते है और कुछ लॉंग कॉज, ग्रर्थात् वर्षो तक अदालत की सीढियो पर चढने वाले होते हैं, उसी प्रकार इन कर्मों मे से भी कई शीघ्र हो उदय मे आने वाले नकदी होते है, तो कई लम्बी अवधि के बाद उदय मे याने वाले होते है । कोई कोई कर्म अनेक जन्मो के बाद भी उदय मे आते है। जब किसी भी कर्म का बन्धन होता है तब उसकी समयमर्यादा भी - ( ग्रर्थात् वह कर्म ग्रात्मा के साथ कितने काल तक चिपका रहेगा ) उसी समय निश्चित हो जाती है । जिस समय कर्म बँधता है, तब तुरन्त ही उसका फल - भला-बुरा परिणाम - मिल जाय, ऐसी बात भी नही है । वह अपने Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ नियम और विधान के अनुसार समय होने पर ही उदय में श्राता है । दूसरी एक समझने योग्य तथा हमे ग्राणा एव उत्साह प्रदान करने वाली बात यह है कि कर्म के उदय में आने का समय निश्चित होता है, किन्तु उसको भोगने का समय --- केवल निकाचित कर्म को छोड़ कर --- निश्चित नही होता । कर्म-वधन के समय उसकी जो यनिमर्यादा निश्चित हुई हो, उसमें आत्मा अपने शुभाशुभ परिणामों वाले मनोव्यापारो -- अध्यवमायो — के द्वारा परिवर्तन भी कर सकता है । इसे श्राप लोहे की थाली मे सोने की कील कहिये या मरुभूमि मे मीठे पानी का झरना कहिये, या घोर अधकार मे रह कर चमक कर प्रकाश दे जाने वाली बिजली कहिये, ऐसा ही कुछ है । हम सव को मालूम है कि क्षण भर चमक कर पुन वादलो मे छिप जाने वाली ग्राकाश की बिजली जितना प्रकाश देती है उतना सूर्य, चन्द्र र श्रमस्य तारे मिल कर नही दे सकते । यह तथ्य - कर्म के सविधान - Constitution -- का यह अध्याय - प्रत्येक मोक्षार्थी ग्रात्मा को ग्रविरत उत्माह देने कोई वाला है। कर्म के बंधने के प्रकारो मे मे कोई शिथिल, मध्यम कोटि का कोई गाढ, तो कोई अतिगाढ होता है । इनमे जो सव से अधिक प्रत्यन्त गाढ - कर्म होता है, उसे जैन दार्शनिको ने 'निकाचित कर्म' नाम दिया है । यह कर्म प्राय भोगना ही पड़ता है । उसके सिवा अन्य कर्मो का क्षय ग्रात्मा अपनी भावना और साधना के पर्याप्त वन्न से- भोगे विना भी कर सकता है । हमने देखा कि चास्रव' के नाम से विदित मन, - वचन Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० चोर काया के व्यापार से कर्म के पुद्गलो का आत्मा के साथ क्षीरनीरवत् घनिष्ठ सम्बन्ध से जुड जाना वध कहलाता है । 'वध' के चार प्रकार है, जिनके नाम इस प्रकार है, (१) प्रकृति (२) स्थिति, (३) अनुभाग (रस) (४) प्रदेश | कर्म-रूप में परिणत होने वाले 'कर्म पुद्गलों' में ग्रात्मा के ज्ञानादि गुरगो को ढकने की 'प्रकृति' अर्थात् स्वभाव का बन्धना -- निश्चित होना 'प्रकृति वन्ध' कहलाता है । अनेक प्रकार के परिणाम देने वाला यह स्वभाव आत्मा के गुणरूपी प्रकाश पर बिछाये जाने वाले काजल के समान गहरे काले रंग के परटो का काम करना है, और ग्रात्मा के स्वभाव को ढँक लेता है । इनके मुख्य या प्रकार होने के कारण कर्म के भी मुख्य प्रकार ग्राठ बताये गये हैं । श्रात्मा के ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूपी गुग्गी को अवरोध करने या उनके छात्ररग वनने का काम करने वाले कर्मों को 'आवरणीय' कर्म कहा जाता है । ये कर्म पनी कालावधि तक अथवा श्रात्मा के पुरुषार्थ से उसमें होने वाले परिवर्तन के अनुसार श्रात्मा से चिपके रहते हैं । जिन समय कर्म बँधता है, रहने की जो कालावधि निश्चित हो बन्ध' कहते हैं । जब कर्म वचता है तब उसका मन्द, नामान्य, तीव्र, मध्यम या प्रति तीव्र — आदि जना भी फल निश्चित हो जाता है उसे 'अनुभाग - वध' कहते है । कर्म के पुद्गलो का समूह जिस न्यूनाधिक प्रमाण मे वॅट कर आत्मा को चिपकता है उस प्रमाण को 'प्रदेशवध ' कहते हैं । उसी समय उनके बंधे जाती है, उसे 'स्थिति Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३१ कर्मबन्धन के मुख्य पांच प्रकार के कारण बताये गये है ~~- (१) मिथ्यात्व (२) अविरति (३) कपाय (४) प्रमाद तथा (५) योग । आत्मभावना का अभाव, मोस के विपय मे अश्रद्धा तथा सम्यग् ज्ञान-दर्शन-चारित्र के प्रति अरुचि को प्रात्मा की 'मि यात्वदगा' कहते हैं । पाप कर्मो मे प्रतिज्ञापूर्वक पीछे न हना 'अविरति' कहलाता है। क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेप आदि विकारो को 'कपाय' कहते है । आचरण करने योग्य वाचारो को भूल जाना अथवा शुभ कार्यो मे बालरय करना 'प्रमाद' कहलाता है तथा मन, वचन, काया से प्रवृत्ति करना 'योग' कहलाता है। ये सब समार के हेतु या कारण है। इनमे से मुक्त होने के लिए ग्रात्मा जब 'सबर' के द्वारा 'पावव' को बन्द कर देता है, तब आत्मा का विकासक्रम प्रारम्भ होता है । मच्ची ज्ञान दृष्टि से 'मिथ्यात्व दशा' का निवारण होता है। अच्छे. कर्म-धर्माचरण करने से तथा पापाचरण बन्द करने से 'अविरति' का निवारण होता है। रागद्वेष से छुटकारा पाने की प्रवृत्ति के द्वारा 'कपायो' से मुक्ति मिलती है। यात्मा के लक्ष्य के विषय मे एव कर्तव्याकर्तव्य के विषय मे सजग और सावधान रहने से 'प्रमाद' दूर होता है । मन-वचन-काया के शुभ परिणाम वाले उपयोग रूपी 'योग' से आत्मा के निर्मल परिणाम वाले स्वभाव को जाग्रत करके उसे मोक्षमार्ग की प्राप्ति मे प्रयत्नशील बनाया जा सकता है । ये सव मोक्ष के Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ हेतु है । कर्म के बन्धनो को नष्ट करने वाले ये सब 'सवर' कहलाते है | कर्म के पुद्गलो की रचना, उनका जुडना ( पूरण) तथा अलग होना ( गलन ) ग्रादि विषयक शास्त्र एक महान ग्राश्चर्यकारक तथा प्रति विशाल विषय है । कर्म के सिद्धान्त ( थ्योरी) को पूर्णतया समझने में अनन्त श्रानन्द तथा परम लाभ हो सकता है । इसकी विशेष जानकारी जैन साहित्य मे से ही प्राप्त होगी । ८) निर्जरा 'सवर' मे हमने कर्मवधन को रोकने की बात की है । 'वध' तत्त्व मे हमने ग्रात्मा के साथ कर्म के जुडने की बात की, और इस 'निर्जरा' मे बँधे हुए कर्मों को छोडने की बात आती है । इसमे स्वभाव के अनुसार छूटने वाले तथा योजना के अनुसार छोडे जाने वाले कर्मों की बात ग्राती है । जैसे कर्म के दो भेद सकाम कर्म और काम कर्म है, वैसे ही निर्जरा के भी दो भेद है - सकाम निर्जरा और काम निर्जरा | हम जिन कार्यो को जानबूझ कर हेतुपुरस्सर करते है, वे ' सकाम कर्म' कहे जाते है, और ग्रनायास होने वाले कर्म 'अकाम कर्म' कहलाते है । उसी तरह बँधे हुए कर्म अपनी कालावधि पूर्ण होने पर भुगते जाकर झड जाते हैसो काम निर्जरा है, और शुभ हेतुपूर्वक तप, जप, व्रत, नियम आदि व्यापारो के द्वारा कर्मो का क्षय किया जाता है सो 'सकाम निर्जरा' है । अग्रेजी का एक वाक्य है ' Prevention is better Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३३ than cure' जिसका अर्थ है," (रोग का इलाज करने की अपेक्षा उसे रोकना (न होने देना) बेहतर है।" यह उपदेश गारीरिक स्वास्थ्य के विषय मे है । बीमार होकर फिर दवाई आदि से इलाज करके अच्छे होने की अपेक्षा बीमारी को आने से रोक देना अधिक अच्छा है। इसी प्रकार कर्मो को वाँधकर उसके बाद 'सकाम निर्जरा' के द्वारा उनका क्षय ( नाग ) करने की अपेक्षा उन्हे 'सवर' के द्वारा बँधने से रोक देना अत्यधिक उत्तम और श्रेष्ठ मार्ग है । फिर भी अज्ञानवश जो कर्म बाध लिये गये हो उन्हे भुगते जाने के लिए छोड़ने की अपेक्षा 'सकाम निर्जरा' के द्वारा उनका शीघ्र तथा दृढता के साथ क्षय करना भी उतना ही आवश्यक है। ६ मोक्ष नौ तत्त्वो मे से अन्तिम नौवाँ तत्त्व 'मोक्ष' है । आत्मा को बाधकर बैठे हुए सभी कर्मो के क्षय का नाम 'मोक्ष' है । यह परम आनन्द और चरम सुख की स्थिति है । जन्म मरण का चक्कर मिट जाता है, अनन्त सुख का भोक्ता बना हुआ आत्मा मोक्ष तत्त्व को प्राप्त करके अपनी अनन्तानन्त-लाखो करोडो वर्षों की तथा अनन्त दुःखो की घटमाला के समान ससार यात्रा से मुक्त हो जाता है। __ जब आत्मा अपने विकासक्रम की उच्च श्रेणी पर उच्चतम भूमिका पर पहुँचता है तव उसके आठो कर्मों का नाश हो जाता है। पहले चार घाती कर्मो के क्षय से केवलज्ञान प्राप्त होता है, और वाद मे वह चार अघाती कर्मो का नाश (भय) करके सिद्धत्व-मोक्ष प्राप्त करता है । वह ससार के गुरुत्वाकर्षण Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ में से छूट जाता है और लोकाकाश के अग्रस्थान पर अपना स्थान प्राप्त करके चिरजीव (शाश्वत) स्थिरता प्राप्त करता है। मनुष्य की भोगोपभोग पर आसक्ति मे प्रायः 'स्त्री' का स्थान सबसे आगे है । प्रात्मा के इस भोग-स्वभाव को लक्ष्य मे रख कर कई धर्म-पन्यो ने प्रात्मा के अन्तिम ध्येय रूप मुक्ति को 'प्रियतमा' कहा है। पश्चिम एशिया मे सूफीवाद के नाम से प्रसिद्ध पथ मुक्ति को 'माशुक' मानता है । हमारे यहाँ भी श्रीकृष्ण के अनुयायीवर्ग मे श्रीकृष्ण की पत्नी 'राधा' को भजने वाला एक पथ है 'राधास्वामी' और दूसरा है 'श्रीराधे' । अपनी इच्छित प्रियतमा को प्राप्त करने के लिए भगीरथ पुरुषार्थ करना पुरुप का स्वभाव है-इस तथ्य को लक्ष्य मे रख कर ऐसे कुछ पन्थो के सस्थापको ने मुक्ति को 'माशुक' या 'प्रियतमा' बनाया है। लैला-मजनू तथा शीरीफरहाद की प्रेमकथाएं इस प्रकार के अनन्य प्रेम की प्रतिपादक है। जैन धर्म में भी आत्मा की अन्तिम मुक्ति को 'शिवरमणी' 'मोक्षललना' आदि नाम दिये गये है। प्रत्येक जैन आत्मा की आराध्य देवी यह 'मुक्ति ही है । प्रत्येक मनुष्य की आराध्य देवी भी यही होनी चाहिए। ___आराध्य देवी 'मुक्ति-रमणो' के प्रति जितना उत्कट प्रेम होगा, उसे प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ भी उतना ही तीव्र होगा। कर्मवन्ध के कारणो के अभाव ( सवर ) के द्वारा तथा कर्मक्षय (निर्जरा) के द्वारा वचेखुचे कर्मों का नाश करने Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३५ पर ही मोक्ष प्राप्त होता है । जब आत्मा मोक्ष में जाता है और अपने अधिकार का स्थान प्राप्त कर लेता है तब कर्मव्यापार के कोई कारण शरीर इन्द्रियाँ और मन-उसके साथ नही होते । वहाँ उसका जो शुद्ध चिदानन्द स्वरूप है, जो परमात्मस्वरूप है, केवल वही रहता है । जो महात्मा मोक्ष प्राप्त करके परमात्मा बनते है, उनमे सिद्ध और तीर्थकर (अरिहत)-ये दो भेद है। सिद्ध परमात्मा अपने पाठो कर्मों को क्षय करके मोक्ष प्राप्त करते है, जव कि अरिहत परमात्मा प्रथम चार घाती कर्मों को क्षय कर केवलजान प्राप्त करके तीर्थकर वनते हैं, और वाकी के चार अघाती कर्मो का भय होने से मोक्ष मे जाने का समय आवे, उससे पहले कुछ काल तक इस विश्व मे जगत के जीवो को सच्चा मार्ग बताने का अमाधारण लोकोत्तर उपकार करते है। अव हम ऐसे परम उपकारक श्रीतीर्थकर परमात्मा को वन्दन करके विकासक्रम की जिस श्रेणी के द्वारा उन्होने मोक्ष प्राप्त किया और हमे मार्ग बताया उन चौदह गुणस्थानको का सक्षिप्त परिचय प्राप्त करेगे। (१) मिथ्यात्व गुणस्थानक यह आत्मा के विकासक्रम की प्रथम श्रेणी है। जिन्हें सम्यग्दृष्टि प्राप्त नहीं हुई, आत्मकल्याण के सत्यमार्ग की तथा तत्सम्बन्धी सच्चे साधनो की जिन्हें जानकारी नहीं है, और जो अनेक प्रकार के अजान तथा भ्रम लिए फिरते है, उन सब आत्माओ को गुणवत्ता की यह प्रथम कक्षा है। इस गुणस्थानक मे उन साधुसन्तो का भी समावेश होता है जो लौकिक दृष्टि से उच्च कोटि के आत्मा माने जाते है। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ आत्मा, कर्म, धर्म और मोक्ष-मार्ग के विषय मे विपरीत खयाल लिये धूमने वाले भी इस स्थान पर आकर रुके होते है। उदाहरणार्थ कोई देवीभक्त यज्ञ करवाता हो, हिसादि का आचरण करता हो और फिर भी 'भगत' कहलाता हो तो उसका स्थान इस प्रथम भूमि पर ही है । इसी प्रकार आत्मसाधना करने वाला साधक भी यदि सत्य-मार्ग पर न हो तो उसका स्थान भी इस 'मिथ्यात्व गुणस्थानक' मे ही होता है । वडे बडे पडित, माधक, तपस्वी और धनवान दातागण भी इस श्रेणी मे हो सकते है । सामान्यतया कहा जाय तो कुछ भाग्यशालियो को छोड कर लगभग सभी आज गुणश्रेणी की इस प्राथमिक भूमिका पर ही है । फिर भी हम यदि इस गुणस्थानक पर गुण लेकर आ खडे हो तो यह भी एक प्राथमिक सिद्धि ही है, क्योकि ' मैत्री लक्षणा-मित्रा दृष्टि" प्राप्त करके हम इस गुणस्थानक पर आये है। ____ यह 'मित्रा' दृष्टि आत्मा को प्राप्त होने वाली आठ दृष्टियो मे से प्रथम सिद्धि है। आत्मा मे चित्त की मृदुता, तत्त्व के प्रति अद्वेपवृत्ति, अनुकम्पा, अशत भी अहिसा, सत्य आदि कल्याणदायक साधनो की अभिलाषा, आदि प्राथमिक सद्गुण 'मित्रा दृष्टि' से प्रकट होते है । आत्मा यह दृष्टि प्राप्त होने के फलस्वरूप इस प्रथम गुण-स्थानक मे आकर प्रवृत्ति करता है । परन्तु जब तक वह सम्यग्दृष्टि से वचित हो और मिथ्यादृष्टि को न छोडे तब तक उसका स्तर नही बढता। वह अनेक प्रकार के भ्रम तथा सभ्रम से पूर्ण प्रवृत्तियाँ करता रहता है । वह भौतिक क्षेत्र मे नाना प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त करता Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३७ रहता है, और 'मित्रा' दृष्टि से प्राप्त सद्गुणो का उपयोग भो करता रहता है, परन्तु जब तक उसे सम्यग्दर्शन प्राप्त नही होता अथवा मिथ्यादर्शन छोडा नही जाता तब तक उसकी गाडी प्रथम गुणस्थानक के स्टेशन से रवाना नहीं होती। 'मिथ्यात्वगुणस्थानक' को हम 'सभ्रम-सदन' का नाम भी दे सकते है। प्रथम गुणस्थानक से आगे बढने के लिये 'सम्यक्त्व' एक साधन है । इस साधन को प्राप्त करने मे अनेकात दृष्टि तथा स्याद्वादतवत्ज्ञान की सहायता प्राप्त करने की प्रवृत्ति उपयोगी सिद्ध होती है। २ सास्वादन गुणस्थानक - यदि सम्यग् दृष्टि प्राप्त कर ली जाय तो फिर प्रथम गुणस्थानक से चौथे गुणस्थानक को जाने की आत्मा की विकासयात्रा तो शुरु हो जातो है परन्तु यह विकासयात्रा ऊर्ध्वगामी-पर्वत के शिखर की अोर गति करने वाली होने के कारण कदाचित् मार्ग मे अटक कर फिसल कर कुछ नीचे सरक कर 'सास्वादन' नामक दूसरे गुणस्थानक मे आ जाना पडता है। इसके लिए रागद्वेप की प्रवृत्ति जिम्मेदार होती है । यह गुणस्थानक चौथे गुणस्थानक पर पहुंचाने के बाद वापस गिरते समय का गुणस्थानक है, अोर अल्प समय का माना जाता है। जैसे ननुष्य कोई सुन्दर, नाजुक चीज ले आता है और क्रोध, मोह आदि कषायो के कारण उसे तोड फोड देता हैया फेक भी देता है, उसी तरह सम्यग् दृष्टि रूपी सुन्दर सीढी प्राप्त करने के वाद अनन्तानुवधी (चिकने-चिपकने वाले) Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ कपायो का उदय होने से उसमे शिथिलता ग्राजाती है और याडे या उलटे रास्ते चलकर पुन: वह 'मिथ्यात्व' दशा की ओर गिरने लगता है । यह दूसरा गुणस्थानक बहुत ही अस्थिर होने के कारण ऊपर से गिरने पर यहाँ रुकने की प्रक्रिया अधिक देर टिक नही सकती - इस स्तर पर पतन अवस्था इतनी तेज गति से चलती है । परन्तु एक बार श्रात्मा को सम्यग्दृष्टि प्राप्त होने के कारण उसके पुन जागत होने मे कोई सदेह नही है | इस गुणस्थानक को यदि हम 'श्रवनतसदन' कहे तो भी ठीक ही होगा । पुन ग्रागे बढने का मार्ग सम्यग् दृष्टि जाग्रत करना है, परन्तु वह यहाँ की पतन अवस्था मे सभव नही है । वह तो अल्पकाल में हो मिथ्या भाव मे अर्थात् प्रथम गुरणस्थानक पर जा गिरता है । अब वहाँ यदि मिथ्या भाव को दबा सके तो प्रयत्नजाग्रति पूर्वक उसकी गाडी यह दूसरा जंक्शन लिये विना ही आगे वढ जाती है । और यदि न दबा सके, और मिथ्या भाव सहित तीव्र रागद्वेष मे भटक जाय तो वह प्रथम गुणस्थानक पर ही मग्न बना रहता है । ३ मिश्र गुणस्थानक यह अवस्था प्रथम दो गुणस्थानको से बढ कर होते हुए भो बडी विचित्र अवस्था है । यह ग्रात्मा के विकासक्रम की मिथ्यात्व और सम्यक्त्व के वीच तो हुई मिश्र अवस्था है । एक मासाहारी मनुष्य मासाहार का त्याग करके शाकाहारी बनता है । इसके पश्चात् वह एक ऐसे भोजनगृह में जाता है जहाँ दोनो तरह का भोजन बनाया और परोसा जाता है । उस समय उसकी पुरानी रुचि जाग्रत होती है । उसका मन Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ दूसरी योर खिचता है और उसका नियम उसे शाकाहार की प्रोर खीच रखता है । उसी के समान यह स्थिति है । तत्त्व के प्रति रुचि भी न हो योर अरुचि भी न हो ऐसा सम्यक्त्व र मिथ्यात्व के मिश्रण रूप आत्मा की अत्यन्त विपम प्रवस्था बनाने वाला यह ग्रव्यवसाय है । 