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प्रस्तावना
इस विशाल एवं विराट विश्व का पदार्थविज्ञान इतना गहन प्रवल और चित्रविचित्र है कि केवल कल्पना बुद्धि और तर्क से कोई भी दर्शनवेत्ता (Philosophe 1 ) सत्य का साक्षात्कार कर ही नही सकता, इसलिये तटस्थ तत्त्वचिन्तकों (Thinkers) को “स्वभावोऽतर्क गोचर " निर्विवाद कहना पड़ता है । सत्य का साक्षात्कार करने का सर्वोत्तम उपाय यह है कि चाहे बुद्धि पहुॅचे या न पहुॅचे परन्तु अपनी दृष्टि के अनुसार सृष्टि को समझने का कढाग्रह छोड़कर सृष्टि के अनुसार दृष्टि को दौड़ाने का प्रयत्न करना चाहिए । इस अटल सिद्धान्त की भूमिका पर सृष्टि का अवलोकन करने के पश्चात् दर्शनशास्त्रो का अध्ययन किया जावे तो स्यावाट दर्शन जो अनेकान्तवाद, आर्हत दर्शन या जैन दर्शन के नाम से संसार मैं प्रसिद्ध है, उसको कभी भी संशयवाद, शुष्कवाद अथवा शून्यवाद कहने का स्थान ही नही रहता और जिन २ दार्शनिक विद्वानो ने स्याद्वाद की मौलिक मान्यता “एकस्मिन् वस्तुनि सापेक्षरीत्या विरुद्वनानावर्मस्वीकारो हि स्यादूवाद" के सामने अपने मताग्रह के अभिनिवेश में "नैकस्मिन्नसभवात्" की आवाज उठाने मे अपनी वाक्पटुता का जितने २ प्रमाण में प्रदर्शन किया है उतने प्रमाण में इस आधुनिक विज्ञान (Modern Science) के युग में अपने ही विचारक एव तत्त्वशोधक अनुयायियों के बीच में उन्हें विशेष हास्यपात्र बनना पड़ा है ।
आधुनिक विज्ञान अनुमान पर नहीं परन्तु अनुभूति की भूमिका (Experimental Ground) पर खडा रह कर उदूघोषणा कर रहा है कि Permanance underlying change