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परीक्षा में सर्वप्रथम उत्तीर्ण हुआ है' जब इस प्रकार से कहेंगे तब उसके वर्ग की अपेक्षा से यह 'सत्यवचन' हे । लेकिन दूसरी कक्षाओ के परिणाम के बारे में जब हम विचार करेगे तब, दूसरी पेक्षा से, वह 'ग्रसत्य वचन' भी है ।
एक दूसरी बात ले । सभी लोग इस बात को अवश्य स्वीकार करेगे कि एक चीज जिस आधार पर टिक रही हो वह ? उस आधार से कभी भिन्न हो ही नही सकती । शरीर का सारा हिस्सा, ग्रपने दो पैरो पर ग्राधार रखकर चलता है तथा स्थिर रह सकता है । यहाँ पैर, क्या उसके शरीर से भिन्न है ? कदापि नही |
ठीक इसी तरह, सत्य का अस्तित्व असत्य के आधार पर ही निर्भर है । इस वात को बड़े गौर से सोचिये । यदि 'असत्य' का अस्तित्व न होता तो फिर 'सत्य' की क्या आवश्यकता थी ? यदि असत्य न होता तो फिर 'सत्य' की भला कौन पूछ करता ? जगत् में 'असत्य' है इसीलिये 'सत्य' है 'सत्य' है इसीलिये 'असत्य' है । दोनो का अस्तित्व एक दूसरे पर ही निर्भर है । यदि दोनो मे से एक को दूर कर दे तो दूसरा स्वय श्रदृश्य हो जाता है । एक की अनुपस्थिति में दूसरा निरर्थक बन जाता है । इससे यह हमारी समझ मे स्पष्ट आ जायेगा कि 'सत्य' और 'असत्य' दोनो एक ही में समाये हुए है । एक साथ हिले मिले है ।
सत और असत् ये दोनो अलग-अलग तत्व नही है इसका स्पष्ट दर्शन तो हमे तब होगा जब कि हम अनेकातवाद के आधार पर उनकी जाच करे। एक का अस्तित्व दूसरे के अस्तित्त्व