'यह सच है या वह सच है' ऐसी उलझन में पड कर दोनो हाथो मे दोनो को रखने वाले मथनकाल की यह ग्रवस्था है । श्राखिर तो दो मे से एक छूट जाता है । यदि मिथ्यात्व छूट जाय तो सम्यक मार्ग की ओर उसकी विकामयात्रा आगे बढती है । यदि सम्यक्त्व छूट जाय तो फिर वह नीचे गिरता है, उसकी सारी मेहनत पर पानी फिर जाता है, और वह जहाँ था वही पुन लौट आता है । इस गुणस्थानक की मथनात्मक अवस्था अल्पकाल के लिये होती हे | हम इस गुणस्थानक को 'मथनसदन' कह सकते है । इस मथन से मुक्त हो कर विकासयात्रा को ऊर्ध्वगामी बनाने का साधन है 'विवेक' अर्थात् सारासार को पूर्ण समझ । यदि आत्मा इस मथनकाल मे विवेकबुद्धि का यथार्थ उपयोग करे तो वह नीचे गिरने से बच जाता है । यहाँ पर मिश्र भाव स्पष्ट करने के लिये शास्त्रो मे नारियन्न -- द्वीप के मनुष्य का दृष्टान्त श्राता है । यह मनुष्य ग्रन्न को जानता ही नही, ग्रत उस ग्रन्न के प्रति रुचि या ग्ररुचिकुछ भी नही है । इसी तरह यहाँ पर सम्यक्त्व के प्रति रुचि या ग्ररुचि नही होती | ४ अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाय, निश्चय पूर्वक सत्य - मार्ग Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० पर दृष्टि स्थिर हो जाय, फिर भी मनुष्य भौतिक सुख के आकर्षण के कारण पापाचरण से मुक्त न हो सके, श्रीर स्वार्थ-वग पाप कर्म करता रहे उसे 'अवरति सम्यग्दृष्टि' कहते हैं । इस स्तर पर ग्रात्मा की ग्रान्तरिक अवस्था सम्यग्दृष्टि होते हुए भी बाहर से वह 'मिथ्यादृष्टि' की तरह हिसादि कर्म करता रहता है । फिर भी मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व में जो भेद है वह यहाँ भी रहता ही है । मिथ्यादृष्टि में केवल स्वार्थ और भौतिक सुखो की प्राप्ति पर ही दृष्टि होती है, और इस तरह किये जाने वाले दुष्कृत्यों के प्रति ऐसे मनुष्य की सद्भावना होती है । मिथ्यादृष्टि आत्मा अपने अपकृत्यों का पश्चात्ताप करने के बदले प्रसा करता है, अनुमोदन करता है, और इस प्रकार से प्राप्त की हुई सिद्धियो पर गर्व करता है । सम्यग्दृष्टि ग्रात्मा श्रासक्तिवग, लाचार होकर दुष्कृत्य तो करता है, परन्तु उसे इसका दुख सालता ही है । वह पश्चात्ताप करता रहता है और उसमें से छूटने मे प्रयत्नशील रहता है । मिथ्यादृष्टि को पुण्यपाप का अन्तर समझ मे नही श्राता, जब कि सम्यग्दृष्टि ग्रात्मा यह अन्तर समझना है, और न करने योग्य कर्म करते हुए भी वह उनसे 'प्रतिक्रमण' करने मे-पीछे लौटने मे - प्रयत्नशील एव जाग्रत रहता है। एक ही प्रकार के कर्म करते हुए भी मिथ्यादृष्टि तथा सम्यग्दृष्टि मे यह वडा महत्त्वपूर्ण अन्तर है । सम्यग्दृष्टि ग्रात्मा मे मात्त्विकता प्रकट हुई होती है, जव कि मिध्यादृष्टि ग्रात्मा कभी कभी सत्कार्य करता हो तो भी Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४१ उसकी स्थिति तामसिक होती है । सम्यग्दृष्टि प्रात्मा को अविरति मे से छूट कर विरति मे प्रयत्नशील होने की वडी प्रवल, ज्वलन्त अभिलापा होती है। पाप कर्म मे से विरत (मुक्त) होना ही 'विरति' है और पापाचरण से विरत न होना 'अविरति' है । ये दोनो पारिभापिक शब्द है। __इस गुणस्थानक मे सम्यग्दृष्टि के बावजूद 'अविरति' (अशुभ आचरणो की प्रवृत्ति भी) रहती है, अत इसे 'अविरत' सम्यग्दृष्टि नाम दिया गया है । वह रतर आत्मविकास की मूल आधारभूमि है, इसलिए यदि हम इसे 'विकास-सदन' नाम दे तो उचित ही होगा। उस स्थानक मे से आगे बढ़ने का उपाय 'अणुव्रतपालन' है । यहाँ श्री नवकार मत्र की निष्ठा तथा रटन अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होता है । यह चतुर्थ गुणस्थानक प्राथमिक भूमिका वाले सभी आत्मानो का क्रमिक लक्ष्य-स्थान (Coneted place) है, और यह यात्मा के विकासक्रम की निश्चत हो एक अागास्पद भूमि है। (५) देशविरति गुरणस्थानक - जेन तत्त्ववेत्तानो ने आत्मविकास के अमूल्य साधनस्वरूप दो प्रकार के मार्ग बतलाये है-एक देशविरति और दूसरा सर्वविरति । निसदेह देशविरति मे से सर्वविरति मार्ग पर आना ही पड़ता है । इनमे से 'देशविरति' मार्ग ससार मे रहे हुए गृहस्थो के अनुसरण करने के लिये है और दूसरा सर्वविरति मार्ग वैराग्य प्राप्त कर साधु बनने वाले त्यागी वर्ग के अनुसरण के लिये है । समार मे रहने वालो की सीमानो को लक्ष्य मे रखकर 'देशविरति' मार्ग मे त्यागमागियो की अपेक्षा Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ कुछ विशेष छूट दी गई है जिसने ससारीमात्मा उगका निर्विघ्नतापूर्वक पालन कर सके । इसमे 'स' जीवो की हिगा का त्याग आदि पाँच स्थूल व्रत (अणुव्रत), तीन गुणन्नत तया चार शिक्षानत-यो कुल बारह व्रतो की प्रक्रिया है । इस मार्ग का अनुसरण करने वाले मसारी जन पापयोग से सर्वथा विमुग्व नहीं हो सकते, परन्तु अनत पापविमुग्वता और पुण्यसम्मुखता उन्हें अवश्य प्राप्त होती है । 'देगविरति' तथा 'मविरति' विषयक पूर्ण जानकारी के लिये श्री तीर्थकर परमात्मा के द्वारा प्रतिपादित श्रावकधर्म और माधु-धर्म का अध्ययन करना चाहिए। पचम गुणस्थानक पर पहुँचा हुआ अात्मा वीतरागता मे वहुत दूर होते हुए भी अगत वीतरागता का मानमिक अनुभव कर सकता है, और इस दृष्टि से यह आत्मा के विकासक्रम को एक सुभग अवस्था है । देशविरति धर्म का पालन करते करते प्रात्मा सर्वविरति के प्रति रुचिभान्-इच्छुक बनता है और एक विशिष्ट प्रकार की उत्थान-वाछा का अधिकारी वनता है । इस गुणस्थानक को उत्थान-सदन' कहना उचित ही होगा। इस पचम गुणस्थानक से आगे बढने का मार्ग 'सर्वविरति' धर्म की आराधना है। (६) प्रमत्त गुरणस्थानक - साधक आत्मा देश विरति धर्म की अराधना करते करते जब 'सर्वविरति'-महावत धारी साधुत्व-के स्थान पर पा पहुँचता है तब वह इस छठे गुणस्थानक पर आ गया होता है । वहाँ उसको सूक्ष्म हिंसा-असत्य आदि की भी विविध Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४३ त्रिविध त्याग की ग्राजीवन भीष्म प्रतिज्ञा होती है । परन्तु इस गुणस्थानक पर पहुंचने के बाद ग्रात्मा को अत्प प्रमाददशा का विघ्न या जाता है । वह कभी कभी ग्रामी तथा विकथा, विस्मृति ग्रादि के वश हो जाता है, तव समभाव की सुदृढ ग्रात्मजाग्रति मे कुछ भाग पडता है । सर्वविरति धर्म के प्राराधक को उत्कृष्ट ग्रवस्था पाने पर भी अनुचित प्रातुरता या सावधानी के कारण सावक मे प्रमादवगता प्रकट होती है | यहा मन्दकपाय को 'प्रमाद' नही माना गया है, वल्कि जब जरा भी ग्रात्मलक्ष्य चूक जाय तब उस अवस्था को 'प्रमाद' माना गया है । साधुजीवन मे भी 'प्रमाद' यश बनना अनादि कुसस्कारो के कारण सहज सभाव्य है । अत इस ग्रवस्था को प्रमत्तगुणस्थानक कहते है । फिर भी साधु स्वजागति एव गुरुनियत्रण के कारण अपने श्राचारो के प्रति चेतना अनुभव करता है, अत वह इस प्रमत्त ग्रवस्था मे से मुक्त होने की पात्रता रखता है, और इस स्थिति में से ग्रागे बढता भी है । अप्रमत्त बनता है । परन्तु वह अवस्था बहुत नाजुक होने के कारण वहाँ से पुन यहाँ प्रमत्त अवस्था मे या गिरता है । प्रमत्त से भी आगे वढने की सभावना होती है, परन्तु वह किसी विरले को ही साध्य होती है । फिर भी प्रमत्त गुरणस्थानक पर ग्रात्मा दर्शन - ज्ञान - चारित्र मे मग्न रहने के कारण लगभग ग्रात्माराम वना होता है, इसलिए इस गुण-स्थानक को 'आरामसदन' कहा जाय तो उचित ही होगा । इस प्रारामसदन मे से ऊपर के सदन मे जाने का साधन है विशेष जाग्रतिवान् वन कर प्रमाद का Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ निश्चयपूर्वक त्याग करना। विश्व की वर्तमान साधुसस्थानो मे जैन साधुसस्था को निस्सदेह सर्वोत्तम साधकमडल माना जाता है । जो कठिन आचार एव कठोर तपश्चर्याएँ जैन साधुओ के नित्य जीवन के समान है, उनकी बराबरी कर सके ऐसी अन्य कोई भी व्यवस्थित साधुसस्था विश्व भर मे नही है । (७) अप्रमत्त गुणस्थानक - प्रमाद दशा का प्रयत्नपूर्वक त्याग करके प्रमादरहित कर्तव्यपरायणता मे प्रवर्तमान बन कर आत्मा सातवे 'अप्रमत्त गुणस्थानक' को उपकारक श्रेणी प्राप्त करता है । यहाँ विशेप ध्यान रखने की बात यह है कि इस गुणस्थानक पर आने के वाद यहाँ स्थिर नही रहा जाता । या तो तेजी से ऊपर के गुणस्थानक की ओर प्रयाण होता है या वहुधा प्रमादवशता आजाने से साधक पुन नीचे 'पारामसदन' मे उतर जाता है । फिर से कर्तव्य-परायणता की रस्सी पकड कर अप्रमत्त दशा मे पुन लौट आता है । इस प्रकार प्रमाद तथा अप्रमाद के वीच की कशमकश मे झोके खाता हुअा अात्मा जव अप्रमत्तता को दृढ बना देता है, और अपूर्व वीर्योल्लास प्रकट करता है तव उसके लिए वहाँ से आगे बढ़ने का मार्ग खुलता है। इस गुणस्थानक मे साधक को अप्रमत्तता सहित सयमयोग मे अत्यत जागरूक रहने का परिश्रम करना पडता है। अत इसे यदि हम 'योगमदन' नाम दे तो उचित ही होगा। (८) अपूर्वकरण गुणस्थानक -- जव साधक अप्रमत्त रह कर उत्कृष्ट चारित्र्य पालते पालते Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४५ चारित्र्य-मोहनीय कर्म का क्षय या उपगम करने का अपूर्व अध्यवसाय प्राप्त करता है, तब अब तक अप्राप्त-ऐसी एक अपूर्व भूमिका उसे प्राप्त होती है । यह आत्मिक उत्थान-काल का विशिष्ट भावोत्कर्ष है । यहाँ उसे कर्मो की स्थिति-रस का अप घात, अपूर्व सनमरण, अपूर्व स्थितिबध, और कर्म के उपशम या क्षय के लिये उमकी अपूर्व रचना (गुरणश्रेणी) ये पाँच अपूर्व करने होते है, इसलिए इसे जैनागमो मे अपूर्वकरण गुरणस्थानक कहा गया है। __यदि हम इन गुणस्थानक को 'अपूर्वसदन' कहे तो ठीक ही होगा। (E) अनिवृत्तिकरण गुणस्थानक - चारित्र्यमोहनीय कर्म का क्षय या उपशम करते करते साधक को जो अपूर्व अनुभव प्राप्त होता है वह उसे नौवे गुणस्थानक मे ला देता है। यहाँ सर्व ममान श्रेणी के आत्माओ के प्रति नमानताभाव पूर्ण कलायो से खिलता है, और साधक को अपूर्वकरण के विशिष्ट फल का निर्मल अनुभव कराता है । इस गुणस्थानक को 'अनुभवसदन' कहना भी उचित होगा । वीतरागता की भॉकी इस गुणस्थानक से होने लगती है। (१०) सूक्ष्मसपराय गुणस्थानक - मोहनीय कर्म का उपगम या क्षय होते होते अन्त मे केवल लोभ (राग) का सूक्ष्म अश वाकी रह जाता है । इस स्थिति को सूक्ष्मपरपराय गुणस्यानक कहते है । साधक इस गुणस्थानक मे वीतरागता के बहुत निकट या जाता है, और प्रयत्नशील जाग्रत दगा की पुष्टि करता हुआ परमात्मपद Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ प्राप्त करने के विल्कुल करीव या बडा होता है । यह वीतराग अवस्था की अपेक्षित 'मित्र अवस्था 'है, अत इमे हम 'मित्रसदन' भी कह सकते है । (११) उपशान्तमोह गुणस्थानक -- ___यह एक विशिष्ट प्रकार का गुणस्थानक है। सातवे से दगवे गुणस्थानक तक साधक मे सूक्ष्म राग द्वेपादि रहते है। आठवे मे अपूर्वकरण करके नौवे पोर दसवे मे साधक 'उपशम' या 'क्षय' की प्रवृत्ति करता है। इनमे से यदि उपशम की क्रिया प्रारभ की हो तो दसवे गुणस्थानक पर वह पूर्ण हो जाने पर प्रात्मा इस गुणस्थानक पर आता है । यहाँ पर मोह सर्वथा उपशात होने से इसे 'उपगातमोह' कहते है। हमे 'उपशम' और 'क्षय' का अर्थ अच्छी तरह समझ लेना चाहिए । 'उपशम' अर्थात् बाह्य उपचारो से रोग को शात करना, और 'क्षय' अर्थात् रोग को जड से निकाल देना । जब डॉक्टर किसी रोग को कुछ समय के लिये दूर करने के लिए (Temporary telhef देने के लिए) जो दवाई देता है उससे वह पीडा उस समय के लिए तो दूर हो जाती है । यह रोग का उपशम कहलाता है । परन्तु उस रोग के फिर लौट आने की (उथला देने की) सभावना दूर करनी हो तो अस्थायी उपचार से ऐसा नही किया जा सकता। ___ अग्नि को शात करने के लिए हम दो प्रकार के उपाय करते है। एक तो उस पर राख ढंक देते है । राख ढंक देने से अग्नि को प्रज्वलित होने के लिए वायु रूपी साधन नहीं मिलता, जिससे अग्नि धीरे धीरे शात हो जाती है, बुझ जाती है । परन्तु हवा का एकाध झोका आने से या अन्य किसी Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४७ कारण से यदि रास उड जाय तो उसका ज्वलन पुन शुरु हो जाता है। अग्नि को ग प्रकार शान्त करने के मार्ग को उपशम पाहते हैं। इस उपगम मे जिन प्रकार अग्नि के पुनर्जीवत होने की सभावना रही हुई है उगी तरह कर्मो के उपगम मे-जब कर्म होते है तो-उनके फिर ने भभक उठने की स भावना गुप्त रूप में होती ही है । ___ इराके विपरीत यदि पानी से नाग बुझा दी जाय तो उसका फिर से उद्दीपन नहीं होता। इस प्रकार जो परिणाम लाया गया, वह 'उपशम' से नहीं बल्कि 'क्षय' से लाया जा सका । उसी तरह जिन कर्मों का क्षय किया जाता है, वे पुन उदय मे नही आते। ___तात्पर्य यह है कि यदि साधक ऐसा अपूर्वकरण करके उत्तरोत्तर सबधित कर्मो का क्षय करता हुआ आगे बढा हो तब तो उसके लिए कोई खास चिता करने का कारण नहीं रहता । परन्तु यदि वह कर्मो का उपशम करता हुआ आगे बढा हो तो ढंकी हुई अग्नि के समान कर्मो की लीला के कारण वहाँ से वापस फिसल पड़ने को निर्धारित स्थिति इस गुणस्थानक मे रही हुई है। इस ग्यारहवे गुरणस्थानक में इस प्रकार का फिसलना निश्चित होने के कारण इसे हम 'फिसलन-सदन' कह सकते हैं । सामान्यतया साधक लोग, इस गुणस्थानक मे प्रवेश ही न हो--इस हेतु से, पहले से ही कर्म-क्षय करते हुए पाना और इस गुणस्थानक को फाँद जाना अधिक पसन्द करते है। (१२) क्षोणमोह गुरणस्थानक -~ जिन्होने कषाय स्वरूप चारित्र्य मोहनीय कर्म का क्षय Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ करने का पुरुपार्थ प्रारम्भ किया हो, ऐसे साधको के मोह का पूर्णत क्षीण होना-खत्म हो जाना—'क्षीणमोह गुणस्थानक' कहलाता है । इस गुणस्थानक मे चित्तयोग की पराकाष्ठा स्वरूप शुक्ल ध्यान-समाधि को प्राप्त करके अन्त मे ज्ञानदर्शनावरण तथा समग्र अन्तरायचक्र का दलन करके साधक केवलज्ञान प्राप्त करता है । ग्यारहवाँ और बारहवाँ गुणस्थानक लगभग एक से है, फिर भी उनमे यह अन्तर है कि ग्यारहवे मे वीतरागता-समभाव का स्थायित्व नही है, जब कि इस गुणस्थानक मे आने के बाद वह पूर्णतया स्थायी है। अत यदि हम इस गुणस्थानक को 'वीतराग-सदन' नाम दे तो उचित ही होगा। (१३) सयोगकेवली गुरणस्थानक - बारहवे गुणस्थानक को पार कर तेरहवे गुणस्थानक मे प्रवेश करने पर केवलज्ञान प्राप्त होता है, परन्तु यहाँ 'सयोग' अवस्था होती है, इसलिए इसे 'सयोगकेवली गुणस्थानक' कहते है। यहाँ 'सयोग' शब्द का जो प्रयोग हुआ है, उसका कारण यह है कि इस सयोगकेवली गुणस्थानक मे केवलज्ञानी आत्मा को अघाती कर्म भोगने के जब तक वाकी रहते है तब तक 'योग' अर्थात् शरीरादि के व्यापार वाकी रहते है । आना, जाना, वोलना आदि शारीरिक व्यापार केवली भगवत को चाकी रहते है इसलिए इस गुणस्थानक को 'सयोगकेवली' नाम दिया गया है। ___यहाँ केवलज्ञान रूपी सूर्य के प्रकाश में समस्त लोकालोक के तीनो कालो के सर्व पदार्थ प्रत्यक्ष होते है । अत तेरहवे Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ गुरणस्थानक को 'ज्ञानसदन' कहना उचित ही होगा । (१४) प्रयोगकेवली गुरणस्थानक - जव सयोगकेवली वीतराग परमात्मा ससारकाल पूर्ण होने पर तेरहवे गुणस्थानक के अन्त मे अपने शरीरादि के व्यापारो को समेट लेते है, तब वे प्रयोगी केवली बनते है । यहाँ पर तुरन्त ही सर्व कर्म नष्ट हो जाने से और शरीर छूट जाने से तुरन्त ही यह परम आत्मा अपनी आखिरी मजिल पूर्ण करके मुक्त बन कर ऊपर लोक के अन्त भाग पर पहुँच जाते है । मिथ्यात्व दशा के प्रथम गुणस्थानक से प्रारंभ कर आत्मा का जो विकासक्रम चलता है वह चौदहवे गुणस्थानक मे पूर्णता प्राप्त करके चरम विराम पाता है, सिद्ध अवस्था के प्रतिम स्टेशन पर पहुँचा देता है । 