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३४१ उसकी स्थिति तामसिक होती है । सम्यग्दृष्टि प्रात्मा को अविरति मे से छूट कर विरति मे प्रयत्नशील होने की वडी प्रवल, ज्वलन्त अभिलापा होती है। पाप कर्म मे से विरत (मुक्त) होना ही 'विरति' है और पापाचरण से विरत न होना 'अविरति' है । ये दोनो पारिभापिक शब्द है। __इस गुणस्थानक मे सम्यग्दृष्टि के बावजूद 'अविरति' (अशुभ आचरणो की प्रवृत्ति भी) रहती है, अत इसे 'अविरत' सम्यग्दृष्टि नाम दिया गया है । वह रतर आत्मविकास की मूल आधारभूमि है, इसलिए यदि हम इसे 'विकास-सदन' नाम दे तो उचित ही होगा।
उस स्थानक मे से आगे बढ़ने का उपाय 'अणुव्रतपालन' है । यहाँ श्री नवकार मत्र की निष्ठा तथा रटन अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होता है । यह चतुर्थ गुणस्थानक प्राथमिक भूमिका वाले सभी आत्मानो का क्रमिक लक्ष्य-स्थान (Coneted place) है, और यह यात्मा के विकासक्रम की निश्चत हो एक अागास्पद भूमि है।
(५) देशविरति गुरणस्थानक -
जेन तत्त्ववेत्तानो ने आत्मविकास के अमूल्य साधनस्वरूप दो प्रकार के मार्ग बतलाये है-एक देशविरति और दूसरा सर्वविरति । निसदेह देशविरति मे से सर्वविरति मार्ग पर आना ही पड़ता है । इनमे से 'देशविरति' मार्ग ससार मे रहे हुए गृहस्थो के अनुसरण करने के लिये है और दूसरा सर्वविरति मार्ग वैराग्य प्राप्त कर साधु बनने वाले त्यागी वर्ग के अनुसरण के लिये है । समार मे रहने वालो की सीमानो को लक्ष्य मे रखकर 'देशविरति' मार्ग मे त्यागमागियो की अपेक्षा