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७६ है ' जो निन्य है वही भना अनित्य कसे हो सकती है एक ही चीज में दो परस्पर विरोधी धर्मों का होना उन्हे आवागपुनमवत् लगता है।
नका मुग्य कारण तो यह है कि उन्होंने एक चीज को एक ही पहलू ने, एक ही स्वरूप में देखा है और दूसरे स्वरूप दूसरे पहलुओ को देखने की कोगिन तक नही हो । नत्य मे भना अमत्य ना होना कैसे नभव है ? यह एक सीवा सादा प्रश्न है। इसका सीव-मादा जवाब टने के लिये यदि हम प्रतिदिन के ऐसे अनेक अनुभवों को याद कर नो ऐसी बहुत सी बाते हमे देखने को मिन्नगी। गमे याद रखने योग्य विगेप बात तो यह है नि जनतन्त्रवेनानी ने वन्तु के पूर्ण वित्व को अपनी दृष्टि के सामने ग्जकर यह बात कही है, किसी एक हिम्मे या स्वरूप के सम्बन्ध में वह बात नही की।
पानी में उत्पन्न होने वाले सिघाडे की ही बात लीजिये । वह बाहर में काला और भीतर से सफेद है। यदि उमके विषय मे अलग अलग कहना हो तो 'काला' अथवा 'सफेद' इस तरह दो बाते कह सकते है। परन्तु नमस्त त्प मे वह 'काला और सफेद है'-ऐमी एक ही बात कहनी होगी।
एक मनुप्य के लिये हम "गौर वर्ण" इस शब्द का प्रयोग करेंगे लेकिन समस्त मनुष्य जाति के लिये हमे अनेक रगो की बात एक साथ करनी होगी।
पूर्णचन्द्र मुखोपाध्याय नाम का एक विद्यार्थी जो अपनी कक्षा में सर्वप्रथम उत्तीर्ण हुअा है उसके लिए 'यह विद्यार्थी