1 इस अन्तिम एव सर्वोच्च गुणस्थानक को यदि हम 'सिद्धसदन' नाम दे तो अनुचित न होगा । इस सिद्धत्व को प्राप्त करने के आत्मा के पुरुषार्थ का जवरदस्त वेगवान् समारोह - एक दिव्य नाटक - सातवे गुणस्थानक से शुरू होता है । समग्र कर्मचक्र मे प्रधान सेनानी के समान मोहनीय कर्म के विरुद्ध वहाँ विराट युद्ध छिड जाता है । इस अभूतपूर्व सग्राम मे अकेला जूता हुआ साधक एक महावीर नायक ( A gleat He10 ) का जो ग्रद्भुत पार्ट प्रदा करता है उसका विवरण हमे आश्चर्य चकित करने वाला, हमारे पुरुषार्थ को वेग देने वाला तथा इस दिव्य नाटक के नायक ( Hero) का स्थान लेने की पवित्र प्रेरणा देने वाला है । हमे ऐसा पूर्व अवसर कब मिलेगा ? फ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-संकट शीर्प देख कर भडकियेगा नही । जीवन एक झझट है और झझट नहीं है। हमे यदि जीवन को झझट के समान बना देना हो तो वह एक झझट है, यदि उसे झझट के समान न उनाना हो तो वह झझट नही है । ___ जीवन के विषय मे, जीवन के ध्येय के विषय में, जीवन जीने के मार्ग के विषय मे भॉति भाँति के मत प्रचलित है। यदि आप किसी साधु सन्यासी से मिले तो वह कहेगा"जीवन एक वडा झझट है, समार मे कुछ सार नहीं है। छोड दो भैया, इस ससार को छोड दो, सन्यासी बन जातो, साधु वन के प्रात्मा का कल्याण करो।" ___यदि आप किसी लोकनेता Public leade1 से मिले तो वह कहेगा--"ऐसी प्रवृत्ति मे लग जाओ जिससे समाज और देश का कल्याण हो । त्याग करो, बलिदान दो, मानवता की, दीन दुःखी की, दरिद्रनारायण की सेवा करो।" ____ यदि आप दोनो मतो को लेकर अपने पिताजी से मिले तो वे कहेगे, " छोडो यह सब झझट । चार पैसे कमाने मे मन लगायो, ये सव तो अमीरो या फकीरो के काम है। हमे तो सव से पहले अपना घर सम्हालना है। देखो भाई, इन सब झझटो मे न पडना।" फिर यदि आप विवाहित है और अपनी पत्नी से पूछते है तो वह क्या कहेगी ? वह कुछ इस तरह की बात कहेगी-- "उस गुणवन्ती बहन के पति के पास क्या था ? पहले तो Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५१ उनके पति विल्कुल खुक्क थे । आज उनका अपना वगला है, मोटर कार है, नोकर चाकर है, सोने के जेवर तो सब के पास होते है, उनके पास तो हीरे और मोती के कैसे सुन्दर जेवर है कि देख कर मुँह मे और आँख में भी पानी श्राजाय । इस गुणवन्ती बहन के रोव की तो कोई हद नही है । कुछ ऐसा करो कि मैं उन्हे नीचा दिखा सकूँ ।" यह बात आगे बढाने से पहले विलायत के एक अमीर और एक मजदूर कुटुम्ब की बात मुझे याद ग्रा रही है । वात बहुत ही रसमय एव अर्थपूर्ण है, इसलिए उसे यहाँ प्रस्तुत करने की इच्छा होती है । जब दो सखियों साथ पढती थी । उनमे गाढ मित्रता थी । एक का नाम था 'फनी' और दूसरी का 'ल्युसी' । फ्रेनी ने एक अमीर से शादी की और ल्यूसी ने एक मजदूर से । फ्रेनी के पास हीरे माणिक के जेवरो का ढेर था, कि ल्युसी इमिटेशन, नकली - सस्ते गहने लाकर पहनती । उक्त गुणवन्ती वहन की तरह फेनी का रोब भी बेहद था । वह जहाँ तहाँ अपनी अमीरी की डीग हाँकती थी । अपना वैभव बताकर अपनी सखियो को चकाचौध करने का उसे बडा शौक था । इस हेतु से वह जब तव अपने आलीशान महल मे दावते देती, सखियो को भोजन का निमन्त्रण भेजती, अपने यहाँ सब को एकत्रित करती, गौर सव के बीच अपने ऐश्वर्य का प्रदर्शन किया करती थी । जव उसकी अन्य सखियाँ यह सव देख कर अपनी लघुता अनुभव करती और उसके वैभव को तथा उसकी प्रशसा करती तो फ्रेनी गर्व से फूली न समाती । उसे बडा गढ जीतने का आनन्द होता । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ एक बार उसने ऐसी ही एक दावत दी । इस बार उसने वडा भारी समारोह तथा ठाट बाट किया । उसने ग्रपनी 'श्रमिक पत्नी - सखी' ल्युसी को भी बुलाया । फनी हीरे माणिक और नीलम के चमकते गहने पहन कर सबके बीच बैठी । फिर उसने सब को सुनाते हुए ल्युसी से पूछा "माई डियर ल्युसी, ये सब जेवर तुमने देखे ? मेरे ये हीरे जब धुंधले पड जाते है या मैले हो जाते है तो उन्हे साफ करने के लिए मै पेरिस से केमिकल मँगाती हूँ । माणिक साफ करने के लिए स्पेशल सोल्युशन वेनिस से आता है । नीलम की सफाई के लिए 'डिलक्स लिक्विड' ठेठ न्यूयार्क (अमेरिका) से मँगाती हूँ । हा तो बहून, तुम अपने गहनो की सफाई कैसे करती हो ?" वहाँ बैठे हुए सब लोग समझ गये कि सब के बीच नकली गहने पहन कर ठाट से बैठी हुई ल्यूसी को शर्मिन्दा करने के लिए ही फेनी ने यह प्रश्न पूछा था । परन्तु ल्युसी बडी चतुर थी । उसके चेहरे पर शर्मिन्दगी विल्कुल नही आई। उसने हँसते हँसते वडे मजे मे ऐसा जवाब दिया कि सुन कर फ्रेनी की जवान बन्द हो गई । वह जवाब इस प्रकार है 1 "श्री माई डियर फ्रेनी, मै तो ऐसे धोने वोने के झट मे पडती ही नही । मले होने पर फेक ही देती हू । I just thiow them out" यह एक विनोदपूर्ण व्यग है । पहली निगाह मे हमे इसमे ल्यूसी की बुद्धिमत्ता तथा हाजिर जवाबी के दर्शन होते है । परन्तु इसमे इतना ही नही है । हम जीवनविषयक जो चर्चा Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨ यहाँ कर रहे है उसका एक सुन्दर जवाव भी इसमे है । फेनी एक करोडपति की अर्धाङ्गिनी है। उसके पास धन-दौलत की कोई कमी नहीं है। फिर भी उमे इतने से ही सन्तोष नही है। ऐमी दावतो मे, दूसरो को चकाचौध करने मे तथा नीचा दिखाने मे वह अपना सन्लोप ढूंढती है। ल्युमी के पास धन-दौलत नहीं है । उसका पति एक मामूली मजूर है। परन्तु उसे इस बात का दुख नही है । नकली गहने पहन कर भो वह अानन्द प्राप्त कर लेती है। वह धनवान फ्रेनी से भी अधिक शान और रोव रख सकती है। इन सबके पीछे कौनसा तत्त्व काम करता है ? विचार करने पर प्रतोत हागा कि ल्युसी के ऐसे मस्त व्यवहार के मूल मे 'सन्तोप' है । वह अपने पास जो वस्तु नही है उसके खेद या तृप्णा मे दुखो होने के बदले, अपने पास जो कुछ है उसका अच्छे से अच्छा उपयोग करके मस्त और सन्तुष्ट रह सकती है । यह सन्तोप सुखी जीवन जीने का एक महत्त्वपूर्ण साधन है । मनुप्य को स्थिति और सयोग तो कर्मो के कारण मिलते हैं । केसे भी सयोग हो, पान दित रहना या उदास रहना, मस्त बने रहना या अपना रोना रोते रहना, बालमी बन कर बैठे रहना या उत्साहपूर्वक काम करना, प्राय मनुप्य के मन की स्थिति पर निर्भर है। मन की स्थिति को मस्त वनाने के लिये 'स्याद्वाद' को पर्याप्त जानकारी जैमा उपयोगी अन्य कोई उपाय नहीं है। समार को असार मानना, तथा साथ ही माय अपने चारो ओर जो सार है उसे ग्रहण करते रह कर मस्त जीवन जीना Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ इसके समान उत्कृष्ट मार्ग ससारी आत्मायो के लिये अन्य कोई नही है । 'स्यादवाद' हमे इस संसार मे रहे हुए असार और सार का यथार्थ दर्शन कराता है । दुख से त्रस्त हुए कई ससारी महानुभाव भी ऐसा कहते हुये पाये जाते हैं कि 'समार प्रसार है। कई एकान्तवादी सज्जनो को ऐसा कहते सुना है कि इस संसार में कोई सुख नही रहा, मन्यस्त अगीकार करने के सिवा अब अन्य कोई मार्ग हमारे लिये नही है। ऐसी बात सुनकर पूज्य श्रीहरिभद्र सूरीश्वरजी महाराज रचित कुछ श्लोक याद अाए विना नहीं रहते । श्रीहरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज फरमाते है - 'वैराग्य तीन प्रकार के होते है - (१) मार्तध्यान गभित (दुखभित) (२) मोहभित (३) ज्ञानभित दुःख, उद्वेग और रोप जि पके मूल मे हो उसे प्रार्तध्यान कहते है। इष्टवियोग तथा अनिष्ट-सयोग आदि निमित्त अमद्य लगने के कारण उनसे छूटने के लिए जो वैराग्य होता है वह प्रार्तध्यानभिन वैराग्य माना जाता है । उसमें अपनी गक्ति के अनुसार भी हेय (त्यागने योग्य) पदार्थ का त्याग तथा उपादेय (ग्रहण करने योग्य) पदार्थ का ग्रहण नहीं होता। इस प्रकार का वैराग्य 'बार्त यान' की प्रधानता के कारण उद्वेग करने वाला, विपाद से पूर्ण तथा आत्मघातकता आदि का कारण होता है । उसे मात्र लोकदृष्टि से ही वैराग्य कहा जाता है। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५५ 'मोहराभित' वैराग्य मे जो 'मोह' शब्द है वह सामारिक मोह के अर्थ में नहीं बल्कि ऐकातिक मूढ दृष्टि के अर्थ मे प्रयुक्त हुआ है । ऐसे एकातवादी तत्त्वज्ञान मे सम्पन्न सत्य वैराग्य भी भ्रातिजनक होने के कारण उसे छोड कर जानगर्भित वैराग्य ही स्वीकार करना चाहिये, ऐना जैनशास्त्रकारो ने माना है। ज्ञानगर्भ वैराग्य अर्थात् जिसमे अनेकातवादी तत्त्वों का अनुसरण करने वाला निर्मल ज्ञान हो ऐसा वैराग्य । मोहगर्भित वैराग्य किये कहते है और ज्ञानगर्भित वैराग्य क्या है ? ये दोनो बातें श्री हरिभद्र नूरीव्वरजी महाराज ने नमकार्ड है। उन्होने फरमाया है कि, "श्रात्मा एक ( ही ) है, ग्रात्मा नित्य ( ही ) है, आत्मा aas ( ही ) है, ग्रात्मा क्षरण-अयी ( ही ) है या ग्रात्मा असत् ( ही ) है -- इस प्रकार के एकान्तनिर्णय से समार की निर्गुता को बार बार जानने के बावजूद, और उसके त्याग के लिये उपगम तथा नदाचार का भावपूर्वक नेवन करने पर भी ऐसे लोगो का वैराग्य ज्ञानगभित नहीं, अपितु मोहगनित ही है । उन्ही का वैराग्य ज्ञानगभिन 2 होता है, जो स्याद्वाद की समझ का अवलन कर आत्मा को समष्टि चैतन्य रूप मे एक परतु व्यष्टि चैतन्य रूप में अनेक द्रव्य रूप में नित्य परन्तु पर्याय रूप मे क्षणिक, निश्चयनय ने श्रावद्ध पर व्यवहार नय ने वह, पर स्वरूप से श्रमत् परन्तु स्वरूप में सत् इस प्रकार दोनो वाने यथास्थित मानते हैं, तथा सनार-दा में बाह्य पौद्गलिक कर्मों के सम्बन्ध ने, इच्छा पादि पायो के प्रवीन - पराधीन बन कर भयंकर भवससार में भटकते हुए अपने श्रात्मा को उनमें से मुक्त करने के लिये जो विधिपूर्वक Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ ससार का त्याग करते है । उनका वैराग्य ही ज्ञानभित तथा सिद्धि का अनन्य साधन बनता है। अव साधु, बावा, सत, महत, ओझा, स्वामी आदि आज कल के वैरागो वर्ग की ओर दृष्टि फिराइए। इनमे से ऐसे कितने होगे जिन्होने ज्ञानगर्भित वैराग्य से प्रेरित होकर ससार का त्याग किया हो ? यहाँ आलोचना करने का हमारा आशय नही है । इसमे सदेह नही कि त्यागमार्ग उत्तम है । किसी भी त्यागी वैरागी को देख कर मस्तक अपने आप झुक जाता है । सर्व विरति मार्ग का पालन करने वाले जैन साधुओ तथा आत्मा की समस्त विश्व के साथ 'आत्मसमदर्शिता' के हेतु अपूर्व ध्यान धरने वाले वेदान्ती सन्यासियो के समागम से जानी हुई और देखी हुई उनकी त्यागभावना एव आत्माभिलापा के सामने सदा मस्तक झुकता ही रहा है । जैन साधु जो कठिन प्राचार पालते है उसे देखकर दुनिया भर के समझदार लोगो ने अाश्चर्य व्यक्त किया है । जैन साधुग्रो के प्राचार, उनको दिन चर्या, और उन्हे जिन मर्यादापो का पालन करना पडता है, उनका अध्ययन करने वाले किसी भी सज्जन को अवश्य इस बात को प्रतीति हो जाएगो कि''यह समार की सर्वोच्च साधु-सस्था है।" ___यहाँ यह वात कहने का उद्देश्य इतना ही है कि केवल ससार मे कुछ कठिनाइयो की परपरा देख कर उनका सामना करने की शक्ति के कारण ही वस्त्र वदल लेने मात्र से कोई अर्थ नही निकलता। साधुत्व का मार्ग तो अति कठिन है । समार की कठिनाइयाँ देख कर उनसे घबराने वाला व्यक्ति साधु वन कर कितनी प्रगति कर सकेगा, यह सोचने की बात Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । विशेषत संन्यस्त मार्ग ग्रहण करने के इच्छुक संसारी मित्रों को तो इस मार्ग पर कदम रखने के पहले आत्मवृत्तियो का पूरा पूरा विश्लेषण कर लेना चाहिए, और खुद को जो वैराग्य उत्पन्न हुआ है उसके कारणो का पूर्ण पृथक्करण करना चाहिए। इम जीवन को झझट मानने वालो की मान्यता मे अधिकतर तो ससार के झझट भरे झझावात नहीं, बल्कि मुसीवतो का मुकावला करने की अशक्ति, दुर्वलता आदि ही कारणभूत है । अपने कर्तव्य का पालन करने की अशक्ति, नित्यकर्म की उपासना के मार्ग मे अवरोध करने वाली विडवनाएँ और इन सव के प्रति मानसिक क्रोध हमें दूसरी दिगा के विचारो की ओर ले जाते हैं । इस प्रकार की विचारधाग मे पलायनवृत्ति escape tendency -होती है और यदि ऐसा ही है तो यह कोई सद्गुण नहीं है, यह आत्मा की दुर्वलता है। जब कि एक मात्र मानव भव मे ही सुलभ, सर्वथा निष्पाप जीवन जीने की इच्छा से ही यदि त्यागमार्ग की ओर अग्रसर हुअा जाय तो वह सच्ची जानदशा है। ___कई लोग जीवन मे प्राप्त करने की भौतिक सिद्धियो के विषय मे वडे बडे स्वप्न रखते हैं। वे इन स्वप्नो को सिद्ध नहीं कर सकते। जो चाहिये सो नहीं मिलता, जो मिलता है सो पसन्द नहीं आता। ऐसे लोगो को यदि जीवन झझट प्रतीत हो तो इसमे आश्चर्य ही क्या ? ____ जीवन मे सिद्धि प्राप्त करने के लिये सब से अधिक महत्त्व अपनी स्थिति, सयोग और शक्तिमर्यादा निश्चित करने का है । यह सब समझ लेने के बाद हमे यह निश्चित कर लेना Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ चाहिए कि विद्यमान साधन-सामग्री तथा गक्ति की सीमित उपलब्धता का आधार हमे कहाँ तक पहुँचा सकेगे। हमारे स्वप्नो की रचना इन सीमानो के भीतर होनी चाहिए। . अहमदाबाद से वम्बई जाने का टिकट पाँच रुपये के एक नोट मे नही मिलता । उसो तरह हमारे सजाये हुए स्वप्न भी आवश्यक सामग्री एव योग्यता के अभाव में सिद्ध नहीं होते। जव हम स्वप्नो की रचना करते हैं तव उनकी सिद्धि की कल्पना से हमे जो आनन्द होता है, वह भ्रान्ति सावित होने पर-अभीष्ट ध्येय की प्राप्ति न होने पर हमारा प्रारभ का आनद असीम दु ख मे परिणत हो जाता है। हमारे अवास्तविक स्वप्न ही हमारे असीम दुख के कारण बन जाते है। ___अतएव, जीवन का ध्येय निश्चित करते समय सर्व-प्रथम हमे अपनी योग्यता और अपने साधनो की सीमाओ का निश्चय कर लेना चाहिए। यदि हमारी अभिलापा और हमारी क्षमता मे मेल न बैठता हो तो उससे निराग होने की आवश्यकता नही है । ऐसी परिस्थिति मे हम 'दो वातें' अवश्य कर सकते हैं। __एक तो यह कि हम अपने ध्येय को अपनी क्षमतानुसार सीमित रखे, दूसरे अपनी योग्यता वढाने मे प्रयत्नशील हो । ज्यो ज्यो हमारी क्षमता में वृद्धि हो त्यो त्यो हम अपने ध्येय का भी विस्तार करते जायें। इस पद्धति का अवलम्बन कर यदि हम अपने जीवन का ध्येय तथा उस ध्येय तक पहुंचने का मार्ग निर्धारित करे तो जीवन एक झझट के समान नहीं वल्कि परम-यानन्द प्रमोदकारी नन्दनवन के समान बन जाएगा । हमारे जीवन को इस प्रकार की रचना मे 'स्याद्वाद' Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ हमे बहुत सहायता दे सकता है । इस शब्द का आत्मा जो 'स्यात्' है, वह हमारे जीवन के, हमारी शक्ति के एव हमारी योग्यता - योग्यता की सीमा के सभी पहलुओ का भान कराता है, और हमे क्रमश ग्रागे वढने का मार्ग दिखाता है । यह श'क्त 'स्यादवाद' मे ही है । जीवन मे जब दु.ख आ पडे तव उसमे घबरा कर रोने नही लगना चाहिए | सर्व प्रथम तो हमे इस बात की जाँच करनी चाहिए कि जीवन मे इस दुख के सामने हमारे पास अन्य सुख कितने पडे है । इससे हमे प्राये हुए दुख मे एक प्रवल ग्राश्वासन ग्रवश्य मिलेगा । उसके वाद हमे अपनी विवेक बुद्धि को यह जानने के लिए उपयोग मे लेना चाहिए कि वह दुख क्या है, उसका स्वरूप कैसा है, उसका कारण क्या है, और उसको दूर करने का उपाय क्या है ? दु.ख के सामने के सुखो का विचार हमारे मन को शान्त र सुव्यवस्थित करेगा और इस तरह शान्त वने हुए चित्त से अपनी विवेक बुद्धि से काम लेकर यदि हम विचार करने लगेगे तो होगा कि आये हुए या माने हुए उस दुख की छाया दूर की जा सकती है। दुग्व के पीछे सुख रहा ही हुआ है । इस प्रकार विचार करने से हम दुख के कारणो को ग्रवश्य जान सकेगे । जानने के बाद उन्हें दूर करने का पुरुषार्थं हम उत्साहपूर्वक कर सकेगे । 'स्यादवाद' के द्वारा हमे यह सब समझने और विचार करने का मार्ग अवश्य प्राप्त होगा । हमे स्पष्ट प्रतोत इसी प्रकार जब जीवन मे अतिशय सुख या पड़े तब 'यह सुख क्या है, कहाँ से आया, कैसे प्राया, उसका कारण क्या हैं, इसकी कालावधि कितनी रहेगी, उसके बीच अन्य कोई Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० विडम्बनाएँ या पडेगी या नहीं, इन सब बातो का भी हमे विचार करना ही चाहिए। इस प्रकार विचार करने से उसके दो परिणाम निकलगे। ___ एक तो यह कि मिले हुए मुख से उन्मत्त होने के बदले हम उसका विवेक-पूर्वक उपभोग कर सकेगे। दूसरा यह कि हम इस मुख के बाद पाने वाले दुख को या तो दूर हटा सकेगे या उसे हँसते-हँसते झेलने के लिए अपने आपको कटिबद्ध कर सकेगे। इसके अतिरिक्त हमारे भीतर अपने सुख मे से दूसरे को हिस्मा देने को परम उपकारक वृत्ति भी उत्पन्न होगी। इस प्रकार से विचार करने की राह भी हमे 'स्याद्वाद' मे से मिलेगी। ___ कई बार हम परिवार के लोगो, मित्रो तथा स्नेही जनो के वर्ताव से रज का अनुभव करते है, उदास हो जाते हैं । उस समय यदि हम उनकी और अपनी धारणा के अन्तर की जाँच करे, उक्त स्थिति उत्पन्न होने के कारणो की खोज करे, और उन्हें दूर करने के उपाय सोचे तो हम मतभेद की इस मनोव्यथा से मुक्त हो सकते हैं। ऐसा विचार करने का मार्ग भी हमे 'स्याद्वाद', बतलाता है । ___'स्याद्वाद' सिद्धान्त का स्थापित अर्थ यह है कि किसी भी वस्तु या विपय के एक से अधिक पहलू होते है । 'स्याद्वाद' को शिक्षा का मध्य बिन्दु यह है कि किसी भी वात पर विचार करते समय उस एक ही पहलू पर सोच कर रुक जाना नही चाहिए। एक के बदले दो पहलुओ का विचार करने के विषय मे एक बडा सुन्दर दृष्टान्त है । यह दृष्टान्त वडे मनोरजन के साथ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६१ साथ गंभीर जान देने वाला है - द्वितीय विश्वयुद्ध के अरसे मे सेना में भर्ती करने के काम के लिये एक कुशल अग्नेज अधिकारी नियुक्त किया गया। Reculiting officer भर्ती अधिकारो कहलाने वाले ये महाशय गांव गांव घूम कर वहां के युवक वर्ग को एकत्रित कर सेना मे भर्ती होने के लिए भाषण देते थे। उन्होने एक स्थान पर जो भापण दिया उसका थोडा सा उपयोगी और मनोरजक भाग नीचे दिया जाता है - "नाम लिखा दो, फौज मे भर्ती हो जायो। किसी भी चिन्ता का कोई कारण नही है । "तुम फौज में भर्ती हो जायोगे तो 'दो वाते' होगी। या तो तुम्हे यहाँ छावनी मे रखा जायगा, या युद्ध के मोर्चे पर भेजा जायगा। "यदि यहाँ की छावनी में रखा जाय तो कोई चिन्ता नही है-No worry. यदि युद्ध के मोर्चे पर जाना पडे तो 'दो बाते' होगो - "या तो तुम्हे पीछे-Rear-रखा जायगा या आगेFront--रखा जायगा। यदि पीछे रखा जाय तो फिकर नही-No worlv-यदि आगे रखा जाय तो 'दो बाते'होगी "या तो तुम शत्रु पर हमला करोगे या शत्रु तुम पर हमला करेगा। यदि तुम हमला करोगे तो कोई चिन्ता की बात नहीं है.