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18 the fulerum of all the universal substances अर्थात् विश्व के सनस्त तत्त्वभूत पदार्थों का "उत्पादत्र्ययधोव्ययुक्त सत्" ही मूलाधार है और स्यादवाद दर्शन की इमारत इसी बुनियाद (Foundation) पर ही निर्माण हुई है। जैन आगम शास्त्रो का स्पष्ट कथन है कि तीर्थकर महाप्रभु अपने जन्म जन्म की जीवनयात्रा में अहिसा के आदर्श सिद्वान्तो को अमल में रखते हुए और सर्वोट संयम की साधना करते हुए और तीव्रातितीव्र तप की आराधना करते हाए त्रिभुवनप्रकाशक केवल-जान ज्योति को प्राप्त करते है, तव नैसर्गिक नियमानुसार ( Natural Law) अखिल ब्रह्माण्ड में दिव्य आन्दोलन ( Cosmic Vibration ) होता है और उस आकर्पण से देव देवी, नर नारी और पशु पक्षी सब आदर एवं पूज्य भाव से उनके ( तीर्थकर भगवन्त के ) दिव्य दर्शन और दिव्य बनि का लाभ उठाने के लिये समवसरण ( Cosmic congiegation ) में सम्मिलित होते है, तब श्री तीर्थकर भगवन्त तीर्थ को स्थापना करते है और उस प्रसग पर सब से प्रथम प्रभु के पाद कमलो में आत्म-समर्पण (Unconditional sultender) करने गले प्रज्ञाप्रौढ पुण्यवन्त पुरुप जो उनके प्रधान शिष्य एव गणधर कहलाते है, वे विनयपूर्वक प्रणाम करते हुए प्रश्न करते हैं कि-भते । कि तत्त , कि तत्त १ तत्त्व क्या है, तत्त्व क्या है ? प्रत्युत्तर में अनन्त कृपालु भगवत मधुर वाणी से फरमाते है कि-"उग्पन्नेड वा, विगमेड वा, धुवेइ वा" व "उत्पाद व्यय ध्रौव्य" पदार्थ का स्वभाव ही तत्त्व है। इस त्रिपदी का ही स्याद्वाद दर्शन मे ससार के संचालन का मूलाधार कहो चाहे ब्रह्माण्ड का वीज अथवा द्वादशाङ्गी वाणीगङ्गा का हिमाचल कहो अर्थात् यही सब कुछ है। कहने का तात्पर्य यह है कि समस्त तत्त्वभूत पदार्थ जिनको जैन परिभाषा में द्रव्य (Substances) कहते है वे उत्पाट व्यय और ध्रौव्य लक्षण वाले अनादि