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दूसरी योर खिचता है और उसका नियम उसे शाकाहार की प्रोर खीच रखता है । उसी के समान यह स्थिति है ।
तत्त्व के प्रति रुचि भी न हो योर अरुचि भी न हो ऐसा सम्यक्त्व र मिथ्यात्व के मिश्रण रूप आत्मा की अत्यन्त विपम प्रवस्था बनाने वाला यह ग्रव्यवसाय है । 'यह सच है या वह सच है' ऐसी उलझन में पड कर दोनो हाथो मे दोनो को रखने वाले मथनकाल की यह ग्रवस्था है । श्राखिर तो दो मे से एक छूट जाता है । यदि मिथ्यात्व छूट जाय तो सम्यक मार्ग की ओर उसकी विकामयात्रा आगे बढती है । यदि सम्यक्त्व छूट जाय तो फिर वह नीचे गिरता है, उसकी सारी मेहनत पर पानी फिर जाता है, और वह जहाँ था वही पुन लौट आता है । इस गुणस्थानक की मथनात्मक अवस्था अल्पकाल के लिये होती हे |
हम इस गुणस्थानक को 'मथनसदन' कह सकते है । इस मथन से मुक्त हो कर विकासयात्रा को ऊर्ध्वगामी बनाने का साधन है 'विवेक' अर्थात् सारासार को पूर्ण समझ । यदि आत्मा इस मथनकाल मे विवेकबुद्धि का यथार्थ उपयोग करे तो वह नीचे गिरने से बच जाता है ।
यहाँ पर मिश्र भाव स्पष्ट करने के लिये शास्त्रो मे नारियन्न -- द्वीप के मनुष्य का दृष्टान्त श्राता है । यह मनुष्य ग्रन्न को जानता ही नही, ग्रत उस ग्रन्न के प्रति रुचि या ग्ररुचिकुछ भी नही है । इसी तरह यहाँ पर सम्यक्त्व के प्रति रुचि या ग्ररुचि नही होती |
४ अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानक
सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाय, निश्चय पूर्वक सत्य - मार्ग