--No worry यदि शत्रु तुम पर अाक्रमण करे तो 'दो बाते' होगी "या तो तुम कैद किये जानोगे या घायल हो जाओगे । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ यदि कैद हुए तो 'नो वरी' ( चिन्ता नही ) यदि घायल हुए तो 'दो बाते होगी। । (यह दो वातो वाला विवरण बहुत लम्बा है, अतः उसे सक्षिप्त कर हम यहाँ अन्तिम भाग प्रस्तुत करते है । ) ___ दो वाते होगी। या तो तुम जिन्दा रहोगे या मर जायोगे । जीवित रहे तो 'नो वरी ।' मर गये तो 'दो वाते' होगी। ___"या तो तुम स्वर्ग मे जानोगे या नरक मे । यदि स्वर्ग मे गये तो 'नो वरी'। __ इस दृष्टान्त के आखिर मे नरक मे जाने का और वहाँ बहुत से मित्रो से मिलने का जो उल्लेख है उसमे वर्तमान जीवन पर वडा भारी व्यग्य है। इसके द्वारा उक्त अग्रेज अधिकारी यह कहना चाहते है कि हम में से अधिकाश लोग जिस प्रकार का जीवन जीते है उससे नरक के अधिकारी है । 'अधिकाश लोग नरक मे जाते है' इस व्यग्य को छोड़ भी दे तो भी 'दो तरह से विचार करने का सुझाव तो सारे चुटकले मे है ही। केवल दो नही, बल्कि जितने हो सके और जितने मिल सके उतने सभी पहलुनो से विचार करने की आदत डालने मे लाभ ही है। 'स्याद्वाद' हमे इस प्रकार से विचार करना सिखाता है। इस प्रकार यदि हम स्याद्वाद पद्धति का विवेकपूर्वक उपयोग करेगे तो हमे ज्ञात होगा कि जीवन मे दीख पड़ने वाली विषमतामो तथा झझटो और उनके विपरीत हमे मिलने वाले सुखो तथा आनन्दो का केन्द्रस्थान हम स्वय ही है । ये सवेदन हमारे भीतर से ही आते है, बाहर से नही । अपनी Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छा के अनुसार सवेदन पैदा करना हमारे हाथ की बात है। 'स्याद्वाद' का सिद्धान्त हमे यह भी समझाता है। ___'स्याद्वाद' सिद्धान्त का अनुसरण करके हम ज्यो ज्यो उसे पचाते जाएँ त्यो त्यो सुख और दुख-दोनो प्रकार के परस्पर विरोधी सवेदनो पर हमारा काबू हो जायगा । समता, समभाव तथा सहिप्णुता अपने आप हमारे भीतर प्रकट होते जायेगे। हम क्षणिक सुख दुख की जकड से धीरे धीरे मुक्त हो कर अनन्त आनन्द के भोक्ता बन सकेगे। इस आनन्द मे भी हमे स्व एवं पर का कल्याण करने की उदात्त भावना ही देखने को मिलेगी । 'स्यावाद' के विना ऐसा परम कल्याणकारी परिस्थिति का सूनन कभी नही हो सकता। स्याद्वाद हमे अन्याय या अनीति को सहन करने या चला लेने की शिक्षा नहीं देता। जहाँ जरूरत हो वहाँ लड़ लेने को भी वह मना नहीं करता। परन्तु ऐसी परिस्थिति मे जिसे हम अन्याय एवं अनीति मानते है वह सचमुच अन्याय या अनीति है या हमे अपने स्वार्थ एव मोह के कारण ऐसा यथार्थ दिखाई देता है इस बात की स्पष्ट प्रतीति हमे स्यावाद कराएगा। फिर जव लड लेने की न्याययुक्त आवश्यकता होगी तब स्यावाद ही हमे लड़ने की न्याय-सगत बुद्धियुक्त एवं समभावपूर्ण पद्धति वताएगा। इस मार्ग पर हमारी सफलता एव विजय निश्चित है। , इस संसार मे सद्गुणो का जो समूह है उम सारे को हम कर्म की विचित्रता तथा उसके कारण आत्मा से चिपकी हुई अशुद्धता के कारण धारण नहीं कर सकते। सद्विचारो का सान्निध्य एव ज्ञान होते हुए भी हम असद् विचार तथा Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ अयोग्य कार्य करते ही रहते है। हमारी इच्छा न होते हुए भी केवल परिस्थितिवश हमारे हाथो दुष्कर्म हो जाते है । समस्त ससार की यह स्थिति है। इसी तरह कुछ सत्कार्य हमारी इच्छा के विरुद्ध भी हो जाते है । हम किसी प्रकार की यथार्थ जानकारी के बिना ही अच्छे कार्य भी करते है । प्रभु के दर्शन करके मन्दिर से बाहर निकलते समय रास्ते के दोनो ओर बैठे हुए भिखारियो को हम कभी कभी पाई-पैसा या लड्डू, चना भी बांट देते है, तो कभी कभी रास्ते में मिलने वाले किसी भिखारी पर क्रोध भी करते है । जगह जगह ऐसा देखने को मिलता है। हमारे सभी कार्यों की पृष्ठ-भूमि मे कोई सुस्पष्ट विचार नहीं होता । हम रूढि, परपरा, स्वभाव, आदत एव परिस्थिति के अधीन हो कर अधिकाश बर्ताव करते है। हम इस बात का विचार करने भी नहीं सकते कि हमारे हाथो जो हुआ है सो भला है या बुरा, खरा है या खोटा । अपने किसी कार्य के कारण बाद मे चलकर कोई कठिनाई पैदा होने पर विचार करने के लिए हम भले रुकते हो पर इस तरह रुकने का कारण हमारे हाथो हुए दुष्कृत्य का पञ्चात्ताप कदाचित् ही होता है, अधिकतर तो हम इस विपय का ही विचार करते है कि उपस्थित परिस्थिति मे से कैसे मार्ग निकाला जाय ? उसमे से छुटकारा कैसे हो ? अजीब बात तो यह है कि इन विचारो के फलस्वरूप हम एक दुष्कृत्य के परिणाम से छूटने के लिए पुन दूसरे दुष्कृत्यो को अपनाने लगते है। हमे इस बात का खयाल नहीं होता कि अपने हाथ पैरो मे पड़ी हुई बेडियाँ तोड़ने के लिए हम जो मार्ग ग्रहण करते है उससे Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५ आखिर हाथ पैरो मे से निकली हुई वेडियाँ फिर हमारे ही गले में पड़ने वाली हैं। यह सब भी इस संसार में सामान्यतया देखने को मिलता है। असली मजा तो तब आता है जब हम किसी विषम परिथिति में फंस जाते हैं । यदि कोई पूछे-"अरे चन्दु, यह तूने क्या किया ।" तब चन्दु जवाब देगा, "नही, मैने नही किया। स्थिति ही ऐसी थी, सयोग इस प्रकार के थे, परिस्थिति वैमी थी, फला आदमी बीच मे आया और फला आदमी इसमे विघ्न बना । यो हुआ और त्यो हुआ ।" ऐसी बहुत सी अप्रस्तुत बाते कह कर आखिर चन्दु कहेगा कि, "मै इसके लिए जिम्मेदार नही हूँ।" चन्दु जो बात करता है ऐसी बात वह अकेला ही करता है, ऐसा न माने । अधिकाश लोग इसी प्रकार की बाते किया करते है । अपनी कठिनाइयो तथा उपाधियो की जिम्मेदारी का टोकरा दूसरो के सिर पर रख देने की मनोवृत्ति सर्व-सामान्य है। इसके अपवाद थोडे ही होते है । ____ जीवन मे ऐसे अनेक झझटो का अनुभव होने का मुख्य कारण यह है कि हमे जीवन का, जीवन के उद्देश्य का, जीवन जीने की पद्धति का सुस्पष्ट ज्ञान नहीं होता। यदि हमे यह ज्ञान हो जाय तो फिर यह जीवन एक झझट न रहे । यदि हम यह जान प्राप्त कर ले तो जीवन स्वर्ग बन जाय । यह जानना बहुत आनन्ददायक होगा कि इस विषय मे जैन दार्शनिको ने कौन सा मार्ग वताया है । आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा-इन पाँच इन्द्रियो Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ से मनुष्य का मन काम करता है। इन पाँचो मे से यदि एक इन्द्रिय भी काम न करती हो तो ऐसे शरीर को 'खडित अंग' कहते है । शरीर के ये पाँच मुख्य अग है। ससारी आत्मायो के लिए पाँच मुख्य आचार वताये गये है।। इन पाँच आचारो के नाम निम्नानुसार है,१) अहिंसा २) सत्य ३) अस्तेय ४) ब्रह्मचर्य ५) अपरिग्रह इन पाँचो पर पाँच अलग-अलग ग्रन्थो की रचना हो सकती है, ये सिद्धान्त इतने महान्, अर्थगभीर तथा परम कल्याणकारी है। ये पांचो आचार अच्छा जीवन जीने के राजमार्ग (High ways) है । जब हम मोटर मे बैठकर वाहर जाते है तव मोटर को सड़क पर ही चलाते है । यदि हम सड़क के एक ओर या दूसरी ओर नीचे उतर जॉय तो अवश्य दुर्घटना हो जाती है । इसी तरह जीवन जीने के लिए यदि हम इन पाँच पाचाररूपी सडक पर ही चले तो कोई झझट उपस्थित नही होता । यदि हम उसके बाहर निकल जाँय तो अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित होती है। ___'अहिंसा' शब्द का अर्थ मात्र मानव को हिसा न करने तक या मात्र काया से जीव हिंसा न करने तक सीमित नहीं है। हमारे किसी भी विचार, वचन या कार्य से किसी को दुख पहुंचे तो उसे भी हिंसा माना जाता है। किसी भी स्थूल Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ या सूक्ष्म प्राणी के शरीर को पीडा या दुख हो तो वह तो हिसा है ही, अपितु किसी के मन को जरा सा दुख पहुँचे ऐसे तभी कर्म भी हिसा मे समाविष्ट है । फिर वे काया से हो, वचन से हो, चाहे विचारो से हुए हो । कर्म के सम्वन्ध मे 'मनसा, वाचा, कर्मरणा' इन तीनो प्रकारो का समावेश हो जाता है । मन, वचन या काया से होने वाले सभी कार्य (कर्म) आत्मा के लिए बन्धन पैदा करते है | आज 'अहिंसा' शब्द तो विश्वव्यापक ( Universal ) समझ का विषय है । पहले के २३ तीर्थकरो द्वारा एव चौबीसवे तीर्थकर भगवान् श्री महावीर स्वामी और भगवान् बुद्ध द्वारा प्रवहमान रखे हुए इस शब्द का मानव अहिसा का राजनीति मे एव समाज - जीवन मे व्यापक उपयोग करने का भगीरथ पुरुषार्थ करके स्वर्गीय महात्मा गाँधी ने दुनिया के सभी लोगो को 'अहिंसा' शब्द से परिचित वना दिया है। फिर भी अहिसा का बहुत स्थूल अर्थ ही दुनिया के वडे हिस्से तक पहुँच पाया है । पर अर्थात् अन्य मानव को दुख पहुंचाने वाला कोई कार्य नही करना, यही अहिसा है, ऐसा सीमित अर्थ ही अधिकाश लोग समझते है । परन्तु जिस कार्य से पशु पक्षी, यहाँ तक कि किसी भी सूक्ष्म जीव को भी दुख हो, और 'स्व' अर्थात् हमारा अपना ग्रहित हो, वह कार्य करना भी हिसा है । ग्रहिसा का ऐसा पारमार्थिक अर्थ अभी तक अधिक लोग समझे हो ऐसा नही मालूम होता । अहिसा के सच्चे अर्थ मे तो मनुष्य ही नहीं, अपितु पशुपक्षी, कोडे-मकोडे आदि निराधार जीवो की हिंसा भी वर्ज्य Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ हैं, क्यो कि उनकी हिंसा करने से भी हमारा हृदय कठोर तथा क्रूर बनता है । ऐसे हृदय में सात्त्विक भावो का उदय नही हो सकता । श्रत आजकल 'परहिसा' के विषय मे विश्व के छोटे बडे जीवों में से केवल मानव तक सीमित श्रर्थ जो प्रचलित है वह तो अत्यन्त अपूर्ण है । जब कि 'स्वहिंसा' शब्द का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने का कार्य तो अभी तक लगभग सारा बाकी है। यहाँ 'हमारा हित' यह शब्दावलि भौतिक या स्वार्थी अर्थ में प्रयुक्त नही है । यह तो निश्चित ही है कि हमसे जो कुछ पर अहित होता है, उससे हमारा अपना भी ग्राखिर तो ग्रहित ही होता है । ध्यान से देखने पर मालूम होगा कि आजकल 'परहित' करने का जो व्यापक अर्थ है उसके पीछे 'स्वहित' का वास्तविक विचार नही होता । हमारे प्रत्येक कार्य से जो कर्मबंधन होता है, उसका सामान्यतया 'स्व' को अपेक्षा से बहुत कम विचार किया जाता है । इसका फल यह हुआ है कि 'स्व' और 'पर' अलग अलग विषय बन गये है । अपने हित के लिए चाहे जैसा आचरण करके उसके बाद यदि संभव हो तो 'पर' - हित का विचार कर लेने की मनोवृत्त व्यापक बन गई है । इसका कारण यह है कि हमने ग्रहिसा का 'पर' स्वरूप समझा है, स्व-स्वरूप नही समझा । हमारे जो जो कार्य दूसरो के लिए कष्टदायक हो वे सबउनसे हमे जो कर्मबन्धन होता है उसके कारण हमे भी आगे पीछे कभी न कभी दुखदायक होगे। इस बात का ज्ञान न होने के कारण ही हम अहिसा का स्वलक्षी स्वरूप नही समझ सके हैं । इस ज्ञान के प्रभाव के कारण हम 'विश्वकल्याण' की Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 358 को बान करते : उनमें से हमारी अपनी बात को अर्थात् मानाने पानविन एनागिर नयाग भी बात को खोकर गन्ने नागारे निजी स्वार्थ की कोई यान गानी नबा परमाग को भूलकार गे जमा अनुहार विधानमा प्रनील तो बना व्यवहार कर लेते है। ____ और पर'-रिमाणे दोनो साप परम्पर जले न दोनो को ग पार अन्धा जीवन जीने ना विचार करना होगमार है। 'पर' को अलग करके 'स्व' दिनार नही हो सकता । इगो नर म्ब' को पृथक करके "पर' 1 पिचार भी एकानत हानिकारक है ।। पर बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए । उदाहरगाध -मुनीवन में पाने हए एन पधे मुसाफिर को हम सीधे गन्ने पर-राजमार्ग पहुँचाना चाहते है। गांव के बाहर मीधी गल पर ने जाकर उसके बाद कुछ मोट पार कर उमे राजमार्ग पर पहेनाना है। गांव में बाहर पहुंचने पर हमे विचार आता है कि अब गाँव से बाहर तो निकल पाये, आगे जाने तन गयो उठाएं ? यह सोचकर हम उन अये मुसाफिर से माहते है___"गाई, अब लकी के सहारे चले चलो । दाहिनी ओर दो जगह मोउ पाएँगे । इसके बाद दो जगह बाई ओर मोड मागे । इसके बाद एक बार दाहिनी ओर मुडने के बाद मुन्य गम्ना-राजमार्ग प्रा जाएगा । मीधे चले जाना।" उस अधे मुमाफिर को हम इतनी सूचना देते है। वह भला आदमी इतनी दूर तक पहुँचाने के लिये हमे धन्यवाद Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० देकर लकडी ठोकता ठोकता आगे बढता है। हम गाँव और घर की ओर लौटते है। ___ वह मुसाफिर तो चला जायगा, परन्तु हमारे हृदय मे एक कसक जरूर रह जाएगी कि 'उसे राजमार्ग तक पहुंचाया होता तो अच्छा होता।' यह कसक रह जाय तो फिर भी ठोक है, परन्तु यदि हमारे हृदय मे ऐसा कोई भाव जाग्रत ही न हो तो उमसे लापरवाही के कारण हमारा अपना भी अहित होगा क्योकि वहाँ हम दया भाव के साथ साथ कर्तव्य मे भी चुके है। इसी तरह जब जब हम अपने कर्तव्य से चूकते है तब तब उससे दूसरे का नुकसान भले न भी होता हो, हम अपना तो अहित ही करते है । यहाँ हमे 'स्व' और 'पर' का अन्तर समझ मे आएगा । 'कानून की परिभापा मे Ignorance of law is no excuse 'कानून का अजान कोई वहाना-~क्षम्य कारणनहीं है । हमारी कानून की दलील वहाँ नही चलती। परिणाम भोगना ही पड़ता है। उसी तरह कर्म और आत्मा के नियम भी दृढ है । हम अनजान मे भी जो अपराध करते है उसका फल अवश्य मिलता है । हेतु के अस्तित्व पर, अनस्तित्व पर, मन्दता या तोव्रता पर उसके परिणाम के न्यूनाधिक प्रमाण का आधार रहता है, इतना जरुर है । इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि जब जब हम अधर्म य अनिच्छनोय आचरण करते है, तब उसके द्वारा हमारे अपने ऊपर जिसका प्रभाव पडे ऐसा हिंसात्मक कार्य ही हमारे हाथो होता है। हमे रास्ते मे कोई अच्छी कहानी की किताब मिली। किसी की गिर पडी थी हमने ले ली। इसके बाद वह पुस्तक Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७१ उसके मालिक को वापस मिल जाय ऐसा प्रयत्न हमे करना ही चाहिये । यदि न करे तो परायी वस्तु उठाकर हम अपना ही अहित करते है। 'स्व' और 'पर' हिमा का यह सारा विषय भली भांति समझने योग्य है। इसकी जानकारी जैन साहित्य मे मिलेगो । खास कर 'जीवविचार' 'नवतत्त्व' और 'कर्मग्रन्थ' पढ लेने से बहुत लाभ होगा। इस प्रकार हम देखते है कि पूर्णतया 'अहिसक' जीवन व्यतीत करने मे प्रयत्नशील रहना ही जीवन को नीव मे से मुन्दर बनाने का प्रथम उपाय है । दूसरी बात सत्य मे सम्बन्धित है । सत्य का अर्थ है, असत्य या अयोग्य कथन या विचार न करना । असत्य मे भी हिंसा की बात आती है। हमारे असत्य वचन अथवा असत्य आचरण से किसी अन्य को दुख अवश्य होगा। यह तो हुई परहिंसा ओर इसमे हमे जो कर्मवन्धन होगा वह है स्वहिसा।' 