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करते है ।' 'स्यात्' शब्द का प्रयोजन, नयो की सापेक्षता सूचित करने के लिये भी है । परस्पर विरोधी गुणधर्मों का एक ही वस्तु मे स्वीकार करने, श्रौर ऐसा करके उस स्वीकार को उचित एव मत्य सिद्ध करने के लिये ही 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया गया है । यह पहले ही समझा जा चुका है कि 'स्यादवाद' सिद्धान्त की आवश्यकता तथा विशिष्टता इसी कारण है ।
नय की चर्चा करते हुए प्रमाण विषयक सामान्य जानकारी हमे मिल गई है । इसी प्रकार इस विवेचना को आगे बढाने से पहले दूसरी एक बात को समझ लेना उचित होगा । यह बात नय को समझने में 'प्रमाण' की पेक्षा अधिक उपयोगी है । हम यागे देख चुके हैं कि प्रत्येक वस्तु सामान्य एव विशेष— यो उभय रूप मे होती है। इसका यह अर्थ हुआ कि, जब हम किसी भी एक वस्तु की बात करते है, तब सामान्य अर्थ में उस वस्तु की बात करते है, या विशेष अर्थ मे, इस पर ध्यान देना और दिलाना श्रावश्यक है ।
यदि वस्तु के सामान्य अथवा विशेष अर्थ का खयाल किये विना कुछ कहा जाय तो ग्रर्थ का अनर्थ हो जाना बहुत सभव है । उदाहरण के तौर पर किमी मार्ग पर चलते हुए हमे एक अपरिचित सज्जन मिल जाते है और बताते है कि, "आगे दाहिनी ओर का रास्ता बन्द है ।" वह एक सामान्य अर्थ है । 'मरम्मत चालू होने के कारण वाहनो का ग्राना जाना बन्द है ।' ऐसा विशेष अर्थसूचक वाक्य प्रयुक्त न किया जाय तो सभवत हम लौट जाएंगे, और इस कारण हमारा कार्य विगडेगा या उनमें विलम्ब होगा |