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पर दृष्टि स्थिर हो जाय, फिर भी मनुष्य भौतिक सुख के आकर्षण के कारण पापाचरण से मुक्त न हो सके, श्रीर स्वार्थ-वग पाप कर्म करता रहे उसे 'अवरति सम्यग्दृष्टि' कहते हैं ।
इस स्तर पर ग्रात्मा की ग्रान्तरिक अवस्था सम्यग्दृष्टि होते हुए भी बाहर से वह 'मिथ्यादृष्टि' की तरह हिसादि कर्म करता रहता है । फिर भी मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व में जो भेद है वह यहाँ भी रहता ही है ।
मिथ्यादृष्टि में केवल स्वार्थ और भौतिक सुखो की प्राप्ति पर ही दृष्टि होती है, और इस तरह किये जाने वाले दुष्कृत्यों के प्रति ऐसे मनुष्य की सद्भावना होती है । मिथ्यादृष्टि आत्मा अपने अपकृत्यों का पश्चात्ताप करने के बदले प्रसा करता है, अनुमोदन करता है, और इस प्रकार से प्राप्त की हुई सिद्धियो पर गर्व करता है ।
सम्यग्दृष्टि ग्रात्मा श्रासक्तिवग, लाचार होकर दुष्कृत्य तो करता है, परन्तु उसे इसका दुख सालता ही है । वह पश्चात्ताप करता रहता है और उसमें से छूटने मे प्रयत्नशील रहता है । मिथ्यादृष्टि को पुण्यपाप का अन्तर समझ मे नही श्राता, जब कि सम्यग्दृष्टि ग्रात्मा यह अन्तर समझना है, और न करने योग्य कर्म करते हुए भी वह उनसे 'प्रतिक्रमण' करने मे-पीछे लौटने मे - प्रयत्नशील एव जाग्रत रहता है। एक ही प्रकार के कर्म करते हुए भी मिथ्यादृष्टि तथा सम्यग्दृष्टि मे यह वडा महत्त्वपूर्ण अन्तर है ।
सम्यग्दृष्टि ग्रात्मा मे मात्त्विकता प्रकट हुई होती है, जव कि मिध्यादृष्टि ग्रात्मा कभी कभी सत्कार्य करता हो तो भी