'अस्तेय' अर्थात् चोरी न करना। यह 'चोरी' शब्द कानूनी भाषा मे जिसे 'चोगे' कहते है, उसी तक सीमित नहीं है। इसका विरोप अर्थ यह कि, जो हमारा नहीं है, न्यायपूर्वक हमारा नही है, उसे स्वीकार न करना । जो न्यायपूर्वक हमारे अधिकार का हो उसके अतिरिक्त कुछ भी लेना 'स्तेय' (चोरी) माना गया है। यहा भी हिसा-अहिंसा की बात आती है। दूसरे के हक का लेने मे दूसरे को जो दुख पहुँचता है मो हिमा-परहिमा । इस प्रकार लेने मे हमे जो कर्मबन्धन होता है मो 'स्वहिमा' है ! _ 'ब्रह्मचर्य' शब्द का अर्थ तो बहुत विशाल है । इस आचार का पालन ससारी मनुष्यो के लिये सभव नहीं है। परन्तु Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ व्यवहार मे इसे दो प्रकार से लागू किया गया है । एक तो परस्त्री के प्रति कुदृष्टि या कुविचार न करना, क्योकि विचारो से सेवन किया जाने वाला श्रब्रह्मचर्य भी हानिकारक तथा सर्वथा वर्ज्य है । दूसरा, स्वपत्नी के साथ अपने व्यवहार मे भी ब्रह्मचर्य का सेवन सीमित रखना । इम कलियुग मे जो लोग परस्त्री को माता तुल्य गिनते हैं, और पत्नी के साथ ब्रह्मसेवन को सीमित रखते है, वे महानुभाव भी एक प्रकार के ब्रह्मचारी ही है । मन, वचन और काया- इन तीनो पर कुश श्रावश्यक माने गये हैं । मन से परस्त्री के विषय में अयोग्य विचार करना भी एक महा-अह्मचर्य है । यहाँ भी उपर्युक्त 'स्व' तथा 'पर' हिंसा की बात तो ग्राती है । यह वात ग्रासानी से समझी जा सकती है । पाचवा जो अपरिग्रह का याचार बताया गया है, वह तो बहुत बड़ी समझने योग्य और ग्रवत्र्य पालन करने योग्य वात है | इसका सीधा सावा अर्थ है- धानी आवश्यकता से अधिक संग्रह न करना ।' इसमे ग्रावश्यकता शब्द वडे महत्त्व का है । गुजराती मे एक लोकोक्ति है जिसका अर्थ है, - "चीटी को कन और हाथी को मन ।" (कीडीने करण ने हाथीने मरण ) मनुष्य को कितना अपने पास रखना चाहिये और कितना नहीं, इसका भी स्पष्ट मार्गदर्शन शास्त्रकारो ने किया है । फिर भी प्रत्येक मनुष्य को अपना ग्रावश्यकताओ की सीमा स्वय विवेकपूर्वक निर्धारित करके उससे अधिक जो कुछ मिले, सो या तो लेना ही नही चाहिये या उसका सदुपयोग करना चाहिये । दूसरो के लिये- जिन्हे उनकी आवश्यकता हो उनके लिये उसका उपयोग करना चाहिये । ऐसा करने से ग्रपरिग्रह के Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७३ आचार का अशत पालन अवश्य होता है | अपरिग्रह के विषय मे जैन शास्त्रकारो ने जो कहा है वह बहुत ही ध्यान देने योग्य है । आज इस भौतिक जगत् में हमारे चारो ओर जो सामाजिक तथा राजनैतिक दुर्दशा दिखाई पडती है उसके लिये इस (अपरिग्रह के ) आचार का अभाव भी जिम्मेदार है । धनवान तथा गरीब वर्ग के बीच करुण असमानता और धनवानो एव सत्ताधारियो की शोषरणनीति देखकर कार्ल मार्क्स नामक जर्मन विचारक ने एक नये प्रकार का अर्थशास्त्र लिखा । उसमे से प्रेरणा प्राप्त कर लेनिन ने रूस मे एक जबरदस्त क्रान्ति उपस्थिति की । उसमे से साम्यवाद तथा समाजवाद के नाम से परिचित विचारधाराओ का उद्भव हुआ | उसमे से रक्तमय ( हिंसक ) क्रान्तियाँ हुई । कार्ल मार्क्स तथा उसके समान अन्य विचारको को ऐसे विचार क्यो सूझे ? हजारो-लाखो वर्षो पहले जैन समाज - शास्त्रियो ने अपरिग्रह का जो अर्थशास्त्र बनाया था यदि विश्व भर में उसका पालन हुआ होता तो द्वेष, विद्वेप, तिरस्कार, मारकाट, और व्यापक हत्या से पूर्ण घटनाएँ विश्व मे न होती । विना हक के जो छीन कर लिया गया था और संग्रह किया गया था वह उसी प्रकार छिन गया । वहाँ कर्मसिद्धान्त अपना काम तो कर गया । परन्तु कार्ल मार्क्स, लेनिन, स्टेलिन, चाऊ एन लाइ, आदि साम्यवादियों द्वारा अपनाई गई विचारधाराएँ तथा कार्यप्रणालियाँ भी विघातक ही है, क्योकि इनके पीछे अहिसा की कोई भावना नही है । खूब हिंसा और द्वेष की मात्रा तथा परमात्मा एव धर्म मे Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ श्रद्धा इस विचारधारा की पृष्टभूमि है। इससे अन्ततोगत्वा मानवजाति का भयानक हित ही होने वाला है । यह बात बहुत ध्यान देने योग्य है । आज का जीवनस्तर श्रत्यन्त खर्चीला बन गया है । सादगी का स्थान ठाटवाट ने ले लिया है । नम्रता का स्थान ग्रहता ने लिया है, विवेक के स्थान पर बडप्पन और ग्राडम्बर ग्रा वैठे है । सब को और और अधिक की जरूरत है । इस 'अधिक' के पीछे दूसरो से विशेष ' का भाव छिपा हुआ है । फलत स्वार्थ केवल स्वार्थ-के सिवा दूसरा कुछ नही दिखाई देता । आज अपरिग्रह की विश्व-कल्याणकारी भावना की छाया भी नही दिखाई देती । यह सब हमे कहाँ ले जाएगा १ शोषको की हिसा के विरुद्ध साम्यवादियो की हिसा आई । हिसा तो वनी ही रही । हिंसा से हिसा का नाश कभी नही हो सकेगा, फिर चाहे वह साम्यवाद - छाप हिसा या लोकशासन छाप हिसा । हिसा से हिंसा नही मिटती, हिंसा से दुख खत्म नही होता, हिसा से सुख प्रकट हो हो नही सकता । यह तो एक बडा विपचक (Vicious circle ) है । अपरिग्रह का प्रभाव इसके मूल मे है । मानव जाति सुख और शान्ति चाहती है । इसका असली और सफल उपाय अपरिग्रह के पालन तथा सादगी मे सन्तोष मानने मे है । विश्व के इतिहास मे जो अनेक युद्ध हुए है उनके मूल मे परिग्रह की लालसा ही रही है । दुनियाँ को आज - सर्वदा - शान्ति चाहिए। शान्ति की स्थापना और उसकी रक्षा का सही उपाय क्या है ? सैनिक बल ? Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७५ यदि युद्ध से शान्ति और सुख प्राप्त प्रथम युद्ध के बाद युद्धों को परपरा भयकर बनाने के लिए उपस्थित न नही, नही, नही होते हो तो विश्व के इतिहास के पृष्ठो को होती । आज जो परिस्थिति है वह तो वहती हुई स्थिति है | सभवत रूस, अमेरिका तथा अन्य देशो के एकत्र किये हुए सहार के साधन काम मे जाएँगे। एक महा विनाश की सृष्टि कर जाएँगे । उसके वाद ? बाद में क्या होगा ? यह वात यदि आज ही समझ मे ग्राजाय तो मानव-जाति महाविनाश से बच जाय । यदि न समझा गया तो ऐसे विनाश की परम्परा जारी रहेगी । वैर से वेर शान्त नही होता । असत्याचरण से शान्ति स्थापित नही हो सकती । चोरी से सस्कार नहीं वनाये जा सकते । ब्रह्मचर्य से कभी सन्तोष होता ही नही । परिग्रह से कभी सुख नही मिलता । हिसा से कभी हिसा शान्त नही होती । आज विश्व मे चारो ओर दृष्टि डाले तो हृदय में एक आघातजनक करुरण भाव पैदा होता है । विचार आता है कि कही हम किसी वडे पागलखाने मे तो नही वस रहे हैं ? किसी स्थान पर ग्राग लगने पर उसे बुझाने के लिए हम पानी लेकर दौडते है । इसके वदले यदि हम घासलेट, पेट्रोल, पटाखे, तथा अन्य स्फोटक पदार्थ लेकर दौडे तो नतीजा क्या हो ? आज दुनियाँ में कुछ ऐसा ही हो रहा है । श्राज की राजनीति तथा अर्थनीति युद्ध को रोकने के लिए युद्ध के घोर विनाशक शस्त्र बनाने के पीछे दौड़ रही है -- श्राखे मूंद कर Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ दौड रही है। क्या यह सब पेट्रोल आदि स्फोटक पदार्थ लेकर आग बुझाने को जाते हुए पागल आदमी का सा व्यवहार नहीं मालूम होता? ___ आत्मा की मुक्ति की बात तो बहुत बड़ी है। यहाँ तो हम केवल भौतिक सुख की ही बात कर रहे है । जैन तीर्थकर भगवन्तो ने गृहस्थो-समारी मनुष्यो के पालन करने के जो पाँच आचार बताये है, उन्हे पालन किये विना मनुष्य जाति के लिए कोई चारा नहीं दिखाई देता-कोई उद्धार नही दिखाई देता । यदि इन पाँचो आचारो का पालन होने लगे तो युद्ध की आवश्यकता ही न रहे। परमाणु बम की आवश्यकता न रहे, और सेना की भी आवश्यकता न रहे । इस बात पर पूर्ण गभीरता से विचार कीजियेगा। ये पाँचो पालने योग्य अक्षत सिद्धान्त है। ये सब एक दूसरे से जुड़े हुए है । एक को छोडो तो दूसरा छूटने लगेगा एक को पकडने से दूसरा खिच कर आएगा। इनका अनुक्रम ऊपर से ले चाहे नीचे से, ये पाँचो सिद्धान्त अविभक्त एव एक है। पहले ऊपर से लेते है। हिसा छोडिए । फिर असत्य आचरण अपने आप छूटेगा । असत्य आचरण छूटने से चोरी छूट जाएगी । चोरी छूटने से अब्रह्म का आधार चला जाने से वह भी जाएगा । और यदि अब्रह्म छूट गया तो परिग्रह भी छूटेगा ही। अव नीचे से लेते है । परिग्रह छोडिये । इस कारण उत्पन्न होने वाली सादगी के कारण अब्रह्म के प्रति भी अरुचि होगी ही। अब्रह्म छूटने से चौर कर्म को अवकाश ही नही Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७७ रहेगा। चोर कर्म जाने से असत्य की आवश्यकता ही मिट गई । इतना होने पर पूर्ण अहिसा प्रकट होगी ही। ___ अव उलटी वस्तुओ का क्रम लीजिए । हिसा करो, तो फिर झूठ तो पाएगा ही । झूठ के आने से अनधिकार की वस्तु हस्तगत करने के प्रति अरुचि न रह कर इच्छा प्रकट होगो । उसमे से अब्रह्म भी प्रकट होगा। और तब परिग्रह की तो कोई सीमा ही न रहेगी। ___ परिग्रह वढाने लगो तो उससे अब्रह्मचर्य पाएगा ही। फिर अनधिकार की वस्तु प्राप्त करने का उत्साह भी आएगा। इसके आने पर असत्य के विना चारा ही नहीं रहेगा । ये सब इकट्ठे होकर जिस महा अनर्थ का सृजन करेगे उसके परिणाम मे हिमा ही होगी। जो बात विश्व के लिए सही है वही व्यक्ति के लिए भी सही है। हम विश्व से भिन्न नही है । एक मनुष्य, इका, दुक्का मनुष्य भी यदि इन पाँचो आचारो का पालन करने लगे--कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर की प्रसिद्ध काव्यपक्ति (एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे, तोमार डाक शुनि कोई ना आशे तो एकला चलो रे) के अनुसार एक ही मनुष्य निश्चयपूर्वक इन पाँचो आचारो का पालन करने लगे तो उसके आस-पास चारो तरफ उसकी सौरभ जरूर फैलेगी। अन्य लोग विपरीत व्यवहार करते हो तो भी प्रत्येक समझदार मनुष्य को इन पाँचो प्राचारो का सपूर्णत पालन न हो सके तो-अगत पालन करने से प्रारभ करना ही चाहिए। क्योकि इसमे व्यक्ति का हित तो है ही, समस्त विश्व के कल्याण का १ तुम्हारी पुकार सुन कोई न आवे तो तुम अकेले ही चलो-अनुवादक । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ३७८ बीज भी इसी मे है । रूप और अमेरिका अपनी भौतिक वैज्ञानिक सिद्धियो का प्रदर्शन करके एक दूसरे को भयभीत कर सकते है परन्तु इसमे से जो प्रकट होगा वह विस्फोट ही होगा, सुख और शाति नहीं। ___ हम अपनी मूल छोटी सी बात पर वापस आते है। यदि मनुष्य अहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह-इन पाँचो आचारो का पालन करने का प्रयत्न करना निश्चित करके अपने जीवन की व्यवस्था करे और कार्य करे तो वह अपना हित तो करेगा ही। उसके उपरात दुनिया के हित मे भी वडा योग दे सकेगा । यहाँ हमने 'प्राचारो का पालन करने का प्रयत्न करने की बात ही कही है, पालन करने की बात नही की। इसको ध्यान मे रख कर प्रारभ अवश्य करना । यदि पालन हो सके तो खुद तो तर ही जाएँगे, सुखी हो जाएंगे, साथ ही साथ जगत् के कल्याणरथ को भी गति दे सकेगे। इस भौतिक जगत् मे, केवल आध्यात्मिक हेतु को लक्ष्य मे रख कर ही जीवन का ध्येय निश्चित करना चाहिए, परन्तु पूर्णतया इस तरह बरतना सबके लिये सभव नही है, क्योकि इसमे तो तुरन्त ही सर्व त्याग की बात आ खडी होती है। भौतिक सुख-सामग्री से मुंह फिरा लेना सबके लिए सभव नही है । जिनके लिए सभव है उन्हे तो इस दिशा मे कदम बढाने मे एक क्षण का भी विलम्ब न करना चाहिए । परन्तु हम जानते है कि इसके लिए भी हममे विशिष्ट प्रकार की योग्यता होनी चाहिए। यदि वह होती तो फिर क्या चाहिए था ? वह नही है इसी से तो सारा बखेडा है । । जैन शास्त्रकार भी यह बात समझते है । उनका स्याद्वाद Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ उन्हे यह बात बताता है । श्रतएव उन्होने जीवन के विकासमार्ग के दो भेद किये है - 'साधुधर्म' और गृहस्थधर्म | वैराग्य उत्पन्न होने पर, आत्मज्ञान जाग्रत होने पर साधुत्व अगीकार करने वाले महानुभावो को पालने के प्राचारो का एक विशाल सूचीपत्र उन्होने बनाया है । इसी तरह समारी मनुष्यो की सीमाओ को ध्यान मे रख कर गृहस्थधर्म के अनुसरण करने का भी सुलभ निरूपण उन्होंने किया है । यह सव इतना सुन्दर तथा सुव्यवस्थित ( So well planned ) है कि उसे देखकर वडा श्रानन्दमिश्रित प्राञ्चर्य होता है । ऊपर जो पाँच मुख्य आचार बताये गये है, वे गृहस्थधर्म का पालन करने के केवल धार्मिक नही अपितु सर्व क्षेत्रोय एव सर्व देशीय मूलभूत सिद्धान्त है | It is a great code of conduct, absolutely essential for every human being-यह प्रत्येक मनुष्य के लिए सर्व काल एव सर्व स्थलो पर अत्यन्त आवश्यक महान जीवन सहिता है । व्यक्ति और समष्टि का कल्याण भिन्न भिन्न नही है । प्रत समस्त मानव जाति के लिए यह परम कल्याणकारी विज्ञान है । इन पाँचो श्राचारो को पालने से जो लाभ होते हैं उनका भी जैन शास्त्रकारो ने वडा सुन्दर विवेचन किया है । मन, वचन तथा काया के त्रिवेणी संगम से जो इन आचारो का पूर्णतया पालन करता है उसका तो उद्धार हो ही जाता है, जो लोग इनका प्रशत. पालन करते हैं, और सपूर्णत पालन करने के मार्ग पर आगे बढने मे सतत प्रयत्नशील रहते हैं उन्हे भी इससे असीम लाभ होता है । जैन तत्त्वज्ञान इस संसार को सर्वथा माया या भ्रम नही Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० मानता । यह ससार भी एक वास्तविकता Reality है। केवल इसके स्वरूपो को सावधानी से ध्यान में रखकर यदि मनुष्य अपना जीवनपथ निर्धारित करे तो वह उस सुख का भोक्ता अवश्य बन सकता है जिसे आन्तरिक सुख माना गया है। आत्मा का विकास करने मे यह ससार या ससार के झझट कोई रोडे नही अटकाते । जैन शास्त्रकार ऐसा नही कहते कि समार मे रह कर आत्मा का जरा भी विकास नही हो सकता। उसको अन्तिम मुक्ति के लिये उन्होने जिस सर्वविरति धर्म की आवश्यकता को अनिवार्य माना है उसकी पीठिका का निर्माण देशविरति धर्म की आराधना से ही हो सकता है। जैन तत्त्वज्ञो ने इस बात की यथार्थता को जान कर आत्मा के विकास मे अनुकूलता प्राप्त करने की दृष्टि से गृहस्थधर्म कासच्चे जीवनमार्ग का अद्भुत उत्कर्प-साधन करने में सहायक मार्ग-का बहुत ही वारोकी से प्रतिपादन किया है। भौतिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र अपने हिंसा-अहिंमा के साथ कार्यकारण भाव की दृष्टि से भले ही भिन्न माने जाते हो, फिर भी आध्यात्मिक ध्येय, उसकी सिद्धि की अनुकूलता आदि समग्र दृष्टि से विचार करने पर ऐसा कोई एकान्त भेद नही हो सकता । बडे नगरो में एक ही नाम वाले किसी किसी बडे लम्वे मार्ग को उत्तर और दक्षिण-यो दो विभागो के नाम से भी पहचाना जाता है। उदाहरणत बम्बई मे लेमिग्टन रोड़ बहुत लम्बा है, उसे दो पोस्टल विभागो मे बाटा गया है'लेमिंग्टन रोड-नॉर्थ' और 'लेमिग्टन रोड-साउथ' । उसी तरह जहा तक जीवन के तथा जीव के विकास का तअल्लुक है, हम भौतिक क्षेत्र को 'मुक्तिमार्ग-दक्षिण' और आध्यात्मिक क्षेत्र Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६१ को 'मुक्तिमार्ग- उत्तर' (Salvation Road-South and Salvation Rond-North)ऐसे नाम दे सकते है। ऐसा न माने कि जो अात्मा के शत्रु है वे शरीर के शत्रु नहीं है । जब तक आत्मा से जुडा हुया गरीर अपने कार्य (Function) मे प्रवृत्तिमान है तब तक-मापेक्ष दृष्टिसे-यात्मा और शरीर भिन्न नहीं है । अत शरीर के द्वारा जो भी प्रवृत्ति होती है वह आत्मा की अपनी प्रवृत्ति है । विचार में जो वस्तु बुरी हे वह आचार मे कभी भली नहीं हो सकती। उसी तरह जो कुछ भी आध्यात्मिक दृष्टि से अच्छा हो, वह भौतिक दृष्टि से कभी अनिच्छनीय हो ही नहीं सकता। इसी प्रकार जो सिद्धान्त भौतिक क्षेत्र मे व्यवहृत होने के लिये निश्चित किये जाणं, वे यदि आध्यात्मिक विकास के पूरक तथा सहायक न हो तो उनसे कुछ भी भौतिक हित हो ही नहीं सकता। ऐसा यदि कुछ निश्चित किया जाय तो वह सन्मार्ग नहीं, उन्मार्ग है । व्यवहार और निश्चय, दोनो एक ही मार्ग के 'पूर्वा' और 'उत्तरार्ध' के समान दो भाग है । इन दोनो का लक्ष्य एक ही है। इस बात को लक्ष्य मे रखकर जैन तत्त्ववेत्तानो ने जीवन जीने के लिये सामान्य गृहस्थ धर्म से सुशोभित विशेप गृहस्थ धर्म-स्वरूप एक विकास-मार्ग बताया है । एक ही आत्मोत्थान के राजमार्ग की पगडडी जैसा यह मार्ग हमारे सामने जीवन जीने की एक विकासश्रेणी (Ladder of evolution) पेश करता है। वह भौतिक क्षेत्र मे आध्यात्मिक रग भरता है, और धीरे धोरे प्रात्मा के पूर्ण विकास की दिशा मे ले जाता है । उन्होने इस विकासक्रम के जो सोपान Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ (सीढियाँ) वताये है उन चौदह गुणस्थानको का परिचय हम पिछले पृष्ठो मे प्राप्त कर चुके है । इन सोपानो को एक के बाद एक पार करने की समयावधि पाँच कारणो के अधीन रह कर मनुष्य के अपने पुरुपार्थ पर निर्भर है । ये सब बाते बुद्धिगम्य है, तर्कसिद्ध है प्ररि आचार-सिद्ध भी है। (It is completely rational, there is nothing abstract in it) इन सब का मूल, जीवन जीने के मुख्य सन्मार्ग का मध्य विन्दु 'स्याद्वाद' है । प्रात्मा को मुक्ति के मार्ग की साधना मे स्याद्वाद की लोकोत्तर उपयोगिता का विशिष्ट स्थान है । मुक्ति का मार्ग प्रतीन्द्रिय (इन्द्रियो से परे) है । प्रात्मा तथा कर्म का सयोग एव वियोग, उसका हेतु, उमके कारण ग्रादि सब कुछ अतीन्द्रिय-ज्ञानगम्य है । जव तक पारमार्थिक प्रत्यक्ष ज्ञान न हो जाय तव तक मनुष्य के मन मे अनेक प्रकार के भ्रम उत्पन्न होना स्वाभाविक है । इसलिये तो इम लेखक ने मिथ्यात्व नामक प्रथम गुणस्थानक पर विचार करने वाले इस जगत कोइम गुणस्थानक को-'सभ्रमसदन' कहा है । जब तक इन सब सभ्रमो और विभ्रमोका बुद्धिगम्य और श्रद्धाग्राह्य निराकरण न हो जाय तब तक आत्मा के अन्तिम ध्येय को पहुंचने के विकास मार्ग मे कोई प्रगति नहीं हो सकती। स्याद्वाद की जानकारी से इन सव सभ्रमो का बुद्धिग्राह्य निराकरण किया जा सकता है । एक एक मार्ग को अपना कर खडे हुए दर्शनो की त्रुटियाँ उससे दूर हो सकती है । वस्तु का सर्व देशीय ज्ञान तथा प्रात्मा की मुक्ति के लिये आवश्यक पुरुषार्थ भी स्याद्वाद की जानकारी से ही हो सकता है । हमे तो इस प्रकार के आवश्यक (तथाविध) वीर्योल्लास Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३ के प्रभाव में इसका प्रारम्भ भौतिक जगत् में रह कर ही करना है । उसमें भी म्यादवाद श्रुत का ग्रालम्बन हमे प्रत्यन्त सहायता देगा | परन्तु जीवन जीने का जो मार्ग हमे प्राध्यात्मिक विकास की ओर न ले जाय उस मार्ग से भौतिक क्षेत्र मे भी कोई लाभ नही हो सकता । ऐसे गलत रास्ते जीवन के भटो को बढा देते है । यदि हम जीवन के ध्येय और उसे प्राप्त करने के उपाय के विषय मे पर्याप्त विचार किये विना चले तो गाडी में जुते हुए बैन मे और हममे कोई अन्तर नही रहता । इनका सुस्पष्ट रोति से विचार करके ही हम अपने जीवन का यथार्थ सुयोजन ( Good planning) कर सकते है। ऐसी कोई योजना किये दिना यदि हम चलने लगे तो हमारी दशा फुटवाल जेसी ही होगी । फिर हम जहाँ जाएँगे वहाँ हमे क्या मिलेगा ? झट ही भट | आध्यात्मिक ध्येय से भिन्न कोई भौतिक ध्येय हो ही नही सकता । यदि हम केवल भौतिक सुख सामग्री को ही लक्ष्य मे रखकर जीवन का ध्येय निर्धारित करे तो उससे, ग्राध्यात्मिक सुख तो दूर रहा, हमे भौतिक सुख भी नही मिलेगा । शास्त्रकारो ने जिन्हें आत्मा के शत्रु माना है उन्हें शरीर के मित्र माना ही नही जा सकता । श्राध्यात्मिक विकास मे जो बाधक हो वह भौतिक विकास मे भी सहायक नहीं हो सकता, यह बात हमे अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए । जैन दार्शनिको ने ग्रात्मा के छ शत्रु वताये है, जिन्हे 'पड् रिपु' कहते है । ग्रात्मा के इन शत्रुनो के नाम इस प्रकार है - काम, क्रोध, लोभ, मान, मद, और हर्प । आध्यात्मिक विकास में बाधा डालने वाले ये छ दुश्मन भौतिक विकास मे Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ भी उतने ही और ऐसे ही बाधक है । यह बात भलीभांति याद रखनी चाहिए । ये बहुत बड़े अवगुण है । ये अवगुण व्यवस्थित जीवन के विकास मे वाधक तत्त्व (Blocking elements) है । 'अहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह' इन पाँच मित्रो की सहायता लेकर उक्त छ शत्रुयो को हटाने के लिये युद्ध छेडना प्रत्येक विवेकी मनुष्य का प्राथमिक पुरुपार्थ है । इस वात को एक तरफ रखकर जीवन जीने का मार्ग निश्चित हो ही नहीं सकता । इसे लक्ष्य मे रखकर हम जो जीवन व्यतीत करे वही 'विशुद्ध ग्रामोद-प्रमोदकारक नन्दनवन' है । इसे छोडकर चले तो जीवन एक झझटमहा झझट है। इस महा झझट से छूटने के लिए स्याद्वादश्रुतधारक अनेकान्तवाद के अद्भुत तत्त्वज्ञान का आश्रय लेना अनिवार्यतः अावश्यक है । अत हमे इतना निश्चित कर लेना चाहिए - "यह ससार केवल भ्रम नहीं है, वास्तविक भी है। यह जीवन केवल झझट नहीं है, महा-अानन्द भी है । इन दोनो मे, अर्थात् हमारे आस पास फैले हुए ससार मे और हमारे जीवन मे विष और अमृत-दोनो है । वास्तविकता, अानन्द और अमृत का व्यवस्थित आयोजन लेकर हम चलेगे, श्रीर जिस समय यह निश्चित होगा कि ससार एक भ्रम है उस समय यह भ्रम हमसे लाखो योजन दूर चला जा चुका होगा; जव हमे लगेगा कि जीवन एक झझट है, उस समय यह झझट तो बेचारा दूर खडा खडा आँसू बहाता होगा । और विष यह विष तो उसी दिन स्वय ही अमृत बन कर अमृत में मिल चुका होगा।" Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खंडन-मंडन पिछले पृष्ठो मे जो कुछ लिखा गया है, उसका उद्देश्य जैनधर्म और जैन तत्त्वज्ञान के मुख्य मुख्य प्राचारो तथा विचागे ( सिद्धान्तो ) की सक्षिप्त जानकारी देना ही है । किमो एक का खडन या दूसरे का मडन करने के उद्देश्य से कुछ नहीं लिखा है। यह सब किसी भी प्रकार का वादविवाद खडा करने या उसमें पड़ने के उद्देश्य से नही बल्कि केवल उपयोगी जानकारी का प्रचार करने के हेतु ही लिखा गया है । स्याद्वाद सिद्धान्त पूर्णतया मध्यस्थता का सिद्धान्त है। मध्यस्थता-तटस्थवृत्ति-रखे विना इस सिद्धान्त को समझना सभव नही-ऐमा भी पहले ही कहा जा चुका है । स्याद्वाद की मध्यस्थता एक विशिष्ट प्रकार की है। इसमे मिथ्या या कात्पनिक तटस्थवृत्ति नहीं है । सत्य के साथ अन्याय न हो और असत्य का समर्थन न हो-यही समस्त स्याद्वाद सिद्धान्त का हृदय ( रहस्य ) है, मेरुदण्डHeart & Backbone है । इसमे अन्य किसी भी मतमतान्तर से द्वेष नही है। श्री हरिभद्र सूरीश्वरजी महाराज ने इम विपय मे एक स्थान पर लिखा है कि - ___अन्य शास्त्र के प्रति दृप रखना भी उचित नहीं है। वह जो कुछ कहे उसके विपय का भी यत्नत शोधन करना चाहिए। उसमे जो कुछ सद्वचन हे वह सव, प्रवचन सेद्वादशागी से-भिन्न नहीं है।" ऊपर के उद्धरण से स्यावाद की गभीरता तथा स्याद्वादो को सच्ची मध्यस्थवृत्ति स्पष्ट होती है । स्याद्वाद के Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ मत मे कोई भी वचन स्वय प्रमाणरूप भी नही है और प्रमाणरूप भी नही है । कोई वचन स्वशास्त्र का हो चाहे पर शास्त्र का, उसके विपय के विश्लेपण - परिशोधन - से ही वह प्रमारण रूप या ग्रप्रमाण रूप सिद्ध होता है | जो वाक्य प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रमाणो से सुस्थापित हो वह प्रमाण रूप है । प्रमारण के साथ जो मेल न खाता हो वह अमाप है । किसी भी एक धर्म को लक्ष्य में रख कर कहा गया वाक्य उस धर्म को लक्ष्य मे रख कर सत्य है, जब उसी वाक्य का उपयोग अन्य धर्म को लक्ष्य में रख कर या अन्य धर्मो का निरस्कार कर के किया जाय तब वह ग्रसत्य है । यह बात नय और सप्त-भगी समझने के बाद आसानी से समझ मे आती है । खडन मंडन ग्रर्थात् वादविवाद । इस वादविवाद का उद्देश्य वडा पवित्र है । मत भेद तो इस विश्व का अनिवार्य श्रग है । जैसे मनुष्य के पास कर्म के अनुसार सम्पत्ति का प्रमाण न्यूनाधिक होता है, वैसे ही बुद्धि, तथा ग्रहण गति भो न्यूनाधिक प्रमाण में होती है । इसलिए सशय श्रौर मतभेद तो हमेशा रहेंगे। परन्तु जब कोई दो व्यक्ति किसी विषय पर चर्चा करने ग्रामने सामने बैठे तो उसका परिणाम विग्रह मे नही बल्कि सधि मे ग्राना चाहिए। यह जरूरी नही कि यह सचि एक मति की सहमति की ही हो, भिन्नमति की भी सधि हो सकती है । * दुनियाँ के बुद्धिरान् लोगो ने इस विषय मे एक सुन्दर वात कही, है "दो मनुष्य जब अपने मतभेदा की चर्चा मत्रणा करने बैठते है तो उससे दोनो की बुद्धि तथा समझने की शक्ति Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८७ मे स्फूर्तिदायक विविधता प्रकट होती है। परन्तु यदि दोनो व्यक्ति ऐसी वृत्ति लेकर बैठे कि 'म ही सच्चा हूँ और तुम गलत ही हा' तो उससे अधमता उत्पन्न होती हे और अवनति की तृष्टि होती है। पश्चिम के देशो में जब बुद्धिशाली मनुष्य चर्चा करने वैठते है, और जब एक दूसरे की राय से सहमत होना असभव होता है तबै अलग होते समय दोनो एक बात स्वीकार कर के, एक दूसरे से हाथ मिला कर पार एक दूसरे के प्रति शुभ कामना प्रकट करके अलग होते हैं। वे जिस बात पर 'सहमत' होते हैं वह यह है, (We agree to disagree) हम दोनो मे मतक्य नहीं है, इस बात पर हम दोनो सह्मत है। कितनी अच्छी बात है। इसमे वैमनस्य नहीं है। इसके वाद वे कहेगे, (We shall thy again) फिर प्रयत्न करेगे। तात्पर्य यह कि इम पुस्तक मे जो कुछ लिखा गया है उनका उद्देश्य किसी प्रकार के वादविवाद या खडन-मडन के वितडावाद मे पडना नहीं हैं। फिर भी इस पुस्तक को पढने के बाद कोई गकाएं उत्पन्न हो तो उनका निवारण करना अनुचित नहीं होगा। हम प्रश्नोत्तर द्वारा यह विवरण देगे तो प्रश्न और उसके उत्तर को समझने से आनन्द होगा। प्रश्न-बौद्ध मतानुसार वस्तु 'अनित्य' है। वेदान्त मत वस्तु को 'नित्य' मानता है। जैन दार्गनिको ने दोनो वातो को एकत्रित कर कहा है कि वन्तु नित्य भी है ओर अनित्य भी । इसमे क्या नयी वात कही ? उलटा सगय पेदा किया। उत्तर-वस्तु को केवल नित्य या केवल अनित्य मान Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर बैठ जायें तो उस विषय का ज्ञान अधूरा रहता है। उसी तरह अन्य सत्य अग का लोप हो जाना है, जब कि अकेला 'नित्य है' अथवा 'अनित्य है' ऐमा मान कर चले तो लक्ष्य तक पहुँचा नहीं जा सकना । प्रत्येक वस्तु मे भिन्न-भिन्न परस्पर विरोधी गुण धर्म होते हैं। उनका सपूर्ण दर्जन न हो तो हमारी जानकारी अधूरी रहती है। जिस प्रकार वैज्ञानिक प्रयोगशालाप्रो मे सूक्ष्म-पृथक्करण (Aicroscopic Analysis) किया जाता है, उनो तरह जैन तत्त्ववेत्तायो ने वस्तु के सभी गुणधर्मो को खोल कर बताया है । इसमें कुछ भी कही ने बटोरा हुआ नहीं है, सब कुछ स्त्रतत्र है। इसके विपरीत अन्य मत मतान्नरो मे जो एक मार्गी वाते कही गई है, वे जैन तत्त्वज्ञान में से अनुकूलता के अनुसार एक एक बात पर डकर कही गई हो, ऐसी सभावना है। ___ वस्तु को 'नित्य' मान कर चलने मे उसके पर्यायो, अवस्थानो तथा परिणमनो की बात ही उड जाती है । इसके विपरीत, वस्तु को यदि 'अनित्य' मान कर चले तो जो मूलभूत द्रव्य है उसकी उपेक्षा हो जाती है। अत. जेन तत्त्वज्ञानियो द्वारा अपेक्षा-भेद से कही गई दानो वाते सगयात्मक नही, अपितु पूर्णतः निश्चयात्मक है। ___वस्तु के इन दोनो पहलुग्रो की पूरी पूरी समझ का व्यवहार मे एव आचरण मे विशेष महत्त्व है । जमीन के नीचे सब जगह पानी होते हुए भी एक स्थान पर कुंया खोदा जाता है और दूसरा जगह नहीं खोदा जाता, स्थल की अपेक्षा से यह वात पानी के होने तथा न होने का विधा-भाव सूचित Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ करती है । इस तरह वस्तु का यथार्थ म्वरूप जाने विना यदि हम एक हो स्वरूप को पकडकर चले तो विवेक करने की असमर्थता के कारण इच्छित ध्येय तक पहुँचने मे असफल होगे। बौद्ध मत और वेदान्त मन की जो एकान्त मान्यताएँ हैं, उनमे सत्य का एक प्रग ही है, पूर्ण सत्य नहीं । फिर स्वमान्य नग का दुराग्रह रख कर अन्य प्रश का इनकार करने में असत्यता या खडी होती है, जबकि सपूर्ण सत्य अनेकान्तवाद मे ही प्रकट हुअा है । यह वैज्ञानिक, स्वत प्रतिष्ठित, नुव्यवस्थित तथा बुद्धिगम्य है । यहां हम इतना स्पष्ट कर देते है कि ये नित्य-अनित्य अादि धर्म कोई स्वतन्त्र धर्मों का योगफल नहीं है, अपितु विशिष्ट अनेकान्त धर्म है । जैसा कि पहले कहा जा चुका है, गात और तटस्थ बुद्धि का विवेकपूर्वक उपयोग करने से ऐसे सशयो का अपने आप निवारण हो जाता है। प्रश्न -जैन तत्त्ववेत्तानो के कथनानुसार वस्तु के गुण धर्म अनन्त है । तो फिर उनकी विश्लेषणात्मक समझ के लिए जो 'भग' वताये गये है वे केवल सात ही क्यो हैं ? ' उत्तर --सप्त भगो और नय, इन दोनो विषयो का स्पष्ट मान प्राप्त कर लेने पर इम प्रश्न का अपने आप समाधान हो जाता है । सप्तभगी मे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को अपेक्षा से वस्तु का स्वरूप समझाया गया है, जब कि सात नयो मे वस्तु के गुण धर्मो का पृथक्करण है । नय वस्तु के भिन्न भिन्न गुण धर्म बताता है जव कि सप्तभगी तो केवल प्रत्येक वस्तु के एक एक गुण धर्म का सापेक्ष विश्लेपण करती है। नय' के विषय मे पहले कहा जा चुका है कि जो सात नय Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० बताये गये है वे सात मुख्य नय है । उनके अतिरिक्त नय तो अनेक है, जितने वचन उतने नय है । सप्तभगी के सात भगो से सशयजनित जिज्ञासाम्रो की तृप्ति होती है। उदाहरणार्थ सग्रह और व्यवहार नय वस्तु के सामान्य तथा विशेष-ये दो स्वरूप बताते है, और उसके कितने ही अवान्तर गुण धर्मों के द्वारा वस्तु को देखते है, निरूपण करते है । सप्तभगी मे इनमे से किसी भी एक सामान्य या विशेष स्वरूप को लेकर उसका 'विशेप है', 'विशेष नहीं है' आदि विश्लेषण किया जा सकता है। ___ तात्पर्य यह है कि यदि नय और सप्तभगी का अन्तर भलीभाँति समझ लिया जाय तो बहुत सशय दूर हो जाते है। तिस पर भी 'भग सात ही किसलिए?' इस प्रश्न का उत्तर यह है कि आठवे प्रकार का कोई भग अभी तक कोई सशयकार नहीं बता सका है, क्योकि ऐसा कोई आठवॉ विकल्प ही नहीं है । केवल शका करके खडे रहने से किसी वस्तु का प्रतिपादन नही होता । यह तो एक निषेधात्मक-नकारात्मक (Negative) दुर्नीति है । कोई भी सूचन जब तक रचनात्मक (Constructive) ढग का न हो तब तक उसके खडन मडन में उतरना व्यर्थ का वित डावाद है। ' वैसे थोडे मे से बहुत देखा जा सकता है, यह बात समझने के लिए यदि हम जड वस्तुप्रो मे दूरवीन और चेतन वस्तुओ मे अपनी आँखो के विषय मे विचार करेगे तो बहुत कुछ समझ मे आ जायगा। प्रश्न-सात भगो मे से अन्तिम तीन मे 'है और प्रवक्तव्य है', 'नही है ओर अवक्तव्य है' तथा 'है और नहीं है और Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवक्तव्य है'-यो तीन तरह से विवरण किया गया है। पाचवे भग में पहला और चोथा आता है, छठे में दूसरा और चौथा पाता है, और सातवे भग मे पहले और दूसरे को चोथे के साथ जोडा गया है। क्या यहाँ पहला, दूसरा और तीसरा ये तीनो चौथे भग के माथ जोड कर एक पाठग भग नही बनाया जा सकता? उत्तर-तीसरे भग मे पहले और दूसरे भग के दोनो सापेक्ष स्वरूपो का जोड-सधीकरण है ही। अतएव पाठवी दृष्टि के लिए अवकाश नही रहता। प्रश्न-चौथे भग मे जो 'अवक्तव्यता' बताई गई है, उसी तरह क्या एक और जोड कर 'वक्तव्यता' नहीं बताई जा सकती? उत्तर-'श्रवक्तव्यना' भी एक प्रकार की वक्तव्यता ही है। और भी, इसमे जो प्रवक्तव्यता बताई गई है वह 'स्यात्' शब्द के अधीन होने से सापेक्ष है। व्यवहार मे कोई व्यक्ति जव कहता है कि "मेरे पास अपनी भावनाएं व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं है।" तव उसमे अवक्तव्यता की जो सूचना है, वह एक प्रकार की बक्तव्यता ही है। इसलिए इसमे वक्तव्यता को अलग बताना न आवश्यक है, न युक्तियुक्त । साथ ही इन सात भगो मे जहाँ अवक्तव्यता नहीं है, वहाँ वक्तव्यता समाविष्ट ही है । इसलिए उसका अलग स्थान नहीं रहता। प्रश्न-एक ही वस्तु अच्छी और बुरी कही जाय-यह बात तो समझ मे आती है, परन्तु एक ही वस्तु को छोटी और वडी कैसे वताया जा सकता है ? उत्तर-~पर चतुष्टय की अपेक्षा से एक ही वस्तु को छोटी Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ अथवा बडी कहा जा सकता है। उदाहरणार्थ --~-'वेर, नीबू, नारगी, नारियल, ओर तरबूज,-इन पाँचो फलो को एक ही मेज पर पास पास रख दीजिये। बेर की तुलना मे नीबू वडा मालूम होगा परन्तु नारगी से तुलना करने पर वही छोटा बन जाएगा। इस क्रम के अनुसार प्रत्येक फल को ग्रासानी से छोटा और बडा कहा जा सकता है । प्रश्न-जैन धर्म को हिन्दू धर्म की एक शाखा माना नाता है । क्या यह बात सच है ? यदि सच नहीं है तो इसका क्या सबूत है ? उत्तर--नहीं, यह बात सच नही हैं । एक पिता के पाँच पुत्र हो तो उन पाँच मे से किसी भी एक पुत्र के लिये वह कहेगा कि 'यह मेरा पुत्र है।" दूसरे के पुत्र के लिए वह ऐसा नहीं कह सकेगा । एक पेड मे अनेक शाखाएँ होती है । ये सब शाखाएँ उस पेड की अगभूत होने के कारण कोई ऐसा नही कह सकता कि 'यह शाखा इस पेड की नहीं है।' यदि जैनतत्त्वज्ञान हिन्दू तत्त्वज्ञान का एक अग ही होता तो हिन्दू तत्त्ववेत्ता ऐसा कहते कि 'यह हमारा एक अग है।' वे लोग ऐसा नही कहते । इतना ही नहीं, वे लोग जैन तत्त्वज्ञान को 'झूठा' कहते है। जब "झूठा' कहा जाता है तव भिन्नता उपस्थित होती ही है। वाहर की दुनिया मे 'जैन दर्शन हिन्दू-धर्म की एक शाखा है' इस प्रकार की जो मान्यता है, वह परिस्थिति के अज्ञान से उद्भूत है। यह मान्यता बिल्कुल झूठी है । इस बात को यदि हम शुद्ध तर्क द्वारा जाचेगे तो ज्ञात होगा कि जैन दर्शन एक पूर्णत. मौलिक एव स्वतन्त्र तत्त्वज्ञान है । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६३ अन्य दर्शनो मे और जैन तत्त्वदर्शन मे एक विशिष्ट अन्तर यह है कि जैन दर्शन को छोड़ कर अन्य सभी दर्शन मात्र जैन दर्शन को झूठा बता कर ही नही रुक जाते, अपने मिवा अन्य सभी दर्शनो को वे झूठे मानते हैं। जब कि इसके विपरीत जैन दर्शन ने दूसरे मुख्य मुख्य तत्त्वज्ञानो को 'एकदम झूठ' नही माना । प्रत्येक दर्शन मे रहे हुए आशिक सत्य को जैन दर्शन ने स्वीकार किया है। पिछले पृष्ठो मे हम यह बता हो चुके है कि मुख्य मुख्य अजैन दर्शन 'स्यादवाद' के सात नयो मे से कौन कौन से एक एक नय पर आधारित है। ये सभी दर्शन एक एक नय ( वस्तु का एक सिरा ) पकड कर बैठ गये हैं, जब कि जैन दर्शन का अनेकान्तवाद उन सातो नयो के सयुक्त आधार पर खड़ा है । यही इसकी विशिष्टता है । इससे यह बात स्वय सिद्ध हो जाती है कि जैन धर्म हिन्दू धर्म या अन्य किसी भी धर्म की शाखा नहीं है। __ उसी तरह यह कहना भी युक्तियुक्त (Logical) नही है कि भिन्न भिन्न तत्त्वनानो का समन्वय करके अनेकान्तवाद के तत्वज्ञान की रचना की गई है। कपडे के थान मे से सात कोट सिल सकते है, परन्तु उन सातो कोटो को इकट्ठा करके एक थान नहीं बनाया जा सकता। इसके विपरीत क्रम मे, एक को सख्या में एक से विशेष कुछ नही होता। सात मे से एक निकाला जा सकता है, एक मे से एक निकालने पर तो शून्य ही रहता है। पिता पुत्र का क्रम ले तो, एक पिता से सात पुत्र उत्पन्न हो सकते है, परन्तु उन सातो पुत्रो को एकत्रित करने से एक पिता नही बन सकता। इस न्याय से-जैन तत्त्वज्ञान के अने Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ कातवाद मे से एक एक अन्त पकड कर ग्रागिक सत्य वाले भिन्न भिन्न तत्त्वज्ञान अनेकातवाद मे से रचे गये है-ऐसा कहना शुद्ध तर्कसंगत एव न्याय्य है । __वस्तु के स्वरूप को देखने की जैन दर्शनकारो की मध्यस्थता का सब से बडा सवत तो यह है कि उन्हे अन्य दर्शनो मे जो अशत सत्य दिखाई दिया, उसका इनकार नहीं किया। उसे उन्होने 'सत्य का अश' माना है। परन्तु सत्य के एक अश को कभी पूर्ण सत्य नहीं कहा जा सकता, इसलिये, यही तक जैन दार्शनिको ने अन्य दर्शनो का विरोध किया है। इस विरोध में उप नहीं है, पूर्ण सत्य का आग्रह है। प्रश्न-एक ऐसा मत भी है कि सब धर्मो का समन्वय करके जैन तत्त्वज्ञान का निर्माण किया गया है। इसका अर्थ यह होता है कि अन्य दर्शन पहले थे और जैन दर्शन बाद में प्राया। इस बात का क्या समाधान है ? उत्तर- यह वात सापेक्ष दृष्टि से कही जाती है कि स्याद्वाद मे अन्य सभी दर्शनो का अन्तिम समन्वय हो जाता है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि अन्य दर्शनो को मिला कर उनमे से जैन दर्शन की रचना की गई है । इसका केवल इतना ही अर्थ है कि अन्य दर्शनो मे जो आंशिक सत्य है वे सब अनेकातवाद मे तो थे ही। उदाहरणार्थ-पृथ्वी पर वहने वाली सभी नदियाँ समुद्र में जा कर मिलती है यह एक तथ्य है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि ये सब नदियाँ एकत्रित हो कर समुद्र का सृजन करती है। समुद्र तो उन नदियो के जन्म से पहले भी था । ये नदियाँ समुद्र में मिल गई - इसका अर्थ यही होता है कि Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५ 'समुद्र ने नदियो को अपने मे समा लिया ।' स्यादवाद का सिद्धान्त ऐसा ही एक महासागर है, श्रुतसागर है । इसमे आकर मिल जाने वाले सत् के शो मे से इसका जन्म या निर्मारण नही हुा है | इसके विपरीत, स्वयं स्यादवाद ने ही सत् के भिन्न भिन्न अशो और स्वरूपो को खोल कर और पृथक् करके बताया है । सभव है कि, इनमें से एक एक अश को लेकर दूसरे दर्शन रचे गये हो । जैन दर्शन बाद मे श्राया या पहले ग्रर्थात् अन्य दर्शनो के उद्भवकाल के पूर्व भी था - यह लेखक इस प्रश्न को महत्त्वपूर्ण नही मानता। क्या इतना ही पर्याप्त नही है कि गुणवत्ता की दृष्टि से जैन तत्त्वज्ञान सर्वोत्कृष्ट है । फिर भी ऐतिहासिक सास्कृतिक एव सहित्य विपयक प्रमाण इतनी बडी सख्या मे ग्रन्यस्थ हुए है कि उन्हे देखकर इस विषय मे कोई मतभेद नही रहता कि जैन तत्त्वज्ञान प्रति प्राचीन तत्त्वज्ञान है | वेदात दर्शन के प्राचीन ग्रन्थो मे जैनो के प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभदेव का जो उल्लेख मिलता है उससे इतना तो सिद्ध होता ही है कि श्री ऋषभदेव उन ग्रन्थो की रचना के पूर्व थे 1 फिर भी मेरा नम्र सुझाव है कि 'कौनसा दर्शन पुराना है और कौनसा नया ? कौनसा पहले था और कौनसा वाद मे आया ?" - ऐसे व्यर्थ के विवाद मे पडने के बदले 'पूर्ण सत्य क्या है, और वह कहाँ पडा है ?" इसकी खोज करना ही इष्ट. मार्ग है । हुए प्राचीनकाल मे जो दर्जन एकागी थे, ज्ञान के विकास के साथ वृद्धि होती गई है । उनमे से अनेक मे वेदात तथा बौद्ध Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ आदि मतो ने बाद मे चलकर अपनी मान्यताएँ वदली हैं और ऐसा करने से वे अनेकातवाद के निकट पाये है। जब कि अति प्राचीन काल से जो अनेकातवादी जैन दर्शन चला आ रहा है उसमे कोई परिवर्तन या वृद्धि नहीं करनी पडी। पूर्व और पश्चिम के कुछ गण्यमान्य विद्वानो ने जैन दर्शन की मौलिकता को स्वीकार किया है जव कि अन्य मतो के विषय मे ऐसी निश्चित राय देखने को नहीं मिलती। अनेकान्तवाद का सिद्धान्त तथा उसका तत्त्व निरूपण मूल से ही पूर्ण होने के कारण अटल तथा निश्चल रहे है । इसमे किसी प्रकार का परिवर्तन करने की आवश्यकता ही उपस्थित नहीं हुई । इस तथ्य को देखते हुए, जिसे 'यावच्चन्द्रदिवाकरौ' कहा जाता है-वैसा पूर्ण सत्य दुनिया में एक मात्र अनेकान्त-तत्त्वज्ञान में ही है। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार महामंत्र ससार के सर्वश्रेष्ठ तत्त्वज्ञान का सक्षिप्त परिचय प्राप्त करने के बाद, जिस जैन धर्म के प्रवर्तको ने दुनिया को इस महान् तत्त्वज्ञान का उपहार दिया है, उम धर्म के एक परम कल्याणकारी इष्ट मत्र का उल्लेख किये विना ग्रन्थ को समाप्त कर देना किसी राजा को मुकुट पहनाये विना सिहासन पर बैठाने के समान होगा। यह इष्ट मत्र 'नमस्कार महामत्र' कहलाता है। यहा हमने 'मत्र' का निर्देश किया है, इसलिए मत्र के विषय मे थोडा सा विचार करना अप्रस्तुत नहीं होगा। ___ मानव जाति अनादि काल से सुख प्राप्ति के लिये अनन्त परिश्रम करती रही है । मनुष्य चिरकाल से अनन्य, अद्वितीय तथा महत्त्वपूर्ण सुख की खोज मे भटकता रहा है। ___इस सबके पीछे अविकसित मनुष्य का प्राथमिक हेतु भौतिक एवं सासरिक सुखसामग्री प्राप्त करना होता है। प्रेममयी पत्नी, प्यारे बच्चे, किलकिलाता हुआ परिवार, धन, वैभव और वज्र के समान दृढ शरीर आदि उसकी प्राप्ति के लक्ष्य होते है। इसके अतिरिक्त अपना नाम प्रख्यात हो, लोगो मे अपनी पूछ हो, पूजा हो अपने हाथो कोई सुयश का वडा कार्य हो, सत्ता तथा प्रभुता प्राप्त हो-ये सब चीजे भी मनुष्य की सुख प्राप्ति की इच्छा मे शामिल है। मनुप्य को इन सब शारीरिक, पारिवारिक, सामाजिक तथा अन्य बहुत सी भौतिक सिद्धियो के लिये अविरत प्रयत्न करते, मुसीवते झेलते और समाप्त हो जाते भी अनादि काल Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ से दुनिया ने देखा है, इतिहासकारो ने उसका वर्णन किया है । ____ इस हेतु की प्राप्ति के लिये सभी प्राप्य साधनो का मनुष्य ने उपयोग किया है। इसके अतिरिक्त, सुख प्राप्ति में उपयोगी बन सके, ऐसे नये नये साधन खोजने तथा पैदा करने का भी मनुष्य ने अविरत प्रयत्न किया है। इन सब भिन्न-भिन्न साधनो में 'मत्र' के द्वारा सिद्धि प्राप्त करने का प्रयत्न भी मनुष्य अनात काल से करता आया है । चमत्कारपूर्ण मिद्धि दे सकने वाले विशिष्ट गव्दो अथवा गव्दसमूहो मे एव उनके विधि पूर्वक प्रयोगो मे मनुष्य अनन्य श्रद्धा रखता रहा है। 'मत्र' क्या है ? क्या इन मत्रो मे सचमुच ऐसी सिद्धिदायक गक्ति है जिसका मारोपण उनमे किया जाता है ? क्या इन मत्रो के पीछे कोई बुद्धिगम्य और वैज्ञानिक बल है, या यह कोई ऐसी वस्तु है जो मनुष्य की बुद्धि और समझ के परे है ? इन प्रश्नो का उत्तर पाने के लिये किसी भी मत्र में जो तीन अग महत्त्वपूर्ण होते हैं, हमे उनकी जाँच करनी चाहिए। ये तीन अग निम्नलिखित हैं - (१) शब्दो की शक्ति, (२) शब्दो का अर्थ और उस अर्थ की शक्ति, (३) उसके पीछे कार्य करने वाली मत्रसृष्टा की सकल्प शक्ति । अाज शब्दो की शक्ति के विषय मे तो कोई मतभेद नही है । शब्द मे अपरिमित शक्ति होती है । इसका अनुभव करने के बाद शब्दब्रह्मवादियो ने शब्द को भी 'शब्द ब्रह्म' नाम दिया है। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ जब हम कोई शव्द वोलते हैं तो उसमे से एक नाद और एक प्रभाव उत्पन्न होता है। वायु की तरंगे मुह मे से बाहर निकले हुए शब्दों को ग्रहण करती है और उसे सुनने वाले के कानो तक एव सारी दुनिया मे फलाती है । शब्द मे ने जो नाद (आवाज) उत्पन्न होता है, वह अपना प्रभाव भी उत्पन्न करता है । शब्द का नाद जहा जहा जाता है, वहाँ वहाँ उसका प्रभाव भी साथ ही जाता है । नुनने वाले मनुष्य के कान गब्द के नाद को झेलते हैं, और उसकी बुद्धि तथा हृदय शव्द के प्रभाव को झेलते हैं । शब्द के प्रभाव का ऋण एवं प्रमाण बोलने वाले व्यक्ति की गति तथा योग्यता पर अवलवित है । वह सुनने वाले की पात्रता पर भी निर्भर है । शब्द के अर्थ में जो गहनता तथा गभीरता होती है, उसकी मात्रा के अनुसार शब्द का प्रभाव भी न्यूनाधिक होता है । शब्द मनुष्य को हँसा सक्ते है, रुला सकते है, सुला सकते है, जगा सकते है । शव्द की अपनी शक्ति उसके अर्थ की शक्ति के साथ मिलकर ऐसे बहुत से कार्य करती है । जहाँ तक मंत्र का सम्बन्ध है उस मंत्र के अधिष्ठायक देवता के सामर्थ्य का शब्द के अर्थ मे वडा महत्त्व है । जिनको उद्देश कर मत्र रचा गया हो उसका नाम मंत्र के शब्दों मे याता ही है । अत जिसका नाम थाता है उनकी योग्यता का भी वडा महत्त्वपूर्ण स्थान है । इसके पश्चात् मत्र की तीसरी शक्ति मंत्र का निर्माण करने वाले, मत्र तैयार करने वाले सम्पादक की 'सकल्प - शक्ति' है । मत्रसृष्टा अपने सकल्प-बल से शब्दो को अधिकृत वना कर Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० मत्र का निर्माण करता है । यह सकल्पवल किसी भी मत्र का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण अंग है । ___इस प्रकार तैयार किया हुआ मत्र, शब्दो के क्षेत्र मे एक अद्भुत औपधि का सा स्थान प्राप्त करता है । विशिष्ट प्रकार की सिद्धियो के लिये भिन्न भिन्न प्रकार के मत्र इस तरह अस्तित्व मे आये है । इस प्रकार मत्र का स्वरूप पूर्णतः वैज्ञानिक एव बुद्धिगम्य है । मत्रो से अमुक प्रकार के कार्य हुए होने की जो वाते हम पढते है वे सव कपोलकल्पित नहीं होती । हाँ, उनमे मानव-सुलभ अतिगयोक्ति तो होती है। आज भी हमे मत्रशास्त्र के ग्रन्थो मे ऐसे अनेक मत्र मिलते है। परन्तु मत्र के परिणाम की प्राप्ति मत्र के अस्तित्व मात्र से नही हो जाती । कोई भी व्यक्ति कोई भी मत्र लेकर उसे जपने बैठ जाय तो इतने से ही वह मत्र फलदायक नहीं बन जाता । जैसे उसकी उत्पत्ति मे तीन महत्त्वपूर्ण कारण अपना कार्य करते है, उसी तरह उसकी सिद्धि की कुछ निश्चित शर्ते होती है । इसमे प्राय पाँच शर्ते मुख्य होती है - (१) श्रद्धा (२) एकाग्रता (३) दृढता (४) विधि (५) हेतु (उद्देश्य) इनमे सर्व प्रथम आवश्यकता श्रद्धा की है। यहाँ 'श्रद्धा' शब्द का प्रयोग "प्रधश्रद्धा' के अर्थ मे नही किया गया है। जैन तत्त्ववेत्तानो ने बुद्धि तथा श्रद्धा को समान महत्त्व दिया है। उन्होने कहा है कि "श्रद्धा रहित बुद्धि वेश्या है, और Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०१ बुद्धि-रहित श्रद्धा वन्ध्या है !" इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि श्रद्धा रहित बुद्धि मनुष्य को तरह तरह से वन्दर की भाँति नचाती है, और बुद्धिरहित श्रद्धा वन्ध्या की तरह कुछ भी फल नही देती । श्रद्धा और बुद्धि के सुयोग्य मिलन की बात बहुत ध्यान देने योग्य है । जैन तत्त्वज्ञान को ससार मे सर्वाधिक बुद्धिगम्य (Most rational) तत्त्वज्ञान माना गया है । 'यह एक अद्भुत तत्त्वज्ञान है - इस प्रकार की पक्की और सच्ची समझ प्राप्त करने के लिए सर्व प्रथम श्रद्धा से ही प्रारंभ करना पडता है । फिर भी अपनी स्थिति का निश्चित ज्ञान रखने वाले जैन तत्त्ववेत्ताओ का कथन है कि - "श्रद्धा पूर्वक आइये, पर बुद्धि को भी साथ लेकर आइये ।" वे बुद्धि को छोडकर आने की बात नही करते । जव मनुष्य किसी भी वात को श्रद्धा से ही सच मानता है, तब वह श्रद्धा के परिवलो से उस बात पर पूर्णतया आसक्त हो गया होता है । परन्तु उसमे वही वात दूसरो को समझाने की शक्ति नही होती । यदि मनुष्य ने श्रद्धा के परिवल से किसी वात को बुद्धिपूर्वक समझा हो, तो वह स्वयं तो उस बात को भलीभाँति समझता ही है, दूसरो को भी वह बात समझा सकता है । इस संसार मे जो अनेक विचित्रताएँ देखी जाती है, उनमे 'श्रद्धा' भी एक अजीव वस्तु है । समग्र विश्व की कोई भी प्रवृत्ति जब श्रद्धा की धुरी के इर्द गिर्द घूमती हो तभी वह सफल होती है । जिस प्रवृत्ति के मूल मे श्रद्धा न हो, ( ऐसी कोई कदली नही फलती) उसमे सफलता नही मिलती । Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ यदि हम थोडे या बहुत से व्यक्तियों से मिल कर पूछे तो मालूम होगा कि अधिकाश लोग श्रद्धा को मानते ही है । परन्तु इनमें से सब के सब शायद ही 'श्रद्धा' शब्द का अर्थ जानते है । सामान्य अर्थ मे वे 'श्रद्धा' को 'विश्वास' या 'भरोसा' मानते है । परन्तु यदि श्रद्धा के वदले विश्वास के विषय मे उनसे पूछा जाय तो अधिकाश लोग तुरन्त ही यह कह उठेगे, "नही, भाई नही, इस दुनिया में किसी का भी विश्वास करने योग्य नही है ।" विधि की विचित्रता देखिये कि 'विश्वास रखने योग्य नही है' ऐसी व्यापक मान्यता के बावजूद समस्त विश्व का व्यवहार विश्वास पर ही चलता है । परन्तु श्रद्धा का अर्थ वडा गहन और गंभीर है । यह मानना और कहना कि 'इसमे मुझे श्रद्धा है', बडी साधारण, छोटी, सीधी सी बात है। इससे यह फलित नही होता कि ऐसा कहने वाला और मानने वाला व्यक्ति श्रद्धालु है। किसी भी मनुष्य को किसी वस्तु पर जो श्रद्धा होती है उसकी प्रतीति तो तभी हो सकती है जब कि इस विषय मे उसकी परीक्षा ली जाय और उस परीक्षा मे उत्तीर्ण होने को वह तत्पर हो । जिस वस्तु मे खुद को श्रद्धा हो उस वस्तु के लिये श्रावश्यकता पडने पर मर मिटने की अथवा सर्वस्व बलिदान करने की तमन्ना जिसमे हो उसी मनुष्य को 'श्रद्धावान्' कह सकते है | उसके सिवा, केवल शब्दो मे व्यक्त होने वाली श्रद्धा तो भेड़ो के समूह जैसी है, उसे जिस ओर मोडना चाहे उस ओर मुड जाती है । तात्पर्य यह कि मत्रसिद्धि के लिए आवश्यक शर्तों मे जिसे प्रथम स्थान मिला है वह श्रद्धा इस प्रकार की पूर्ण श्रद्धा Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होनी चाहिए । बुद्धिपूर्वक प्राप्त समझ के द्वारा अधिकृत या प्रतिष्ठित श्रद्धा ही फलदायक होती है । उससे रहित श्रद्धा फल नही देती । जो श्रद्धा 'आगे से चली आई है' ऐसे अर्थ वाली (मात्र परपरागत) होती है वह सच्ची श्रद्धा नहीं है। सच्ची इस अर्थ मे नही है कि इस प्रकार की श्रद्धा वाले मनुष्य परीक्षा के समय पानी के बुदबुदे की तरह विला जाते है। __मत्रसिद्धि मे दूसरी महत्त्व की वस्तु “एकाग्रता' है । चित्त की एकाग्रता (Concentration of mind) एक वडी भारी शक्ति है। इसके विना मनुष्य मत्र के विषय मे कोई प्रगति नही कर सकता। स्थिर हुए विना, अनेक प्रकार के मनोव्यापारो मे बिजली की सी गति करने वाला मन एकाग्रता प्राप्त नहीं कर सकता। इस विषय मे मन को तैयार करने के लिए मनुष्य को बडा भारी पुरुषार्थ करना पडता है, मन की एक निश्चित सुव्यवस्थित अवस्था का निर्माण करना होता है। यदि ऐसा न हो सके तो मत्रसिद्धि कभी प्राप्त नही हो सकती। तीसरी शर्त दृढता है । यह भी एक महान शक्ति है। इस दृढता को अग्रेजी मे Power of Perseverance कहते है । मुसीवते श्रावे, आफते अावे, दु ख पडे और अपनी धारणा से अधिक समय लग जाय तो भी इन सबके सामने मनुष्य को दृढतापूर्वक डटे रहना चाहिए । वुद्धि सहित श्रद्धा से युक्त एकाग्रचित्त मे निश्चय-शक्ति तो अपने आप प्रकट होती है। परन्तु जिनमे उस पर दृढतापूर्वक डटे रहने की और कुछ भी हो जाय तो भी अपने प्रयत्न को न छोडने की गक्ति हो उन्ही को सिद्धि प्राप्त होती है। चौथी शर्त 'विधि' से सम्बन्धित अर्थात् विधिपूर्वक Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ (Methodical) साधना करने की है। यह भी एक अद्भुत शक्ति है । तज्ज्ञ पुरुषो से मत्रसाधना की विधि भली भांति समझ लेने के पश्चात् उसका विना किसी भूल के पालन तथा अनुसरण किया जाय-मत्रसिद्धि के लिए यह चौथी महत्त्वपूर्ण शर्त है । इसमे एक खास ध्यान रखने की बात यह है कि पुस्तक के पृष्ठो पर लिखित मत्र अथवा किसी के पास से प्राप्त मत्र सुषुप्त दशा में होते है । जब तक योग्य गुरु से विधिपूर्वक मत्र ग्रहण न किया जाय, तब तक उसमे चैतन्य प्रकट नही होता, वह मत्र तब तक जड रहता है । मत्र है, इसलिए उसकी साधना फलदायक तो होती ही है। फिर भी गुरु के पास से ग्रहण करके 'चेतन' बनाने के बाद उसकी सिद्धि एव शक्ति अद्भुत बन जाती है। 'पाँचवी और अतिम शर्त मत्रसिद्धि के हेतु (उद्देश्य) से सबधित है। यहाँ स्वभावत यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि 'हेतु की विशुद्धता या अयोग्यता के साथ मत्रसिद्धि का क्या सम्बन्ध है ? 'बुद्धियुक्त श्रद्धा, चित्त की पूर्ण एकाग्रता तथा दृढ कार्यक्षमता रखने वाला मनुष्य यदि विधिपूर्वक मत्र साधना करे तो उसमे उसके हेतु की शुद्धता-अशुद्धता से क्या सम्बन्ध है ?' ऐसा प्रश्न उठना स्वाभाविक है ? यह एक बहुत ही ध्यान में रखने की बात है। दुनिया का यह एक अबाधित तथा सनातन सिद्धान्त है कि उद्देश्य की पवित्रता से रहित कोई भी कार्य अन्तत सुखदायक-इष्टप्राप्ति करानेवाले कभी नही हो सकते । उद्देश्य या हेतु से मत्रसिद्धि का घनिष्ठ सबध है। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०५ मनुष्य मन्त्रसिद्धि की कामना शुभ हेतु से करता है, या अशुभ अथवा अशुद्ध हेतु से यह बडे महत्त्व का प्रश्न है। अशुभ हेतु से किये हुए कार्य मे श्रद्धा, एकाग्रता तथा दृढता हो तो काम भले ही बन जाता है, परन्तु उसका परिणाम दीर्घकाल तक निभ नही सकता । इसके अतिरिक्त, इस प्रकार की सिद्धि अन्त मे उसका खुद का भी अहित ही करती है, उसको ही अधोगति के गहरे गर्त मे धकेल देती है; जव कि शुभ हेतु से की गई मत्रसाधना अपने साधक को उत्तरोत्तर शक्ति देतो रहती है और साथ ही उसे निरतर कल्याण के पथ पर भो अग्रसर करती है। यदि कोई मनुष्य-अपनी किसी आपत्ति को दूर करने के लिए, कुटुम्ब के पालन के लिये या भौतिक आवश्यकताओ के लिए मत्र साधना करे तो हम उसे शुभ नही कह सकते; परन्तु वह अशुभ भी नही कहलाएगी। 'शुभ है ।' और 'अशुभ नही है ।'-इन दो वाक्यो के अर्थ मे वडा अन्तर है । किन्तु जो हेतु अशुभ नहीं है, उनको मत्र साधना के लिए अनिष्ट नहीं माना गया। जव तक मनुष्य पराया या अपना कल्याण चाहता हुआ प्रवृत्तियाँ करता रहे, उसमे दूसरे किसी को पीडा अमगल या दुख पहुंचाने की वृत्ति न हो, तबतक हम उसके हेतु को 'अशुद्ध' नही कह सकते । यहाँ जब कि हमने अशुभ हेतुनो की, और जो अशुभ नही है, उन हेतुनो की चर्चा की है तो अव इस बात का भी थोडा सा विचार कर ले कि शुभ अथवा शुद्ध हेतु किसे कहते है। ज्यो ज्यो हम जीवन के हेतु अथवा 'ध्येय' के विषय मे Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ उपयोगिता की दृष्टि से क्रमश विचार करते चलेगे त्यो त्यों हमे नया प्रकाश मिलता जायगा । यह विचार करते करते हमारी विचारधारा नाशवत पर्यायो को छोड़ कर जो ध्रुव स्वरूप है, जो परिरणामी नित्य है, उस श्रात्मा तक अवश्य पहुँचेगी । इस तरह विचार करते करते, इस विश्व के इतिहास को खोजते खोजते, और अपने ग्रास पास- नित्य होती हुई घटनाओ का तात्त्विक विश्लेषण करते करते ग्राखिर हम इस नतीजे पर पहुँचेगे कि जीवन का अतिम ध्येय शरीर और सपत्ति नही चकि आत्मा श्रीर उसको मुक्ति है। बुद्धिमान् श्रीर ज्ञानी लोग ग्रपने श्रेय के लिये लघुदृष्टि को छोड कर दीर्घदृष्टि से काम देते है । जिस विचार या प्रायोजन के पीछे दीर्घ दृष्टि न हो उससे हमे शायद तात्कालिक लाभ हो सकता है, परन्तु दीर्घकाल तक वह हितकारी नही होता । श्रतएव जब भी हमे सपना ध्येय निश्चित करना हो तव 'ग्रात्मा की प्रतिम मुक्ति' - Final Emancipation of the soul - को केन्द्र मे रस कर ही हमे अपने जीवन का ग्रायोजन - Planning करना चाहिए । ग्रात्म- करयारण के साथ सवध रखने वाली एक महत्त्व की बात है, गमस्त विश्व का कल्याण करना श्रीर चाहना । त श्रात्मा के कल्याण के लिए, उसकी ग्रन्तिम मुक्ति के लिए, और उसे लक्ष्य में लेकर परकत्याण के लिए जो कोई मंत्र साधना की जाय उसका हेनु शुद्ध तथा शुभ माना जायगा, क्योंकि उसमे कोई भीतिक स्वार्थ या कामना नही होती । श्रव हम अपनी मत्रसाधना विषयक विचारधारा को Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०७ और आगे बढाते हैं। ऊपर जो पांच शर्तें बताई गई हैं उन्हे नीचे से ऊपर के क्रम मे लेते हुए शुद्ध हेतु या अशुद्ध न हो ऐसा हेतु, तज्ज्ञ पुरुष से प्राप्त विधि, दृढ कार्यक्षमता, पूर्ण एकाग्रता, और बुद्धियुक्त श्रद्धा- इन पांचो वस्तुनो का ग्रामवन लेकर यदि कोई भी मनुष्य मनसाधना करे तो उसे सिद्धि प्राप्त होती है - ऐना शास्त्र का वचन है । परन्तु ये पाँचो चीजे एकत्रित होने मात्र से मत्रमिद्धि फलदायक हो जाती है, ऐसा नही मान लेना चाहिए । यहाँ मंत्र की पसंदगी का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित होता है । हमने पिछले पृष्ठो मे देखा है कि जो भौतिक जीवनमार्ग हमे आध्यात्मिक प्रगति की सीढी तक न ले जाय वह मच्चा जीवन मार्ग ही नही है । उससे सच्चे सुख की प्राप्ति नही होती, क्योकि ऐसे सुखो से पुन दूसरे अनेक छोटे वडे दुखो की उत्पत्ति होती है । इन प्रकार से, जो मत्र स्वयं ही मासारिक सुखप्राप्ति को लक्ष्य मे रख कर रचा गया हो, उस मंत्र की सिद्धि यासिरकार दुखदायक ही होती हे । 'कागविद्या' (कर्णपिशाचिनी विद्या) के उपासको और माधको की कैसी दशा होती है ? मैली विद्या ( काला जादू) के श्राराधको की कैसी हालत होती है ? यह सब देखे तो उपर्युक्त कथा अच्छी तरह समझ में आएगा । एक श्रीर उदाहरण लेते है । एक मत्र हे जिसे ' वशीकरण' कहते है | यह एक वडा ग्राकर्षक मत्र है । ऐहिक सुख के अभिलापी, विशेपत किसी खास स्त्री को पाने की कामना Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ वाले कोई कोई व्यक्ति इस मत्र का आश्रय लेते है । इन पक्तियो के लेखक को ऐसे दो किस्से-सत्य घटनाएँ-मालूम है । किसी स्त्रीविशेष को अपने वश मे करने के लिए सुधबुध खोये हुए दो शक्तिशाली युवको ने इस मत्र की साधना की थी। दोनो को इसमे सफलता प्राप्त हुई थी, और दोनो अपनी अपनी इच्छित रमणियो को वश मे करके उनके साथ शादी कर सके थे । परन्तु वशीकरण मत्र की सिद्धि से पहले ये दोनो स्त्रियाँ अपने अपने प्रेमी युवक को घृणा की दृष्टि से देखती थी। मत्रसिद्धि के बाद मत्रबल से हिप्नोटाइज होकर उन दोनो स्त्रियो ने उन पुरुपो से ब्याह तो किया, परन्तु इसका परिणाम क्या हुआ? एक स्त्री तो मत्र से अभिभूत स्थिति मे केवल कठपुतली बन गयी, और हृदय की उष्मा खो बैठी । उक्त युवक ने जिस सुख की आशा से मत्रसिद्धि का पुरुषार्थ किया था, वह सुख उसे जीवन भर नही मिल सका । और उलटे जोवन भर के लिए उसे महादु ख प्राप्त हुआ। दूसरे किस्से मे स्त्री कुछ अधिक मनोवल वाली थी, इसलिए यद्यपि उसने मत्र के प्रभाव के कारण उस युवक से शादी कर ली, तथापि वह उसे अपना प्रम न दे सकी। इसके बदले उस स्त्री का अपना जीवन नष्ट हो गया। इस घटना में भी एक 'अयोग्य पात्र' को ले आने का दु.ख उस युवक का जीवनसाथी बन गया। उस पात्र मे जिस अयोग्यता ने प्रवेश किया उसका जिम्मेदार वह युवक स्वय ही था-यह बात अभी तक उसके दिमाग मे नही वैठो। इस पर से यह बात सिद्ध होती है कि मनुष्य को मत्र की पसदगी करते समय पूर्ण विवेकबुद्धि से काम लेना Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ चाहिए । मत्र ऐसा होना चाहिए जो स्वय 'सर्वसिद्धिप्रदायक' होने के उपरात साधक को मानसिक एव आध्यात्मिक भावनाओ को भी प्रकट करने और प्रवल बनाने की शक्ति रखता हो। यह मत्र साधक की साधकावस्था की त्रुटियो को स्वयं दूर करने की शक्ति रखने वाला, साधन की अपवित्रता को स्वयं पवित्र बनाने में समर्थ, तथा साध्य (हेतु) को भी स्वयं शुद्ध तथा सुमंगल बनाने में शक्तिमान् होना चाहिए । यह मंत्र ऐसा होना चाहिए जो स्वयं 'पारसमणि' के समान क्षमता रखता हो, स्पर्श मात्र से सोसे को कचन बना दे, और केवल अपनी ही शक्ति से 'साधक, साधन और साध्य'-तीनो का सुनियंत्रण कर सके-ऐसा 'स्वयसिद्ध एवं स्वयसंचालक' हो । ऐसे सुयोग्य मत्रो मे से श्रेष्ठ मत्र इस जगत यदि कोई हो तो वह एक "नमस्कारमहामत्र" है । इस महामंत्र को 'मंत्राधिराज" का मंगल विरुद प्राप्त हैं। सीधे-सादे शब्द और सरल अर्थ वताने वाला यह मत्र सामान्य मनुष्य पर प्रथम दृष्टि मे बहुत बडा या असाधारण प्रभाव नहीं डालता। ___ छोटा सा वालक जब पहलेपहल स्कूल मे पदार्पण करता है तव प्रारभ मे उसे वर्णमाला सिखाई जाती है। वर्णमाला को अच्छी तरह सीख लेने के बाद जवानी मे या बडी उम्र मे उस वर्णमाला को कौन याद करता है ? फिर भी यह कौन नही जानता कि अप्रतिम विद्वत्ता की नीव वर्णमाणा हो है । जैनो के वालको को धार्मिक शिक्षा देने का प्रारभ इस 'नमस्कारमहामत्र' से होता है। उस समय इस मत्र को "नवकार मत्र' के unconspicuous अप्रसिद्ध नाम से पहचाना Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० जाता है | परन्तु यह 'नवकारमत्र' भौतिक जगत की वर्णमाला से लाखो गुनी अधिक शक्ति रखने वाला मत्र है । इस बात का ज्ञान बाद मे चलकर विचार करने से तथा योग्य गुरु के मार्गदर्शन से प्राप्त होता है । यह एक स्वयसिद्ध मत्राधिराज है | यह मंत्र साधक को सुधड बना सकता है, साधन को शुद्ध वना सकता है, और साध्य का भी स्वयं ज्ञान कराता है । परन्तु ऐसा कव हो सकता है ? इस मंत्र मे जो 'सर्वसिद्धिप्रदायकता' है वह कब प्रकट हो सकती है ? इसकी पहली शर्त यह है कि 'हम श्रद्धापूर्वक प्रयत्न के द्वारा, इस मंत्र मे जो सर्वसिद्धिप्रदायकता का अपूर्व भडार भरा हुआ है उसकी बौद्धिक समझ से सुसज्जित हो ।' अव हम इस मंत्र के शब्द - शरीर का निरीक्षण करे - "नमो अरिहताण नमो सिद्धाण नमो आयरियाण नमो उवज्झायाण नमो लोए सब्बसाहूण एसो पचनमुक्कारो सव्वपावप्पासरगो मंगलारण च सव्वेसि पढ महवइ मंगल ।" इन वाक्यो मे प्रथम दृष्टया क्या कोई असाधारणता दिखाई देती है ? पहले पाँच वाक्यो- पदो मे 'अरिहत, सिद्ध, श्राचार्य, उपाध्याय, और सर्वसाधु' इन पाच 'परमेष्ठियो' को नमस्कार Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४११ किया गया है । अतिम चार वाक्यो में इस प्रकार किये गये नमस्कार का फल तथा प्रभाव वर्णित है । फल और प्रभाव वताने वाले इन चार पदो को नमस्कार महामन्त्र के अन्तर्गत ही माना गया है। हमने जो नौ पद अभी पढे, उनका सीधा-सादा और सरल अर्थ निम्नानुसार होता है : १ अरिहत (भगवान्) को नमस्कार करता हूँ। २ सिद्ध ( परमात्मा ) को नमस्कार करता हूँ। ३ आचार्य ( भगवत ) को नमस्कार करता हूँ। ४ उपाध्याय (महाराज को नमस्कार करता हूँ। ५ लोक मे रहे हुए सर्व साधु महाराजो को नमस्कार __ करता हूँ। ६ इन पाचो को किया हुआ नमस्कार ७ सर्व पापो को नाश करने वाला है । ८ और सर्व मगलो मे ६ प्रथम (उत्कृष्ट) मगल है। सीधा-सादा दिखाई देने वाला यह मत्राधिराज कितना अर्थगम्भीर है-इस बात का शीघ्र ही खयाल आ जाना सभव नहीं है। फिर भी इसमे रही हुई गहन और गूढ अर्थगभीरता के विषय मे विचार करने से पहले म यह देखेंगे कि जिन्होने इस महामन का अशत स्वाद अनुभव किया है वे लोग इस विषय मे क्या कहते है । प्रारभ श्रद्धा से करना । इस श्रद्धा को वाद मे बुद्धिगम्यता से अल कृत करेगे। __ "यह नवकार मत्र सभी शास्त्रो का सार रूप है । यह मत्र अचित्य प्रभावशाली है। इसका प्रभाव न केवल मनुष्यो Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ को, अपितु देवो तथा दानवो को भी आकर्षित करता है। इससे सभी मनोरथपूर्ण होते है । यह मत्र तमाम विघ्नो को दूर करता है । इस मत्र के प्रभाव से सब प्रकार की बाधाएं तथा आपत्तियाँ (उपसर्ग) नष्ट होती है । यह मत्र जगल मे मगल करने वाला, चिंतामणि रत्न के समान, कल्पवृक्ष और कामघेनु से अधिक अभीष्टदायक और शून्य मे से सृष्टि वना देने वाला है । इस मत्र के सेवन से सब प्रकार के पाप नष्ट होते है । यह मत्र इह लोक और परलोक मे मुख सामग्री और अपूर्व ऋद्धि सिद्धि की प्राप्ति कराता है । इस मत्र के प्रभाव से निकाचित और निविड़ कर्म की निर्जरा होती है । जन्म-जन्म के पाप इसके पावक जापरूपी जल से धुल जाते है, आत्मा दुर्गति के घोर दुखो से बच जाता है । कर्म के वन्धन से मुक्ति पाकर शुद्ध निर्मल और पवित्र बना हुआ आत्मा इस मत्र के प्रभाव से ही अपना शुद्ध स्वरूप प्रकट करता है और केवलज्ञान प्राप्त करता है। "प्रात काल इसका स्मरण करने से सारा दिन परममगलमय तथा आनन्दकारो वनता है । जन्म लेते हुए बालक को जन्म के समय यदि यह मत्र सुनाया जाय तो उसका समस्त जीवन परम सफल तथा यगस्वी वनता है । पापात्मा को उसकी मृत्यु के समय सुनाया जाय तो वह सद्गति पाता है । "यह मत्र चीटी को कन, हाथी को मन, दुखी को सुख, सुखी को सन्तोष और सन्तोपी को परम सामर्थ्य देता है । जिन-जिन को तीव्र अभिलापा जगे उन सवको सब प्रकार की सिद्धियाँ प्रदान करने की उच्च और उत्कृष्ट गक्ति इस स्वयं सिद्धमंत्र मे है । यह सर्वसिद्धिप्रदायक मत्राधिराज है, मत्रशिरोमणि है। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३ इस नमस्कार महामंत्र की शक्तियो और सिद्धियो के विषय मे अनादि काल से अनेक अनुभवसिद्ध महापुरुषो ने इतना सारा लिखा है, इस मंत्र के एक एक अक्षर मे रही हुई शक्तियों का वर्णन इतना विस्तारपूर्वक किया है कि उसे पढने के और समझने के लिये सौ वर्ष का आयुष्य भी कम है । इस मंत्र मे इतना सारा, ऐसा सब क्या है ? क्या जवाव ? इस महासिधु के एक अत्यल्प विदु का जो अनुभव हुआ है उसका वर्णन करने के लिए भी शब्द नही मिलते । मुख्यतः तो यह अनुभव का विषय है । इसका सामान्य ज्ञान प्राप्त करने के लिए ऐसे महानुभाव साधु पुरुषो का सत्सग प्राप्त करना आवश्यक है जिन्हे इसका पर्याप्त अनुभव हो । विद्यमान जैन आचार्यों तथा मुनि महाराजो मे से इसके अनुभव वाले किसी विरले महात्मा के पास जाइए, श्रद्धा और जिज्ञासा लेकर जाइए, तो आप को निराश नही होना पडेगा । इस महामत्र मे जो 'नमो' शब्द है, उस एक ही शब्द के धारण तथा अगीकरण के लिए हमारे पास असाधारण योग्यता होनी चाहिए । जव हम शिष्टाचार के लिए 'मै नमस्कार करता हूँ, वन्दन करता हूँ' - ऐसे शब्द कहते है तब यह न मान ले कि हमारे द्वारा नमस्कार या वन्दन हो जाता है । "जब तक ऐसी आत्मप्रतीति न हो कि मै केवल नमस्कार करने के ही योग्य हूँ, तब तक कोई भी नमस्कार फलदायक नही होता । यह आत्मप्रतीति अपने आप मे एक विशिष्ट प्रकार की और उच्च पात्रता है । हमारे भीतर क्षरण क्षरण, जाने-अनजाने, हर समय और हर जगह जो अहंभाव Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ घर किये रहता है उसे जब तक हम पूर्णतया छोड़ न दें तब तक हममे पूर्ण और शुद्ध नमस्कारभाव प्रकट नहीं होता। यह भाव कव प्रकट होता है ? यह भाव तभी प्रकट होता है जब हमारी समझ जिनके विषय मे हम नमस्कार-भाव का चितन करते हो उनके साथ अर्थात् उनके सद्गुरगो तथा प्रभावो के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेती है। तो इस मत्र मे हम नमस्कार किसे करते है ? इसे 'पचपरमेष्ठिनमस्कार' कहते है । अरिहत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधुगण-पच परमेष्ठि को-महान परमात्मतत्त्व को उद्देश कर हम नमस्कार करते है। आत्मा के शत्रुनो का अर्थात् इस ससार मे रममारण तमाम आत्मानो को सद्गति और शिव लक्ष्मी प्राप्त करने में वाधा डालने वाले तमाम शत्रुओ का जिन्होने हनन किया है, ऐसे अरिहत परमात्मा को, सभी कर्मो का क्षय करके सिद्धत्व प्राप्त किये हुए सिद्ध भगवन्तो को, हमे इस मार्ग का यथार्थ ज्ञान देने वाले कुलपति-आचार्यों को, इस ज्ञान की प्राप्ति मे हमारी सहायता करने वाले प्राध्यापक-उपाध्यायो को, और जिनका चित्त इस मार्ग पर क्रियाशील बना है, ऐसे सभी साधुजनो को हम नमस्कार करते है। पच परमेष्ठी के विशिष्ट गुणो को व्यक्त करने के लिए स्थान, समय और शक्ति के अभाव के कारण, यह लेखक केवल इतना नम्रतापूर्वक सूचित करता है कि इस विषय मे जैन प्राचार्य महाराजो का सम्पर्क साधकर सत्सग प्राप्त करने से जितना प्रकाश मिल सकता है उतना अनेक सूर्यसमूह एकत्रित होकर भी नहीं दे सकते। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१५ परन्तु एक महत्त्व की बात याद रखे। आज इस जगत मे यह मत्राधिराज 'नमस्कार महामत्र' ही एक मात्र ऐसा मत्र है जिसके रटन से मनुष्य मात्र की तन, मन और धन की सारी नाकाक्षायो का शुद्धिकरण, उत्क्रातिकरण, और अ:करण होता है । अन्य किसी भी प्रकार के लम्बे चौडे विचार किये विना केवल इन महामन्त्र के रटनमात्र को ही ध्येय बना कर यदि इसका रटन करना शुरू कर दिया जाय तो उससे रटन करने वाले के समस्त जीवन का कार्य-भार यह मत्राधिराज अपने ऊपर ले लेता है। नमस्कार महामन की गरण मे जाने वालो के लिए यह नमस्कार महामन स्वय पिता है, स्वय गुरु है, स्वय देव है, स्वय धर्म है, स्वय उद्धारक है और स्वय तारक है । यह महामत्र स्वय अपने साधक की सभी विवेकयुक्त भौतिक कामनायो को पूर्ण करता हुआ, सभी प्रकार के सकटो को नष्ट करता हुआ, देह, आत्मा एव परिवार की रक्षा करता हुआ, उसे पूर्ण प्रोर अनन्त सुख की ओर खीच ले जाता है । आपको सुधासरोवर के तट पर लाकर खडा कर दिया गया है। अमृत-रस आँखो के सामने दिखाई देता है। यह आपको प्रेमपूर्वक-आग्रहपूर्वक प्रामत्रण देता है कि आप उसका आस्वाद लेकर घन्य बने । खडे खडे देखते रहने से क्या लाभ है ? इसमे हाथ डालिये, इसमे से कुछ बूदे करकमल में ग्रहण करके अपनी जिहा पर रखिये, फिर जो अनुभव होता है उसका परम आनन्द स्वय भोगिये । Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदा 'वाच्य और वाचक' की यह सत्सगी मुलाकात अपने सिरे पर आ पहुँची है । 'नमस्ते, पधारियेगा' आदि मंगल - शब्दध्वनि के द्वारा हम अलग हो उससे पहले नेत्रो को 'दो मिनट ' का विराम देकर हम इष्ट मंत्र का ध्यान कर ले - *** ...... 4540 .. ... www. " .. 9000 .. ... .. 1000 ** .... .. • 3000 0448 . दो मिनट का मौन पूर्ण करके अब हम चिन्तन करने योग्य दो उत्कृष्ट भावो को अपने हृदय में धारण करे: ( १ ) खामि सव्वजीवे, सव्वे जीवा खमतु मे, मित्ती मे सव्वभूएसु बेर मज्भ न करणइ । ( २ ) शिवमस्तु सर्वजगत. परहितनिरता भवन्तु भूतगरणा, दोषा प्रयान्तु नाग, सर्वत्र सुखी भवतु लोक. । अच्छा तो फिर, नमस्ते - Page #435 --------------------------------------------------------------------------  Page #436 --------------------------------------------------------------------------  Page #437 -------------------------------------------------------------------------- _